Tuesday, November 14, 2017

लेकिन वो बात अब कहां.

 'इक बंजारा गाए
हम श्रीगंगानगर के लोग, जितने मस्तमौला हैं, उतने ही शायद भुलक्कड़ भी हैं। हम भूल बहुत जल्दी जाते हैं। हमारी यही आदत यहां आने वाले अधिकारियों में भी बहुत जल्दी घर कर जाती है। या यूं कह लीजिए यहां आने वाले अधिकारी भी हमारी संस्कृति व आचार-विचार आदि में इतने रच बस जाते हैं कि उनको देखकर लगता ही नहीं कि वे श्रीगंगानगर से बाहर के हैं। सांड की टक्कर से मोटरसाइकिल सवार एक वरिष्ठ नागरिक की मौत का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। इतना तो याद ही होगा कि साक्षात मौत के इस वीडियो को देखकर रोंगटे खड़े गए थे। यह वीडियो अगर याद है तो इस मौत के बाद उपजे आक्रोश तथा नगर परिषद व जिला प्रशासन की वह तत्परता भी थोड़ी बहुत याद होगी। किस तरह हम लोगों ने अधिकारियों पर दबाव बनाया और फिर प्रशासनिक नुमाइंदों ने निराश्रित गोवंश की धरपकड़ शुरू की। सप्ताह भर तक तो यह काम ठीक ठाक चला लेकिन इसके बाद यह नेपथ्य में चला गया। जानमाल की सुरक्षा से जुड़ा यह मसला एक तरह से दरकिनार कर दिया गया। हम लोग तो भूले ही प्रशासनिक अधिकारियों की दिलचस्पी भी कम होती चली गई। हां, उस वक्त प्रशासन ने शहर ही नहीं समूचे जिले को निराश्रित गोवंश से मुक्ति दिलाने का दावा जरूर किया था। दावा भी भला अब किसको याद होगा। भूलने की आदत जो है! हालत देखिए शहर की सड़कों पर गोवंश अब भी इतनी ही स्वच्छंदता के साथ विचरण कर रहा है। सड़कों पर इनकी संख्या देखकर लगता ही नहीं है कि कोई कार्रवाई हुई भी थी क्या?
कभी कभी तो यह भी लगता है कि पकड़ा गया और गोशालाओं में भेजा गया गोवंश कहीं फिर से बाहर तो नहीं आ गया? पर अब सब चुप हैं। प्रशासन की स्मृति से यह तो मसला संभवतया गायब ही हो चुका है। और इधर, हम लोग भी लंबी तान के सोने में मशगूल हैं। यह चुप्पी व नींद तभी टूटेगी, जब फिर कोई नया हादसा होगा। हम फिर गुस्सा होंगे। हमारा आक्रोश देखकर ही तो प्रशासन को याद आएगा। वैसे भी जिस शहर में प्रजा और प्रशासन दोनों ही एक जैसे हो जाते हैं, वहां फिर व्यवस्थाएं ठीक से काम नहीं करती।

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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के आज यानि 31 अगस्त के अंक में प्रकाशित

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