Sunday, December 31, 2017

यह अभयदान क्यों?

टिप्पणी
अवैध होर्डिंग्स के संबंध में राजस्थान पत्रिका के शनिवार के अंक में खबर तथा विशेष संपादकीय प्रकाशित होने के बाद नगर परिषद का अमला हरकत में जरूर आया, लेकिन आधी अधूरी कार्रवाई से कई सवाल फिर भी खड़े कर गए। हां, इतना जरूर है कि शनिवार को शहर के प्रमुख चौक चौराहों व बिजली के खंभों पर टंगे होर्डिंग्स कहीं नगर परिषद ने उतारे तो कहीं लगाने वाले से ही उतरवाए। खैर, जिस अंदाज में होर्डिंस/ बैनर हटे हैं, उससे कम से कम यह उम्मीद तो बंधी है कि परिषद प्रशासन कार्रवाई तो कर सकता है। फिर भी यक्ष प्रश्न बना रहा कि इतनी बड़ी संख्या में होर्डिंग्स व बैनर लगे थे, लेकिन किसी पर भी जुर्माना क्यों नहीं हुआ? नगर परिषद ने जुर्माना लगाने में रहम बरता तो आखिरकार किसलिए? खैर, इस दरियादिली की वजह तो परिषद प्रशासन को पता है, लेकिन यह दरियादिली संदिग्ध लगती है और कहीं न कहीं संदेह पैदा करती है।
वैसे श्रीगंगानगर में पिछले दो साल में संपत्ति विरुपण के डेढ़ दर्जन मामले भी दर्ज नहीं हुए हैं। और जो दर्ज हुए हैं, उन्हें नगर परिषद के जिम्मेदारों ने एक तरह से 'लावारिस' छोड़ दिया है। आज कोई भी अधिकारी उन मामलों की प्रगति रिपोर्ट बताने की स्थिति में नहीं है। यह सब आधी-अधूरी कार्रवाई का ही नतीजा है। तभी तो हर कोई, कहीं पर भी अपना होर्डिंग या बैनर टांगने की हिमाकत कर बैठता है। बहरहाल, नगर परिषद ने जिस तरह की दरियादिली दिखाई है, उससे लगता नहीं कि अवैध होर्डिंग्स लगाने वालों में किसी तरह का डर पैदा हुआ है। हालात यही रहे तो शहर का फिर से बदरंग होना तय मानिए, क्योंकि भय के बिना प्रीत नहीं होती।
खानापूर्ति वाली कार्रवाई कर परिषद अमला तात्कालिक रूप से भले ही वाहवाही बटोर ले, लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं हैं। कानून तोडऩे वालों को, नियमों का मखौल उड़ाने वालों पर जुर्माना होता तो कड़ा संदेश जाता। जब तक संपत्ति विरुपण अधिनियम की कड़ाई से पालना नहीं होगी, अधिनियम के तहत किसी को जुर्माना व सजा नहीं होगी तो मनमर्जी और दरियादिली का यह खेल इसी तरह चलता रहेगा।
बड़ा सवाल तो यह भी कि परिषद प्रशासन कानून तोडऩे वालों के खिलाफ सजा व जुर्माने लगाने की हिम्मत क्यों नहीं करता? परिषद प्रशासन की इस लुंजपुंज भूमिका से संदेह पैदा होना लाजमी है, और जब तक यह संदेह रहेगा, तब तक ईमानदार कार्रवाई, जुर्माने तथा सजा की बात करना ही बेमानी है। बिना कार्रवाई किए छोडऩा तो एक तरह का अभयदान देने जैसा ही है और कसूरवारों को अभयदान देना भी अपने आप में एक बड़ा संदेह है। चाहे वो मजबूरी का हो, मिलीभगत का हो या फिर किसी दबाव
 का।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 31 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित

मिलीभगत या मजबूरी?

टिप्पणी
शहर फिर बदरंग हो चला है। चुनावी साल होने के कारण जगह-जगह पोस्टरों व बैनरों से अटा पड़ा है। बधाई देने वालों में जबरस्त होड़ मची है। कई तो नए साल, लोहड़ी, संक्राति व गणतंत्र दिवस की बधाई भी एक साथ ही दे रहे हैं ताकि पोस्टर/ बैनर लंबे समय तक लगे रहे। पूर्व मंत्री के जन्मदिन की बधाई लिखे होर्डिंग्स से तो पूरा शहर ही पाट दिया गया है। शायद ही कोई चौक या खंभा छोड़ा होगा, जिस पर बधाई संदेश न टंगे हों। समूचे शहर को बेरहमी के साथ बदरंग कर दिया गया है। चौक -चौराहों पर टंगने की इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। यहां तक कि कई संगठन भी प्रचार की इस सस्ती भूख के आगे नतमस्तक दिखाई देते हैं। अन्य जगह तो परिषद प्रशासन अपनी साइट का हवाला भी दे देता है, लेकिन शहर के प्रमुख चौकों के बीचो-बीच बांस की बल्लियां लगाकर बधाई संदेश टांगना तो सरासर 'दादागिरी' है, मनमर्जी है। चाहे चहल चौक हो या सुखाडिय़ा सर्किल सब के सब बदरंग हैं। शहर के चौक-चौराहों की सुंदरता को बदहाल करने में नियम कायदों को सरेआम ताक पर रखा जाता है। यह खेल हर साल बदस्तूर चलता है। बड़ी बात तो यह है कि शहर को बदरंग होने से बचाने वालों की कोई हलचल दिखाई नहीं देती। इस खेल में जरूर या तो कोई मिलीभगत है या मजबूरी? वरना इस तरह हिमाकत कौन कर सकता है? कार्रवाई के नाम पर नगर परिषद के हाथ बंधे हुए हैं, क्यों बंधे हैं? क्या कारण हैं? यह भी अपने आप में राज हैं। परिषद की भूमिका लगातार उदासीन ही रही है। शर्मनाक बात तो यह है कि जनप्रतिनिधि ही जब इस तरह कानून का मखौल उड़ा रहे हैं तो फिर ऐरे- गैरे, नत्थू खैरों व छुटभैयों का हौसला तो बढ़ेगा ही। शहर में जिस तरह के हालात हैं, उससे लगता नहीं हैं कि शहर के बदरंग करने वालों में किसी तरह का भय है। जिस अंदाज में पोस्टर/ बैनर लग रहे हैं, इससे यह भी लगने लगा है कि शहर में व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाले हालत हो गए हैं। यही कारण था कि पिछले दिनों शहर के एक जागरूक अधिवक्ता ने शहर को बदरंग करने वालों व जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। इसके बावजूद बदलाव या कोई हलचल दिखाई नहीं दी। ऐसी परिस्थितियों में अब अधिवक्ता की तर्ज जैसा ही करने की जरूरत है। यह खेल बहुत हो चुका है। अब यह शहर मुकम्मल कार्रवाई चाहता है। नासूर बनती यह समस्या अब स्थायी हल चाहती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 30 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

