Tuesday, November 14, 2017

लेकिन वो बात अब कहां.

 'इक बंजारा गाए
हम श्रीगंगानगर के लोग, जितने मस्तमौला हैं, उतने ही शायद भुलक्कड़ भी हैं। हम भूल बहुत जल्दी जाते हैं। हमारी यही आदत यहां आने वाले अधिकारियों में भी बहुत जल्दी घर कर जाती है। या यूं कह लीजिए यहां आने वाले अधिकारी भी हमारी संस्कृति व आचार-विचार आदि में इतने रच बस जाते हैं कि उनको देखकर लगता ही नहीं कि वे श्रीगंगानगर से बाहर के हैं। सांड की टक्कर से मोटरसाइकिल सवार एक वरिष्ठ नागरिक की मौत का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। इतना तो याद ही होगा कि साक्षात मौत के इस वीडियो को देखकर रोंगटे खड़े गए थे। यह वीडियो अगर याद है तो इस मौत के बाद उपजे आक्रोश तथा नगर परिषद व जिला प्रशासन की वह तत्परता भी थोड़ी बहुत याद होगी। किस तरह हम लोगों ने अधिकारियों पर दबाव बनाया और फिर प्रशासनिक नुमाइंदों ने निराश्रित गोवंश की धरपकड़ शुरू की। सप्ताह भर तक तो यह काम ठीक ठाक चला लेकिन इसके बाद यह नेपथ्य में चला गया। जानमाल की सुरक्षा से जुड़ा यह मसला एक तरह से दरकिनार कर दिया गया। हम लोग तो भूले ही प्रशासनिक अधिकारियों की दिलचस्पी भी कम होती चली गई। हां, उस वक्त प्रशासन ने शहर ही नहीं समूचे जिले को निराश्रित गोवंश से मुक्ति दिलाने का दावा जरूर किया था। दावा भी भला अब किसको याद होगा। भूलने की आदत जो है! हालत देखिए शहर की सड़कों पर गोवंश अब भी इतनी ही स्वच्छंदता के साथ विचरण कर रहा है। सड़कों पर इनकी संख्या देखकर लगता ही नहीं है कि कोई कार्रवाई हुई भी थी क्या?
कभी कभी तो यह भी लगता है कि पकड़ा गया और गोशालाओं में भेजा गया गोवंश कहीं फिर से बाहर तो नहीं आ गया? पर अब सब चुप हैं। प्रशासन की स्मृति से यह तो मसला संभवतया गायब ही हो चुका है। और इधर, हम लोग भी लंबी तान के सोने में मशगूल हैं। यह चुप्पी व नींद तभी टूटेगी, जब फिर कोई नया हादसा होगा। हम फिर गुस्सा होंगे। हमारा आक्रोश देखकर ही तो प्रशासन को याद आएगा। वैसे भी जिस शहर में प्रजा और प्रशासन दोनों ही एक जैसे हो जाते हैं, वहां फिर व्यवस्थाएं ठीक से काम नहीं करती।

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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के आज यानि 31 अगस्त के अंक में प्रकाशित

यह शहर है अमन का

टिप्पणी
यह शहर अमन का है तो सामाजिक समसरता का भी है। यह शहर साझा संस्कृति का है तो भाईचारे को जिंदा रखने वालों का भी है। यह शहर जोश व जज्बे वाले लोगों का भी उतना ही है, जितना इंसानियत व मानवता में विश्वास करने वालों का है। यह शहर अमनपसंद व मेहनतकश लोगों का है। यहां की सेवा भावना की तो अक्सर मिसालें दी जाती हैं। एक दूसरे के दुख-दुख दर्द में काम आना यहां के खून में है। खूबियों व खासियतों से परिपूर्ण इस तरह के शहर में शांति भंग होना किसके हित में है? कोई भी अफवाह भला यहां किसको राहत देगी? किसी तरह का भय व दहशत के माहौल में कौन चैन की सांस ले पाएगा? गणेश चतुर्थी जैसे पुनीत मौके के दिन जिस तरह सेशहर की शांति को भंग करने के मामले सामने आए हैं, वह न केवल चिंताजनक हैं बल्कि सोचने पर मजबूर भी करते हैं। पुरुषार्थ व परोपकार जैसे फलसफे में विश्वास करने वाले लोगों के बीच इस तरह की बातें खटकती हैं, कचोटती हैं। इस तरह के हालात में चुप बैठने के बजाय सद्भाव बढ़ाने के प्रयास और तेज होने चाहिएं। यह समय विश्वास को और ज्यादा प्रगाढ़ करने का है। यह समय प्रतिकूल परिस्थितियों का धैर्य के साथ सामना करने तथा और अधिक मजबूती से उठने का है। यह समय कानून व संविधान का सम्मान करने वालों के समर्थन का तथा व्यवस्था को बनाए रखने का है। यह समय सतर्क व चौकन्ना रहने का भी है। हम सब शहर के लोग हैं। हमेशा साथ-साथ रहते आए हैं। शहर का अमन-चैन हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। भला यह कौन चाहेगा कि मन में खटास पैदा हो। दूरियां बढ़ें। क्योंकि यह शहर भी यहीं रहेगा और शहर के लोग यहीं रहेंगे। लेकिन एेसी कोई खाई हम सबके बीच न हो। हमारे सद्भाव व भाईचारे पर एेसा कोई धब्बा न लगे जो बाद में शर्मसार करे। जिसकी टीस जिंदगी भर हमको व बाद में आने वाली पीढि़यों को सालती रहे। हम तो हमेशा दूसरों का भला करने की सोचने वाले लोगों मंे से हैं। तुलसीदास जी ने कहा भी है- 
परहित सरिस धर्म नहीं भाई,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
मतलब दूसरे की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरे को कष्ट देने के समान कोई और अधर्म, कोई और पाप कोई और नीचता नहीं है। परहित को सर्वोपरि मानने के इस जज्बे को बनाए रखें, मानवता को जिंदा रखें। भाईचारे को कायम रखें। यही तो हम सब की पहचान है। बस कुछ दिन धैर्य बनाएं रखें और अफवाहों पर बिल्कुल भी ध्यान न दें। आपका आज का धैर्य ही इस शहर के अमन, यहां की परम्परा, संस्कृति और सभ्यता को जीवंत बनाएगा।
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 26 अगस्त 17 के अंक में प्रकाशित 

श्रीगंगानगर में कारगर नहीं रहा 'रोड डवलपमेंट कार्ड'

यह मामला बड़ा रोचक है। इसमें मुआवजे का निर्धारण सरकार के नुमाइंदों ने किया। बाद में उनको लगा कि यह निर्धारण तो ज्यादा है। सुनवाई हुई और मुआवजे की राशि कम हो गई। सरकारी नुमाइंदों को यहां भी संतोष नहीं हुआ, उनको लगा यह राशि भी ज्यादा है तो फिर से सुनवाई की गई। विधानसभा तक में घोषणा कर दी गई लेकिन मामला फिर अटक गया। अब फैसला 28 अगस्त को आएगा। देखना है सरकारी नुमाइंदे इस राशि को मानते हैं या फिर सुनवाई का राग अलापेंगे। कुछ इन्ही बिन्दुओं पर केन्द्रित है मेरी यह खबर जो,हुई है।
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नेशनल हाइवे-62 का मामला
तीन बार हो चुका है मुआवजे का निर्धारण
226 करोड़ से घटकर 139 करोड़ तक पहुंचा
श्रीगंगानगर. उदयपुर में 29 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रोड डवलपमेंट कार्ड का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा या नहीं, यह तो अभी तय नहीं लेकिन श्रीगंगानगर में रोड डवलमटमेंट से ही जुड़ा एक मामला न केवल साढे़ तीन साल से अधूरा है, बल्कि मुआवजे के लिए किसानों को खून के आंसू भी रुला रहा है। किसानों को मुआवजे के रूप में फूटी कौड़ी तक नहीं मिली। इसके विपरीत मुआवजा तीन बार तय चुका तथा 226 करोड़ से घटाकर 139 करोड़ कर दिया गया है। भूमि अवाप्ति अधिकारी तथा नेशनल हाइवे ऑथारिटी के बीच अटके इस मामले में नुकसान किसानों को रहा है। देरी की वजह से इस महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट की लागत बढऩा भी तय है। इस मामले में आबर््िाटेटर की सुनवाई में दर्जनभर से अधिक तारीखें पड़ चुकी हैं लेकिन फैसले का इंतजार है। किसान मुआवजे के लिए कई बार धरना प्रदर्शन कर चुके हैं।
साल पहले उद्घाटन, चार माह पहले टोल
विडम्बना देखिए कि हाइवे का काम अभी अधूरा है लेकिन इसका उद्घाटन हो चुका है और इस पर टोल टैक्स भी चालू हो गया है। पिछले साल 17 अगस्त को प्रदेश की मुख्यमंत्री तथा केन्द्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गड़करी उद्घाटन कर चुके हैं। इतना ही नहीं इस मार्ग पर करीब चार माह पूर्व टोल भी शुरू कर दिया गया है।
किसानों को सता रहा डर
प्रभावित किसानों का कहना है कि वे इस मामले में वे किसी भी स्तर पर पार्टी नहीं है। मुआवजा निर्धारण करने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं है। मुआवज देने तथा निर्धारण का काम सरकार को ही करना है। हर बार मामला भूमि अवाप्ति अधिकारी व नेशनल हाइवे ऑथोरिटी के बीच अटक जाता है। हर बार सुनवाई होती है लेकिन नेशनल हाइवे ऑथोरिटी आपत्ति लगा देता है। किसानों को इस बार भी यकीन नहीं है कि नेशनल हाइवे ऑथोरिटी (एनएचए) आगामी फैसले पर भी सहमत होगा, उनको इसी बात का डर सता रहा है। किसानों का कहना है कि तीन साल से न तो वे जमीन में बुवाई कर पा रहे हैं न ही उनको मुआवजा मिला है।
फैक्ट फाइल
कांडला से पठानकोट को जोडऩे वाले नेशनल हाइवे 62 के पुननिर्माण का है मामला।
सरकार ने इसके लिए 1अपे्रल 2014 को किसानों की करीब 56.91 हैक्टेयर भूमि अधिग्रहित की थी।
करीब चार सौ किसानों से जुड़ा हुआ है मामला।
नोटिफिकेशन 24 जनवरी 2016 को जारी किया गया।
एडीएम सूरतढ़ ने 10 फरवरी 2016 में 225.89 करोड़ मुआवजे अवार्ड पारित किया।
एनएचए की आपत्ति पर ऑबिटेटर व तत्कालीन जिला कलक्टर ने इसे घटाकर 195 करोड़ कर दिया।
इसी मुआवजे में 26 मार्च 2017 को फिर कटौती करते हुए इसे 139 करोड़ कर दिया गया।
इसी मुआवजे की 28 मार्च 2017 को विधानसभा में भी घोषणा की गई थी।
हाइवे का नेतेवाला से साधुवाली तक करीब 14 किमी काम अभी भी अधूरा।
श्रीगंगानगर शहर के लिए बाइपास का काम करेगा यह हाइवे।
सुनवाई का काम पूरा हो चुका है। 28 अगस्त को फैसला सुना दिया जाएगा। इसके बाद 30 अगस्त को रिपोर्ट नेशनल हाइवे ऑथोरिटी को भेज दी जाएगी। आगे का फैसला वहीं से होना है।
ज्ञानाराम,
जिला कलक्टर, श्रीगंगानगर
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 25 अगस्त 17 के अंक में प्रकाशित 

एनओसी और आरोपों की हो जांच

शहर के वार्ड 34 के लोगों के संघर्ष का परिणाम रंग लाया। सप्ताहभर से वार्डवासी पार्षद के घर पर लग रहे एक मोबाइल टावर का विरोध जता रहे थे। आखिरकार विरोध व एकजुटता को देखते हुए नगर परिषद को टावर लगाने की कवायद रोकनी पड़ी। यह मामला महत्वपूर्ण इसीलिए है, क्योंकि यह लोगों की एकजुटता की जीत है। विरोध मोबाइल टावर का तो था ही इसकी एक बड़ी वजह जनप्रतिनिधि के घर पर लगना भी था। वह जनप्रतिनिधि जो वार्डवासियों के वोटों से जीता और उन्हीं को अंधेरे में रखकर यह टावर लगवाया जा रहा था। ऐसे में लोगों का गुस्सा बढऩा स्वभाविक था। टावर लगवाने के लिए भले ही पार्षद ने नगर परिषद से अनुमति (एनओसी) ली हो यह अलग विषय है लेकिन इसके गुपचुप तौर-तरीकों ने लोगों के विरोध को बढ़ाया। 
जनप्रतिनिधि शुरू में ही अगर खुद चलाकर ही वार्डवासियों की बात को स्वीकार कर लेते तो उनका कद बढ़ जाता। आज इस तरह किरकिरी तो नहीं होती। बहरहाल, वार्ड के लोग बधाई के पात्र हैं कि वे अपनी बात पर अडिग रहे और परिषद अधिकारियों को अंतत: उनकी बात माननी पड़ी। वाकई यह जीत जनता जनार्दन की है। यह जीत कई मायनों में अलग है। यह एकजुटता एक तरह की नजीर है। 'मेरा क्या लेता है।' 'मेरा क्या जा रहा है।' 'जब सामने वाला ही नहीं बोल रहा है तो मैं क्यों बोलूं। जैसी मानसिकता में जीने वालों को यह जीत दर्पण दिखाती है। और हां, इस तरह के संघर्ष केवल टावर तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। जहां भी जनता के हितों की अनदेखी हो वहां इसी तरह एकजुटता से पेश आना चाहिए। जनता जिस दिन जिम्मेदारों से सवाल जवाब करेगी, उनको कठघरे में खड़ा करना शुरू करेगी, नि:संदेह आधी समस्याओं का निस्तारण स्वत: हो जाएगा। परिषद व प्रशासन इस बात से सबक जरूर लें कि इस तरह के मामलों में अनुमति जारी करने से पहले जनता का पक्ष भी जरूर जान लेना चाहिए। अगर यह नहीं जाना जाता या जानने में किसी तरह की चालाकी की जाती है तो जिला प्रशासन को पड़ताल कर संबंधितों के खिलाफ कार्रवाई करने से नहीं हिचकना चाहिए। इतना ही नहीं परिषद के नुमाइंदों पर मिलीभगत के जो आरोप सरेआम लगे हैं, उनकी जांच कर सच्चाई को सार्वजनिक करने से भी गुरेज नहीं करना चाहिए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 24 अगस्त 17 के अंक में प्रकाशित 

