Tuesday, March 20, 2012

सबको सन्मति दे भगवान

बोले बापू

 मैं हैरान हूं, परेशान हूं। उदास, निराश और व्यथित भी। जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों और आमजन के दोहरे चरित्र पर। इनकी कथनी-करनी में कितना अंतर है, यह तो मुझे भली-भांति पता है। आज इसे प्रत्यक्ष देख भी लिया। मेरी जयंती और पुण्यतिथि पर सत्य, अहिंसा व नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों की आज मेरे सामने आने तक की हिम्मत नहीं हुई। मन के किसी कोने में हल्का सा डर या संकोच रहा होगा, तभी तो मेरी प्रतिमा के चारों ओर पर्दा  खींच दिया गया। मैं बात कर रहा हूं कलेक्टोरेट परिसर की, जहां सोमवार को आबकारी ठेकों की लॉटरी निकाली गई। बरगद के नीचे लगी मेरी शांत चित मुद्रा की प्रतिमा को पर्दे में ढंक दिया गया। प्रतिमा के पिछवाडे़ यानि मेरी पीठ के पीछे 'मंथन सभा कक्ष' में शराब ठेकेदारों के भाग्य का फैसला होता रहा। आमतौर पर कलेक्टोरेट परिसर में आने वाले फरियादियों को मेरी प्रतिमा देखकर सुकून मिलता है, संबल मिलता है। न्याय की उम्मीद बंधती है लेकिन आज मेरी जरूरत नहीं थी। सरकार और उसके नुमाइंदे भी नोटों में मेरी फोटो देखने लगे हैं, तभी तो उन्हें मेरे विचारों से ज्यादा कागजों (नोटों) पर भरोसा है। यह नोटों का ही तो कमाल है कि बीते दस साल में छत्तीसगढ़ शराब बिक्री के मामले में दसवें से तीसरे पायदान पर आ गया है। आलम यह है कि शराब, दवा से भी सस्ती हो गई है। यही रफ्तार रही, तो नंबर वन का खिताब हासिल करने में देर नहीं लगेगी। लोग नशे के आदी हो गए हैं। शराब से नोट किस तरह बरस रहे हैं, इसके लिए बिलासपुर का उदाहरण ले लीजिए। गत वर्ष के मुकाबले इस बार 50  करोड़ से भी ज्यादा के शराब ठेके छूटे हैं। आवेदन पत्रों में भी पिछले साल की तुलना में सात करोड़ ज्यादा कमा लिए। यह तस्वीर कमोबेश पूरे प्रदेश की है। विडंबना देखिए, इन सबके बाद भी प्रदेश सरकार शराबबंदी का राग अलापती है। कारण क्या है पता नहीं, फिर भी जोर-शोर से प्रचारित करवाया जा रहा है कि ढाई हजार तक आबादी वाले गांवों में शराबबंदी कर दी गई है। सोचनीय विषय है कि एक तरफ शराब ठेकों की नीलामी के दौरान मेरी प्रतिमा को पर्दे से ढंक दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ शराबबंदी के पोस्टरों में मुख्यमंत्री के साथ मेरी तस्वीर लगाई जा रही है। यह दोहरा चरित्र नहीं तो क्या है। अगर मेरे विचारों को मानते हैं तो फिर खुलकर स्वीकार करने या छिपाने में हर्ज क्या है।
शराब ठेकों की लॉटरी से ही जुड़ा एक हास्यास्पद पहलू भी मैंने आज देखा। बहुत से आवेदन महिलाओं के नाम से आए, लेकिन लॉटरी के दौरान कोई आवेदिका मौजूद नहीं थी। मैंने देखा है कि शराब से पीड़ित अगर कोई है, तो उनमें सर्वाधिक संख्या महिलाओं की है। इसके बावजूद उनके नाम से आवेदन करना कहां तक न्यायसंगत है। सरकार और उनके नुमाइंदों को सिर्फ कमाने से मतलब है। अगर वह लॉटरी के दौरान यह शर्त रख देते कि आवेदक का लॉटरी के दौरान हाजिर रहना जरूरी है तो शायद महिलाओं के नाम का इस तरह दुरुपयोग नहीं होता।यह महिलाओं के लिए सोचने का विषय है कि जब वे शराब से पीड़ित हैं, तो फिर क्यों अपने नाम का इस्तेमाल ठेकों की लॉटरी के लिए होने दिया?
बहरहाल, मैं चकित हूं। सरकार व उनके नुमाइंदों से। यही तो वे लोग हैं, जो योजनाओं के नाम,  मेरे विचारों एवं सिद्धांतों को मानने का दंभ भरते हैं। गाहे-बगाहे यह साबित करते हैं उनकी विचाराधारा गांधीजी के ज्यादा निकट हैं। यह सब ख्याली पुलाव हैं, जो चुनाव के वक्त ही पकाया जाता है। बाद में पांच साल के लिए मुझे कोई पूछता भी नहीं। अवसर विशेष पर श्रद्धा के सुमन चढ़ा दिए तो गनीमत है, वरना साल भर मेरी प्रतिमाओं को धूल फांकने के अलावा कोई चारा नहीं है। मेरे नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ही मेरी वैचारिक हत्या कर रहे हैं। जिस प्रकार की व्यवस्था की गई और सुरक्षा के लिए जवानों को  तैनात किया गया, उतना अमला किसी मैदान में भी जुटाया जा सकता है। व्यस्त सड़क पर बार-बार जाम लगता रहा वह अलग। खैर, बड़ों का काम हमेशा माफ करना रहा है। यह सब नासमझ हैं। पैसे की चाह में मुझे नजरअंदाज कर दिया। भगवान इनको सद्‌बुद्धि दे, सन्मति दे, ताकि अगले साल कम से कम मेरा लिहाज तो रखें और लॉटरी के लिए किसी दूसरी मुफीद जगह की तलाश करें।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 20  मार्च 12  के अंक में प्रकाशित