Friday, December 29, 2017

हॉल्कर स्टेडियम में बरसे रिकॉर्ड

 यूं ही
इंदौर के हॉल्कर स्टेडियम पर शुक्रवार को भारत व श्रीलंका के बीच खेले गए टी टवेंटी क्रिकेट मैच की याद क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में ताउम्र रहेगी। इस मैच में चौकों व छक्कों के साथ-साथ रिकॉडर्स की मूसलाधार बारिश ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। भारतीय पारी की बात करें तो मात्र 120 गेंद पर 260 रन बन गए। इनमें 21 चौके और इतने ही छक्के। मतलब 210 रन केवल चौकों व छक्कों से ही बने। इसी तरह श्रीलंका की पारी देखी जाए तो उसने 17.2 ओवर में 172 रन बनाए। उसके बल्लेबाज एंजेलो मैथ्यूज बल्लेबाजी के लिए नहीं आए। श्रीलकां के बल्लेबाजों ने भी दस छक्के तथा 11 चौके लगाए। वैसे इनसे ज्यादा तो हमारे रोहित ने ही लगा दिए थे। इस तरह श्रीलंका की पारी के भी सौ से ऊपर रन चौकों व छक्कों से आए। दोनों टीमों के ओवर मिलाएं तो 37.2 ओवर में 432 रन बने। सोचिए किस अंदाज से धुनाई या कुटाई हुई होगी गेंदबाजों की। रोहित शर्मा ने तो धुंधाधार बल्लेबाजी की। उन्होंने मात्र 43 गेंदों पर 118 रन ठोक दिए। इनमें 12 चौके व दस छक्के शामिल रहे। रोहित का शतक भी टी टवेंटी में सबसे तेज शतक के विश्व रिकॉर्ड की बराबरी कर गया। दक्षिण अफ्रीका के बल्लेबाज डेविड मिलर 35 गेंदों पर बांग्लोदश के खिलाफ शतक बना चुके हैं। के राहुल भी आज पूरी फॉर्म में थे लेकिन बदकिस्मती से शतक नहीं बना पाए। उनके पास शतक पूरा करने को भरपूर मौका था लेकिन श्रीलंका के विकेटकीपर डिकवेला ने शानदार कैच लपकते हुए उनके सपनों पर पानी फेर दिया। राहुल की 89 रन की आतिशी पारी में पांच चौके व आठ छक्के शामिल थे। श्रीलंका के उपल थरंगा व कुशाल परेरा ने जरूर संघर्ष किया। उनके बल्लेबाजी ने मैच में थोड़ा सा रोमांच भी पैदा किया लेकिन दोनों के आउट होने के बाद सब आया राम गया राम हो गए। विकेटों के पतझड़ को कोई नहीं रोक सका और अंतत: श्रीलंका की टीम 88 रन से पराजित हो गई। मैच में वैसे तो रिकॉर्ड कई बने लेकिन टी टवेंटी मैच में सर्वाधिक छक्के दोनों पारियों में 32 लगे हुए हैं। इस मैच में कुल 31 लगे। इस तरह से इस रिकॉर्ड की न तो बराबरी हो पाई और न ही यह रिकॉर्ड टूटा। खैर टीम इंडिया को बधाई। रोहित शर्मा को बधाई। और साथ में समस्त क्रिकेट प्रेमियों को इस शानदार जीत की बधाई।
यह बने रिकॉर्ड
-35 गेंदों पर शतक के विश्व रिकॉर्ड की बराबरी।
- एक पारी में सर्वाधिक 21 छक्कों का रिकॉर्ड।
-भारतीय टीम का एक साल में सभी फोरमेट में 14 सीरिज जीतने का रिकॉर्ड।

इटली, शादी और चर्चे

बस यूं ही
इटली इन दिनों फिर चर्चा में है। वैसे तो इटली को चुनाव के दौरान खूब भुनाया जाता है। इटली बाकायदा मुद्दा भी बनता है। विदेशी और देशी का नारा देकर मतदाताओं को रिझाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। खैर, इन दिनों चर्चा इस बात की है कि भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली व सिनेतारिका अनुष्का शर्मा ने शादी के लिए इटली को चुना। उनको भारत में एेसी कोई जगह पसंद नहीं जहां यह सात फेरे ले सकें। वैसे यह बड़ा मामला है भी नहीं। बड़ी बात यह है कि गाहे-बगाहे इटली को चुनावी मुद्दा बनाने वाली पार्टी के एक विधायक ने विराट अनुष्का की देशभक्ति पर सवाल उठा दिया। पार्टी अध्यक्ष ने भी स्पष्टीकरण जारी किया कि पार्टी का कोई व्यक्ति विधायक के बयान से इतफाक नहीं रखता है। इधर विधायक ने भी अपनी पार्टी से इस बात के लिए माफी मांगकर कहा कि उनका आशय यह नहीं था। वैसे राजनीति में यह विडंबना है कि किसी का बयान हिट हो जाए तो वह दौड़ जाता है और अगर थोड़ा सा ही विवादित हुआ तो व्यक्तिगत राय बताकर झट से किनारा कर लिया जाता है।
सच तो यह है कि इस हाइटेक शादी के साथ इटली का नाम जुडऩे पर मेरे जेहन में जरूर यह बात थी कि इस मसले पर किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया आई क्यों नहीं? मैं भी इस पर कुछ लिखने का मानस बना रहा था कि लेकिन अति व्यस्तता के चलते विचारों को शब्दों का जामा नहीं पहना पाया। आज इस विषय पर एक कार्टून देखा तो फिर तय किया कि चलो लिखा ही जाए। खैर, मेरा मानना है कि इटली राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा इसीलिए है क्योंकि एक राजनीतिक दल की चेयरपर्सन रही महिला इटली की है। अब भी यह मामला उछलता है। चूंकि विरुष्का मामले में इटली में कोई राजनीतिक लाभ दिखाई नहीं देता। इसीलिए चुप्पी साधने तथा जो बोला उसको मुंह बंद रखने की नसीहत दे दी गई। इटली प्रकरण से इतना तो तय है कि राजनीतिक दल एक ही शब्द को अपने हित के लिए इस्तेमाल भी करते हैं और जहां हित नहीं वहां उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर देते हैं। शायद अवसरवादिता इसी का नाम है। और हां कार्टूनिस्ट ने भी बात जोरदार कही कि किसी ने इटली को एक पार्टी अध्यक्ष का ननिहाल नहीं बताया वरना नवदंपती पर पार्टी विशेष की विचारधारा का पौषक होने का ठपा चस्पा जरूर कर देता...।

इक बंजारा गाए -14


🔺राजनीतिक नौटंकी
श्रीगंगानगर में इन दिनों राजनीतिक नौटंकी का तो कहना ही क्या? विशेषकर नगर परिषद के संदर्भ में तो इतना घालमेल है कि तय कर पाना ही मुश्किल है कि कौन किस पार्टी में है तथा कौन किसका समर्थन कर रहा है? मामला राज्य सरकार के चार साल पूर्ण होने पर आयोजित जलसे का है। इसमें नगर परिषद सभापति भी मौजूद रहे। भाजपा के कार्यक्रम में सभापति की उपस्थिति इसीलिए चौंकाती है कि दो दिन पहले ही भाजपा परिषद में अपनी पार्टी का नेता प्रतिपक्ष चुनती है और फिर सभापति से भी नजदीकियां बढ़ाती हैं। भाजपा की इस भूमिका से तो राजस्थानी कहावत 'जिसको देखने से ही बुखार चढ़े और वो ही ब्याहने (शादी) आ जाए' चरितार्थ हो रही है। खैर, ये जो पब्लिक है, वह इस तालमेल से हो रहे घालमेल को जानती है और समझती भी है।
🔺'सम्मान' के मायने
श्रीगंगानगर के युवाओं की सेना में भागीदारी कम है, लेकिन सेना के प्रति भावना जरूर जुड़ी है। यही कारण है कि सेना से जुड़े कार्यक्रम यहां शिद्दत से मनाए जाते हैं। चाहे कारगिल दिवस हो या विजय दिवस। हर साल कार्यक्रम होते हैं। स्कूली बच्चे जुड़ते हैं। सेना के अफसर व जवान भी आते हैं। पूर्व सैनिकों व वीरांगनाओं का सम्मान होता है। युवाओं का सेना के प्रति रुझान हो, इसके लिए कई तरह की घोषणाएं भी की जाती हैं। इस बार विजय दिवस पर एक नई बात यह हुई कि खबरनवीसों का भी बाकायदा सम्मान किया गया। अब सम्मान क्यों व किसलिए किया गया, यह तो आयोजक ही बेहतर जानते हैं, क्योंकि सम्मानित होने वाले खबरनवीस भी समझ नहीं पा रहे हैं कि उनको यह सम्मान किस योगदान के लिए दिया गया? वैसे इस फ्री के सम्मान के मायने तो हैं।
🔺नया साल और बधाई
नया साल श्रीगंगानगर के लिए कुछ अलग होता है। नया साल आते-आते प्रमुख चौक व चौराहे बदरंग हो जाते हैं। हर कोई बड़े-बड़े पोस्टर व होर्डिंग बनाकर नए साल के बधाई संदेश देने में लगा रहता है। सबमें एक तरह से होड़ सी लग जाती है। यह हाल जिला मुख्यालय से लेकर छोटे कस्बों व गांवों तक दिखाई देता है। शहर कस्बों को बदरंग करने का यह काम बेरोक-टोक होता है। मनमर्जी से लगाए गए इन पोस्टर व होर्डिंग्स पर शायद ही कार्रवाई होती है। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि यह सब शह और मिलीभगत का खेल है। चर्चाएं तो यहां तक होती हैं कि राजकोष में जाने वाली राशि जेबों में जाती है, इसलिए शहरों को बदरंग होने से बचाए कौन? जो भी है, हालात देखते हुए चर्चाओं में दम तो नजर आता है।
🔺विपक्ष गायब
हो सकता है यह सब सुनकर आप या तो हंसें या फिर अचंभा करें। बात यह है कि श्रीगंगानगर शहर की सरकार में विपक्ष ही नहीं है। यहां की सरकार सभी के रहमो-करम पर चल रही है। मौजूदा सभापति भाजपा के बागी हैं और भाजपा से बगावत कर सभापति बने, लेकिन पार्टी उनको गाहे-बगाहे गले लगाती रही है। इतना नहीं, इधर कांग्रेसी भी सभापति को अपना ही मानते हैं। वे दलील देते हैं कि उनके पार्षदों के समर्थन के दम पर ही तो सभापति काबिज हैं। अब आम आदमी यह सियासी समीकरण समझ नहीं पा रहा है कि सत्ता में कौन है और विपक्ष में कौन? ऐसे हालात में कौन किसका विरोध करेगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसी घालमेल का खमियाजा ही शहर भुगत रहा है, तभी तो बदहाली व बदइंतजामी के भंवर में फंसा है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 21 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित..।