सकारात्मक सोच से संवरी गांव की सूरत


श्रीगंगानगर. 'मान लो हार है और ठान लो तो जीत है। जीवन के फलसफे से जुड़ी इस कहावत को चरितार्थ करना हर किसी के बस की बात नहीं होती। जिले की पदमपुर पंचायत समिति की ग्राम पंचायत घमूड़वाली के सरंपच राजाराम जाखड़ भी अच्छा करने की ठानने वाले विरले शख्सों में शामिल हैं। उनकी सकारात्मक सोच का ही नजीता है कि साफ-सफाई, स्वच्छता व हरियाली के मामले में घमूड़वाली न केवल जिले बल्कि समूचे बीकानेर संभाग में अपनी धमक रखता है। स्वच्छता के मामले में इस ग्राम पंचायत को पिछले दिनों संभाग स्तर पर सम्मानित भी किया गया।
घमूड़वाली ग्राम पंचायत का कार्यालय अपने आप में अनूठा है। बाहर से देखने पर यहां हरियाली दिखाई देगी। कार्यालय परिसर में ही बड़ा पार्क है, जिसमें छायादार पेड़ व मखमली दूब है। बैठने की व्यवस्था है तो शाम को फव्वारे भी चलते हैं। लोग यहां सुबह-शाम घूमने आते हैं। कार्यालय के भीतर का नजारा तो किसी कॉरपोरेट ऑफिस से कम नहीं। समूचा कक्ष वातानुकूलित है। बिजली गुल होने पर सोलर ऊर्जा से आपूर्ति होती है। बैठकें, प्रशिक्षण व कार्यशाला आदि के लिए फर्नीचरयुक्त बड़ा हॉल भी है। इतना ही नहीं है मेहमान के लिए रेस्ट हाउस है। इसमें डबल बैड, एसी, टीवी व अटैच लेट-बाथ है। शीघ्र ही पंचायत भवन में पुस्तकालय भी शुरू होने वाला है।
गांव के 80 प्रतिशत रास्ते पक्के
घमूड़वाली गांव के करीब 80 प्रतिशत रास्ते पक्के हैं। चौक हो या रास्ता सभी जगह इंटरलोकिंग की गई है। गांव में नाली नहीं है। इसके लिए घरों के आगे सोखते गड्ढे (कुइयां) बना दी गई हैं। गांव से गुजरने वाले रास्ते पर फुलवारी लगाकर रैलिंग लगाई गई है। गांव में मॉडल तालाब भी बनाया गया है। वहीं, गांव का मुक्तिधाम भी हरा-भरा है। वहां भी सौन्दर्यीकरण किया गया है।
पिताजी ने नहीं करने दी नौकरी
जाखड़ घमूड़वाली ग्राम पंचायत के दूसरी बार सरपंच बने हैं। इससे पहले 2005 से 2010 तक भी वे सरपंच रहे। इससे पहले वे जिला परिषद सदस्य तथा क्रय-विक्रय सहकारी समिति रिडमलसर के चैयरमैन रहे। राजाराम ने 1982 में अजमेर के राजकीय महाविद्यालय से एमए की लेकिन उनके पिता ने नौकरी नहीं करने दी। इसके बाद राजाराम ने राजनीति को ही सेवा का माध्यम बनाया। शेष रहे कार्यकाल में सरपंच की प्राथमिकताओं में इंटरलोकिंग का अधूरा काम पूरा करवाना, स्कूल भवन का जीर्णोद्धार, स्ट्रीट लाइट तथा सड़क के दोनों तरफ फुटपाथ बनाना है।
शुद्ध पानी के लिए यूरो सिस्टम
ग्रामीणों को शुद्ध व स्वच्छ पानी मिले, इसके लिए पंचायत कार्यालय में एक लाख रुपए की लागत से यूरो सिस्टम लगाया गया है। इसकी क्षमता चार हजार लीटर है। इसके लिए दो टंकियां रखी गई हैं। नहर का पानी यहां डिग्गी में आता है। डिग्गी से पानी फिल्टर करने के बाद टंकियों में डाला जाता है।
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ाजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 24 अगस्त 17 के अंक में प्रकाशित

आर्थिक अभावों पर शिक्षा के उजियारे की जीत


श्रीगंगानगर. आर्थिक दृष्टि से कमजोर लेकिन प्रतिभाशाली विद्यार्थी आगे की पढ़ाई किस तरह से जारी रखें तथा उनको स्वावलंबी कैसे बनाया जाए? यह दो ज्वलंत सवाल कमोबेश देश के हर छोटे या बड़े शहर में किसी न किसी रूप में जरूर मिल जाएंगे, लेकिन श्रीगंगानगर में इन दोनों सवालों का जवाब आज से 29 साल पहले ही खोज लिया गया था। तब छोटे स्तर पर शुरू हुई यह सकारात्मक पहल अब वटवृक्ष का रूप ले चुकी है। आर्थिक रूप से कमजोर सात हजार से अधिक विद्यार्थियों ने विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति से जुड़कर अपना भविष्य सुनहरा किया है। इनमें कई तो आरजेएस, इंजीनियर, व्याख्याता, डॉक्टर तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मैनेजर तक बन चुके हैं। आठवीं तक संचालित इस स्कूल में फिलहाल करीब 300 बच्चे अध्ययनत हैं।
दानदाताओं की लंबी सूची
23 अक्टूबर 1988 को श्रीगंगानगर के एसजीएन खालसा महाविद्यालय के प्राध्यापक श्यामसुंदर माहेश्वरी की अगुवाई में विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति बनी, जिसमें समाज के गणमान्य नागरिकों ने सहयोग किया। वर्तमान में इस संस्था का सहयोग करने वालों की फेहरिस्त लंबी है। शिक्षा का उजियारा फैलाने के इस पुनीत के काम के लिए प्रो. माहेश्वरी को 2009 में पदमश्री से नवाजा जा चुका है।

निजी स्कूलों से कम नहीं है
दानदाताओं के सहयोग से बना विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति उच्च प्राथमिक स्कूल का भवन निजी स्कूल भवनों से कमत्तर नहीं। स्कूल में बच्चों के लिए टाट-पट्टी के बजाय फर्नीचर है। हर कक्षा-कक्ष में पंखे लगे हैं। विद्यालय परिसर में जगह-जगह स्लोगन लिखे हैं। विद्यार्थियों के लिए गणवेश, जूते, बस्ता व पढ़ाई सब नि:शुल्क है। यह विद्यायल भवन 1999 में बना। शिक्षा के साथ सिलाई, संगीत व कम्प्यूटर भीस्कूल में शिक्षा के साथ छात्राओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक कालांश सिलाई प्रशिक्षण का भी है। इसमें बाहर की जरूरतमद महिलाएं भी प्रशिक्षण ले सकती हैं। उनके लिए यह नि:शुल्क है। कम्प्यूटर लैब है तो संगीत की शिक्षा भी दी जाती है। स्कूल परिसर में एक पुस्तकालय भी है, जिसमें करीब तीन हजार किताबें हैं।
होती है बेहद खुशी
जरूरतमंद बच्चे समिति के प्रयासों से जब पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बनते हैं तो बेहद खुशी होती है। आठवीं तक तो बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। आगे की पढ़ाई का खर्चा समिति वहन करती है। विद्यालय संचालन में शहर के दानदानाओं का योगदान है। समिति के सहयोग से पढ़े कई विद्यार्थी भी आत्मनिर्भर बन कर अब समिति की मदद कर रहे हैं। यह सब देखकर सुकून मिलता है।प्रो. श्यामसुंदर माहेश्वरी, सचिव, विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति, श्रीगंगानगर।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण में 13 अगस्त 17 को प्रकाशित

बेहद साधारण शख्स

 यह शख्स बेहद साधारण हैं, लेकिन इनकी सोच व काम बड़ा है। इसी काम के बूते 2009 में उनको पदमश्री से नवाजा गया था। यह फोटो श्री श्यामसुंदर माहेश्वरी जी का है। आज एक कार्यक्रम के सिलसिले में माहेश्वरी जी पत्रिका कार्यालय में आमंत्रित किए गए थे। इस दौरान इनसे रूबरू होने का मौका मिला। हालांकि नाम पहले सुन चुका था लेकिन मुलाकात आज ही हुई। करीब घंटे भर के संवाद में उनसे काफी बातें साझा कीं। माहेश्वरी जी मूलत:
्रीगंगानगर में कॉलेज में कॉमर्स विषय के व्याख्याता रहे हैं। इन्होंने श्रीगंगानगर में रहते 1988 में दबे-कुचले व मुख्यधारा से कटे बेहद गरीब घरों के बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया। माहेश्वरी जी का यह छोटा काम आज वट वृक्ष बन चुका है। इनके द्वारा विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति के नाम से बनाई गई संस्था है जो कि वर्तमान में आठवीं तक का एक स्कूल चलाती है। स्कूल में पढऩे वाले बच्चे बेहद गरीबों परिवारों के ही हैं। इनकी गरीबी का आकलन माहेश्वरी जी खुद बच्चों के घर जाकर करते हैं। घर के हालात से ही तय होता है कि बच्चा गरीब है। और हां प्रवेश के लिए सिफारिश किसी की नहीं चलती है। जो मापदंड तय हैं उन पर खरा उतरने वाला ही प्रवेश का हकदार होता है। स्कूल में पढाई, किताब, डे्रस, जूते आदि का तमाम खर्चा समिति ही उठाती है। वर्तमान में इस स्कूल में तीन सौ के करीब छात्र हैं। सबकी शिक्षा निशुल्क है। इस स्कूल से अब तक सात हजार से ज्यादा बच्चे शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं। खास बात है कि इस स्कूल से निकले विद्यार्थियों में से कोई जज है तो कोई डाक्टर है। कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे ओहदे पर हैं तो कोई आयकर विभाग में है। अपने शिष्यों की उपलब्धि पर इस गुरु को जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। एक खास बात और माहेश्वरी जी ने कभी खुद के नाम या फोटो का मोह नहीं रखा। वो भगवान का शुक्रिया अदा करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं इस प्रकृति ने, इस धरती ने तथा इस देश में मेरे का बहुत दिया है, ऐसे में मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं भी कुछ देऊं। वाकई माहेश्वरी जी का यह योगदान अनुकरणीय व प्रेरणास्पद है। उम्र के 65 बसंत देख चुके माहेश्वरी जी का जुनून व जज्बा देखते ही बनता है। सौ सौ सलाम इस गुरु को। स्कूल, इसके विद्यार्थियों व इसकी खासियत पर भी जल्द ही लिखूंगा..।

पत्थर भी मारो तो झुंझुनूं के बंदे को लगेगा...


