Tuesday, November 14, 2017

बच्चे तो बच्चे हैं

बच्चे तो बच्चे हैं, जिद कर उठते हैं। उनकी जिद माननी भी पड़ती है। भले अपने खुशियां में कटौती ही क्यों न हो। कुछ ऐसा ही धर्मपत्नी निर्मल के साथ हो रहा है। वह इस बार मायके नहीं जा पाई, क्योंकि माताजी-पिताजी हमारे पास ही हैं। उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रहे, बस यही सोचकर वह बच्चों के साथ नहीं गई। पिछले साल भी नहीं जा पाई थी। मैं दोनों बच्चों को लेकर शनिवार रात को जोधपुर रवाना हुआ और सोमवार सुबह श्रीगंगानगर पहुंच गया। घर पहुंचा तो श्रीमती उदास थी। उसने कहा कि आपकी संगत का असर हो गया है। मैं चौंका तो कहने लगी अपनी भावनाओं को शब्द दिए हैं, तकिये के नीचे जो कागज है वह निकाल कर पढ़ लो। पढऩे लगा तो आंखों से आंसू टप-टप कर गिरने लगे। वो कहने लगी यह फेसबुक पर लगाने के लिए लिखा है। लेकिन इतना बड़ा लिख दिया है कि मोबाइल पर कंपोज कैसे करूं। मैंने कहा ठीक हैं मैं इसे कम्पोज कर देता हूं। आपकी मूल भावनाएं जस की तस। आप भी पढि़ए धर्मपत्नी का भावनाओं से भरे यह शब्द......
दिनांक 28 मई
समय रात : नौ बजे
श्रीगंगानगर।
'आज मन बहुत व्यथित है और उदास भी है। उसने ही मुझे मजबूर किया कि मैं अपनी उदासी कुछ लिखकर दूर कर लूं। यह मन यूं ही उदास नहीं है। इस उदासी में बच्चों की खुशी छिपी है। बात यूं है कि बच्चे कई दिनों से जोधपुर अपने ननिहाल जाने की जिद कर रहे थे लेकिन मैं किसी कारणवश या यूं कह सकते हैं कि अपने कर्तव्य मतलब कि कुछ घर के प्रति जो कर्तव्य जरूरी हैं, उनके चलते नहीं जा पा रही थी। इसी वजह से पिछली गर्मियों में भी बच्चों के साथ नहीं जा पाई। खैर मैं, विषयांतर हो रही हूं। हां तो मैं कह रही थी मेरा मन व्यथित है। उदास है। और ये और भी उदास हुए जा रहा है, लगातार डूबता सा प्रतीत हो रहा है। पता नहीं क्यों पर मन तो मन है। इसकी जैसी मर्जी होगी वैसा ही रहेगा। अरे मैं कहां मन को ले बैठी। यह तो फिलहाल मेरे मिस्टर एमएस का काम है। उन्होंने मन की जिम्मेदारी जो ले रखी है इन दिनों। दरअसल, मेरा मन मन ना हुआ गोया बिलासपुर-भिलाई की बारिश हो गया है। जब मर्जी तब मर्जी आ रहा है मेरे लेखन के आगे बार-बार।
आज बच्चे नहीं हैं। घर सूना सूना। मेरा तो जग सूना सूना हो रहा है। देखो सामने बेजान कुत्ता भी मुंह बाए पड़ा है जो कि रोज बच्चों की लातों का शिकार होता था। मुझे वो फ्रिज पर पड़े चंद सिक्के चिढ़ा रहे हैं कि माना कह रहे हों कि पड़े हैं हम यहां अब संभाल लो। जब चीकू फ्रिज से उन सिक्कों को तकरीबन रोज ही उठाकर बड़े प्यार से पूछता, मम्मा ले लूं एक रुपया। और मेरा चिल्लाना कि रोज तुम्हारा ये ही नाटक है। ले लूं ले लूं आज याद आ रही है बेटे तेरी। दरअसल वह सिक्के मैं चीकू के लिए रखती थी। और तो और वह कम्प्यूटर भी वीरान बेजान पड़ा है बच्चों के बिना। जिसके कान छुट्टियों में बच्चे छोड़ते ही नहीं है। आज मेरा वाई फाई का नेट जोकि आधे दिन में दो जीबी भी कम पड़ता था वो वैसा ही पड़ा है पूरा फुल, खचाखच। और वो मक्खियों की ढेरी भी आज गुम है। या यूं कहें कि छुट्टी पर चली गई जो कि बच्चों की मौजूदगी में घर में भरी पड़ी रहती थी। मानो वो उनसे ही मिलने आती थी।
सच में बच्चों के बिना 10-15 दिन निकालना कठिन लग रहा है इस बार। पहले मैं सोचती थी कि मैं मेरी मम्मी की तरह स्ट्रोंग हूं मैनेज कर लूंगी। दरअसल मम्मी स्ट्रोंग तो है पर अब परिवार के मोह को बहुत पीछे छोड़ चुकी है। इसलिए उन्हें कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें तो अपने राम से मतलब है। खैर, जो भी हो धन्य है वो मां बाप जो अपने बच्चों के भविष्य के लिए छोटी सी उम्र में होस्टल में भेज देते हैं। मेरी प्रिय सहेली बसंत ने अपनी बेटी को होस्टल भेजा तो मुझे हमेशा फोन करके कहती यार मेरा मन आजकल कहीं लगता ही नहंी। उसकी बात आज याद आ रही है कि वाकई बच्चों के बिन घर, घर नहीं होता। आज मुझे महसूस हो रहा है। मेरे राम लखन चाहे कितनी भी लड़ाई करें पर घर की रौनक उन्हीं से है। सच बच्चों अब तो यही लग रहा है कि 10-15 दिन जल्दी से बीत जाए और मेरे कृष्ण बलराम घर आ जाएं।
मम्मा मिसिंग यू ए लोट
निर्मल

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