विचारों का द्वंद्व

बस यूं ही
जीना तो है उसी का जिसने यह राज जाना, है काम आदमी का औरों के काम आना.. अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी एे दिल जमाने के लिए...परहित सरस धर्म नहीं भाई...पुरुषार्थ को बयां करते इन दो गीतों के बोल व तुलसीदासजी का यह दोहा रह रह कर मेरे मन को कचोट रहा है। पुरुषार्थ, परोपकार, मदद, सहायता, हमदर्दी, रहनुमा, दरियादिल जैसे शब्द भी इन दिनों बेमानी नजर आते हैं। पता नहीं क्यों आजकल सोचता हूं तो फिर सोचता ही चला जाता हूं। बहुत देर तक और बहुत गहरे तक। इस उम्मीद के साथ कि शायद इस सोचने में कोई राह निकल जाए लेकिन सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगता है। हां इस सोच व निराशा के द्वंद्व के बीच पिसता जरूर रहता हूं। घुटता रहता हूं। अपनी इस मनोदशा पर कूढता भी हूं। यह एेसी मनोदशा है जिसे कोई अपना या पराया समझ भी नहीं सकता। यह एेसी मनोदशा है जो खुद ब खुद बयां भी नहीं होती। और बयां हो भी हो गई तो हासिल क्या? दुख, तकलीफ, संकट, विपदा जैसे शब्द सुनने में बड़ी पीड़ा देते हैं। अक्सर इनको साझा करने की बातें भी होती है ताकि पीड़ा बंट जाए और महसूस भी कम हो लेकिन हकीकत इससे अलग होती है। इस पीड़ा का कोई साझीदार नहीं होता। एक अकेले को ही भोगनी होती है। बिलकुल चुपचाप। खामोशी के साथ। क्योंकि मदद पर मजबूरी भारी पड़ जाती है। यह मजबूरी ही है जो हकीकत पर पर्दा डाल देती है। अक्ल पर ताला लगा देती है।

दो राज्यों के चुनाव की बीस प्रमुख बातें

पहली : नरेन्द्र मोदी के गृहनगर वाले उंझा विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी की हार हुई है।
दूसरी : हिमाचल में भाजपा के प्रस्तावित मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की भी हार हुई है।
तीसरी : रुपाणी मंत्रिमंडल के कई मंत्री चुनाव हार गए।
चौथी : भाजपा का 150 से अधिक सीट पाने का दावा फेल हो गया।
पांचवीं : किसी राज्य में प्रधानमंत्री द्वारा सत्रह दिन तक प्रचार करना संभवत: रिकॉर्ड है।
छठी : पिछले 22 साल में पहली बार भाजपा को सौ से कम सीटें प्राप्त हुई हैं।
सातवींं : पिछले 22 साल में पहली बार दोनों पार्टियों के वोट शेयर में सबसे कम अंतर रहा है।
आठवीं : पिछले 22 साल में कांगे्रस का वोट शेयर पहली बार चालीस प्रतिशत को पार किया है।
नवमीं : पिछले 22 साल में इस बार कांग्रेस ने पहली बार सबसे ज्यादा सीट जीती हैं।
दसवींं: पिछले चुनाव के मुकाबले कांग्रेस को सोलह सीटों का फायदा हुआ है जबकि भाजपा को सोलह सीटों का नुकसान हुआ है।
ग्याहरवीं : भाजपा ने गुजरात में लगातार छठी बार बहुमत प्राप्त किया है।
बारहवीं : गुजरात में 2002 से कांग्रेस की सीटें बढ़ती गई हैं जबकि भाजपा की सीटें घटती गई हैं।
तेरहवीं : गुजरात में 2002 में भाजपा को 127 सीट थी जबकि कांग्रेस के पास 51 सीटें थीं।
चौदहवीं : हिमाचल में भाजपा का वोट शेयर दस फीसदी बढ़ा है जबकि कांग्रेस का एक फीसदी कम हुआ है।
पंन्द्रहवीं : लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा को हिमाचल में वोट शेयर चार प्रतिशत घटा है।
सोलहवीं : पिछले 24 सालों में भाजपा को पहली बार हिमाचल में सर्वाधिक सीटें मिली हैं।
सतहरवीं : गुजरात लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा का इस बार 12 प्रतिशत शेयर घटा है।
अठाहरवीं : हिमाचल में कांग्रेस का 24 सालों में सर्वाधिक खराब प्रदर्शन रहा है।
उन्नीसवीं : हिमाचल में कांगे्रस को 1990 में नौ जबकि भाजपा 1993 में आठ सीटें मिली थी। यह दोनों पार्टियों का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है।
बीसवां : पिछले 27 साल में हिमाचल में किसी भी दल को साठ से अधिक सीट नहीं मिली है।

Sunday, December 17, 2017

आज चिंतित हूं...