बस यूं ही
काफी दिनों से कुछ लिखा नहीं। प्रमुख वजह तो काम की व्यस्तता ही रही। कोई रोचक विषय भी नहीं मिला। खैर, अपनी बात एक चर्चित जुमले से करता हूं। आप देश या दुनिया में कहीं पर भी चले जाओ आपको झुंझुनूं का आदमी मिल ही जाएगा। इसको इस तरह भी कहते हैं कि भरी भीड़ में पत्थर मारो तो एक दो जने झुंझुनूं के निकल ही जाएंगे, जिनके पत्थर लगेगा। मेरे साथ एेसे कई अनुभव हो चुके हैं, जहां भी गया झुंझुनूं का आदमी टकरा ही गया। हां समय के साथ किसी के नाम जरूर भूल गया हूं लेकिन घटनाक्रम याद हैं। बीए तक की शिक्षा तो झुंझुनूं में हुई। इसके बाद पत्रकारिता के सिलसिले में बाहर निकला तो भोपाल में रूम पार्टनर जो मिला वह झुंझुनूं के पौंख गांव का ही था। पत्रकारिता का प्रशिक्षण पूरा कर श्रीगंगानगर आया तो यहां एक दो जने तो गांव के ही मिल गए। एक और शख्स भडौंदा खुर्द के मिले। उस वक्त रिको में रहते थे। इसके बाद अलवर गया तो वहां भी हेजमपुरा के एक परिवार से परिचय हुआ संयोग से उनकी रिश्तेदारी भी गांव में निकल आई। सीकर व झुंझुनूं काम किया तो यहां तो झुंझुनूं के लोग मिलने ही थे। झुंझुनूं के बाद छत्तीसगढ़ बिलासपुर गया। संयोग देखिए जहां मकान किराये पर लिया उसी की बगल मे रहने वाले चिकित्सक नवलगढ़ के थे। पत्रिका में काम करने वाले एक युवती भी झुंझुनूं की निकली। एक दो संवाददाता भी एेसे मिले जिनके पूर्वज झुंझुनूं से पलायन कर बिलासपुर पहुंचे थे।। इसके बाद भिलाई आया तो वहां भी पौंख के सज्जन मिले। नाम भूल रहा हूं लेकिन इतना याद है कि उनका ससुराल और मेरा ससुराल भी एक ही निकला। वो काफी समय से भिलाई में रहते हैं, वहीं पर मकान बना लिए। भिलाई से बीकानेर आया, वहां तो झुंझुनूं के लोगों की भरमार है। और तो और गांव के भी सात आठ परिवार रहते हैं।
इसी बीच 2010 का वाकया याद आ रहा है। एक कार्यक्रम के सिलसिले में गुजरात के अहमदाबाद जाना हुआ। जयपुर से जो बस पकड़ी उसके परिचालक की आवाज जानी पहचानी लगी और तपाक से पूछ लिया, भाई झुंझुनूं का है के। उसने हां कहा झट से गांव पूछ लिया। उसने कहा ककडे़ऊ। मैंने फिर पूछ लिया छोटा या बड़ा। खैर, अहमदाबार से जब लौट रहा था और टिकट खिड़की पर गया तो काउंटर पर बैठे व्यक्ति के लहजे से ही समझ गया कि यह झुंझुनूं का है। आत्मविश्वास के साथ पूछ लिया तो वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और स्वीकृति में सिर हिला दिया। वह मंडावा क्षेत्र का निकला।
बहरहाल, बीकानेर से श्रीगंगानगर आ गया। यहां पुलिस, नर्सिंग में झुंझुनूं के लोगों की भरमार है ही। पीडब्ल्यूडी व सर्किट हाउस में भी झुंझुनूं के लोग हैं। ताजा मामला शनिवार पांच अगस्त का है। मैं अपने सहयोगियों के साथ रायसिंनगर से श्रीगंगानगर लौट रहा था। श्रीगंगानगर बाइपास पर यातायात पुलिस के जवान ने हमारी कार को रोक लिया और कागजात मांगे। मैं जब उतर के उनके पास गया तो उन्होंने मेरा परिचय पत्र देखा। करीब पांच मिनट के वार्तालाप के बाद एक जने ने मेरे परिचय पत्र को पलटते हुए कहा कि आप बीकानेर के हैं क्या? मैंने कहा जी नहीं, यह परिचय पत्र बीकानेर शाखा से जारी हुआ है मैं बीकानेर का नहीं हूं। इस पर उनका अगला सवाल था कि आप कहां के रहने वाले हैं। मैंने झुंझुनूं का नाम लिया तो पास बैठे देवकरण नामक जवान के चेहरे पर मुस्कान आ गई है। और हिन्दी से ठेठ मारवाड़ी में आते ही कहने लगा कि भाईजी झुंझुनूं में कहां के हो। मैंने कहां चिड़ावा तहसील में है तो उन्होंने कहा गांव को नाम बताओ। मैंने जैसे ही गांव का नाम लिया तो देवकरण ने आसपास के कई गांव के नाम गिना दिए। मैं समझ चुका था कि देवकरण भी आसपास के गांव का ही है। मैंने पूछ लिया तो उसने अपने गांव का नाम घरड़ाना खुर्द बताया मैं मुस्कुरा रहा था झुंझुनूं का आदमी मिल ही जाता है। कहीं भी कभी भी।

ये निरीक्षण हैं किसके लिए

टिप्पणी 
श्रीगंगानगर में आजकल निरीक्षण का काम बहुत हो रहा है। कभी विभिन्न विभागों में कर्मचारियों की उपस्थिति जांची जा रही है तो कभी विद्यालयों में पोषाहार का निरीक्षण हो रहा है। जिला अस्पताल तो निरीक्षण की स्थायी जगह बन चुका है। यहां कमोबेश हर सप्ताह व्यववस्थाओं का जायजा लिया जाता है। निरीक्षण के दौरान मिलने वाले अनियमितताएं बाकायदा समाचार पत्रों की सुर्खियां भी बनती हैं। वैसे इन निरीक्षणों का मोटे तौर पर मकसद यही होता है कि इस बहाने एक तो विभाग की अंदरूनी व्यवस्थाएं जांच ली जाती हैं, दूसरा लापरवाह कार्मिकों में कार्रवाई का भय रहता है। सार के रूप में कह सकते हैं कि इन निरीक्षणों का उद्देश्य व्यवस्थाओं में जो खामियां हैं, उनमें सुधार करना या करवाना होता है। खैर, इतनी कवायद के बावजूद हालात जस के तस हों, मसलन न व्यवस्थाएं सुधरें और न ही लापरवाह कार्मिकों में भय दिखाई दे तो यह निरीक्षण महज रस्मी नजर आते हैं। इनसे गंभीरता गायब हो जाती है।
कुछ उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि इन निरीक्षणों से गंभीरता गायब हो रही है। श्रीगंगानगर एसडीएम लगातार अस्पताल का निरीक्षण कर रह ेहैं लेकिन व्यवस्थाओं में सुधार कैसा व कितना हुआ है, यह सबके सामने हैं। इसी तरह जिला प्रशासन भी निरीक्षण करके विभिन्न विभागों में कार्मिकों की उपस्थिति जांच रहा है, लेकिन कार्मिकों के अनुपस्थित मिलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इनकी संख्या में किसी तरह की कमी नहीं आई हुई दिखाई नहीं देती। इधर नगर परिषद में भी समय-समय पर निरीक्षण किया जाता है। खुद सभापति भी इस तरह के निरीक्षण कर चुके हैं लेकिन हालात बदले हुए नजर नहीं आते हैं।
बहरहाल, निरीक्षण केवल विभागीय काम का ही हिस्सा है तो भले ही चलता रहे लेकिन यह सारी कवायद अगर व्यवस्थाओं में सुधार कर आमजन को राहत देने के लिए है तो फिर कार्रवाई भी रस्मी नहीं होनी चाहिए। जब तक लापरवाही कार्मिकों में कार्रवाई का भय नहीं होगा उनकी लेटलतीफी दूर नहीं होगी। व्यवस्था में भी सुधार तभी होगा जब जिम्मेदारों कार्रवाई का डंडा चले। क्योंकि, इस तरह के निरीक्षणों की सार्थकता तभी है जब व्यवस्थाओं में सुधार हो और वह दिखाई भी दे। यह महज सुर्खियों बटोरने या तात्कालिक वाहवाही के लिए ही है तो अधिकारियों को इस तरह के निरीक्षणों से बचना चाहिए।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 5 अगस्त 17 के अंक में प्रकाशित 

आइए अफवाहों पर अंकुश लगाएं

टिप्पणी
श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ सहित प्रदेश के कई हिस्सों में इन दिनों एक अफवाह की चर्चा जोरों पर हैं। हालात यह हैं कि इस अफवाह ने लोगों को इस कदर भयभीत कर रखा है कि वे ठीक से सो नहीं पा रहे। कई गांवों में तो लोग रात-रात भर जागकर पहरा तक देने लगे हैं। यह अफवाह है कथित रूप से महिलाओं के बाल कटने की। अकेले श्रीगंगानगर जिले में कथित रूप से बाल कटने के दर्जनभर से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं। खास बात यह भी है कि इन तमाम घटनाओं का कोई गवाह नहीं है। इसमें पीडि़त ही गवाह है और वह जो कहानी बताती है, वह किसी फंतासी फिल्म से कम नहीं होती। मसलन, किसी को अपने बाल कटे हुए दिखाई देते हैं तो किसी को बिल्ली नजर आती है। किसी को कुछ दिखाई नहीं देता सिर्फ पदचाप ही सुनाई देती है। 
वैसे यह जगजाहिर है कि अफवाह के पैर नहीं होते और वह आग से भी तेजी से फैलती है। इसका असर भी व्यापक स्तर पर देखना को मिलता है। कथित बाल कटने की घटना भी इसी का ही हिस्सा है। सप्ताह भर पहले तक इसकी कहीं चर्चा तक नहीं थी लेकिन आज इस अफवाह के चर्चे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जन की जुबान पर है। हालांकि मनोचिकित्सक, चिकित्सक, पुलिस, समाजशास्त्री व तर्कशील सोसायटी से जुड़े लोग इसको सिरे से खारिज कर रहे हैं और हकीकत भी यही है कि यह केवल कपोल कल्पित बातें हैं। हां एेसे बातों के प्रचार-प्रसार करने में कुछ शरारती तत्वों का दखल जरूर बढ़ जाता है। फिर भी कुछ सामान्य बातें जो यह साबित कर देती हैं कि यह अफवाह है। इसको इस तरह भी समझा जा सकता है कि कथित रूप से बाल केवल युवतियों/ महिलाओं के ही कट रहे हैं। इनमें भी अधिकतर कम उम्र की हैं और इस तरह की बातें ग्रामीण क्षेत्रों से ज्यादा जुड़ी हुई हैं। इतना ही नहीं प्रभावित परिवारों में अधिकतर में जागरुकता का अभाव भी नजर आता है। अधिकतर मामले कम पढ़े लिखे तथा नीचे तबके से जुड़े परिवारों के ही सामने आए हैं।
खैर, सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि जहां जागरुकता की कमी होती है, वहां अंधविश्वास भी अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावी होता है। अपनी बात को या अंधविश्वास को पुष्ट करने वाले इस तरह को मामलों को हवा देने से नहीं चूकते हैं। वैसे चिकित्सक इसको एक तरह का रोग मानते हैं जबकि जानकारों का मानना है कि परिवार में उपेक्षित महिला/ युवती परिजनों से सहानुभूति पाने या उनको इस बहाने डराने के लिए भी इस तरह की अफवाहों का सहारा ले सकती है। बहरहाल, अफवाह रोकने की जिम्मेदारी उन सभी की है, जो जागरूक हैं। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ते हैं तथा शिक्षा का उजियारा फैलाते हैं।
स्कूलों में अध्यापक प्रार्थना सभा के दौरान बच्चों को अच्छी तरह से समझा सकते हैं कि इस तरह का कोई मामला होता ही नहीं है। पुलिस भी लोगों को समझाएं तथा अफवाहें फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करे ताकि कोई लोगों को भयभीत करने की हिमाकत ही ना करे। इतना ही नहीं कोई शरारती तत्व इस तरह की अफवाहों का वाहक बन रहा है तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई हो। आइए हम सब भी मिलकर नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए इन अफवाहों पर अंकुश लगाएं तथा अपने आसपास भयमुक्त माहौल बनाएं
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राजस्थान पत्रिका के हनुमानगढ व श्रीगंगानगर संस्करण के 30 जुलाई 17 के अंक में प्रकाशित 

सवाल जवाब


यह सवाल जवाब उनके लिए नहीं हैं जो यह सब पढ़कर खुद को तटस्थ या निष्पक्ष नहीं रख पाते हैं। यह किसी समाज विशेष से संबंधित भी नहीं हैं, इसलिए ख्वामखाह दिमाग भी न लगाएं। हां इससे बेहतर सवाल-जवाब आपके जेहन में हैं तो आपके विचारों का स्वागत है। वैसे सवाल-जवाब से असहमति जताने वालों का भी स्वागत है लेकिन एक सीमा तक। 
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सवाल : नेता किसे कहते हैं?
जवाब : जो नेतृत्व करे वह नेता होता है।
सवाल- नेता कितने के प्रकार के होते हैं?
जवाब- नेता कई प्रकार के होते हैं। राजनीतिक नेता, सामाजिक नेता, स्वयंभू नेता आदि-आदि
सवाल : समाज का क्या एक ही नेता होता है?
जवाब : एेसे बहुत कम उदाहरण हैं जब किसी समाज का केवल एक ही नेता हो।
सवाल : समाज एक तो फिर नेता कई कैसे होते हैं?
जवाब : विचारधारा समान न होने पर समाज का नेतृत्व अलग-अलग नेता करने लग जाते हैं।
सवाल : यह विचाराधारा क्या होती है? थोड़ा विस्तार से बताओ।
जवाब : किसी के विचारों से सहमत नहीं होना अर्थात मतभेद होना।
सवाल : क्या सामाजिक नेताओं में मनभेद नहीं होता?
जवाब : होता है पर इसको मतभेद का नाम दे दिया जाता है।
सवाल : इतने सारे नेता, इतनी विचाराधारा फिर एकजुटता संभव है?
जवाब : बिलकुल नहीं हो सकती है। विचाराधारा एक होगी तभी एकजुटता संभव है अन्यथा बेमौसम का मेल।
सवाल : चलो यह बताओ राजनीतिक नेता समाज का होता है या सबका...?
जवाब : चुनाव से पहले समाज का, जीतने के बाद सबका।
सवाल : जीतने के बाद उसको भला समाज का करना चाहिए या सबका?
जवाब : जब नेता ही सबका है तो भला भी सबका का करना चाहिए।
सवाल : क्या नेता अपने समाज के जायज/नाजायज नैतिक/ अनैतिक काम के लिए बाध्य होता है?
जवाब : यह नेता की प्रकृति पर निर्भर करता है। राजनीतिक, सामाजिक व स्वयंभू नेताओं के अलग-अलग काम हैं।
सवाल : नेताओं की कार्यशैली किस तरह की होती है।
जवाब : हर प्रकृति का नेता हालात व परस्थितियों के हिसाब से काम करता है लेकिन भावनाओं से सब खेलते हैं। सारे नेाताओं में यही एक समानता होती है। भावनाएं भड़काने, भावनाएं भुनाने और भावनाओं से खेलने में इनका कोई मुकाबला नहीं होता है।

बिना विचारे जो करे...



टिप्पणी
'ज्यादा खुशी में कोई वादा ही नहीं करना चाहिए और गुस्से या आक्रोश की स्थिति में तत्काल किसी फैसले पर नहीं जाना चाहिए।, अक्सर यह नसीहत गाहे-बगाहे सुनने को मिल ही जाती है। श्रीगंगानगर में निराश्रित गोवंश को पकड़कर बाड़ेबंदी करने का फैसला भी आक्रोश की उपज ही माना जा सकता है। सांड की टक्कर से एक वरिष्ठ नागरिक की मौत के बाद उपजे आक्रोश के चलते नगर परिषद ने आधी अधूरी तैयारियों के साथ निराश्रित गोवंश पकडऩे की मुहिम शुरू की तथा दो तीन दिन की दौड़ धूप के बाद करीब चार सौ निराश्रित पशुओं को रामलीला मैदान में एकत्रित भी कर लिया। 
इतना कुछ करने के बाद भी पकड़े गए पशुओं से कहीं ज्यादा पशु अभी भी शहर की सड़कों व गलियों में विचरण करते दिखाई दे जाएंगे। रामलीला मैदान में जहां इस गोवंश को रोका गया, वहां शुरू में छांव को छोड़कर चारे व पानी की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। तेज धूप के कारण तीन दिन तक गोवंश बेहाल रहा। फिलहाल निराश्रित गोवंश को पकडऩे का काम रुका हुआ है और अब सारी कवायद इस बात की चल रही है कि जो गोवंश रामलीला मैदान में रोक रखा है उसको कहां रखा जाए? प्रशासनिक अधिकारी आस-पड़ोस की गोशालाओं का निरीक्षण कर वहां संभावनाएं तलाश रहे हैं? निर्माणाधीन नंदीशाला के अधूरे काम को पूर्ण करने का निर्देश जारी हो रहे हैं। इन तमाम बातों का सार यही है कि बिना विचारे कोई काम शुरू कर दिया जाता है तो फिर उसका परिणाम इसी तरह का सामने आता है। आनन-फानन में अब जो तैयारियां हो रही हैं, वह पशुओं की बाड़ेबंदी किए बिना भी हो सकती थी। बेहतर होता कि सभी तैयारियां पूर्ण करने के उपरांत की निराश्रित गोवंश की धरपकड़ शुरू होती। बिना किसी कार्ययोजना के पहले तो आधे अधूरे पशु पकड़े और जो पकड़े उनको रखने के लिए माकूल जगह ही नहीं है? यह सर्वविदित है कि निराश्रित गोवंश से समूचा शहर परेशान है और इस समस्या का स्थायी व ठोस समाधान सभी चाहते हैं, लेकिन इस तरह का समाधान तो कोई नहीं चाहेगा। जो तैयारियां अब हो रही हैं वह सब पहले हो जाती और इसके बाद निराश्रित गोवंश को पकडऩे का काम शुरू किया जाता तो न तो वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती और ना ही पशु धूप व गर्मी में बेहाल होते। निरीह प्राणी को इस तरह बदहाल व्यवस्था का शिकार भी नहीं होना पड़ता। बिना तैयारी के गोवंश पकडऩा आग लगने के बाद कुआं खोदने के जैसा ही है। बहरहाल, औपचारिक व वाहवाही वाली कार्रवाइयां शहर पहले भी बहुत देख चुका है। अब तो समस्या का स्थायी समाधान ही हो। भले ही दो की जगह चार दिन लग जाए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 12 जुलाई 17 के अंक में प्रकाशित 

सिर्फ राजस्व की चिंता

 टिप्पणी
श्रीगंगानगर के शराब ठेकेदारों ने बुधवार को पुलिस कार्रवाई के विरोध में दुकानें बंद रखी और चाबियां आबकारी अधिकारी को सौंप दी। ठेकेदारों का आरोप है कि पुलिस ने मंगलवार रात कार्रवाई के नाम पर शराब दुकान का शटर तोड़ दिया। वैसे रात आठ बजे के बाद शराब बिकने की सूचना पर पुलिस ने मंगलवार रात को चहल चौक के पास स्थित दुकान पर छापेमार कार्रवाई की थी। दो-तीन दिन पहले पुलिस ने सुखाडि़या सर्किल-मीरा मार्ग के पास भी बार की तरह शराब पिलाने पर कार्रवाई की थी। इससे पहले एसडीएम भी धानमंडी के पास एक शराब गोदाम को सीज कर चुके हैं। बहरहाल, शराब ठेकेदारों का विरोध कथित शटर तोडऩे को लेकर ही है तो यह जरूर जांच का विषय है लेकिन इस विरोध प्रदर्शन के पीछे एकमात्र भावना रात आठ बजे के बाद बेरोकटोक शराब बेचने की है तो यह बेहद गंभीर विषय है और व्यवस्था पर सवाल भी है। वैसे भी शहर में शराब न केवल रात आठ बजे के बाद तक बिकती है बल्कि प्रिंट रेट से ज्यादा कीमत भी वसूली जाती है। यह सब पुलिस, प्रशासन व आबकारी विभाग की जानकारी में है और इस तरह के हालात अकेले श्रीगंगानगर शहर में ही नहीं हैं, अपितु ग्रामीण इलाकों व दूसरों जिलों के भी हैं। आबकारी विभाग ने लक्ष्य अधूरे रहने के डर से इस मामले में एक तरह से आंखें ही मूंद रखी हैं। यह आबकारी विभाग की अघोषित छूट का ही परिणाम है कि चाहे कैसे भी हो, बस लक्ष्य हासिल करो। एेसा इसलिए भी है क्योंकि विभाग ने अभी तक कोई कार्रवाई भी नहीं की है। एेसे में सवाल उठते हैं कि लक्ष्य हासिल करने के चक्कर में क्या नियमों से खिलवाड़ करना उचित है? क्या कानून को सरेआम ठेंगा दिखाना जायज है? खुले में शराब पिलाना क्या व्यवस्था को चुनौती देना नहीं है? भले ही पुलिस भी आबकारी विभाग का मामला बताकर इसमें सीधे कार्रवाई करने से बचे लेकिन कल को इससे कानून व्यवस्था या शांति भंग हुई तो जिम्मेदार कौन होगा?
दरअसल, इस मामले में एकमात्र कारण 'लक्ष्यÓ ही है। उसी ने आबकारी विभाग की नींद उड़ा रखी है और उसी ने ठेकेदारों का चैन छीन रखा है लेकिन इसका यह तो मतलब कतई नहीं है कि नियम विरुद्ध कुछ भी कर लिया जाए। सरकार और उसके नीति निर्धारकों को इस दिशा में न केवल सोचना चाहिए बल्कि पुनर्विचार भी करना चाहिए क्योंकि जान माल व कानून को ताक पर रखकर लक्ष्य हासिल करने के परिणाम हमेशा बुरे ही रहते हैं। सिर्फ लक्ष्य ही सब कुछ नहीं होता। और अगर कोई फैसला नहीं होता है तो फिर यही माना जाए कि सरकार को सिर्फ और सिर्फ राजस्व से मतलब है। भले ही वह कानून तोड़कर आए या अन्य किसी गैरकानूनी तरीके से।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 6 जुलाई 17 के अंक में प्रकाशित 

कोढ़ में खाज

टिप्पणी
पार्क किसी भी शहर की खूबसूरती और विकास का आईना माना जाता है। पार्क से शहर की पहचान भी होती है। पार्कों की दशा ही उस शहर के जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों की विकास के प्रति सोच के साथ-साथ यह भी बताती है कि वहां के लोग कितने जागरूक हैं। वैसे महज चारदीवारी के अंदर का भूखंड ही पार्क नहीं होता है। जहां हरी-भरी दूब, छायादार पेड़ व झूले आदि ही न हों, वह कैसा पार्क होगा समझा जा सकता है। पार्क वह, जहां पहुंचकर या बैठकर मन को सुकून मिलता है। जहां का स्वच्छ वातावरण और शुद्ध-ताजी हवा तन-मन में स्फूर्ति भरते हैं। जहां घर के समकक्ष आनंद की अनुभूति होती है। जहां बच्चे भरपूर मनोरंजन करें, मस्ती में खेलें तथा बुजुर्ग जी भर के बतियाएं आदि-आदि।
बदकिस्मती देखिए श्रीगंगानगर में कुछेक पार्क को छोड़कर कोई भी एेसा नहीं है जिसका नाम गर्व के साथ लिया जा सके या जिसका नाम लेते ही जेहन में सुखद एहसास हो। अधिकतर पार्क बदहाली के भंवर में फंसे हैं। प्रशासनिक उदासीनता के शिकार हैं। इन पार्कों की दशा देखकर मन में कोफ्त होती है। दुख होता है। व्यवस्था को कोसने को मन करता है। इन सब के बीच एक बात जो बेहद शर्मनाक होने के साथ-साथ अखरने वाली भी है, वह है बरसाती पानी को पार्कों में छोडऩे का फैसला। यह बरसाती पानी अगर सामान्य पानी हो तो कोई बात नहीं है लेकिन यह वह पानी है जो निकासी के अभाव में रास्तों में जमा होता है और प्रशासनिक अमला राहत के नाम पर मोटर लगाकर यह पानी पार्कों में खाली करवाता है। इन सब बातों को नजरअंदाज करके कि इस बरसाती पानी में नालियों का रोजमर्रा का मल-मूत्र व दूषित पानी भी मिला हुआ है। इस तरह का दूषित पानी पार्कों में छोडऩा कोढ में खाज के समान ही है। फौरी राहत के चक्कर में इस तरह करना उचित नहीं है। कल्पना कीजिए बदहाल पार्कों मंे इस तरह का दूषित पानी वहां के वातावरण को कितना प्रदूषित करेगा। शुद्ध ताजा हवा तथा सुकून की उम्मीद में पार्क में आने वालों को यह सब कितना अखरेगा। प्रशासनिक अमला इन सब से अनचान और अपनी खाल बचाने के लिए यह रास्ता लंबे समय से अपनाता आया है लेकिन यह सिलसिला कभी तो रुके। कभी तो ठोस समाधान हो।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 21 जून 17 के अंक में प्रकाशित 

खेल को खेल ही रहने दो कोई नाम न दो


बस यूं ही
सोशल मीडिया पर कल हॉकी का जोरदार जलवा दिखाई दिया। वह हॉकी जो राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हमेशा नेपथ्य में रहती आई है। वह हॉकी जो ग्लेमर की चकाचौंध से दूर रही है। वह हॉकी जो विज्ञापन की चमक से अछूती है। और तो और जिसके सभी खिलाडि़यों के नाम भी शायद ही किसी को याद हों। अधिकतर तो यह बताने की स्थिति में भी नहीं होंगे कि जिस प्रतियोगिता में भारत कल जीता, उससे पहले उसका मुकाबला किन-किन देशों से हुआ तथा उनको कितने अंतर से पराजित किया। यह तो संयोग रहा कि कल क्रिकेट में भारत की पाकिस्तान के हाथों करारी हार हो गई और हॉकी यकायक लोकप्रिय हो गई। हॉकी की जीत ने भारत-पाक क्रिकेट मैच की शुरू से आलोचना करने वालों को बैठे बिठाए एक मुद्दा दे दिया। खुश होने की वजह दे दी। हार को भुलाने का बहाना दे दिया। बस फिर क्या था, पिल पड़े क्रिकेट पर। विशेषज्ञों की तरह तर्क व दलीलें दी जाने लगी। हॉकी की शान में पता नहीं क्या-क्या कहा जाने लगा। क्रिकेट को गुलामी का प्रतीक, अंग्रेजों का खेल, समय बर्बाद करने वाला और न जाने क्या-क्या कह दिया गया। फिर भी सवाल उठता है कहीं यह हार की खीझ तो नहीं?
खैर, गरमागरम बहस व चर्चा के बीच मेरा दावा है अगर यही परिदृश्य उलटा होता मतलब हॉकी या क्रिकेट दोनों में ही जीत मिलती, या केवल क्रिकेट में जीतते तो इस तरह विशेषज्ञों की या हॉकी प्रेमियों की फौज खड़ी नहीं होती। दरअसल, खेल पसंद से जुड़ा विषय है। किसी को क्रिकेट से प्रेम है तो किसी को हॉकी से हो सकता है। प्रेम कैसा व कितना है इसका कोई पैमाना नहीं लेकिन मैदानों पर दर्शकों की भीड़ यह तय जरूर कर देती है कि लोकप्रियता किस खेल की है। वैसे खेल हमेशा भावना से जुड़ा होता है। अब जिसकी भावना जिस खेल से जुड़ी है लाजिमी है,वह उसमें जीत ही चाहेगा। भारत-पाक के बीच किसी भी तरह का मैच हो वह रोमांच व धड़कनें बढ़ाने वाला इसीलिए भी होता है क्योंकि खेल प्रेमी इसे एक मैच न मानकर युद्ध की तरह मानते हैं। निष्कर्ष के रूप में मेरा तो यही कहना है कि खेल को खेल ही रहने दो कोई नाम न दो। और हां सियासत या किसी वाद का मुलम्मा तो बिलकुल भी मत चढाओ।

अंधेर नगरी!