बस यूं ही
चार दिन से जयपुर से लौटा तो श्रीमती बीमार मिली। बीमारी की सूचना तो फोन पर मिल गई लेकिन आकर देखा तो वाकई में हालत गड़बड़ थी। सूखे होंठ, लटका चेहरा, उनींदी आंखें और थकी-थकी सी चाल। लब्बोलुआब यह कि एकदम निढाल सी। दो दिन से यही हालत थी। चौदह दिसम्बर को देर रात फोन किया था लेकिन तब जयपुर में होने तथा डीजे पर तेज आवाज होने के कारण फोन अटेंड नहीं कर पाया। मुझे क्या मालूम था, फोन तबीयत को लेकर किया जा रहा है। उसने व्हाटसएप पर मैसेज भी किया लेकिन रात को समारोह के वीडियो बनाते-बनाते मोबाइल की बैटरी जवाब दे चुकी थी। लिहाजा पन्द्रह दिसंबर को सुबह जयपुर से रवाना होते वक्त मैसेज देखा। फोन पर बात हुई तो मामला गंभीर लगा। मैंने स्टाफ के एक साथी को मैसेज किया। वो डाक्टर को लेकर घर भी गए लेकिन डाक्टर की दवा श्रीमती को जमी नहीं है।
पन्द्रह को देर शाम घर पहुंचा तो उसकी हालत देखकर तय किया कि अगले दिन सुबह चिकित्सक को दिखाना है। अलसुबह साढ़े चार बजे अचानक आंख खुली तो वह बुखार से तप रही थी। मैंने जैसे ही माथे पर हाथ रखा तो उसने पानी मांगा। उसको पानी देकर मैं रजाई में घुस गया। बुखार में उसके मुंह से आवाज निकलती रही। पांच बजे उसने फिर पानी मांगा। पिलाकर फिर रजाई में घुस गया। श्रीगंगानगर में इन दिनों सर्दी ज्यादा है। पारा तीन डिग्री के आसपास चल रहा है। निर्मल को सर्दी ज्यादा भी लगती है। खैर, छह बजते बजते मोबाइल का अलार्म बज उठा। मौके की नजाकत भांपते हुए मैं उठा और पानी को गर्म करने रख दिया। अब संकट बच्चों को दूध पिलाने तथा माताजी-पिताजी की चाय बनाने का था। बुखार में तपने के बावजूद वह उठी। चाय बनाकर दी। और इन सब के अलावा आज निर्मल की भूमिका मैंने संभाली और मां को चाय पिलाने के बाद फिर रजाई में आ घुसा। इसके बाद मां से संबंधित वह तमाम काम जो निर्मल रोजाना करती है किए। आफिस के लिए कुछ लेट हो गया था। सवा ग्यारह बजे घर से निकला। आते ही सुबह के काम निबटाए। मेल इत्यादि चैक किए। दोपहर के दो बज गए। इसके बाद डाक्टर के पास गए। डाक्टर ने खून की जांच व सोनाग्राफी लिख दी। सोनोग्राफी करवाई तो दोनों किडनी में पथरी बताई। इसके अलावा पित्ताशय (गॉल ब्लेडर) में भी पथरी की रिपोर्ट आई। खून की जांच आई तो बताया गया कि शरीर में खून की कमी है। ब्लड प्रेशर लॉ पहले से ही है।
हिमोग्लोबिन भी सामान्य से कम आया। इतनी सारी गड़बड़ निकल जाना किसी भी भले चंगे आदमी को यकायक डिस्टर्ब कर सकती है। कल एक जांच और है। समझ नहीं पा रहा हूं क्या करूं। मैं घर के काम से अब तक बिलकुल फ्री था। मुझे पता ही नहीं चलता कि घर का काम होता कैसे है। भगवान से प्रार्थना है कि वह निर्मल को जल्द दुरुस्त करें। स्वस्थ्य करें, क्योंकि वह स्वस्थ हैं तो हम सब स्वस्थ हैं।

भैया ये दिवार टूटती क्यों नहीं

बस यूं ही
सरकारी कामों के बारे में कहा जाता है वो कि अक्सर देर से ही पूर्ण होते हैं। इस तरह के उदाहरण कई हैं। एक मामला तो मेरे गांव केहरपुरा कलां से भी जुड़ा हैं। मामला अतिक्रमण से संबंधित हैं। गांव के राजकीय औषधालय से चानणा जोहड़ तक के रास्ते पर हो रखे अतिक्रमण के संबंध में स्व. जयपालसिंह शेखावत के सुपुत्र देवेन्द्रसिंह ने पिछले माह राजस्थान संपर्क पोर्टल पर शिकायत दर्ज करवाई थी। देवेन्द्र ने अभी 14 दिसम्बर को पोर्टल से इस मामले की अपडेट जानकारी ली तो मामला अपने आप में दिलचस्प निकला। इसमें बताया गया है कि 'प्रकरण में उपखंड अधिकारी चिड़ावा की रिपोर्ट के अनुसार उक्त प्रकरण में तहसीलदार चिड़ावा से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार उक्त रास्ता राजस्व रिकार्ड में कटानी रास्ते के रूप में दर्ज है। ग्राम से निकलने के बाद लगभग सौ फीट तक दोनों तरफ के काश्तकारों ने पक्की दीवार बना रखी है एवं मौके पर रास्ता 10-11 फीट चौड़ा है। पूर्व में सीमा ज्ञान करवाकर रास्ता खोल दिया गया था। वर्तमान में लगभग 16-17 फीट चौड़ा रास्ता चालू अवस्था में है तथा अतिक्रमियों के विरुद्ध धारा 91 की रिपोर्ट की जा चुकी है।'
यह रिपोर्ट या तो निहायत ही बेवकूफ कर्मचारी ने बनाई है। या फिर इसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया है। या या फिर किसी डेढ़ स्याणे ने दिमाग लगाकर यह जवाब लिखा है। बहरहाल,चंद सवाल चिड़ावा के उपखंड अधिकारी व तहसीलदार दोनों से है। यही सवाल मैं इन दोनों अधिकारियों से करने की कोशिश करूंगा। मसलन,
1 .क्या उपखंड अधिकारी व तहसीलदार ने कभी मौका देखा है?
2. क्या इन दोनों अधिकारियों को पूर्व की तथा बाद की स्थिति की वास्तविक जानकारी है?
3. कहीं नीचे का कोई कर्मचारी इन दोनों अधिकारियों को अंधेरे में तो नहीं रख रहा?
4. इस मामले में अधिकारियों पर किसी तरह का कोई दवाब तो नहीं है?
5. इस तरह की रिपोर्ट पोर्टल पर दर्ज कौन करता है? तथा किसके निर्देश पर दर्ज करता है?
6. रास्ता पहले 10-11फीट था तो अब 16-17 फीट चौड़ा कैसे हो गया वह भी बिना दिवार तोड़े?
7. रास्ता बंद ही कब हुआ था तो रिपोर्ट में रास्ता चालू होने पर जोर क्यों व किसलिए?
8. रिपोर्ट का जवाब बेहद गोलमाल है। इसमें समस्या का समाधान होगा या नहीं यह नहीं बताया गया?
9. सीमाज्ञान करवाया गया तो कितने फीट पर करवाया गया?
10. इस मामले में पंचायत की भूमिका क्या रही है और क्या होगी?
गांव के युवाओं को भी इस तरह के मामलों में पहल करनी चाहिए क्योंकि यह भी एक तरह की सेवा ही है।

Saturday, December 16, 2017

इक बंजारा गाए-13

भलाई की भी मार्केटिंग !
दान और भलाई, कोई गुपचुप करता है तो कोई ढोल के साथ इनका प्रचार करता है। कम करके ज्यादा प्रचारित करने वालों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। श्रीगंगानगर में भी प्रचार के भूखे कई लोग हैं। फिलवक्त एक संस्था भलाई कार्यों में जुटी है। इसे प्रचारित करने के लिए बाकायदा मीडिया मैनेजमेंट भी किया गया है। माह में बीस दिन से ज्यादा दिन तक भलाई की मार्केटिंग की जाती है। हाल ही में हुई 'घर' वापसी के बाद मुखिया जी के भलाई कार्यों का ढोल और बुलंद हो गया है। वैसे इस मार्केटिंग के पर्दे के पीछे का सच जानकारों की नजर में हैं। भलाई कार्यों में पैसा पल्ले से लग रहा है या सरकारी योजनाओं के चलते लिया जा रहा है, यह तो अप्रचारित विषय है, लेकिन सच यह भी है कि भलाई की मार्केटिंग में प्रचार करने तथा करवाने वाले दोनों ही पक्षों के हित जुड़े हैं, तभी तो गठजोड़ जारी है।
समय-समय की बात
खाकी में इन दिनों कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। शहर व जिले में लगातार हुई आपराधिक वारदातों ने सर्द मौसम में खाकी के अंदर गर्माहट पैदा कर रखी है। दूसरी गर्माहट एक थानाधिकारी के बदलने की भी। बड़ी मुद्दत के बाद इनको शहर में लाया गया था, लेकिन पता नहीं अंदरखाने क्या उठक पटक हुई कि थानेदार जी का न केवल थाना बदला बल्कि जिला ही बदल गया। महकमे में यह तबादला इन दिनों अच्छी खासी चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग 'एक दिन के थानेदार जी' कह कर मजे ले रहे हैं। मामला किस्मत व पहुंच का भी है। शहर में ही एक ऐसे थानेदार जी भी हैं, जिनको हटाने का हिम्मत जिले के आला अधिकारी ही नहीं, रेंज के अधिकारी भी नहीं जुटा पा रहे हैं। खैर, सेटिंग बनने व बिगडऩे के ये दो जीते जागते उदाहरण हैं।
कौन सच्चा, कौन झूठा?
पिछले दिनों पड़ोसी प्रदेश पंजाब में श्रीगंगानगर इसे लगते इलाके में पुलिस चौकी का उद्घाटन हुआ। इस दौरान ग्रामीणों ने खुलेआम कहा कि नशा राजस्थान से आ रहा है। ग्रामीणों ने बाकायदा नशे के कारोबार के लिए साधुवाली व सादुलशहर का नाम भी बताया। यह भी संयोग है कि जिस दिन इस चौकी का उद्घाटन हुआ, उसी दिन श्रीगंगानगर में राजस्थान व पंजाब पुलिस के अधिकारी कानून की समीक्षा कर रहे थे और सब कुछ ठीक बता रहे थे। ऐसे में सवाल यह खदबदा रहा है कि पुलिस सच्ची है या वो ग्रामीण? यकीनन इस मामले में एक पक्ष तो झूठा है। नशे के कारोबार के रंग-ढंग देखने से तो यही प्रतीत होता है कि ग्रामीणों की बातों में दम ज्यादा है। पुलिस का क्या, उसने तो जब सब कुछ ठीक बताया था, उसी दिन एक युवक की गोली मारकर हत्या तक कर दी गई थी।
प्रधान जी को ग्रुप का खौफ
सोशल मीडिया के जितने फायदे हैं, उससे कम नुकसान भी नहीं हैं। वह भी तब जब सोशल मीडिया से जुडऩे वाले को तकनीक रूप से ज्यादा जानकारी नहीं हो। जानकारी का अभाव कभी-कभी मुसीबत भी खड़ी कर देता है। दरअसल, यहां जो भूमिका है वह एक शिक्षक संस्थान के प्रधान से संबंधित है। मामला थोड़ा पुराना जरूर है, लेकिन रोचक है। प्रधानजी विभाग के ही एक व्हाट्सएप गु्रप से जुड़े थे। एक दिन ग्रुप में उनसे कथित आपत्तिजनक वीडियो पोस्ट हो गया। हालांकि यह जांच का विषय है कि यह सब जानबूझकर हुआ या भूलवश, लेकिन मामला ऊपर तक पहुंच गया और आनन-फानन में प्रधान जी की सजा मुकर्रर कर दी गई। गाहे-बगाहे अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले प्रधान जी सोशल मीडिया के फेर में ऐसे फंसे कि अब तो ग्रुप का नाम ही उनको डराने लगा है।
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 14 दिसंबर 17 के अंक में.प्रकाशित

लाइलाज खिलवाड़!

टिप्पणी
बंदर के हाथ अगर उस्तरा लग जाए तो फिर क्या होगा, सहज ही अंदाजा लगाया सकता है। कुछ इसी तरह का अनुभव सीवरेज लाइन बिछाने के दौरान हो रहा है। हालात यह हैं कि लाइन बिछाने के नाम पर रोजाना नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। एक तरह से शहर को प्रयोगशाला बना रखा है। ठेका कंपनी की ब्रांडिंग करती पीली टोपी और हाफ जैकेट पहने कंपनी के नुमाइंदों में कौन मजदूर है और कौन इंजीनियर, शहरवासी आज तक इस पहेली को नहीं सुलझा सके। 'नौसिखिए' कभी गली को दायीं तरफ से खोद देते हैं तो कभी बायीं तरफ से। कहीं किसी गली में गड्ढे लंबे समय से खुदे ही पड़े हैं तो कहीं मिट्टी के गुबार लोगों का जीना हराम कर रहे हैं। कहीं चैंबर नालियों के बीच आ गए हैं तो कहीं अचानक ही खुदाई शुरू कर दी जाती है। इन तमाम हालात को देखकर लगता है कि ये महत्वपूर्ण काम न तो किसी कार्य योजना के तहत हो रहा है और न ही कोई प्रशासनिक अधिकारी इसे देखने वाला है। कुछ दिन पहले प्रशासन ने खुद स्वीकार किया कि सीवरेज लाइन बिछा रही कंपनी के इंजीनियरों का अनुभव कम है। वे जानते हैं कि जोड़-तोड़ के काम का खामियाजा भविष्य में शहरवासी भुगतेंगे, इसके बावजूद प्रयोगों के नाम पर लोगों को हो रही परेशानी का स्थायी हल नहीं खोजा जा रहा। सीवरेज काम में जुटे अमले की बेतरतीब कार्यशैली को देखकर लगता है जैसे शहर में 'अनाडिय़ों का कुनबा' इकट्ठा हो गया हो।
अकेले मॉडल टाउन में काम काज की बानगी देखिए। जिस सड़क को सबसे पहले तोड़ा गया, वहां आज तक सड़क नहीं बनी, जबकि जिनको बाद में तोड़ा गया वहां सभी काम हो गए और सड़क भी बन गई। खुदाई की गई कई जगहों पर हाथो-हाथ कंकरीट बिछा दी गई, तो कहीं पर मिट्टी डाल दी गई। यह मिट्टी तीन माह से वाहनों की आवाजाही से उड़ती रही। कंपनी की मर्जी हुई तब पानी छिड़कवा दिया अन्यथा लोग धूल फांकते रहे। काम में अनाड़ीपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मॉडल टाउन की एक गली में पहले चैंबर बना दिए गए। बाद में नाली बनाई तो चैंबर नाली के बीच में आ गए। ऐसे में नाली निर्माण अधूरा छोड़ दिया गया है। अब चैंबर्स को उखाड़कर फिर से लगाया जाएगा तभी नाली का काम पूरा होगा। समूचे कामकाज में एक बात यह भी है कि इसे चरणबद्ध तरीके से होना बताया जा रहा है, लेकिन काम का प्रबंधन सही नहीं है। एक जगह काम पूरा होता नहीं है उससे पहले अगली गली में शुरू कर दिया जाता है।
बहरहाल, सीवरेज लाइन बिछाने वाली कंपनी मनमर्जी से काम कर रही है। मौजूदा हालात व परिस्थितियां देखते हुए उसकी मनमर्जी पर अंकुश लगाने की हिम्मत प्रशासन में भी दिखाई नहीं देती। प्रशासन के हाथ क्यों बंधे हैं, इसकी वजह जानने की भी जरूरत है। लोग परेशान हैं। धूल फांक रहे हैं। जन सेवकों ने जनता को उसके हाल पर छोड़ रखा है। 'अंधेर नगरी चौपट राजा' के हालात बने हुए हैं। व्यवस्था में लग रहा जंग समय रहते हटाना बेहद जरूरी है। काम कैसा भी हो, पूरा होते ही कंपनी को भुगतान कर दिया जाएगा। सरकारी टेंडरों में परम्परागत तय हिस्सा पाने के लिए स्थानीय कार्यकारी एजेंसी के अधिकारी भी चुप्पी साधे काम पूरा होने की राह देख रहे हैं। शांति बनाए रखने के लिए शुभचिंतकों को भी कंपनी की ओर से 'धन्यवाद' किया जाएगा, लेकिन इस 'खिलवाड़' के खिलाफ शहरवासियों को तो जागना चाहिए। समय रहते जख्म का इलाज हो जाए तो अच्छा, अन्यथा वह नासूर बन जाता है। काम व्यवस्था के हिसाब से हो और प्रबंधन प्रभावी तरीके से हो। प्रशासन को भी समय-समय पर निरीक्षण कर कंपनी की कार्यकुशलता को जांच लेना चाहिए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 10 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित

अपने तो यह समझ नहीं आया

बस यूं ही
जीएसटी को लेकर समूचे देश में बवाल मचा था। अब भी गाहे-बगाहे कोई कोई न कोई मामला सामने आ ही जाता है। वैसे हकीकत यह है कि संबंधित विभाग भी इसके नियम-कायदों को समझ नहीं पाया है। सही बात तो यह है कि अपने को भी समझ नहीं आया है। दरअसल कल बाजार से वेटिंग मशीन (वजन तौलने की मशीन) खरीदने गया। पहली दुकान पर माथापच्ची करने के बाद दूसरी दुकान से आखिरकार मशीन खरीद ली। अब विस्तार से बताता हूं। श्रीगंगानगर के गोलबाजार पब्लिक पार्क स्थित खेल के सामान की दुकान है। सिल्वर स्पोटर्स। यहां भाव ताव कम ही होता है। मतलब फीक्स रेट है। लेना है तो लेओ अन्यथा दूसरी दुकान देखो वाला मामला है। मैंने यहा वेटिंग मशीन दिखाने को कहा। सेल्समैन मशीन लाया। प्रिंट रेट 25 सौ रुपए से अधिक थी। मैंने कीमत पूछी तो बताया कि 790 की पड़ेगी। मैंने कहा कोई गारंटी-वारंटी है क्या तो दुकानदार ने साफ तौर पर मना कर दिया। इस के बाद पैकेट से मशीन निकालकर देखी तो उसमें वारंटी कार्ड निकला। मैंने दुकानदार को कहा कि आप तो मना रहे थे, यह क्या है? तो उसने कहा कि सर्विस श्रीगंगानगर में तो होती नहीं है। मशीन को जालंधर भेजना होता है। भेजने का खर्चा ही इतना हो जाता है कि इससे अच्छा तो नई खरीद लो। मैंने फिर सवाल दागा फिर एेसी मशीन बेचते ही क्यों हो? बिना वारंटी वाली ही बेचा करो। इस पर उसने दलील दी कि हम प्रिंट रेट से कम ले रहे हैं, यह क्या कम है। आप दूसरे बाजार में जाआेगे तो आपको प्रिंट रेट ही देनी पड़ेगी। यहां मामला जमा नहीं तो मैं पड़ोस की दूसरी दुकान पर आ गया। इसका नाम है न्यू सिल्वर स्पोटर्स। यहां मशीन देखी तो उसने 550 रुपए बताए। प्रिंट रेट 1370 रुपए लिखे थे। आखिरकार मशीन ले ली गई। उसने बाकायदा कम्प्यूटर में डाटा फीड करके प्रिंटर से प्रिंट निकाला। उसने अपने हस्ताक्षर किए और बिल दे दिया। मैंने बिल पर देखा तो मशीन का मूल्य 466 रुपए दस पैसे लिखा था। इसके बाद नौ प्रतिशत सीजीएसटी के 41 रुपए 95 पैसे तथा नौ प्रतिशत ही एसजीएसटी के 41 रुपए 95 पैसे काटे गए थे। दोनों को मिलाकर 83 रुपए 90 पैसे हो गए। बस बिल देखने के बाद सवालों का सिलसिला शुरू हो गया। मैं समझ नहीं पाया कि यह कटौती कैसे व कौनसे मूल्य को आधार मानकर की गई? जीएसटी का नाम तो सुना पर यह सीजीएसटी व एसजीएसटी क्या हैं? प्रिंट रेट व वास्तविक मूल्य में अंतर क्यों व कैसे आ रहा है। टैक्स कितना कटता है? कैसे कटता है? प्रिंट रेट पर कटता है? या दुकानदार अपनी मर्जी से मूल्य मानकर अंदाजे से काटता है? क्या वाकई उसने एक नंबर में सामान बेचा? क्या कोई कर चोरी नहीं की? सवाल जेहन में आए तो फिर आते ही चले गए लेकिन जवाब नहीं मिला। यह सब इसलिए लिख रहा हूं ताकि कोई जानकार यह बताए कि यह कैसे होता है। इसका तरीका क्या है।

इक बंजारा गाए-12

दिल है कि मानता नहीं
राजनीति में उम्र मायने नहीं रखती और इसमें आदमी कभी रिटायर भी नहीं होता। जैसे ही कोई चुनाव आने को होते हैं, लोग पिछला 'दर्दÓ भुलाकर नए सिरे से जुट जाते हैं। इस काम में बड़ा योगदान होता है शक्ति प्रदर्शन का, ताकि पार्टी के आकाओं को यह पता चल सके है कि अमुक आदमी का कितना बड़ा जनाधार है। खैर, कौन कितने पानी में है यह तो सबको पता ही होता है, फिर भी जोर आजमाइश जरूरी है। यह भी सभी जानते हैं कि शक्ति प्रदर्शन स्वयं स्फूर्त कितना होता है और कितना प्रायोजित? फिर भी टिकट के जुगाड़ के लिए यह सब करना पड़ता है। श्रीगंगानगर में भी राजनीति के पुराने खिलाड़ी चुनाव नजदीक देख फिर सक्रिय हो गए हैं। अब चुनाव लडऩे की इच्छा खुद की है, लेकिन यह बात सीधे न कहकर कार्यकताओं का आग्रह बताकर प्रचारित करवाई जा रही है। वाकई राजनीति में भी कई तरह के पापड़ बेलने होते हैं।
निर्दलीय का ही सहारा
नगर परिषद में सियासी घालमेल इस कदर है कि पार्टी का टिकट भी मायने नहीं रखता। मामला परिषद के एक वार्ड में हो रहे उप चुनाव का है। यहां कांग्रेस ने प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा। योग्य प्रत्याशी मिला नहीं है या यह चुनावी रणनीति का हिस्सा है, ये तो पार्टी पदाधिकारी ही बेहतर जानते हैं, लेकिन इसके कई कयास लगाए जा रहे हैं। उधर, भाजपा ने अपना प्रत्याशी जरूर घोषित किया है। विधानसभा चुनाव नजदीक होने के बावजूद कांग्रेस का बैकफुट पर आना राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। राजनीतिक जानकार इस उप चुनाव को सभापति से जोड़कर भी देख रहे हैं, जो कि सर्वदलीय सभापति बने हुए हैं। वार्ड में एक जाति समुदाय के वोट ज्यादा होने तथा भाजपा द्वारा उसी समुदाय की महिला को टिकट देने के कारण कांग्रेस की रणनीति असफल हो गई। पार्टी अब निर्दलीय को समर्थन कर रही है। निर्दलीय भी उसी समुदाय से है। अब देखना है कि ऊंट किस करवट बैठता है?
केवल खानापूर्ति
श्रीगंगानगर में सफाई व्यवस्था संतोषजनक क्यों नहीं है? इसकी बड़ी वजह यह भी है कि जिम्मेदार लोग जो व्यवस्था बनाते हैं उसकी गंभीरता से पालना तो कतई नहीं होती। दिखावे के तौर पर हलचल जरूर होती है। ऐसा ही इन दिनों नगर परिषद कर रही है। परिषद के अधिकारी व जन प्रतिनिधि स्वच्छता को लेकर कार्यक्रम कर रहे हैं। अब मामला स्वच्छता से जुड़ा है तो उसके लिए धरातल पर काम भी करना होगा। सिर्फ जागरुकता विषयक कार्यक्रम से ही शहर साफ होता तो कब का हो चुका होता। हास्यास्पद हालात तो तब पैदा होते हैं जब स्वच्छता पर जोर दिया जाता है, लेकिन हकीकत को नजर अंदाज किया जाता है। मंगलवार को जहां स्वच्छता विषयक कार्यक्रम हुआ, उसी पार्क के आसपास नालियां ओवरफ्लो थीं, जबकि कचरा पात्र कचरे से अटे थे। ऐसे में यह कार्यक्रम महज औपचारिक ही नजर आते हैं।
प्रयोगशाला बना शहर
अक्सर प्रयोग वहां किए जाते हैं जहां परिणाम को लेकर कोई आश्वस्त नहीं होता। इसलिए बार-बार प्रयोग करके चैक किया जाता है ताकि बाद में कोई दिक्कत न आए। शहर में इन दिनों सीवरेज व पेयजल पाइप लाइन बिछाने का काम चल रहा है। इस काम की आड़ में शहर को प्रयोगशाला बना दिया गया है। एक ही रास्ते को कभी आड़ा तो कभी तिरछा खोद दिया जाता है। कभी एक तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से। आमजन परेशान होता है तो होता रहे हैं, लेकिन प्रयोग लगातार जारी है। यह सब जानते हुए भी कि काम करने वाले योग्यता तो रखते हैं, लेकिन अनुभवहीन हैं। अब इन नौसिखियों ने हालात इस कदर खराब कर दिए हैं कि एक भी रास्ता पैदल चलने लायक नहीं बचा। इनके कामकाज एवं तौर-तरीकों से साफ लगता है कि इनको मनमर्जी से काम करने की छूट मिली हुई है। लगता नहीं कि कोई उनके काम को चैक करता है या समीक्षा करता है। इस चुप्पी के पीछे कोई रहस्य तो जरूर है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 8 दिसम्बर 17 के अंक में प्रकाशित 