 टिप्पणी 
श्री गंगानगर में शनिवार को केवल 34.6 एमएम बरसात ने शहर को बदहाल कर दिया। अधिकतर छोटे-बड़े रास्ते नालों व नहरों में तब्दील हो गए। कई जगह तो आवागमन तक बाधित हो गया। शहर भर इस तरह की तस्वीर को किसी फिल्म का एक छोटे से ट्रेलर की तरह माना जा सकता है, क्योंकि अभी मानसून की बारिश बाकी है। तब तस्वीर और भी भयावह और डरावनी होगी। दरअसल, शहर के लोग तो इस तरह के संकट को सहने को मजबूर हैं। लेकिन जो इस संकट को जान कर भी अनजान बने हैं या हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, वे शहर के जिम्मेदार हैं।
मतलब जनप्रतिनिधि और अधिकारी। क्योंकि एेसा हर साल होता है। बरसात भी हर साल होती है और शहर थम सा जाता है। रास्तों में पानी इतना भर जाता है कि दुपहिया तो क्या चौपहिया वाहन तक नहीं निकल सकता है। हताश, उदास लोग मदद के लिए चिल्लाते हैं तो फिर जिम्मेदार हरकत में आते हैं। राहत के नाम पर हाथ-पैर मारते हैं। वैकल्पिक जुगाड़ करते हैं। कहीं मोटर से पानी निकासी करवाते हैं तो कहीं किसी नाले में कट लगाते हैं। हर साल इसी तरह के फौरी उपाय किए जाते हैं। शनिवार की बरसात के बाद भी इसी तरह के उपाय किए गए। खैर, इन सब के बीच सवाल यह उठता है कि यह वैकल्पिक उपाय कारगर कितने हैं। सवाल यह भी है कि वातानूकुलित कक्षों में बैठकर शहर के विकास का खाका खींचने वाले, विकास की गंगा बहाने के नारे देने वाले तथा सब्जबाग व सुनहरे सपने दिखाने वाले जिम्मेदारों के पास इस समस्या का स्थायी समाधान क्यों नहीं हैं? पानी निकासी की दूरगामी योजना क्यों नहीं है? और फिर समाधान या दूरगामी योजना ही नहीं है तो कैसे मिलेगी इस संकट मुक्ति? वक्त बहुत गुजर चुका है, लेकिन शहर अब इस समस्या का समाधान चाहता है। स्थायी व ठोस समाधान। वैकल्पिक उपायों के सहारे आखिर कब तक श्रीगंगानगर के लोग काम चलाते रहेंगे। कब तक शहर बरसात के मौसम में अग्नि परीक्षा देता रहेगा। बहरहाल इस 'अंधेरी नगरी' को कुशल प्रशासक व दूरदर्शी सोच वाले जनप्रतिनिधियों की दरकार है। और हां संभव भी तभी होगा जब जनता जागे। भेड़चाल को छोड़े। मजबूरी व लाचारी का लबादा उतारे तथा सहने की प्रवृत्ति से उबरे व जिम्मेदारों से सवाल-जवाब करे।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 18 जून 17 के अंक में प्रकाशित

सोच

लघुकथा
वह शाम को आफिस से थोड़ा जल्दी ही निकली थी। शाम को दोस्तों के साथ फिल्म देखने का प्लान जो था। फिल्म का समय होने को था। इसी जल्दबाजी में उसने पर्स से डियो निकाला कर फटाफट कपड़ों पर स्प्रे किया। इसके बाद क्रीम निकालकर चेहरे पर पोती। फिर उसने लिपिस्टिक निकालकर बड़े ही बेफिक्री वाले अंदाज में होठों पर फेरी। उसको यह सब करते देख गेट पर बैठे सुरक्षाकर्मी से रहा नहीं गया। उसके मुंह से न चाहते हुए भी निकल ही गया 'मैडम, घर जा रही हो या डांस में.' सुरक्षाकर्मी के मुंह से यह सुनकर युवती ने आंखें तरेरी और 'बकवास मत कर' कह कर फट से निकल गई। सुरक्षाकर्मी उसको देखकर अवाक सा रह गया। दरअसल, सुरक्षाकर्मी को युवती के प्लान की जानकारी नहीं थी। दोनों का वार्तालाप सुन रहा तीसरा शख्स जो अब तक खामोश था, वह भी सुरक्षाकर्मी की सोच पर मंद-मंद मुस्कुराने लगा था।

यह औपचारिकता छोडि़ए...

टिप्पणी
नगर विकास न्यास की आेर से इन दिनों रिक्शों पर लाउड स्पीकर के माध्यम से मुनादी करवाई जा रही है। इसमें कहा जा रहा है कि सूरतगढ़ मार्ग पर शिव चौक से लेकर बाइपास तक सड़क पर रेता-बजरी बेचने वालों सहित जिस जिस ने भी अतिक्रमण कर रखा है, वह उसको हटा लें नहीं तो न्यास की ओर से कार्रवाई की जाएगी। खास बात यह है कि यह मुनादी अतिक्रमण वाले क्षेत्र के साथ-साथ शहर के अंदरुनी हिस्सों में भी की जा ही है। शायद न्यास के नुमाइंदों का एेसा मानना रहा होगा मुनादी शहर भर में होनी चाहिए ताकि लोगों को पता चले कि वाकई न्यास अतिक्रमण हटाने को लेकर गंभीर है। खैर, यह मुनादी औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। बरसात के मौसम को देखते हुए न्यास को अपने क्षेत्राधिकार वाले हिस्सों के नालों की सफाई करवानी है।
फिलहाल नालों की सफाई में अतिक्रमण बाधक बन रहा है और इसीलिए न्यास को इस अतिक्रमण की याद आई है। देखा जाए तो यह अतिक्रमण कोई नया-नया नहीं हुआ है। एेसा भी नहीं है कि न्यास के नुमांइदों की नजर में पहली बार आया है। दरअसल, इस मार्ग पर अतिक्रमण लंबे समय से है। इस मार्ग पर कहीं ट्रैक्टर ट्रालियां खड़ी रहती हैं तो कहीं ट्रक पार्क किए जा रहे हैं। रेता-बजरी का कारोबार बीच सड़क पर बेखौफ हो रहा है। इस वजह से दिन में न जाने कितनी ही बार यातायात बाधित या प्रभावित होता है। राजस्थान पत्रिका में इस अतिक्रमण को लेकर लगातार सिलेसिलेवार खबरें भी प्रकाशित की जाती रही हैं। लेकिन न्यास के नुमाइंदों के कानों पर किसी तरह की जूं नहीं रेंगी। अब मानसून की आहट से इनके हाथ पांव फूले हैं। अगर यह नुमाइंदे अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई समय-समय पर करते तो आज यह हालात ही नहीं होते। सड़क पर अतिक्रमण न्यास की उदासीनता या शह के बिना संभव ही नहीं है।
बहरहाल, अब इस मुनादी से भी न्यास के नुमाइंदों की मंशा पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि किसी न किसी तरह से इस गीदड़ भभकी से एक बार अतिक्रमण हट जाएं/ हटा लें ताकि नाले की सफाई हो जाए। यह एक तरह की लाचारी ही तो है। यह लाचारी भी बहुत कुछ कहती है। तभी तो मुनादी में गंभीरता कम औपचारिकता ज्यादा नजर आती है। और जब तक यह औपचारिकता निभाई जाती रहेगी समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती। न्यास के नुमाइंदे वाकई शहर हित चाहते हैं तो उनको यह रस्मी और औपचारिकता वाली कार्रवाई छोडऩी होंगी। क्योंकि इनसे जनता का भले नहीं होना वाला।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 13 जून 17 के अंक में प्रकाशित

आज बैठे-बैठे यूं ही


तकलीफ, ईष्र्या, पीड़ा, दुख, दर्द, जलन, कोफ्त, पूर्वाग्रह आदि एेसे शब्द हैं जिनके पीछे इमोशंस जुड़े हैं। और यह भी सच है कि यह सभी शब्द नकारात्मक हैं। यह बात दीगर है कि इमोशंस के साथ पॉजिटिव शब्द भी जुड़े हैं। खुशीं, सुख, आदि भी तो भाव ही हैं। तो क्या यह समझ लेना चाहिए जो भावुक नहीं है वह इन सब चीजों से परे है। वैसे मेरा मानना है कि मनुष्य जीवन भाव शून्य हो नहीं सकता। भाव शून्य जीवन तो पत्थर के जैसा ही है। हां यह जरूर है कि जीवन में सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही तरह के भाव समानांतर चलते हैं। इसलिए जहां भाव है, वहीं भावनाएं हैं। यह शोध का विषय जरूर हो सकता है कि भावना की कद्र करने वाला ही तकलीफ क्यों पाता है तथा कद्र न करने वाला क्या सच में ही पत्थर है या भावनाओं को नजरअंदाज करता है। दरअसल, वह सावर्जनिक मंच पर भले ही भावनाओं पर काबू कर ले लेकिन एकांत में यही भावनाएं उसे कचोटती हैं। यकीनन रह-रह कर। भावनाओं के इस आवेग को प्रदर्शित करने व न करने को आप कथनी और करनी में भेद के मुहावरे से अच्छी तरह समझ सकते हैं।

जियोनी तो जान की आफत


बस यूं ही
चाइनीज सामान को लेकर अपने देश में अक्सर एक जुमला चलता है, 'चले तो चांद तक ना चले तो शाम तक।' यह बात अगर मोबाइल के संदर्भ में करें तो सटीक बैठती है। हो सकता है किसी का अनुभव चांद वाला रहा हो लेकिन मेरा अनुभव शाम वाले से भी बदत्तर रहा है। करीब सात साल बाद मैंने मोबाइल खरीदने का मानस बनाया तो जेहन में यही ख्याल था कि इस बार ठीक कीमत व अच्छी गुणवत्ता वाला मोबाइल ही लेते हैं। आखिरकार मोबाइल शोरूम पर गया तो वहां जियोनी एम फाइव प्लस वाला मॉडल पसंद आया। इसका बैटरी बेकअप, मैमोरी, कैमरा आदि अच्छे बताए गए और कीमत बीस हजार रुपए। दो हजार रुपए का बीमा भी करवा लिया। इस तरह यह मोबाइल करीब 22 हजार में पड़ा। यह बात 15 दिसम्बर 16 की है। एक दो माह तक तो मोबाइल जोरदार चला। बिना रुके बिना अटके। मार्च में चार्जिंग को लेकर दिक्कत जरूर आई। सर्विस सेंटर पर चैक करवाया तो पता चला कि चार्जर की लीड खराब हो गई। खैर, लीड बदल दी गई और मोबाइल ठीक से चलने लगा। आधा अप्रेल गुजरने के बाद मोबाइल में कुछ एप में अटकने लगे। विशेषकर टेलीग्राम में चलाते चलाते यह हैंग होने लगा। इससे बचाव के लिए मैं स्क्रॉल धीरे-धीरे करता ताकि हैंग न हो। चूंकि मोबाइल गारंटी पीरियड में था लिहाजा सोचता रहा है कि दिखा लेंगे दिखा लेंगे। यही विचार करते करते आधा मई भी गुजार दिया। मोबाइल में हैंग होने की समस्या अब गहरा चुकी थी। इसके बाद यह अपने आप ही रिस्टार्ट होने लगा था। एक और समस्या यह होने लगी कि फोन बुक के नंबर एक दूसरे पर रिप्लेस होने लगे विशेषकर टेलीग्राम एप में। आखिरकार 27 मई को मैं जियोनी के सर्विस सेंटर पर गया और वहां बैठे प्रतिनिधि को उक्त सारी बातों से अवगत कराया तो उसका कहना था कि मोबाइल का सॉफ्टवेयर पुराना हो चुका है अपडेट करना होगा। चूंकि मुझे यह पता था कि अपडेट करवाने पर सारा डाटा उड़ जाता है लिहाजा बुझे मन से तमाम फोटो पहले ही डिलीट कर चुका था। कुछ विशेष लगाव वाली फोटो श्रीमती को व्हाट्सएप पर भेज दी ताकि सेव रहे। सर्विस सेंटर पर डेढ़ घंटे के इंतजार के बाद मोबाइल दे दिया गया। मोबाइल लेकर घर ही नहीं पहुंचा था कि रास्ते में दो बार उसी तर्ज पर रिस्टार्ट हो गया। स्टार्ट होने पर उसी तरह का मैसेज। चूंकि रात को जोधपुर निकलना था, लिहाजा समस्या को नजरअंदाज करना मजबूरी भी था। खैर, मोबाइल अपडेट हो गया। व्हाट्सएप, जीमेल, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम, आदि सब की सेटिंग दुबारा से करनी पड़ी। अपडेट के बाद टेलीग्राम एप में तो फोटो, वीडियो, पीडीएफ जेपीजी आदि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। बस गोल घेरा लगातार चलता ही रहता लेकिन डाउनलोड का काम बिलकुल बंद। नया सॉफटवेयर करवाने के बाद यह समस्या और खड़ी हो गई थी।

मजबूरी जरूरी है...