भाई से बात करवाओ

बस यूं ही
समय यही कोई सवा एक बजे के करीब होगा। मेरे मोबाइल पर दिल्ली के लैंडलाइन नंबर से कॉल आई। थोड़ी देर में ट्रयू कॉलर पर नाम आया कोटक। मैंने कॉल उठाया तो सामने वाला पूछता है आप महेन्द्र शेखावत बोल रहे हैं । मैंने हां कह दिया इसके बाद का वार्तालाप सुनिए।
सही में महेन्द्र शेखावत ही बोल रहे हैं ना?
हां भई हां महेन्द्र शेखावत ही बोल रहा हूं।
क्या नरेन्द्र शेखावत आपका भाई है?
कौन नरेन्द्र शेखावत। इस नाम का मेरा कोई भाई नहंी है।
अरे नरेन्द्र शेखावत आपका भाई है ना।
अरे भाई हम तीन भाई हैं। बड़े का केशरसिंह, बीच वाले का सत्यवीरसिंह और मेरा महेन्द्र नाम है।
नहीं-नहीं आप झूठ बोले रहे हैं। आप नरेन्द्र शेखावत से बात करवाओ।
मैंने थोड़ी तल्ख आवाज में कहा, आप कहां से बोल रहे हैं?
कोटक से बोल रहे हैं।
अरे कहां से पूछ रहा हूं।
बताया ना कोटक से।
कोई शहर का नाम भी होगा?
हम नोएडा दिल्ली से बोल रहे हैं।
हां तो बताएं क्या काम है?
आपका नंबर रेफरेंन्स में लिखा हुआ है। नरेन्द्र शेखावत आपकी जान पहचान का है।
अरे भई कहा ना मैं किसी नरेन्द्र शेखावत को नहीं जानता।
तो फिर आपके नंबर क्यों दिए?
यह मुझे क्या पता। आपने फार्म लिया तब मुझसे कन्फर्म किया था क्या?
अरे आप झूठ बोल रहे हैं। बात कराओ ना नरेन्द्र शेखावत से।
भाई आपके समझ क्यों नहीं आता है। मैं मेरे आफिस से बोल रहा हूं।
मैं उसको बार-बार समझाता रहा लेकिन वो मानने को तैयार ही नहीं। मैंने थोड़े से तल्ख लहजे में उसको कहा कि भाईसाहब आप ख्वामखाह क्यों परेशान कर रहे हैं। मैं सच कह रहा हूं नरेन्द्र शेखावत नाम का शख्स कोई मेरा भाई नहंी है। आखिरकार झुंझलाते हुए उसने फोन रख दिया। करीब दो मिनट तेरह सेकंड का यह वार्तालाप हुआ। उसने अपना परिचय शायद महेन्द्रा बैंक या फायनेंस दिया था। यकीनन किसी ने कोई लोन उठाया होगा। मैं सोच में डूबा था कि कोई इस तरह भी नंबर का इस्तेमाल कर सकता है। करने वाले ने लाभ उठा लिया लेकिन उसका खामियाजा मेरे को नाहक ही भुगतना पड़ा। सच में मैं दिनभर यही सोचता रहा कि लोग क्या-क्या करने लगे हैं। मेरे से भूल यह हो गई कि मैं उससे नरेन्द्र शेखावत के पिता का नाम व एड्रेस नहीं पूछ पाया। वरना मैं भी मेरी तफ्तीश के घोड़े तो दौड़ाता। हां जिस नंबर से फोन आया था वह नंबर 01147035415 थे।

इस तरह बच गई जिंदगी

बस यूं ही
सोमवार सुबह जयपुर से रवाना हुआ। दोपहर बाद सरदारशहर पहुंचा तो श्रीमती का फोन आ गया। कहने लगी आज तो घर के सामने एक बड़ा मामला हो गया। बडे़ मामले का नाम सुनकर मैं थोड़ा सकपकाया और पूछा क्या हुआ? इसके बाद उसने जो बताया उसे सुनकर खुशी भी हुई और मन में कई तरह के ख्याल भी आए। दरअसल, सुबह 11 बजे तेज आवाज आई। बाहर जाकर देखा तो एक युवक घायलावस्था में कराह रहा था। पूरा शरीर लहूलुहान हो गया था। उसको टक्कर मारने वाला दूसरा मोटरसाइकिल सवार वहां से जा चुका था। इसके बाद हमारे मकान मालिक श्री अंबालाल भाटी ने तत्काल उस युवक को संभाला। हमारी श्रीमती निर्मल कंवर ने अपनी ओढ़णी (लूगड़ी ) दी ताकि युवक के सिर से बहते खून को रोका जा सके। तत्काल ओढ़णी को सिर पर लपेटा। अब युवक इस हालत में था कि उसको बाइक पर ले जाना संभव नहीं था। भाटी अंकल ने तत्काल श्रीमती से मेरी कार की चाबी मांगी। श्रीमती ने मौके की नजाकत देखते हुए तत्काल कार की चॉबी अंकल को सौंप दी। बिना वक्त गंवाए अंकल उसको तत्काल अस्पताल लेकर चले गए। बताया कि हादसे में युवक के सिर में फ्रेक्चर हुआ बताया। परिजन बाद में उसको निजी अस्पताल ले गए बताए, जहां उसकी हालत खतरे से बाहर बताई गई है। युवक श्रीगंगानगर जिले के रत्तेवाला गांव का बताया गया है तथा श्रीगंगानगर में किसी मेडिकल दुकान पर काम करता है।
कौन करता है एेसे मदद
शाम को दो युवक घर आए, जो उस युवक के परिजन थे। दोनों ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि मतलब व स्वार्थ के इस दौर में कौन इस तरह मदद करता है। लोग तो पुलिस के चक्कर में इस तरह के मामलों में मदद ही नहीं करना चाहते।। युवक मदद के लिए बार-बार धन्यवाद ज्ञापित कर रहे थे। इसके बाद श्रीमती ने घायल युवक का हेलमेट, रुपए व पैन इन युवकों को सौंप दिया। सच में इस तरह के काम से जो आत्मिक सुख मिलता है, उसको शब्दों में बयां करना मुश्किल हो जाता है। यह नेक व पुनीत काम है इसका कोई मोल नहीं होता है। काश, इस तरह की सेवा का जज्बा सबके मन में हो।