बस यूं ही
मजबूरी। यह शब्द पता नहीं आज क्यों सुबह से ही कानों में गूंज रहा है। बार-बार रह रहकर। इस शब्द की उत्पति व प्रयोग के बारे में सोचने लगा तो फिर सोचता ही चला गया। फिर यकायक ख्याल आया क्यों न आज मजबूरी पर ही लिखा जाए। वाकई मजबूरी का प्रयोग कहां नहीं होता। कौन है जो मजबूरी का मारा नहीं है। वैसे एक बात तो है यह मजबूरी शब्द जितना हकीकत के नजदीक है उतना ही बनावटी भी होता है। किसी का कोई काम नहीं होता है तो अक्सर यही जुमला सुनाई देता है, ' अरे यार मजबूरी थी, वरना मैं यह कर देता। क्यां करूं भाई मजबूरी थी, नहीं तो मैं पक्का पहुंचता आदि आदि।' वाकई मजबूरी शब्द बचाव का कारगर हथियार है। मजबूरी सच में किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं है। इसका निशाना शायद ही कभी चूकता है। इस मजबूरी की घुसपैठ सब जगह है। घर के चूल्हे से लेकर आसमान तक। रिश्तों से लेकर संबंधों तक। खून के रिश्तें हो चाहे धर्म के। मजबूरी हर जगह काम भी आती है और आड़े भी। गांव में कोई घूमता हुआ दिखाई देता है और उससे हाल चाल पूछ लिए तो उसका जवाब होता हैं, 'क्या करें बेरोजगारी है। मजबूरी में गांव में बैठे हैं, कहां जाए।' वैसे, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है वाला जुमला भी अक्सर कहा सुना जाता रहा है। यहां तात्पर्य पैसे की कड़की से है। खैर, शुरुआत में मजबूरी शब्द पर कुछ काव्य शैली में लिखने को मन किया लेकिन फिर सोचने की मजबूरी के कारण गद्य पर ही आ गया।
मजबूर से हीे मजबूरी बना है। मजबूर का मतलब नि: सहाय, विवश, लाचार होता है। लेकिन यह प्रयोग अलग-अलग अर्थों में किया जाता है। मजबूरी अपनों से दूर करती है। मजबूरी समझौते को मजबूर करती है। मजबूरी झूठ बुलवाती है। मजबूरी रिश्तों में दरार डालती है। मजबूरी बहाने बनवाती है। मजबूरी हकीकत पर पर्दा डालती है। नौकरी करना मजबूरी है। खेती करना मजबूरी है। घर छोडऩा मजबूरी है। भूख भी मजबूरी है। पेट भी मजबूरी है। बीमारी भी मजबूरी है। दूरी भी मजबूरी है। औलाद भी मजबूरी है। मां-बाप भी मजबूरी है। भाई-बहिन भी मजबूरी है। सारे सगे संबंधी भी मजबूरी है। फोन रखना मजबूरी है। गाड़ी चलाना मजबूरी है। पैदल चलना भी मजबूरी है। दौडऩा मजबूरी है। हांफना मजबूरी है। आराम करना मजबूरी है। बीड़ी पीना मजबूरी है। सिगरेट पीना मजबूरी है। मांसाहारी होना भी मजबूरी है और शाकाहारी भी मजबूरी है। शराब पीना मजबूरी है। शराब पिलाना भी मजबूरी है। अकेले रहना मजबूरी है। सपरिवार रहना भी मजबूरी है। विवाह समारोह में शिरकत करना मजबूरी है। किसी गमी में जाना भी मजबूरी है। रोना भी मजबूरी है तो हंसना भी मजबूरी है। तनाव में रहना मजबूरी है तो तनावमुक्त रहना भी मजबूरी है। खामोश रहना मजबूरी है तो चिल्लाना भी मजबूरी है। भूखे पेट सो जाना मजबूरी है तो रात भर जागना भी मजबूरी है।
सच में यह मजबूरी शब्द हर जगह है। जीवन में गहरे तक रचा-बसा। इसके बिना जीवन अधूरा है। यह मजबूरी न हो तो दुनिया में बहुत सारे काम या तो अटक जाए या हकीकत से पर्दा उठ जाए। लोक लाज बनी रही इसीलिए मजबूरी जरूरी है। भले ही यह किसी को राहत दे या किसी को पीड़ा पर मजबूरी जरूरी है।

मन की बात.....8


यह तो बात थी जीवन दर्शन से ओत प्रोत गीत की, जिसमें मन की खूबसूरती से व्याख्या की गई। खैर, गानों में मन की बात चल रही थी। वैसे गीतों में मन का जिक्र बहुत बार आया है। इसकी सूची छोटी नहीं है। नागिन फिल्म का यह गीत तो आज भी जहां कहीं बजता है तो सचमुच अच्छे-अच्छों का तन-मन डोलने लगता है। 'मेरा मन डोले, मेरा तन डोले, मेरे दिल का गया करार रे, अब कौन बजाए बांसुरिया...।' सचमुच में इस गीत को कितनी बार ही सुनो मन प्रफुल्लित हो उठता है। मन टाइटल वाले कुछ गीतों पर नजरें डाली जाए तो यह एेसे गीत हैं जो मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। बात चाहे 'मन रे तू काहे न धीर धरे.. ' की हो या फिर 'मीत न मिला रे मन का ..' की हो। इस तरह आमिर की तो एक फिल्म का नाम ही मन था। इसी फिल्म का टाइटल गीत 'मेरा मन क्यों तुझे चाहे.. ' भी खूब सुना गया था। बहरहाल, गीतों में मन का जिक्र आता ही रहा है कभी मुखड़े में तो कभी अंतरे में। यह गीत देखिए, कितना सुकून सा मिलता है इसको सुनकर। 'ओ रे मांझी, ओ रे मांझी, ओ ओ ओ ओ मेरे मांझी मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार, ओ मेरे मांझी अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार..'

मन की बात....7


सिर्फ साहित्य में ही मन पर नहीं लिखा गया बल्कि भारतीय संगीत में भी मन पर कई कालजयी गीत लिखे गए हैं लेकिन यहां भी मन जरूरत के हिसाब से बदलता रहा है। किसी गीत में मन मंदिर बन जाता है तो किसी में मायावी। यह सब कल्पना का खेल है। जिस तरह मन स्थिर नहीं है तो कल्पना भला कैसे स्थिर होगी। यह तो मनोस्थिति पर निर्भर है। अक्सर जैसी मनोस्थिति होती है वैसा ही व्यवहार होता है। फिल्मों में भी गीत कथानक या सिचुएशन के हिसाब से ही लिखे जाते हैं। तभी तो मन पापी भी हो जाता है। गंगा-जमुना फिल्म के इस गीत में नायिका गाती है 'तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे..' लेकिन यही पापी मन दर्पण भी बन जाता है। फिल्म काजल का यह गीत ' तोरा मन दर्पण कहलाए.. देखिए । इस गीत का एक-एक अंतरा भी मन को समर्पित है और मन को जिस तरह परिभाषित किया गया है, उससे मन को समझने में आसानी भी होती है। गौर फरमाइए, इसमें मन से बड़ा किसी को नहीं बताया गया है। 'मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय, मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय, इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाए, तोरा मन दर्पण कहलाए.' अगले अंतरे में मन के नैन ही हजार बता दिए गए हैं। 'सुख की कलियां, दुख के कांटे, मन सबका आधार, मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हज़ार, जग से चाहे भाग लो कोई, मन से भाग न पाए, तोरा मन दर्पण कहलाए.. ' और इस अंतिम अंतरे में मन के धन को अनमोल बताया गया है। 'तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल, तन के कारण मन के धन को मत माटी में रौंद, मन की क़दर भुलाने वाला वीराँ जनम गवाए, तोरा मन दर्पण कहलाए..'

साथ, समझ, स्नेह व सहयोग के तेरह साल...


पति-पत्नी का रिश्ता परस्पर साथ, सहयोग, समझ, स्नेह व विश्वास की बुनियाद पर टिका होता है। इन पायों में अगर प्रगाढ़ता है तो तय है कि आपके जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ रही है लेकिन इनमें से एक भी पाया कमजोर है तो यकीनन गाड़ी चल तो रही है लेकिन हिचकोले खाते हुए। मैं इस मामले में बेहद खुशकिस्मत हूं और परवरदिगार का शुक्रगुजार भी। 4 नवंबर 2003 को मेरी सगाई हुई थी। सगाई के करीब पन्द्रह दिन बाद किसी एसटीडी बूथ से कॉल आई। सामने किसी महिला की आवाज सुनकर मैं एकदम से सकपका गया। श्रीगंगानगर की ही बात है। डेस्क के बाकी साथियों के बीच बैठा था, लिहाजा हां-हूं के अलावा कुछ नहीं कह पाया। दरअसल, यह फोन मंगेतर निर्मल का था। कुल मिलाकर यह समझ लीजिए कि फोन पर पहली बार बातचीत का अनुभव ज्यादा अच्छा नहीं रहा। धड़कन तेज हो गई थी और मुंह सूख चुका था। यह हालात कमोबेश दोनों तरफ थीं। खैर, इसके बाद नए साल 2004 के उपलक्ष्य में करीब दस पेज का पत्र लिखा था। (जो आज भी सहेज कर रखा है।) यह पत्र लिखने में मेरे को चार-पांच दिन इसलिए लगे थे क्योंकि निर्मल के स्वभाव, पसंद आदि के बारे में मेरे को जानकारी नहीं थी। बस खुद पर यकीन था कि पत्र रूपी यह तोहफा पसंद आ जाएगा और हुआ भी एेसा ही। इसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। इस बीच मेरा स्थानांतरण श्रीगंगानगर से अलवर हो गया था। बातचीत की झिझक अब खत्म हो चुकी थी। इस काम में प्रोत्साहित करने में तत्कालीन संपादक आशीष जी व्यास का बहुत योगदान रहा। फिर तो खूब बातें होती। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके वाले अंदाज में। आखिरकार 22 जून 2004 को हम दोनों परिणय सूत्र में बंध गए।
हां यह सही है कि फोन के माध्यम से हमने एक दूसरे को काफी समझा लेकिन स्नेह और समझ साथ-साथ रहने से बढ़ते गए। हमने एक दूसरे को बखूबी जाना व पहचाना। समय बीतता गया और आज तेरह साल हो गए। हर मोड़ पर निर्मल ने मेरा साथ दिया। विपरीत व तनाव की परिस्थितियों में भी उसने मुझे मोटीवेट किया। मुझे संबल दिया। मेरी थोड़ी बहुत जो भी सफलता है उसमें अकेली मेरी योग्यता व मेहनत ही नहीं बल्कि निर्मल का समर्पण भी है। आज मां और पापा हमारे साथ हैं तो इसके पीछे भी बड़ा योगदान निर्मल का ही है। मेरा फैसला तो केवल उनको साथ रखने का ही था। बाकी उनकी सेवा सुश्रुषा व देखभाल का जिम्मा निर्मल के हाथ ही है। मां के बीमार होने के बाद निर्मल की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। वह मां को नहलाने, खाना खिलाने से लेकर तमाम काम करती है। यह निर्मल के संस्कार ही हैं कि वह यह सब कर पा रही है। उसकी दिनचर्या तो अब दिनचर्या ही नहीं रह गई है। न सोने का वक्त है न खाने का। देर रात मेरे के लिए उठाना, अलसुबह बच्चों के लिए जागना व दिनभर घर के काम और मां-पापा सेवा। सही में खुद के लिए उसके पास समय ही कहां है? सच कहता हूं कई बार वह थकान व दर्द से कराहती रहती है, लेकिन मुंह से कभी उफ तक नहीं करती। सचमुच मैं खुशनसीब हूं। बेहद खुशनसीब। हमारा यह साथ, स्नेह व विश्वास की डोर में इसी तरह बंधा रहे।

मन की बात.... 6


भागदौड़ व खुद में खोए रहने की संस्कृति के दौर में मन की भले ही न सुनी जाए लेकिन मन की बात तो देश सुन ही रहा है। गौर से सुने या न सुने यह अलग विषय है लेकिन मन की बात सबसे हो रही है। यह मन की बात कितनी प्रासंगिक है और कितनी नहीं यह तो दो साल बाद ही पता चलेगा। फिलहाल मन की बात का जोर है और प्रचार उससे भी कहीं ज्यादा। वैसे मन पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने भी लिखा है। विडम्बना यह है कि उनके मन की बात ज्यादा गहरी एवं मार्मिक होने की बावजूद वर्तमान मन की बात के आगे उन्नीस ही साबित हो रही है। हो रही है या कर दी गई है यह बहस का मुद्दा हो सकता है। खैर, आज इसी बहाने अटल जी की मन पर लिखी बातों का जिक्र कर लिया जाए। अटलजी ने लिखा है ' आदमी की पहचान, उसके धन या आसन से नहीं होती, उसके मन से होती है। मन की फकीरी पर कुबेर की संपदा भी रोती है।' पर आजकल मन से पहचान करने वाले हैं ही कितने? यह दो लाइनें तो और गहरी है व सोचने पर मजबूर करती है। 'मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते, न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।' वैसे मन की पहचान करते-करते अटल जी खुद भी भ्रमित हो ही गए। मन की फकीरी पर कुबेर की संपदा के रोने की बात कहने के बावजूद वो यह भी कह गए कि बड़ा बनने के लिए मन भी बड़ा होना चाहिए। ' छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।'

बच्चे तो बच्चे हैं

बच्चे तो बच्चे हैं, जिद कर उठते हैं। उनकी जिद माननी भी पड़ती है। भले अपने खुशियां में कटौती ही क्यों न हो। कुछ ऐसा ही धर्मपत्नी निर्मल के साथ हो रहा है। वह इस बार मायके नहीं जा पाई, क्योंकि माताजी-पिताजी हमारे पास ही हैं। उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रहे, बस यही सोचकर वह बच्चों के साथ नहीं गई। पिछले साल भी नहीं जा पाई थी। मैं दोनों बच्चों को लेकर शनिवार रात को जोधपुर रवाना हुआ और सोमवार सुबह श्रीगंगानगर पहुंच गया। घर पहुंचा तो श्रीमती उदास थी। उसने कहा कि आपकी संगत का असर हो गया है। मैं चौंका तो कहने लगी अपनी भावनाओं को शब्द दिए हैं, तकिये के नीचे जो कागज है वह निकाल कर पढ़ लो। पढऩे लगा तो आंखों से आंसू टप-टप कर गिरने लगे। वो कहने लगी यह फेसबुक पर लगाने के लिए लिखा है। लेकिन इतना बड़ा लिख दिया है कि मोबाइल पर कंपोज कैसे करूं। मैंने कहा ठीक हैं मैं इसे कम्पोज कर देता हूं। आपकी मूल भावनाएं जस की तस। आप भी पढि़ए धर्मपत्नी का भावनाओं से भरे यह शब्द......
दिनांक 28 मई
समय रात : नौ बजे
श्रीगंगानगर।
'आज मन बहुत व्यथित है और उदास भी है। उसने ही मुझे मजबूर किया कि मैं अपनी उदासी कुछ लिखकर दूर कर लूं। यह मन यूं ही उदास नहीं है। इस उदासी में बच्चों की खुशी छिपी है। बात यूं है कि बच्चे कई दिनों से जोधपुर अपने ननिहाल जाने की जिद कर रहे थे लेकिन मैं किसी कारणवश या यूं कह सकते हैं कि अपने कर्तव्य मतलब कि कुछ घर के प्रति जो कर्तव्य जरूरी हैं, उनके चलते नहीं जा पा रही थी। इसी वजह से पिछली गर्मियों में भी बच्चों के साथ नहीं जा पाई। खैर मैं, विषयांतर हो रही हूं। हां तो मैं कह रही थी मेरा मन व्यथित है। उदास है। और ये और भी उदास हुए जा रहा है, लगातार डूबता सा प्रतीत हो रहा है। पता नहीं क्यों पर मन तो मन है। इसकी जैसी मर्जी होगी वैसा ही रहेगा। अरे मैं कहां मन को ले बैठी। यह तो फिलहाल मेरे मिस्टर एमएस का काम है। उन्होंने मन की जिम्मेदारी जो ले रखी है इन दिनों। दरअसल, मेरा मन मन ना हुआ गोया बिलासपुर-भिलाई की बारिश हो गया है। जब मर्जी तब मर्जी आ रहा है मेरे लेखन के आगे बार-बार।
आज बच्चे नहीं हैं। घर सूना सूना। मेरा तो जग सूना सूना हो रहा है। देखो सामने बेजान कुत्ता भी मुंह बाए पड़ा है जो कि रोज बच्चों की लातों का शिकार होता था। मुझे वो फ्रिज पर पड़े चंद सिक्के चिढ़ा रहे हैं कि माना कह रहे हों कि पड़े हैं हम यहां अब संभाल लो। जब चीकू फ्रिज से उन सिक्कों को तकरीबन रोज ही उठाकर बड़े प्यार से पूछता, मम्मा ले लूं एक रुपया। और मेरा चिल्लाना कि रोज तुम्हारा ये ही नाटक है। ले लूं ले लूं आज याद आ रही है बेटे तेरी। दरअसल वह सिक्के मैं चीकू के लिए रखती थी। और तो और वह कम्प्यूटर भी वीरान बेजान पड़ा है बच्चों के बिना। जिसके कान छुट्टियों में बच्चे छोड़ते ही नहीं है। आज मेरा वाई फाई का नेट जोकि आधे दिन में दो जीबी भी कम पड़ता था वो वैसा ही पड़ा है पूरा फुल, खचाखच। और वो मक्खियों की ढेरी भी आज गुम है। या यूं कहें कि छुट्टी पर चली गई जो कि बच्चों की मौजूदगी में घर में भरी पड़ी रहती थी। मानो वो उनसे ही मिलने आती थी।
सच में बच्चों के बिना 10-15 दिन निकालना कठिन लग रहा है इस बार। पहले मैं सोचती थी कि मैं मेरी मम्मी की तरह स्ट्रोंग हूं मैनेज कर लूंगी। दरअसल मम्मी स्ट्रोंग तो है पर अब परिवार के मोह को बहुत पीछे छोड़ चुकी है। इसलिए उन्हें कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें तो अपने राम से मतलब है। खैर, जो भी हो धन्य है वो मां बाप जो अपने बच्चों के भविष्य के लिए छोटी सी उम्र में होस्टल में भेज देते हैं। मेरी प्रिय सहेली बसंत ने अपनी बेटी को होस्टल भेजा तो मुझे हमेशा फोन करके कहती यार मेरा मन आजकल कहीं लगता ही नहंी। उसकी बात आज याद आ रही है कि वाकई बच्चों के बिन घर, घर नहीं होता। आज मुझे महसूस हो रहा है। मेरे राम लखन चाहे कितनी भी लड़ाई करें पर घर की रौनक उन्हीं से है। सच बच्चों अब तो यही लग रहा है कि 10-15 दिन जल्दी से बीत जाए और मेरे कृष्ण बलराम घर आ जाएं।
मम्मा मिसिंग यू ए लोट
निर्मल

मन की बात.... 5

कबीर जी के मुझ से बुरा न कोय वाले दोहे के बिना तो चर्चा ही अधूरी है। संभवत: इस दोहे से सभी का वास्ता पड़ा है। 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।' हालांकि इस दोहे को मजाक के रूप में उल्टा भी कहा जाता है। 'भला जो देखने मैं चला, भला न मिलिया न कोय, जो मन देखा आपना मुझ से भला न कोय।' खैर, मन के साथ इतने दोहों की चर्चा इसलिए भी क्योंकि इनमें अधिकतर दोहे आज भी कंठस्थ हैं। हो भी क्यों नहीं? विद्यालय में आठवीं तक निर्विवाद रूप से अंत्याक्षरी के मामले में सारी स्कूल एक तरफ और अपुन एक तरफ रहे हैं। उस दौर के मेरे सहपाठियों को यह बात भली भांति याद होगी। गुरुजी मेरे को प्रत्येक कक्षा में बारी-बारी से भेजते थे और विद्यार्थियों को चुनौती देते थे इसको कोई हरा कर दिखाए। यही हाल अंग्रेजी में था। कई बार दूसरे स्कूलों से टीम आती थी। अंत्याक्षरी मुकाबले में मैं अक्सर खड़ा ही रहता था। बैठता ही नहीं था। क्योंकि मैं दूसरों को बोलने का मौका कम ही देता था। खैर मन की चर्चा में मन दूसरे विषय की ओर चला गया। कबीर जी के यह दोहे भी कम चर्चित नहीं है मसलन 'ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।' 'फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम। कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम।' 'मन दिना कछु और ही, तन साधुन के संग। कहे कबीर कारी दरी, कैसे लागे रंग।' 'सुमिरन मन में लाइए, जैसे नाद कुरंग। कहे कबीरा बिसर नहीं, प्राण तजे ते ही संग।' दोहों के बाद अब आगे छोटी सी चर्चा मन आधारित कुछ चुनिंदा कविताओं की होगी।

मन की बात....4

बात कबीर जी के दोहों की चल रही थी। उन्होंने मन पर जितना लिखा है, अगर उसको पढ़कर आत्मसात कर लिया जाए तो न केवल मन की थाह लेने में मदद मिलेगी बल्कि मन को नियंत्रण में रखने में भी आसानी होगी। मन पर कबीर जी के दोहे इतने कालजयी हैं कि आज भी प्रासंगिक लगते हैं। इन दोहों की बानगी देखिए, फिर आगे जारी रहेगी बात। 'नहाये धोए क्या हुआ, जो मन का मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।' अर्थात सिर्फ नहाने धोने से (शरीर को सिर्फ बाहर से साफ़ करने से) क्या होगा? यदि मन मैला ही रह गया (मन के विकार नहीं निकाल सके) मछली हमेशा जल में रहती है लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गन्ध (बास) नहीं जाती। इसी तरह एक अन्य दोहा, 'जग में बैरी कोय नहीं, जो मन शीतल होय। या आपा को डारि दे, दया करे सब कोय।' अर्थात संसार में हमारा कोई शत्रु (बैरी) नहीं हो सकता यदि हमारा मन शांत हो तो। यदि हम मन से मान-अभिमान और अहंकार को छोड़ दे तो हम सब पर दया करेंगे और सभी हमसे प्रेम करने लगेंगे। खैर, मन पर दोहों की फेहरिस्त लंबी है। मन के बारे मंे जितना लिखा जाए जैसा लिखा जाए और जब-जब भी लिखा जाए वह कम है। क्योंकि मन तो अनंत है। असीम है। अपरिमित है।

मन की बात....3


विडम्बना देखिए मन को जीतने से जीत हो जाती है और मन के हारने से हार। गोया सारा खेल ही मन पर टिका है। कहावत भी है ना कि मन चंगा तो कठौती में गंगा अर्थात मन की शुद्धता ही वास्तविक शुद्धता है। मन के साथ लड्डुओं को भी जोड़ा जाता है। एक तरफ कहा जाता है कि मन के लड्डुओं से भूख नहीं मिटती लेकिन साथ ही यह भी कहा जाता है कि मन के लड्डू फीके क्योंï। दरअसल, मन के साथ विरोधाभास शुरू से ही जुड़ा है। वैसे मन के बारे में कबीर जी ने बहुत अच्छा लिखा है। मन पर उनके दोहे यथार्थ से रुबरू करवाते हैं। गौर फरमाएं, 'मन दाता मन लालची मन राजा मन रंक, जो यह मन गुरु सो मिले तो गुरु मिले निसंक।' अर्थात यह मन ही शुद्धि-अशुद्धि भेद से दाता-लालची कंजूस-उदार बनाता है। यदि मन निकष्पट होकर गुरु से मिले तो निसंदेह उसे गुरु पद प्राप्त हो जाए। कबीर जी का एक और दोहा है 'मन के मारे बन गए, बन तजि बस्ती माहिं, कहे कबीर क्या कीजिए, यह मन ठहरे नाहिं।' अर्थात मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गए, वहां जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आ गए। कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं होएगा, तब तक तुम क्या आत्म-कल्याण करोगे।

दाग धोने का मौका

टिप्पणी
श्रीगंगानगर शहर के लोग उस कार्रवाई को अभी भूले नहीं होंगे जब पुलिस ने सप्ताह भर सिलसिलेवार अभियान चलाया और निर्धारित समय के बाद खुलने वाले शराब ठेकों के खिलाफ कार्रवाई की थी। शराब कारोबार से ही जुड़ी एक और घटना तो ज्यादा पुरानी भी नहीं हुई है जब शराब ठेकेदारों से बंधी लेकर उनको मनमर्जी से शराब बेचने की इजाजत देने के आरोप में पुलिस थानेदार व आबकारी विभाग के दो नुमाइंदे रिश्वत लेने के आरोप में धरे गए थे। इन दोनों घटनाओं को हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। दोनों मामलों का जिक्र इसीलिए क्योंकि शहर व जिले में हालात इन दिनों कमोबेश वैसे ही हो गए हैं। सोमवार रात के दो घटनाक्रमों से इस बात को समझा जा सकता है। पहला मामला मीरा चौक का है, जहां शराब ठेके देर रात तक खुलने से परेशान लोगों ने पुलिस चौकी के सामने धरना दिया जबकि दूसरा मामला चहल चौक क्षेत्र का बताया जा रहा है, जहां निर्धारित समय के बाद भी शराब बेची जा रही थी। दरअसल, यह दो घटनाक्रम तो बानगी भर हैं, क्योंकि इस तरह की तस्वीर न केवल श्रीगंगानगर शहर बल्कि समूचे जिले की है। किसी भी मार्ग से गुजर जाओ। ठेके देर रात तक गुलजार ही मिलेंगे।
कानून विरुद्ध काम और निर्धारित से ज्यादा कीमत वसूलना यह दोनों ही काम एक साथ क्या बिना सरकारी संरक्षण या शह के संभव हैं? नियमों व कानून की पालना करवाने वाले क्या वाकई इतने लाचार मजबूर हो गए कि कोई उनको गांठता हीं नहीं है? या फिर जिम्मेदारों ने जुगलबंदी कर आंखों पर पट्टी बांध ली है? व्यवस्था में चूक के कारण इन दो तीन बातों के इर्द-गिर्द ही घूमते दिखाई देते हैं। हो सकता है कि शिकायत करने वालों को 'एेसा कोई मामला अभी तक तो जानकारी में नहीं आया है।' 'शिकायत मिली तो कार्रवाई करेंगे।' 'एक दो जगह शिकायत आई है, फिलहाल जांच करवा रहे हैं।' जैसे जुमले भी सुनने को मिले। क्योंकि यह जुमले उन सरकारी अधिकारियों के होते हैं, जो हकीकत से आंखें चुराते हैं। सच बताने से डरते हैं, इसलिए इस तरह के तकिया कलामों का सहारा लेते हैं। फिर भी सवाल जरूर कौंध रहे हैं कि आखिर कौन है जो निर्धारित मूल्य से ज्यादा कीमत वसूलने का भरोसा दे रहा है? कौन है जो निर्धारित समय के बाद भी ठेके खोलने की इजाजत दे रहा है? कौन है जो ठेकेदारों को एकजुट करके मनमर्जी की कीमत निर्धारित करने की छूट दे रहा है? कानून को ठेंगा दिखाकर इस तरह का दुस्साहस किया जा रहा है तो इस बात को बल जरूर मिलता है कि पर्दे के पीछे जरूर कोई सूत्रधार है।
बहरहाल, इस तरह के मामलों में पुलिस और आबकारी की भूमिका संदेह के घेरे में रहती आई है। आरोप भी खूब लगते हैं। फिलहाल इन दोनों ही विभागों के पास इस संदेह को साफ करने का मौका है। अब यह इन पर निर्भर करता है कि कौनसा रास्ता चुनते हैं। बंधी जैसे मामलों में बैकफुट पर आए दोनों विभाग अगर पर्दे के पीछे के सूत्रधार को सामने लाते हैं तो निसंदेह दागदार हुई छवि को सुधारने इससे बड़ा मौका और होगा भी क्या।

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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगगर के 24 मई 17 के अंक में प्रकाशित 

मन की बात....2

हां तो कल मन की बात हो रही थी। यही कि मन बहुत तेज दौड़ता है। यह तो आजाद पंछी के जैसा है। इसको कौन बांध पाया है आदि आदि। यह सब जानने के बावजूद मन कहां मानता है। मन किसी पर आ भी जाता है तो यह अचानक उचट भी जाता है। मन कभी खट्टा होता है। कभी खट्टा मीठा तो कभी यह किसी फूल की मानिंद खिल उठता है। हैरत की बात तो यह है कि मन बंटता है बढता है और बदलता भी है। कभी कभी मन बहलता भी है। चौंकिए मत इतना कुछ करने के बावजूद मन मर जाता है तो मन को बांध भी लिया जाता है। मन खानाबदोश होकर दर-दर भटकता है तो कभी यह भारी व हल्का भी हो जाता है। वाकई इस मन का संसार बड़ा ही रोचक है। कभी किसी बहाने से मन को टटोला जाता है तो कई बार मन जीत भी लिया जाता है। आश्चर्य की बात है कि मन डूबता भी है। अब देखिए मन को तौला भी जाता है तो कई बार इसे ठिकाने भी लगा दिया जाता है। कई बार मन नाच भी उठता है। बिलकुल मयूर की तरह। मन नाचता ही नहीं लहराता भी है। यह मन इतना नाजुक है कि यह मोम बन जाता है और मोम की तरह पिघल भी जाता है।

मन की बात....

यह मन भी बड़ा विचित्र है साहब। बिलकुल किसी अबूझ पहेली की तरह। यह कभी चंचल बन जाता है तो कभी चितचोर। कभी लालची बन जाता है तो कभी कुछ ओर। यह पल-पल में रंग बदलता है। मन ही है जो सपने दिखाता है। बड़े बड़े सपने। न पूरे होने वाले सपने। हकीकत से कोसों दूर सुनहरी सपने। तभी तो आदमी मन के अनुसार न चलने की सीख को दरकिनार करता है। लोभ संवरण नहीं कर पाता। मनमाफिक काम करता है तो कभी अपनी मनमर्जी चलाता है। 'सुनो सबकी करो मन की', की तर्ज पर। बार-बार यह विरोधाभास ही मन को मथ रहा है कि क्या किया जाए। मन की सुनी जाए या फिर मन के मते न चलने की सीख को आत्मसात किया जाए। बड़ा कन्फ्यूजन है यह। यह मन रूपी संसार बड़ा अनूठा है। यह इतना गहरा सागर है कि गोते लगाते रहो। इसकी कोई थाह नहीं है। समझने वाला उल्टे उलझता ही चला जाता है। इस मन की कहानी बड़ी लंबी है। बिलकुल द्रोपदी के चीर की तरह। यह मन आजकल सियासी भी हो चला है।

सोशल मीडिया का रोचक संसार

सोशल मीडिया के प्लेटफार्म व्हाट्सएप, टेलीग्राम, फेसबुक, टिवटर व इंस्टाग्राम आदि का संसार न केवल काफी बड़ा है बल्कि विचित्र, अनूठा व रोचक भी है। मैं समझता हूं सोशल मीडिया पर सर्वाधिक आदान-प्रदान चुटकलों का होता है। आज व्हाट्स एप पर दो चुटकले मिले। इन दो चुटकलों का उल्लेख इसलिए कि यह दोनों मारवाड़ी (राजस्थानी) में थे। एक सुबह मिला तो दूसरा शाम को। दोनों को पढ़ता हूं तो हंसी बरबस छूट ही जाती है, लिहाजा दोनों चुटकले फेसबुक पर साझा कर रहा हूं। आप भी लीजिए आनंद...
1.
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एडमिन की सासू जी सुबह एडमिन की आँख सूजेड़ी देख'र ऊंकी घरआळी स्यूं पूछ्यो
" के बात है, जंवाई-राजा री आँख कियां सूजेड़ी है
,तू ठोकी के ?
लुगाई एकदम तारामती ( हरीश्चंद्र की लुगाई) बोली " हाँ, ठोकी !"
सासू = क्यूं ?
घरआळी = सुबह उठतांई आधी नींद म बोल्या " म्हारो चस्मो कठै है, सुमन ?
सासू = तो इमै ठोकण री कांई बात ही ?
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म्हारो नांव कांई है ?
सासू :- रजनी ....
ओरे !!!
मरज्याणे के दो और चेपणी ही ....
2.
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कालिया की सगाई करण नैं घरां दो आदमी आया
एक तो कालिये को सुसरो अर एक बिन्दणी को बडलियो भाई।
नेगचार करके सुसरो कालिये ने एक खोपरो दियो
और खोपरे ने बो कालियो कंजर बीके सामैं ही 2 बटका भर के खाग्यो।
सुसरो कई देर तक तो कालिये कानी देख्यो,
अरै बाद मे थुथकारो घालके बोल्यो
क- " थू थू
जँवाई की जाङ तो गण्डक की सी है "

मैं कैसा लगता हूं...

बस यूं ही
देखने में आया है कि अधिकतर भारतीय दो ही विधाओं से जुड़े लोगों को हीरो मतलब नायक मानते हैं। एक तो सिनेमा और दूसरा क्रिकेट। सिनेमा में तो जरूर हीरो के साथ हीरोइन का विकल्प है लेकिन महिला क्रिकेट में कोई ख्यात नाम नहीं होने के कारण पुरुषों का ही बोलबाला है। वैसे हर इंसान की फितरत है और उसके मन के किसी कोने में यह बात जरूर दबी होती है कि वह कैसा लगता है। कुछ आत्मविश्वास से लबरेज व्यक्ति तो जरूर अपने बारे में खुल कर बता देते हैं लेकिन बहुत से एेसे भी हैं जो स्वभाव से शर्मीले होने के कारण कुछ बता नहीं पाते।
खैर, क्रिकेट व सिनेमा से जुड़े लोगों को आदर्श या हीरो मानने की बात अब तो फेसबुक भी मानने और जानने लगा है। तभी तो दो तीन दिन से एक एप चल रहा है जिसमें किसी सिने कलाकार या क्रिकेटर के साथ शक्ल मिलाई जाती है। शक्ल मिलाने के इस खेल में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। आपको एक लिंक क्लिक करना होता है उसके बाद आपकी एक सामने के फेस के फोटो का चयन करना होता है, बाकी काम फेसबुक पलक झपकते ही कर देता है।
वैसे फेसबुक पर फेक आईडी बनाकर किसी आकर्षक नयन नक्श वाली युवती की फोटो लगाकर ' मैं कैसी लग रही हूं.. ।' का काम भी बदस्तूर चल रहा है लेकिन एप से किसी क्रिकेटर या अभिनेता की शक्ल मिलाने का शगल दो तीन दिन से परवान पर है। फेसबुक से जुड़ा हर दूसरा या तीसरा शख्स यह जानने को बेताब है कि वह कैसा लगता है। कल रात को एक साथी की शक्ल अमिताभ बच्चन से मिली देखी तो अपने भी जिज्ञासा पैदा हो गई। करना क्या था एक क्लिक किया फोटो सलेक्ट की और अपनी भी फोटो अमिताभ से मिला दी गई। आज सुबह से देख रहा हूं। फेसबुक किसी को सचिन तेंदुलकर बना रहा है तो किसी को महेन्द्रसिंह धोनी। किसी को सलमान खान बना रहा है तो किसी को शाहरूख खान। किसी को नवजोतसिंह सिद्ध बना दिया तो किसी को आमिर खान। कोई अक्षय कुमार बना तो कोई कुछ। श्रीमती भी कल से यह सब देख कर रही थी। आखिर उसका भी मन ललचा ही गया। उसने भी वो ही तरीका अपनाया तो परिणाम दीपिका पादुकोण के रूप में सामने आया। खैर, इस तरह की परिणाम जानने की फेहरिस्त बेहद लंबी है। वैसे फेसबुक पर इस तरह के कई एप व लिंक हैं जिनको क्लिक करने से कई तरह के परिणाम सामने आते हैं। हालांकि यह सब एक तरह का मनोरंजन ही है। हकीकत से कोसो दूर फकत मनोरंजन।

बस यादें बाकी-4


स्मृति शेष- विनोद खन्ना
'कभी कभी एेसे इंसान भी जन्म लेते हैं, जो अपना नाम, अपनी याद तारीख में नहीं बल्कि लोगों के दिलों में महफूज कर जाते हैं।' संयोग देखिए दयावान फिल्म में बोला गया यह डायलॉग विनोद खन्ना पर मौजूं हो गया। विनोद खन्ना चले गए लेकिन उनका नाम उनकी याद तथा उनका काम दिलों में महफूज रहेगा। हमेशा हमेशा के लिए। विनोद खन्ना के डायलॉग इतने सहज व सीधे होते थे कि यह जल्द ही जुबान पर चढ़ जाते थे। साथ ही हर आदमी डायलॉग को अपनी बात समझने लगता है। 'मजदूर को मजदूरी पसीना सूखने से पहले और मजलूम को इंसाफ दर्द मिटने से पहले।' वाकई इस डायलॉग में आज की कड़वी हकीकत छिपी हुई है। काश उनका यह डायलॉग हकीकत के धरातल पर उतरता। विनोद यह डायलॉग तो कमोबेश सभी पर लागू होता है 'इज्जत वो दौलत है जो एक बार चली गई तो फिर कभी हासिल नहीं की जा सकती।' उनकी डायलॉग में गरीब का दर्द उजागर होता है। फिल्मों में गरीबों का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। यह दो डायलॉग देखिए.. ' गरीब की जान की कीमत भी उतनी ही है जितनी पैसे वाले की जान की कीमत..' तथा 'गरीब का दिल अगर सोने का होता है तो हाथ फैलाद के होते हैं..। ' विनोद खन्ना का यह डायलॉग तो कई साथी आम बोलचाल में भी कह देते हैं कि ' मैंने जब से होश संभाला है खिलौनों से जगह मौत से खेलता आया हूं।' चांदनी फिल्म के डायलॉग 'दर्द की दवा न हो तो दर्द को ही दवा समझ लेना चाहिए ।' ने कई युगलों का संबल प्रदान किया। खैर, मौजूदा हालात में उनका यह डायलॉग तो आज भी प्रासंगिक है लगता है ' तलवार की लड़ाई तलवार से, प्यार की लड़ाई प्यार से और बेकार की लड़ाई सरकार से। ' इस तरह के विनोद खन्ना के डायलॉग कई हैं। सिनेमा, संन्यास और सियासत तीनों के समान रंग देख चुका रुपहले पर्दे का यह हीरों आज हमारे बीच नहीं है लेकिन इसकी यादें जेहन में जिंदा रहेंगी। जन्म जन्मांतर तक। इस कलाकार को मेरी श्रद्धांजलि।
इति।

बस यादें बाकी-3

स्मृति शेष- विनोद खन्ना
बीच में व्यस्तता इतनी बढ़ी कि विनोद खन्ना की सीरिज ही गौण हो गई। चूंकि दो नंबर पोस्ट के नीेचे क्रमश: चस्पा कर रखा था, लिहाजा लिखना तो बनता ही है। फिल्मों के नामों के बाद अब बात विनोद खन्ना के कुछ चुनिंदा गीतों की। विनोद खन्ना के कई गीत तो इतने कालजयी और अमर हैं वो कभी भी सुनो दिलो-दिमाग को सुकून प्रदान करते हैं। एक गीत में वो गुनगुनाते हैं और चलते रहने की सीख देते हैं 'रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...' लेकिन एक दूसरे गीत में वो जिंदगी से अंसतुष्ट दिखाई देते हैं गोया वो जिंदगी के फलसफे को जान चुके हैं। तभी तो गाते हैं' जिंदगी तो बेवफा है, एक दिन ठुकराएगी, मौत महबूबा संग लेकर जाएगी....।' वैसे विनोद खन्ना के गीतों में प्रेम व निराशा का दोनों ही दिखाई देेते हैं। एक तरफ वो 'हम तुम्हे चाहते हैं एेसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे... ' गीत गाकर प्रेम को बुलंदी प्रदान करते हैं लेकिन दूसरे ही पल कोई साथी न मिलने का मलाल वो इस तरह जाहिर करते हैं 'कोई होता जिसको अपना हम कह लेते यारो...। ' इस गीत में देखिए, प्यार होने पर वो महबूबा से इजाजत मांगते हैं 'हमको तुमसे हो गया है प्यार बोलो तो जीएं बोलो तो मर जाएं.. ' और इधर तो एक सलाम से ही खुद को तसल्ली देते नजर आते हैं 'जाते हो जाने जाना, आखिर सलाम लेते जाना..। ' फिर अचानक वो कह उठते हैं ' आज फिर तुम पे प्यार आया है..। ' विनोद प्रेम के साथ-साथ अपने साथी से मदद के लिए भी कहते हैं, 'छेड़ मेरे हमराही गीत कोई एेसा..' तो ' जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा..।' इतना ही नहीं एक दूसरे के बिना जीने व रहने की कल्पना भी नहीं करते तभी तो गाते हैं ' वादा करले साजना तेरे बिना मैं रहूं मेरे बिना तू ना रहे ..। ' वो टूटे दिल के साथ सावन को दोष देते नजर आते हैं ,जब गाते हैं 'लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है..।' खैर इस तरह के सदाबहार गानों की फेहरिस्त बेहद लंबी है। बहुत लंबी। कल बात विनोद के कुछ खास डॉयलाग की।
क्रमश:......