मनमर्जी का निर्णय

टिप्पणी
श्रीगंगानगर से अंबाला के बीच चलने वाली अंबाला इंटरसिटी ट्रेन को शुक्रवार को बंद कर दिया गया। इस ट्रेन का आगामी ढाई माह तक संचालन नहीं होगा। इसी तरह श्रीगंगानगर से हावड़ा के बीच चलने वाली उद्यान आभा तूफान एक्सप्रेस को तीन दिसम्बर से बंद कर दिया जाएगा। यह ट्रेन 18 फरवरी तक रद्द रहेगी। इस अवधि में उद्यान आभा का संचालन आगरा से हावड़ा के बीच होता रहेगा। श्रीगंगानगर से आगरा के बीच इस ट्रेन का संचालन नहीं होगा। बीकानेर मंडल की इन दोनों ट्रेन को रेलवे बोर्ड की ओर से रद्द किया गया है। इसके पीछे कारण कोहरा व ठंड को बताया गया है। कोहरे व ठंड के कारण इन रेलों को हर साल इसी तरह से रद्द किया जा रहा है। ऐसा करते हुए दस साल से अधिक समय हो गया है। बीच में एक बार जनाक्रोश को देखते हुए रेलवे ने संचालन शुरू कर दिया था, बाकी हर साल रेलों का संचालन इसी समय रद्द किया जाता है। फिलहाल श्रीगंगानगर और आसपास के क्षेत्र में न कोहरा है न ही ठंड, फिर भी ट्रेन का संचालन बंद कर दिया गया है। अजीब बात यह है कि इसी मार्ग पर बीकानेर-से दिल्ली वाया श्रीगंगानगर चलने वाली बीकानेर-सरायरोहिल्ला एक्सप्रेस का संचालन यथावत है।
इस तरह कहा जा सकता है कि तूफान एक्सप्रेस को बंद करना रेलवे का मनमर्जी का फैसला है। सर्दी और कोहरा हो तब हादसे की आशंका रहती है। ट्रेन समय पर भी नहीं पहुंचती है। तब इस तरह का फैसला लिया भी जाना चाहिए लेकिन वर्तमान में मौसम एकदम साफ है। ट्रेन का संचालन शुरू हो इसके लिए स्थानीय सांसद ने रेलवे बोर्ड के चैयरमैन से मुलाकात की बताई लेकिन वहां बात नहीं बनी। इस बात को सांसद ने खुद स्वीकार किया है। सांसद का कहना है कि अब वे इस बाबत रेल मंत्री से मिलेंगे। खैर, सांसद की बात पर रेल मंत्री कितना गौर करेंगे यह अभी भविष्य की बात है लेकिन रेलों का संचालन बंद होने से यात्रियों को यकीनन परेशानी होगी। अकेली उद्यान आभा से पांच सौ से अधिक यात्री प्रतिदिन यात्रा करते हैं। सेना के जवान भी बड़ी संख्या में इस गाड़ी में आवाजाही करते हैं। अब हावड़ा या उत्तरप्रदेश, बिहार जाने वालों को यह ट्रेन आगरा से पकडऩी होगी। ऐसे में सोचा जा सकता है कि इन यात्रियों को आगरा पहुंचने में कितने पापड़ बेलने होंगे। जेब पर अतिरिक्त खर्चा बढ़ेगा सो अलग।
विडम्बना देखिए गाहे-बगाहे रेलवे संवेदनशील होने के उदाहरण पेश करता हैं। कभी किसी को एक फोन पर ही मदद मिल जाती है तो कभी कोई ट्वीट करके रेल मंत्री से सहायता पा लेता है लेकिन श्रीगंगानगर में लोगों की पुरजोर मांग व सांसद के कहने के बावजूद रेल बोर्ड सुनवाई नहीं कर रहा है। इस मामले में रेलवे की संवदेनशीलता कहां चली जाती है। रेलवे एक फैसले को लेकर लकीर का फकीर क्यों बना हुआ है। मौसम साफ हो तथा रेल संचालन किसी तरह से प्रभावित न हो तो फिर क्या पुराने फैसलों की नए सिरे से समीक्षा नहीं की जानी चाहिए? बिना कोहरे के ही रेलों का संचालन रद्द करना एक तरह की मनमर्जी ही है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों को भी इस मामले में और अधिक गंभीरता के साथ प्रयास करने चाहिए।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 03 दिसंबर 17 के अंक में.प्रकाशित

इक बंजारा गाए-11

🔺रेहडिय़ों का राज
शहर में वैसे तो रेहडिय़ां (हाथ ठेले) कई जगह खड़े होते हैं। दिन ढलने के साथ ही रेहड़ीवाले अपनी दुकानदारी समेटकर घर चले जाते हैं लेकिन इन दिनों शिव चौक व अग्रसेन चौक के पास तथा चहल चौक से आगे हनुमानगढ़ रोड पर देर रात कई रेहडिय़ां खड़ी रहती हैं। अधिकतर रेहडिय़ों पर आमलेट व नमकीन आदि की बिक्री होती है। कई बार तो पुलिस की गाड़ी भी इन रेहडिय़ों के पास से गुजर जाती है, लेकिन इतनी देर रात को बिक्री करने तथा उन पर आने वाले ग्राहकों के बारे में पड़ताल नहीं होती है। वैसे रेहड़ी खड़ी होने की मूल वजह वालों पर ही जब कोई कार्रवाई नहंी होती है तो इन पर कार्रवाई कैसे हो भला। देखा जाए तो श्रीगंगानगर जिले में हर जगह मंथली का शोर सुनाई देता है। देर रात रेहड़ी खड़े होने के पीछे भी कहीं कोई मंथली का चक्कर तो नहीं?
🔺सम्मान की चिंता
इसे मानवीय कमजोरी भी कहा जा सकता है, क्योंकि सम्मान की भूख पात्र व अपात्र सभी लोगों में होती है। कुछ करके सम्मान पाने की बात तो समझ में आती है, लेकिन बिना कोई काम किए या मुकाम हासिल किए ही सम्मान की घोषणा कर दी जाए तो कैसा लगेगा। जिले में कन्या भू्रण हत्या की रोकथाम व जनजागृति विषयक कार्यक्रमों के लिए हाल में नियुक्त किए लोगों ने अभी ठीक से प्रशिक्षण भी नहीं लिया था लेकिन विभाग प्रमुख ने बाकायदा प्रेस नोट भी जारी कर दिया कि सभी का सम्मान किया जाएगा। बाकायदा सम्मानित होने वालों की सूची भी जारी कर दी। लाडो बचेगी या नहीं, परिणाम आशानुकूल आएंगे या नहीं, यह तय नहीं है लेकिन सम्मान होगा, यह तय हो गया। सम्मान के लिए जुगाड़ करने या सिफारिश करवाने के उदाहरण तो कई मिल जाएंगे लेकिन बिना कुछ किए ही सम्मान की घोषणा अपने आप में अनूठी है।
🔺इनकार की वजह
श्रीगंगानगर जिले में डेंगू फैला हुआ है। यह बात जगजाहिर है। बाकायदा इसके आंकड़े भी दर्ज हैं। रोगियों के नाम भी नोट किए जा रहे हैं। रोज नए रोगी भी आ रहे हैं। जहां डेंगू के रोगी मिलते हैं, वहां फोगिंग, स्प्रे आदि का काम भी किया जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग डेंगू होने की बात को मान रहा है लेकिन डेंगू से कथित मौतों पर साफ इनकार कर रहा है। जिला प्रशासन व ऊपर जो रिपोर्ट भेजी जा रही है, इसमें बाकायदा हर स्तर पर यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि एक भी मौत डेंगू से नहीं हुई। अब विभाग को कौन समझाए कि क्या रोग फैलना शर्मनाक नहीं है। वह भी हर साल। जितनी कवायद इन कथित मौतों से इनकार करने में की जा रही है, जितनी ऊर्जा यह आंकड़े जुटाने में खर्च हो रही है, उतनी अगर रोकथाम के लिए कर ली जाए तो इस तरह के रोग फैले ही नहीं।
🔺वाह रे इंजीनियरों
बड़े बुजुर्ग अक्सर यह कहते मिल जाएंगे कि आप पढ़े हो अभी गुणे नहीं हो। मतलब अभी केवल पढ़ाई की है, अनुभव की कमी है। वैसे हकीकत में पढ़ाई और अनुभव हैं भी तो अलग-अलग बातें। कई बार अनुभव के आगे पढ़ाई भी फैल हो जाती है। श्रीगंगानगर शहर के कई हिस्सों में इन दिनों नई पेजयल पाइप लाइन बिछाई जा रही है। संबंधित निर्माण कंपनी ने इसमें पानी के प्रेशर को चैक करने के लिए बाकायदा इंजीनियर नियुक्त किए हैं। यह नए नवेले इंजीनियर पाइप लाइन देखने तो आ गए लेकिन मर्ज का इलाज ठीक से नहीं कर पाए हैं। यूआईटी की बगल वाली गली में बिछाई गई पाइप लाइन का लीकेज इन इंजीनियरों को छठी का दूध याद दिला रहा है। वह एक लीकेज ठीक करते नहीं हैं, उससे पहले नया लीकेज हो जाता है। बहरहाल, अनुभवहीन इंजीनियरों की इस कार्यप्रणाली का खमियाजा आमजन भुगत रहे हैं।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 30 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित