Wednesday, May 20, 2015

घर

अभी तीन दिन के लिए गांव गया था। बिना आदमी के घर की हालत कैसी होती है, यह प्रत्यक्ष देखा और महसूस किया। जिस आंगन में बचपन बीता। पला-बढ़ा। जिसको बनाने में पापा के खून पसीने की कमाई लगी, आज उस घर की हालत देखी नहीं जाती। तीन दिन यही सोचता रहा। जेहन में कई तरह के ख्याल आए। कभी मायूस हुआ तो कभी आंखें भर आई। बीकानेर आने के बाद सोचा क्यों न ख्यालों को शब्द दे दूं तो.. बस..
घर
घर अब घर कहां रहा है मां?
वो आंगन जिसको तुम दिन भर बुहारती थी बार-बार,
अब मिट्टी से सना है।
इधर-उधर बिखरे सूखे पत्तों की आवाज से,
टूटता है सन्नाटा।
कभी डरते-डरते जो आती थी घर में,
आज वो चिडिय़ा बड़े अधिकार से रहती है वहां।
घौसले में बच्चों की चूं-चूं गूंजती है दिनभर।
किसी की आहट उसे तनिक नहीं सुहाती है।
वह गुस्से में चिल्लाती हैं।
चूहों ने भी तो देखो कितने ही रास्ते बना लिए,
पक्के फर्श में भी बिल तक खोद लिए।
क्योंकि उनको भी अब डर नहीं किसी का।
बेखौफ दौड़ते है दिनभर, इधर से उधर।
दीवारों पर लटके मकडिय़ों के जाले,
छिपकलियों के मल-मूत्र से अटे आले।
बंद कमरों से आती अजीब सी गंध,
अब नथूनों को अखरती है मां।
घर अब घर कहां रहा है मां?
-क्रमश:

फिर किससे उम्मीद करें

टिप्पणी

शहर के हालात इस कदर बिगड़े हुए क्यों हैं? इसका जवाब सोमवार को बीकानेर आई प्रशासनिक विभाग की टीम को मिल गया होगा। प्रशासनिक उदासीनता और अकर्मण्यता का जीता जागता उदाहरण देख यकीनन टीम चौंकी होगी। टीम के निरीक्षण के बाद सामने आई सरकारी विभागों की तस्वीर बेहद चिंताजनक है। कुछ देर के निरीक्षण में सैकड़ों अधिकारियों-कर्मचारियों का नदारद मिलना दर्शाता है कि सरकारी कार्यालयों का ढर्रा किस कदर पटरी से उतरा हुआ है। जिला मुख्यालय पर ही ऐसे हालात हैं तो फिर दूरदराज के देहाती इलाकों की तो सहज ही कल्पना की जा सकती है। निरीक्षण की बानगी देखिए कि टीम ने कुल 65 उपस्थिति पंजिकाओं का निरीक्षण किया। इसमें 299 में से 50 अधिकारी तथा एक हजार 21 में से 230 कर्मचारी अनुपस्थित पाए गए। कुलयोग देखें तो 1320 में 286 अधिकारी और कर्मचारी कार्यस्थल पर नहीं मिले।
हैरत की बात तो यह है कि अनुपस्थित रहने वालों का यह आंकड़ा 21 फीसदी से भी ज्यादा है। इससे सोचा जा सकता है कि इन कार्यालयों में जाने वाले फरियादी का काम किस अंदाज में होता होगा। अक्सर हम सभी ने देखा और महसूस भी किया होगा कि सरकारी कार्यालयों में सिर्फ एक आदमी के न होने से बनने वाला काम ऐन वक्त पर कैसे रुक जाता है। आज फलां बाबू नहीं कल आना या आज फलां साब नहीं बाद में आना जैसे जुमलों से आम लोग रोजाना दो चार होते हैं और बार-बार कार्यालयों के चक्कर लगाते हैं। तभी तो आमजन से जुड़ी समस्याओं की फेहरिस्त दिनोदिन लम्बी होती जा रही है। अगर लोकसेवक हैं तो फिर लोक सेवा से परहेज क्यों? खैर, यह तो बात केवल लेटलतीफी या अनुपस्थिति से ही जुड़ी है। सुविधाओं एवं सेवाओं की बात करें तो हालात होश फाख्ता करने जैसे हैं। संभाग के सबसे बड़े अस्पताल पीबीएम का दो दिन पहले ही चिकित्सा मंत्री जायजा लेकर गए थे। जयपुर से आई टीम भी सोमवार को पीबीएम गई। लगता ही नहीं वहां मंत्री की फटकार का कोई असर हुआ है? टीम ने यहां भी कई तरह की खामियां देखीं। इलाज की तो छोडि़ए मरीजों एवं उनके परिजनों को यहां पर शुद्ध पानी तक नसीब नहीं हो रहा है।
वाकई इस प्रकार के हालात डराने वाले हैं। ऐसे में इन निरीक्षणों का फायदा तभी है जब सकारात्मक परिणाम सामने आए। सिर्फ निरीक्षण कर अनुपस्थित रहने वालों की संख्या भर बता देने या नोटिस जारी करने की औपचारिकता से मकसद हल नहीं होने वाला। बहुत हो चुके इस प्रकार के निरीक्षण। अब तो इन रस्मी कार्रवाइयों से उम्मीद करना भी बेमानी सा हो चला है। अब तो कोशिश यह हो कि जयपुर की टीम की तर्ज पर स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन की अगुवाई में भी ऐसी टीम बने, जो समय-समय पर औचक निरीक्षण करे और लेटलतीफ एवं अनुपस्थिति रहने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे ताकि दूसरों के सामने उदाहरण पेश हो। ऐसा कुछ होगा तभी आम जन को इसका लाभ मिल पाएगा, वरना शहर भगवान भरोसे तो चल ही रहा है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 12 मई 15 के अंक में प्रकाशित

आखिर जुगाड़ कब तक

टिप्पणी

राज्यपाल के बीकानेर से रवाना होने के बाद से ही गजनेर रोड ओवरब्रिज पर फिर अंधेरा पसर गया है। तीन दिन जुगाड़ से ब्रिज को रोशन रखा गया। इससे पहले मुख्यमंत्री के बीकानेर प्रवास के दौरान भी ऐसा ही किया गया था। साल भर से अधिक समय हो गया है लेकिन इस जुगाड़ से मुक्ति नहीं मिली है। तर्क दिया जाता है कि ओवरब्रिज से गुजरने वाले वाहनों के कारण कम्पन होता है, इससे बत्ती गुल है। खैर, तर्क में कितना दम है यह तो देने वाले भली-भांति जानते हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसका कोई स्थायी समाधान नहीं है? या प्रशासन को स्थायी समाधान के बजाय जुगाड़ मुफीद लगता है? या फिर जुगाड़ केवल प्रमुख लोगों के लिए ही है? आम जन के लिए सरकार एवं प्रशासन क्या कोई व्यवस्था करने में नाकाम हैं?
दरसअल, शहर में प्रशासनिक उदासीनता से जुड़े मामलों की फेहरिस्त लम्बी है। ओवरब्रिज तो केवल बानगी भर है। आश्चर्य तो इस बात है कि शहर के विकास को लेकर कई तरह की बातें होती हैं। नवाचारों का ढिंढोरा पीटा जाता है। समय-समय पर जनसुनवाई की औपचारिकता निभाई जाती है। प्रशासनिक अधिकारी भी अक्सर 'शिकायत आएगी तो समस्या का समाधान करवा दिया जाएगाÓ जैसा राग अलापते रहते हैं। क्या अधिकारी शहर और उससे जुड़ी समस्याओं से वाकिफ नहीं हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि शहर से गुजरते वक्त अधिकारी अपने आंखें बंद रखते हैं ताकि भूल से भी कोई समस्या दिखाई ना दे। क्योंकि इस प्रकार समस्याओं की अनदेखी करने का वातावरण शहर में लम्बे समय से बना हुआ है। समस्याओं को लम्बित रखने की एक परिपाटी सी बन गई है। तय सीमा में कोई काम होता दिखाई ही नहीं देता है। दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते पीडि़तों की चप्पलें घिस जाती हैं। थक हार बेचारा मन मसोस कर रह जाता है लेकिन ढर्रा नहीं बदलता। ऐसे में बार-बार यही सवाल उठता है, आखिर क्यों एवं कब तक ऐसे हालात रहेंगे? एक साल तक समस्या का समाधान न खोज पाना दर्शाता है शासन-प्रशासन कितने संवेदनशील हैं। जनहित से जुड़े मसलों को वे कितना गंभीरता से लेते हैं। आखिर कोई तो समय सीमा होगी? कोई तो समाधान होगा? कोई भरोसा तो होगा? इस लाइलाज होती बीमारी का कोई तो इलाज होगा? या फिर यूं ही नियति मान संतोष कर लेना चाहिए कि जो है वो वैसा ही रहेगा उसमें कुछ सुधार नहीं हो सकता।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 मई 15 के अंक में प्रकाशित

योगू का जन्मदिन

बस यूं ही 
28 अप्रेल 2005 गुरुवार का दिन। वक्त यही कोई सुबह के साढ़े नौ बजे का होगा। कार्यालय में देरी ना हो इस वजह से मैं तैयार होने में व्यस्त था। अचानक मोबाइल की घंटी से मेरा ध्यान भंग हुआ। देखा तो ससुर जी के नम्बर डिस्प्ले हो रहे थे। सुबह-सुबह उनका फोन देखकर चौंकना लाजिमी था। फोन रिसीव किया तो बोले, बन्ना बधाई हो, लड़का हुआ है। मेरी खुशी का ठिकाना न था। आफिस गया और लड्डू मंगवाकर कार्यालय में वितरित करवाए। उस वक्त दैनिक भास्कर अलवर में कार्यरत था। दूसरे दिन शाम को ट्रेन पकड़कर जोधपुर पहुंचा। श्रीमती निर्मल उस वक्त जोधपुर के मथुरादास माथुर राजकीय अस्पताल में भर्ती थी। बच्चा ऑपरेशन से हुआ था। मैं तेज कदमों से चलता हुआ बस बच्चे की पहली झलक देखने को आतुर था। रास्ते में और वार्ड में कई तरह के अनुभव हुए, जिन्हे अलवर लौटने के बाद लिखा जो जोधपुर भास्कर में प्रमुखता से प्रकाशित भी हुए। आज भी याद है उस खबर का शीर्षक, यूं हमदर्दी से होता है दर्द का सौदा..। खैर, उसके बाद दस साल बीत गए। समय के साथ बेटे योगराज के जन्मदिन के स्थान भी बदलते गए। कभी जोधपुर तो कभी गांव केहरपुरा। कभी बिलासपुर तो कभी भिलाई। और अब बीकानेर। चीकू के जन्मदिन पर मां-और पापा पास थे लेकिन फिलहाल वे बड़े भाईसाहब के पास कोटपुतली में हैं। उन्होंने भी योगू के लिए शुभकामना संदेश भेजा। भाईसाहब की बेटियां अस्मिता और अदिति ने तो बाकायदा व्हाट्स एप पर जन्मदिन बधाई का संदेश रिकॉर्ड कर भेजा। दीदी और भानजे कुलदीप और प्रदीप ने भी विश किया। और हां नाना जिनका सबसे प्रिय दोहिता योगू ही है, उन्होंने तो दो बार बधाई दी। इसके अलावा सबसे बड़े भाईसाहब ने हमेशा की तरह इस बार भी कविता के माध्यम से योगू को जन्मदिन विश किया। उनकी स्वरचित कविता..
मान बढे, यश बढे और उम्र की बेल।
सेहत, बल, बुद्धि बढ़े और जगत से मेल।
धर्म, न्याय, नीति का पथ हो, गति पर योगू प्यारा।
शुभ आशीष फलवती होंगी, चमके कुल का तारा।

महिला सशक्तिकरण

छठी कहानी

कई दिनों से उनके मन में महिलाओं से जुड़े कार्यक्रम के आयोजन की रूपरेखा बन और बिगड़ रही थी। आखिरकार एक दिन फाइनल कर ही दिया गया। क्लब की अध्यक्ष होने के नाते बाकायदा प्रेस नोट तैयार करवाया गया। समाचार-पत्रों के दफ्तरों में मेल किए गए। फिर प्रेस नोट लेकर काशिद भी आया। कार्यक्रम के तहत क्लब का शपथ ग्रहण होना था और साथ में महिला सशक्तिकरण पर कुछ विशेष व्याख्यान। अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी। रिसीव किया तो सामने वाले सज्जन ने बड़ी आत्मीयता के साथ अपना परिचय दिया। कहने लगे श्रीमती कल महिलाओं से जुड़ा एक कार्यक्रम करवा रही है। कृपया न्यूज लगा देना तथा बाद में कार्यक्रम का कवरेज हो जाए, बस इतनी सी गुजारिश है। सज्जन एक सरकारी विभाग में बड़े आेहदे पर कार्यरत हैं, लिहाजा मैंने हां बोलकर उनको संतुष्ट किया। इसके बाद तो जेहन में विचारों का जैसे ज्वालामुखी ही फट पड़ा। वाह रे महिला सशक्तिकरण।

समाधान खोजो सरकार

 टिप्पणी...

हाईकोर्ट के आदेश के बाद राजमार्गों पर खुले शराब के ठेके आबकारी विभाग के अनुसार हट तो गए हैं लेकिन नई जगह तलाशने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। विशेषकर आबादी क्षेत्र में जहां ये ठेके स्थानांतरित हो रहे हैं, वहां कई जगह विरोध हो रहा है। कई जगह धरना-प्रदर्शनों का दौर भी चल रहा है। जिला प्रशासन एवं पुलिस के समक्ष भी लोग ठेके बंद करने की गुहार लगा रहे हैं। अब हालात यह हो गए हैं कि कानून व्यवस्था भंग होने तक की नौबत आ चुकी है। फिलहाल प्रशासन और आबकारी विभाग कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है।
देखा जाए तो सड़क हादसों का कम करने की दिशा में हाईकोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। निसंदेह इससे शराब की वजह से होने वालों हादसों में कमी भी आएगी। अकेले बीकानेर जिले में राजमार्गों से हटने वाले ठेकों की संख्या करीब सात दर्जन है। फिलहाल इन ठेकों को दूसरी जगह शिफ्ट करना आबकारी विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। वह इसीलिए क्योंकि महिलाओं एवं बच्चों से संबंधित अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार उनकी सुरक्षा का भरोसा भी दिलाती है लेकिन आबादी क्षेत्र में ठेके स्थानांतरित करने से वहां शांति कायम रह पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। वहां के लोगों की सुरक्षा का भरोसा कौन देगा, यह कहने की स्थिति में भी कोई नहीं है। दरअसल, यही बात धरना-प्रदर्शन करने वाले लोगों के जेहन में भी घर किए हुए है।
फिलहाल, सप्ताह भर के घटनाक्रम से इतना तो तय है कि मामला सियासी मोड़ भी ले चुका है। अधिकतर मामलों में प्रदर्शनकारी लोगों का नेतृत्व विपक्षी दल के जनप्रतिनिधि कर रहे हैं। सतारूढ़ दल के पदाधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने इस समूचे प्रकरण से खुद को दूर कर लिया है। इन सब के बावजूद बड़ा सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसे तनावपूर्ण हालात रहेंगे? लोगों का विरोध क्या कोई मायने नहीं रखता? कितना अच्छा होता कि आबकारी विभाग इन ठेकों के लिए पुलिस व प्रशासन के साथ बैठकर कोई समाधान खोजता। जब शराब लॉटरी प्रक्रिया में जिला प्रशासन, पुलिस, आबकारी विभाग साथ बैठ सकते हैं तो ठेकों के स्थान निर्धारण में तीनों की राय लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल, शनिवार को शराब ठेकेदार के कारिंदों एवं धरने पर बैठे लोगों के बीच हुई झड़प इस बात का संकेत हैं
कि मामले में ज्यादा तूल दिया गया तो लोगों का धैर्य जवाब दे सकता है। ठेके खोलने के 'राजहठ के आगे जनाक्रोश को नजरअंदाज करना कतई उचित नहीं है। विचारणीय बात तो यह भी है कि क्या पुलिस की भूमिका ठेकों पर खड़े होकर शराब बिकवाना ही रह गई है? इसीलिए समय रहते समाधान खोजना जरूरी है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 26 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित

सिर्फ घोषणा से नहीं बनेगी बात

 टिप्पणी

स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ एंड फैमिली वेलफेयर (एसआईएचएफडब्लू) के सर्वे में बीकानेर जिले में तम्बाकू निषेध अधिनियम (कोटपा) की पालना 85 प्रतिशत से अधिक पाई गई है। इस कारण जिले को 'स्मोक फ्री घोषित करने की अनुशंसा की गई है। बीकानेर स्थापना दिवस 20 अप्रेल को इसकी बाकायदा घोषणा भी होगी। बीकानेर के खाते में एक और उपलब्धि जुड़ जाएगी। वैसे, इससे लोगों को खुशी कम आश्चर्य ज्यादा हुआ। सोशल मीडिया पर तो कुछ ने इसे 'मजाक करार दे दिया। इसकी वजह भी है। दरअसल, ऐसी उपलब्धियों का इतिहास ही ऐसा है कि यकायक विश्वास करना भी संभव नहीं है। शहर में कदम-कदम पर बीड़ी-सिगरेट एवं गुटखों की दुकानें हैं। इतना ही नहीं प्रतिबंधित क्षेत्रों में भी धूम्रपान की सामग्री की बेरोकटोक आवक होती है। अस्पताल जैसे संवदेनशील क्षेत्र भी अछूते नहीं है। रात भर शहर में कई जगह शराब के ठेके तक आबाद रहते हैं। ऐसे में सवाल है कि सर्वे कहां एवं किन परिस्थितियों में हुआ।
खैर, बीकानेर जिला 'स्मोक फ्री होना तो तय है। इस तरह की 'उपलब्धि की परम्परा आगे भी बरकरार रहे इसके प्रयास होने चाहिए। क्योंकि जनहित में बने कुछ कानूनों का हश्र ऐसा ही है। बीकानेर शहर में पॉलिथीन प्रतिबंधित है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर कोई रोक नहीं है। कुछ यही हाल हेलमेट का है। हेलमेट सभी के लिए अनिवार्य है। हाल ही में संभाग मुख्यालयों पर तो पीछे बैठने वाली सवारी के लिए भी इसे अनिवार्य कर दिया है लेकिन बीकानेर में इसकी पालना होती दिखाई नहीं देती। कुछ इसी तरह के हालात शहर को साफ एवं सुंदर बनाने के लिए की गई घोषणाओं के हैं। बीकानेर को ग्रीन, क्लीन और बेटर बनाने की न जाने कितनी ही घोषणाएं हुईं लेकिन मुकाम तक एक भी नहीं पहुंची। ओवरफ्लो नालियां, सड़क पर सीवरेज का पानी, स्वच्छन्द विचरण करते आवारा पशु जैसे कई उदाहरण हैं जो शहर की बदहाली को बयां करते हैं।
बहरहाल, बीकानेर जिले को 'स्मोक फ्री की अनुशंसा पर खुश हुआ जा सकता है लेकिन यह खुशी क्षणिक है। तात्कालिक है। केवल श्रेय भर लेने तक सीमित है। कितना अच्छा हो कि आमजन के हित में जो कानून बने हैं, जो घोषणाएं हुई हैं, उनमें औपचारिता कतई नहीं हो। नियमों की ईमानदारी से पालना हो। उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई का डंडा समान रूप से चले। अगर ऐसा कुछ होता है तब तो 'स्मोक फ्री होने का कुछ मतलब भी है। सिर्फ घोषणा कर वाहवाही लूटने से मकसद हल नहीं होने वाला।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 14 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित 

मंत्रीजी का बयान

 पांचवीं कहानी

दो दिन पहले की ही तो बात है। हर तरफ मुर्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे थे। पुतले फूंके जा रहे थे। बयान की चौतरफा निंदा हो रही थी। मंत्रीजी ने मीडिया को प्रेसटीट्यूट कह दिया था। बयान के विरोध में तथा मीडिया के समर्थन में खड़े होने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। सोशल मीडिया पर भी अच्छी-खासी बहस छिड़ी हुई थी। लोग अपने-अपने हिसाब से दो खेमों में बंटे थे। सबके अपने अपने तर्क थे। पार्टी ने मंत्री जी का व्यक्तिगत मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया। आखिरकार मंत्रीजी ने संशोधित बयान दिया और माफी मांगी। खैर, बात आई गई हो गई।
इधर शहर में एक बार फिर खेल प्रतियोगिताओं की भरमार हो गई थी। गली-मोहल्लों में भी खेल की धूम थी। लेकिन अखबारों में इनको खास तवज्जो नहीं मिल पा रही थी। आखिरकार हमेशा की तरह एक मैत्री मैच की परिकल्पना की गई। सब कुछ तय हुआ। अक्सर देर से उठने तथा कार्यक्रमों में देरी से पहुंचने वाले पत्रकार साथी आज निर्धारित समय पर मुस्तैद नजर आए। आयोजकों की तरफ से सभी को डे्रेस, कैप एवं चश्मा दे दिया गया। एक दो साथी ने आनाकानी की तो तर्क दिया गया कि यह खेल का नियम है, यह सब पहनना ही पड़ेगा। खैर, मैच खत्म हुआ तो आयोजकों ने कहा कि यह सब अब आपका ही है, यादगार के लिए। दरअसल, यह कोई पहला मौका नहीं था। आयोजकों ने इस बहाने हर बार की तरह मीडिया में अपनी घुसपैठ कर ली। और मुझे रह-रहकर मंत्रीजी का बयान याद आ रहा था।

सम्मान

चौथी कहानी

आज उनके चेहरे पर चमक थी। लम्बे समय बाद उनके योगदान को याद किया गया था। उनके काम की कद्र की गई थी। अखबारों में उनकी माला पहने फोटो छपी थी। जितनी खुशी सम्मान से नहीं मिली, उससे कहीं ज्यादा अखबार में खुद की फोटो देखकर हुई थी।
वैसे बाबू मस्तराम किसी परिचय के मोहताज नहीं। कभी साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में उन्होंने खूब काम किया और नाम कमाया। तभी तो शहर में उनके गुणग्राहकों की लम्बी फेहरिस्त थी। लेकिन समय के साथ सब पीछे छूटता गया। अब बस पुरानी यादें ही उनकी थाती थी। बिलकुल एकांतवादी हो गए थे। हालात पर तरस आता था। लम्बे समय बाद अखबारों में नाम आने से उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
बाबू मस्तराम के मोहल्ले में उनके परम मित्र खुशीराम भी रहते थे। मित्र के सम्मान का समाचार पढ़ा तो चले आए बधाई देने। बातों का सिलसिला चल पड़ा तो खुशीराम ने जिज्ञासावश पूछ लिया, कौन थे सम्मान करने वाले? सम्मान स्वरूप क्या मिला?
सवाल सुनते ही बाबू मस्तराम एकदम गंभीर हो गए। चेहरे पर छाई खुशी यकायक गायब हो गई। ऐसा लगा मानो किसी ने दुखती रग पर हाथ धर दिया हो। मित्र ने ज्यादा कुरेदा तो फूट पड़े। बोले शहर में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली एक संस्था है। इस संस्थान के लोग साहित्यकारों, कथाकारों, संगीतकारों आदि का सम्मान आदि करते हैं। खुशीराम बोले, आज के जमाने ऐसी संस्था होना बड़ी बात है। वरना कौन किसको याद करता है।
इतना सुनते ही बाबू मस्तराम की आंखों से आंसू टपक पड़े। गला भर आया। मानो वे कहना चाह रहे थे कि खुशीराम तुम क्या जानो कैसा सम्मान हुआ। इस सारे सम्मान कार्यक्रम का आयोजक तो मैं ही हूं। सम्मान स्थल भी मेरा घर था। और तो और सारा खर्च भी मेरा ही। आने वालों को चाय पान तक व्यवस्था भी मैंने ही जैसे-तैसे की। वो तो संस्था वालों का अखबारों वालों के यहां थोड़ा आना-जाना है, इस लोभ के कारण सब वहन कर लिया, वरना उनका तो एक पैसा भी खर्च नहीं हुआ। खुशीरा

लापरवाही की पराकाष्ठा

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लापरवाही की पराकाष्ठायाद है, गत जून में सरकार आपके द्वार कार्यक्रम के तहत मुख्यमंत्री का लवाजमा बीकानेर आया था। काफी घोषणाएं हुई थीं। मंत्रियों ने दौरे किए। मातहतों को निर्देश दिए। लापरवाह कार्मिकों को फटकार भी लगी थी। कुछ निलम्बन भी हुए थे। उस समय स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ का पीबीएम अस्पताल दौरा किसे याद नहीं होगा। अस्पताल के हालात देखकर मंत्री बिफर गए थे और यहां तक कह दिया था कि पीबीएम बीमार है। सर्जरी की जरूरत है। मंत्रीजी के बिफरने का कितना असर हुआ? अस्पताल की सर्जरी किस तरह की हुई सारा शहर जानता है। जो जैसा चल रहा था कमोबेश वैसा ही चलता रहा। जो जहां था, वहीं जमा रहा। न अस्पताल की सर्जरी हुई ना व्यवस्था में कोई बदलाव दिखा। गाहे-बगाहे होने वाले हंगामे इस बात के गवाह हैं। हकीकत में व्यवस्था इस कदर बिगड़ रही है कि यहां भर्ती बीमार व्यक्ति रफ्ता-रफ्ता लाइलाज होने की तरफ बढ़ रहा है।
संभाग के सबसे बड़े अस्पताल पीबीएम में मंगलवार को हुई एक युवक की मौत ने तो लापरवाही की पराकाष्ठा को ही लांघ दिया। तेरह दिन तक मौत से संघर्ष के बाद युवक जिंदगी की जंग हार गया। वह पीबीएम के आपातकालीन वार्ड में उपचाराधीन था। इलाज में लापरवाही और संवेदनहीनता इस कदर बरती गई कि मरहम पट्टी ही नियमित नहीं की गई। नजीजतन उसके घावों में कीड़े तक पड़ गए लेकिन धरती के भगवान का कलेजा नहीं पसीजा। युवक के परिजन चिकित्सकों से गुहार लगाते रहे लेकिन उनकी पुकार को अनसुना कर दिया गया। अस्पताल प्रशासन की नींद भी उस वक्त टूटी जब युवक इस दुनिया से विदा होने वाला था।
बीकानेर जैसे शहर में युवक की ऐसे हालात में मौत और वह भी आपातकालीन वार्ड में कई सवाल खड़े करती है। जब आपातकालीन वार्ड में ही हालात इतने बदतर हैं कि सामान्य वार्डों की कल्पना मात्र से डर सा लगता है। मौत के बाद उपजे आक्रोश को शांत करने के लिए अस्पताल प्रशासन ने भले ही आश्वासन दिए हों लेकिन क्या इनसे व्यवस्था सुधर जाएगी? क्या यह आश्वासन उस मां के लख्तेजिगर को जिंदा कर पाएगा? क्या यह आश्वासन बरसती आंखों को कोई सुकून का सपना दिखा पाएगा? क्या आश्वासन इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच कर दोषी नर्सिंगकर्मी/ डाक्टर को सजा दिला पाएगा? क्या आश्वासन से जंग लग जड़ बन चुकी व्यवस्था फिर से पुनर्जीवित हो पाएगी? क्या यह चिकित्कीय पेशे में सेवा भाव को सर्वोपरि रखने में सहायक होगा? क्या यह आश्वासन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में शामिल चिकित्सकों पर लगाम लगा पाएगा? दअरसल, आश्वासन का इतिहास ही ऐसा रहा है इसलिए इन सवालों के सही जवाबों में संदेह है। जब मंत्री के निर्देश ही हवा हो गए तो फिर अस्पताल प्रशासन की बिसात ही क्या है। वह अगर खुद ही व्यवस्था सुधार लेता तो फिर निरीक्षण के दौरान फटकार ही क्यों लगती? मंत्री के निरीक्षण एवं निर्देशों के एक साल बाद भी व्यवस्था नहीं सुधरती है तो व्यवस्था पर भरोसा करना भी बेमानी लगता है। अगर निर्मल की मौत इस पेशे से जुड़े लोगों तथा अस्पताल प्रशासन की अंतरात्मा को झकझोरती है और परिणामस्वरूप कुछ हलचल होती है या व्यवस्था सुधरती है तो जरूर कुछ कहा जा सकता है। वरना पत्थर दिल होते चिकित्सकों के आगे न जाने कितने 'निर्मल दम तोड़ेंगे।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित

मिलीभगत की बू

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बीकानेर में उरमूल डेयरी इन दिनों मिलावटी व घटिया दूध के खिलाफ अभियान चला रही है। डेयरी की टीम बारी-बारी से शहर के अलग-अलग इलाको में जा दूध के नमूनों की प्रारंभिक स्तर की जांच कर उनकी गुणवत्ता के बारे में अवगत करा रही है। करीब महीने भर से 'दूध का दूध पानी का पानी अभियान के तहत अब तक सैकड़ों नमूने लिए जा चुके हैं और साठ फीसदी से ज्यादा नमूने खरे नहीं उतरे हैं। उधर, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग इस जांच को उचित नहीं मानता। विभाग के अधिकारियों का मानना है कि यह अधिकृत जांच नहीं है और इससे उपभोक्ताओं में भ्रम फैल रहा है। स्वास्थ्य विभाग की दलील को कुछ देर के लिए सही भी मान लें लेकिन विभाग केवल यह कह कर या क्षेत्राधिकार का मसला बताकर अपने जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। आखिर कथित भ्रम फैलाने से डेयरी को क्या हासिल होगा? देखने वाली बात तो यह भी है कि इसमें किसका नुकसान तथा किसका फायदा है। किसके हित जुड़े हुए हैं। कौन प्रभावित होगा? कौन नहीं? कहीं न कहीं स्वास्थ्य विभाग को लग रहा है कि डेयरी इस कथित भ्रम के बहाने अपना प्रचार रही है तो भी विभाग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हो सकता है यह अभियान डेयरी की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो लेकिन वर्तमान में डेयरी शहर में मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति ही नहीं कर पा रही है। उसकी जांच का दायरा भी ऐसे जगह पर है ज्यादा है, जहां उसके बूथ ही नहीं हैं। वैसे भी डेयरी अधिकारी इसे केवल जन जागरण वाला अभियान ही बता रहे हैं।
खैर, डेयरी के अभियान पर स्वास्थ्य विभाग को भरोसा नहीं है तो ना हो। लेकिन उसकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है। यदि उपभोक्ता स्वास्थ्य से कहीं किसी प्रकार का खिलवाड़ हो रहा है तो उस पर प्रभावी अंकुश लगना चाहिए। मिलावटखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कितना अच्छा होता अगर स्वास्थ्य विभाग खुद ही नमूनों को जांच के लिए जयपुर भिजवाता। रिपोर्ट मिलने पर मिलावटखोरों पर कार्रवाई का डंडा चलाता। इससे मिलावट की जांच भी हो जाती है और लगे हाथ डेयरी के जागरुकता अभियान की असलियत भी सामने आ जाती।
बहरहाल, बिना कार्रवाई किए हुए केवल बातें बनाना तो मिलावटखोरों को क्लीन चिट देने जैसा ही है। वैसे भी मिलावट के खिलाफ स्वास्थ्य विभाग के अभियान कब चलते हैं और कब खत्म होते हैं किसी को कानों-कान तक खबर नहीं होती है। कितना बेहतर हो कि स्वास्थ्य विभाग भी डेयरी की तर्ज पर मिलावटखोरों के खिलाफ पूरी पारदर्शिता के साथ जनता के सामने अभियान चलाए। आंकड़े गवाह हैं कि विभाग ने कितने नमूने लिए। कितने मानकों पर खरे उतरे, कितनों में मिलावट पाई और कितनों को सजा हुई है। हो सकता है कागजी आंकड़ों में सब कुछ दुरुस्त हो लेकिन विभाग ने यह बताने की कभी जहमत नहीं उठाई। गुप-चुप कार्रवाई पर तो सवाल ही उठते हैं। मिलीभगत की बू आती है सो अलग।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 31 मार्च 15 के अंक में प्रकाशित

स्थायी समाधान जरूरी


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समस्या का लम्बे इंतजार के बाद भी समाधान नहीं हो तो प्रभावित लोगों के सब्र का बांध आखिरकार टूट ही जाता है। बीकानेर में रेल फाटकों की समस्याओं से उकताए लोगों का हाल भी कुछ ऐसा ही है। बंद फाटकों पर रुककर या वाहनों के जमावड़े में फंसने के बजाय वाहन चालकोंने इसका तोड़ निकाल लिया है। रेलवे स्टेशन से लालगढ़ तक बने पांच दर्जन से अधिक अवैध रास्ते इस बात का प्रमाण हैं। भले ही यह जल्दी निकलने या कहीं समय पर पहुंचने के लिए जुगाड़ू रास्ते हो लेकिन इनको इस तरह पार करना सही नहीं है। गलत एवं गैरकानूनी होने के बावजूद यह वाहन चालकों की आदत में यह शुमार हो चुका है। बिना किसी डर के दिनदहाड़े पटरियां पार करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह संख्या सैकड़ों में नहीं बल्कि हजारों में है। इस तरह की लापरवाही कभी भी बड़े हादसे का सबब बन सकती है। शहर को दो हिस्सों में बांटने वाला श्रीगंगानगर-बीकानेर-जयपुर मार्ग घुमावदार होने के कारण अक्सर अनहोनी की आंशका बनी रहती है। इसके बावजूद लोग जान दांव पर लगाने से बाज नहीं आते।
वैसे कानून हाथ में लेने की इस मजबूरी को हवा देने में रेलवे प्रशासन का रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। भले ही रेलवे ने चोर रास्तों को बंद करने के लिए कई जगह दीवारें बनवाई लेकिन कानून तोडऩे वालों पर किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं हुई। पटरी पार करने वालों के मन में किसी तरह का भय इसीलिए भी नहीं है कि रेलवे की तरफ से किसी तरह का कोई अभियान भी नहीं चलता है। भले ही वह कार्रवाई का हो या समझाइश का लेकिन चले तो सही। वैसे तो रेलवे की ओर से मानव रहित फाटकों पर जागरुकता विषयक कार्यक्रम होते रहते हैं लेकिन शहर में अवैध रूप से पटरी पार करने वालों के लिए जागरुकता कोई मायने नहीं रखती। शायद रेलवे इसीलिए भी चुप है कि अगर इस बहाने लोगों को छेड़ा तो फिर वे समाधान की गुहार लगाएंगे। इसीलिए जो चल रहा है चलने दो कि तर्ज पर सब हो रहा है। और इसी बात पर न केवल रेलवे बल्कि वाहन चालक भी सहमत दिखाई देते हैं। दरअसल, समस्या की मुख्य जड़ रेल फाटकों पर लगने वाला जाम ही है। शहर के हजारों लोगों को प्रतिदिन इधर से उधर और उधर से इधर आना-जाना पड़ता है। तमाम सरकारी कार्यालय, बस स्टैण्ड, अस्पताल आदि एक ओर ही हैं। किसी को समय पर कार्यालय पहुंचना होता है तो किसी को इलाज के लिए अस्पताल। किसी को जरूरी काम के चलते बस पकडऩी होती है तो किसी को नगर निगम या कलक्ट्रेट पहुंचना होता है।
बहरहाल, समस्या का स्थायी समाधान समय की मांग है लेकिन जिम्मेदार लोग इस समस्या के निबटारे को लेकर न तो गंभीर हैं और न ही एकमत। तभी तो जाम से मुक्ति का मार्ग केवल किन्तु-परन्तुओं में अटका हुआ है। कहीं किसी के हित आड़े आ रहे हैं तो कहीं कुछ ओर। वैसे जाम से सर्वाधिक पीडि़त आमजन ही है। पटरी पार कर जान जोखिम में डालने वाला भी आमजन ही हैं। फाटकों का समाधान हो तो लाभान्वित होने वाला भी आम वर्ग ही होगा। इस तरह के चोर रास्तों पर आवागमन बंद होने की उम्मीद भी तभी की जा सकती है। वरना मौजूदा हालात और सियासी फेर में अटकी इस समस्या पर कवि सुरेन्द्र शर्मा की यह पक्तियां मौजूं हैं 'कोई फर्क नहीं पड़ता इस देश में राजा राम हो या रावण। जनता तो बेचारी सीता है। रावण राजा हुआ तो वनवास से चोरी चली जाएगी और राम राजा हुआ तो अग्नि परीक्षा के बाद फिर वनवास पर भेज दी जाएगी। अब कोई फर्क नहीं पड़ता इस देश में राजा कौरव हो या पाण्डव। जनता तो बेचारी द्रौपदी है। कौरव राजा हुए तो चीरहरण और पांडव राजा तो जुए में हरा दी जाएगी।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 19 मार्च 15 के अंक में प्रकाशित

सांप और छछुंदर

बस यूं ही
सांप और छंछुदर की कहानी तो कमोबेश सभी ने ही सुनी होगी। मेरे को भी थोड़ा-थोड़ा याद है। कहानी का मजमून कुछ इस तरह से है कि सांप और छछुंदर की लड़ाई में सांप गहरे धर्मसंकट में घिर जाता है। वह छछुंदर को न तो निगल पाता है और न ही उगल पाता है। बताया जाता है कि सांप अगर छछूंदर को खा जाए तो मरने का खतरा और पकड़ कर छोड़ दे तो अंधा होने का अंदेशा रहता है। केन्द्र में काबिज कथित कुलीनों के कुनबे वाली पार्टी की हालत भी इन दिनों कुछ ऐसी ही है। हाल-फिलहाल की दो घटनाएं ऐसी हैं, जिससे पार्टी की जबरदस्त किरकिरी हुई है। दिल्ली में बेदी को पहले पार्टी में शामिल करने तथा फिर मुख्यमंत्री घोषित करने के फैसले को पार्टी अभी तक पचा नहीं पाई है। हार का सदमा ऐसा है कि पार्टी में अभी तक अंदरखाने मंथन चल रहा है।
कोढ़ में खाज का काम जम्मू कश्मीर में पीडीपी को समर्थन से हो गया। या यूं कहे कि पार्टी ने यह फैसला करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा काम कर लिया। अगर पीडीपी जो कर रही है, उसमें सहयोगी की कहीं न कहीं हां है तो मुद्दा ही खत्म, क्योंकि युद्ध और प्यार के साथ-साथ आजकल राजनीति में भी सब कुछ जायज होने लगा है। हालांकि राष्ट्रवाद के प्रखर झंडाबरदारों से ऐसे किसी गुप्त समझौते की उम्मीद तो नहीं है। फिर भी जो हो रहा है कि उससे पार्टी की साख पर बट्टा जरूर लग रहा है।
वैसे भी सियायत में हर तरह के प्रयोग तभी तक ही सर्वमान्य हैं जब तक वो सफल होते हैं। क्योंकि सफलता एक ऐसा टॉनिक है, जिसमें गलतियां अगर हुई भी हैं तो छिप जाती हैं। जबकि विफलता में इससे ठीक उलटा होता है। एक-एक बात की पड़ताल होती है। यहां तक कि बाल की खाल भी निकाल ली जाती है। बहरहाल, पार्टी के रणनीतिकार उस घड़ी को पानी पी-पी कर कोस रहे होंगे जब यह निर्णय किया गया होगा।

अब देरी ठीक नहीं

 टिप्पणी...

कभी अपने समृद्ध व सांस्कृतिक इतिहास और बेजोड़ स्थापत्य के लिए जाना जाने वाला बीकानेर वर्तमान में कोटगेट एवं सांखला रेलवे फाटक को लेकर चर्चा में रहता है। शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली रेललाइन पर बने इन फाटकों पर रोजाना लगने वाला जाम शहरवासियों के लिए नासूर से तो इसके समाधान के प्रयास किसी मजाक से कम नहीं हैं।
समाधान में रुकावट की सबसे बड़ी वजह सभी वर्गों का एकजुट नहीं होना है। सब अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग की तर्ज पर बयान जारी करने की होड़ में जुटे हैं। तभी तो कभी ओवरब्रिज बनने का शोर सुनाई देता है तो कभी अंडरब्रिज की बातें। कभी एलीवेटेड रोड की चर्चा होती है तो कभी बाईपास का मुद्दा जोर पकड़ता है। सियासी चेहरे एवं सरकारें बदलने के साथ प्रस्ताव भी बदल जाते हैं। एक सरकार के कार्यकाल में जिन प्रस्तावों पर काम होता है दूसरी सरकार उन्हें सिरे से खारिज कर देती है या बदल देती है। तभी तो समस्या न केवल सियासी फेर में उलझी हुई है बल्कि हित-लाभ से भी जुड़ी हुई है।
दरअसल, हल सभी चाहते हैं लेकिन एकराय नहीं हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस समस्या से जुड़े छह पक्षकार हैं। सरकार, विपक्ष, प्रशासन, रेलवे, व्यापारी और आमजन। इनमें से केवल आमजन ही ऐसा वर्ग है जो बिना किसी शर्त या किन्तु-परन्तु के समस्या का हल चाहता है। सबसे प्रभावित एवं पीडि़त भी यही है। बाकी सभी वर्गों के सुर जुदा-जुदा हैं। बानगी देखिए रेलवे बाईपास बनाने का पक्षधर नहीं है। वह अंडरब्रिज या एलीवेटेड रोड की बात करता है। तर्क है कि रेलवे के तकनीकी अधिकारियों के नजर में यहां अंडरब्रिज या एलीवेटेड रोड बनाई जा सकती है। जिला प्रशासन का भी कमोबेश यही रुख है, लेकिन सरकार की भूमिका के आधार पर। फिलहाल प्रशासन की नजर में यहां अंडरब्रिज एवं एलीवेटेड रोड प्रस्तावित है लेकिन सरकार के नुमाइंदे स्थानीय विधायक के विचार इससे इतर हैं। वे अंडरब्रिज के समर्थन में नहीं हैं। एलीवेटेड के लिए भी शर्त है कि बने तो विशेषज्ञों से चर्चा करने के बाद। इधर, व्यापारी वर्ग भी कुछ शर्तों के साथ अंडरब्रिज एवं एलीवेटेड रोड के लिए तैयार है। सुझाव यह है कि समस्या का तात्कालिक हल नहीं खोजा जाए बल्कि दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए समाधान हो। विपक्षी दल के नुमाइंदे तो केवल बाईपास को ही एकमात्र हल मानते हैं। खैर, तर्कों एवं दलीलों के चलते यह मामला अधरझूल में हैं। माननीय उच्च न्यायालय ने भी दिनोदिन विकराल होती समस्या के हल के लिए रेलवे एवं जिला प्रशासन से उपयुक्त उपाय बताने को कहा है।
वैसे भी समस्या इतनी विकट एवं बड़ी हो गई है कि इसका हल जल्द से जल्द खोजना जरूरी हो गया है। शहर और यातायात तेजी से बढ़ रहा है। आगे हालात और भी भयावह होंगे। ऐसा न हो लोगों के सब्र का बांध टूटे क्योंकि उनके धैर्य की परीक्षा लेने में सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब सरकार को चाहिए कि वह किसी के लाभ-हित के फेर में न पड़ते हुए केवल और केवल जनहित की बात करे। कहीं किसी का हित प्रभावित हो भी रहा है तो समस्या का हल मिल बैठकर चर्चा करने से ही निकाला जाए। देर बहुत हो चुकी है जनता अब हल चाहती है। सोने पर सुहागे वाली बात यह है कि दिल्ली से लेकर जयपुर एवं बीकानेर तक सरकार भी एक ही दल की है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 20 फरवरी 15 के अंक में प्रकाशित 

घोषणाएं पूरी भी तो हों


टिप्पणी...

प्रदेश का पहला तथा देश का दूसरा सबसे बड़ा गो अभयारण्य बीकानेर में बनेगा। इसके लिए राज्य के आगामी बजट में घोषणा संभव है। इस के संकेत बुधवार को बीकानेर आए प्रदेश के वन, खनन व पर्यावरण राज्य मंत्री तथा जिला प्रभारी राजकुमार रिणवा ने दिए। अगर घोषणा कागजों से बाहर निकल कर धरातल पर आई तो निसंदेह यह बहुत बड़ा एवं नेक काम होगा। यह न केवल बीकानेर बल्कि समूचे प्रदेश में गोधन की दुर्दशा रोकने की दिशा में कारगर पहल होगी। चिंता केवल इस बात की कि यह घोषणा घोषणा ही न हर जाए, क्योंकि पूर्व की कई घोषणाओं का हश्र बीकानेर के लोग देख चुके हैं। एक दो नहीं अपितु दर्जनों योजनाएं-घोषणाएं हैं, जो किसी न किसी वजह से अटकी पड़ी हैं। इनमें कुछ पिछले बजट की तो कुछ सरकार आपके द्वार कार्यक्रम दौरान की भी हैं।
बीकानेर को सिरेमिक हब बनाने का इंतजार लम्बा हो रहा है। राज्य सरकार ने पिछले साल इसकी घोषणा की थी। ग्रीन सिटी बनाने का सपना अभी तक अधूरा है। शहर की बदहाल यातायात व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मल्टीस्टोरी पार्किंग की घोषणा पर काम शुरू नहीं पाया। दो दशक से चल रहा रवीन्द्र रंगमंच का निर्माण तो किसी मजाक से कम नहीं है। कोटगेट रेलवे क्रॉसिंग का समाधान तो सियासी फेर में उलझा हुआ है। कई सर्वे व कवायद के बावजूद शहर की सबसे ज्वलंत समस्या का समाधान नहीं हो पाया है। दरअसल, शासन-प्रशासन का एकसूत्री ध्यान जनहित को दरकिनार कर कुछ खास लोगों को खुश रखने का रास्ता खोजने पर ज्यादा है। आरओबी, आरयूबी या एलिवेटेड रोड कुछ भी बने लेकिन लगभग नासूर बन चुकी इस समस्या का समाधान बेहद जरूरी है।
लम्बित घोषणाओं-योजनाओं की फेहरिस्त यहीं तक सीमित नहीं है। बीकानेर जिले को शामिल करते हुए डेजर्ट सर्किट व हैरिटेज वाक बनाने की दिशा में भी काम नहीं हुआ है। सूरसागर में हार्वेस्ंिटग सिस्टम विकसित करने के रास्ते खोजने में भी विलम्ब हो रहा है। शहर में सीवरेज व्यवस्था लडख़ड़ा रही है वहीं, गंगाशहर, भीनासर व परकोटे के भीतरी शहर में सीवरेज का काम अभी बकाया है। साइक्लिंग वेलोड्रम तथा सार्दुल स्पोटर्स स्कूल के विकास की घोषणा भी पूरा होने की बाट जोह रही हैं। 55 सौ विद्यार्थियों पर नया कॉलेज खोलने तथा एमएस एवं डूंगर कॉलेज को संघटक कॉलेज बनाने के प्रयास भी सिरे नहीं चढ़े हैं। तकनीकी विवि का नए सिरे से गठन का इंतजार भी लम्बा हो रहा है। एयरपोर्ट शुरू हुए भी काफी समय हो गया लेकिन हवाई सेवाओं का इंतजार है। मेगा फूड पार्क को लेकर तो किसी तरह की गंभीरता नजर नहीं आती।
इनके अलावा नहरी क्षेत्र की सड़कें बनाने का काम पीडब्ल्यूडी को सौंपा गया। इसके लिए 27 करोड़ का बजट प्रस्तावित था लेकिन प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। छह प्राचीन मंदिरों के पुनरुद्धार से पहले मास्टर प्लान बनाने के काम में कोई प्रगति नजर नहीं आती है। उपनिवेशन क्षेत्र के काश्तकारों से संबंधित मामले हालांकि हल तो हुए हैं लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में प्रकरण लम्बित हैं। इसी तरह हाइड्रोलोजिकल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के लिए सात करोड़ तो मिले लेकिन को काम को गति नहीं मिल पाई। स्प्रिकंलर सिंचाई के लिए 15 हजार करोड़ की परियोजना पर राज्य सरकार के स्तर पर कोई निर्णय नहीं हो सका है।
बहरहाल, राज्य सरकार आगामी बजट में बीकानेर को भले ही कोई नई सौगात दे या इस दिशा में कोई घोषणा करे, उससे कहीं बेहतर है पुरानी घोषणाओं को पूरा कर दे, क्योंकि लम्बित घोषणाओं को पूरा करना भी किसी सौगात से कम नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए राज्य सरकार इस बारे में गंभीरता एवं ईमानदारी से सोचेगी और काम करवाएगी। प्रभारी मंत्री की बजट से पूर्व बैठक बुलाने की सार्थकता भी इसी बात में है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 13 फरवरी 15 के अंक में प्रकाशित 

... जग है बाराती

'सारा गगन मंडप है, जग है बाराती,' फिल्म होली आई रे का यह गीत रविवार को उस वक्त प्रासंगिक हो उठा जब पुष्करणा ओलिम्पिक सावे के तहत रविवार को एक १५० से अधिक जोड़े एक दूजे के हो गए। इससे पहले दिनभर शहर की गलियां मांगलिक गीतों की गूंज से गुलजार रही। विष्णु रूप धरे दूल्हों का सम्मान, बारातियों की मीठी मनुहार के साथ की गई आवभगत और देर रात तक चले पाणिग्रहण संस्कारों के कारण समूचे परकोटा क्षेत्र में चहल-पहल बनी रही। प्राचीन परम्पराओं का संवाहक तथा रोचक रीति रिवाजों को कारण यह सावा न केवल अनूठा व अजूबा है बल्कि दिनोदिन महंगे होते शादी-समारोह के बीच आदर्श विवाह की नजीर भी पेश करता है। समाज में आई जागृति के चलते मौजूदा दौर में सामूहिक विवाहों का प्रचलन बढ़ा है लेकिन पुष्करणा सावे की परिकल्पना तो करीब पांच सौ साल पहले ही कर ली गई थी। समय के साथ पुष्करणा सावे में आधुनिकता का तड़का जरूर लगा है, लेकिन इसकी मूल अवधारणा आज भी यथावत है। इस सावे की परिकल्पना इस तरह से की गई है कि इसमें समाज के लोगों में किसी तरह का भेद दिखाई नहीं देता। यह अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटने के साथ-साथ समूचे समाज को साथ लेकर चलता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह भी है कि इससे गरीब परिवारों में किसी तरह की हीनभावना नहीं आती वहीं दूसरी तरफ फिजूलखर्ची पर प्रभावी अंकुश लगता है। सावे से जुड़ी परम्पराराओं एवं संस्कृति के जिंदा रखने तथा इनके लिए प्रचार-प्रसार के लिए कई संस्थाएं भी काम रही हैं। सावे के तहत होने वाला विवाह आम विवाह से कई मायनों में अलग है। इसमें कई तरह की रोचक परम्पराएं हैं, जो सामान्य विवाहों में देखने को नहंी मिलती है। सादगी एवं साधारण होने के बावजूद सावा हास-परिहास व मनोरंजन से भरपूर है। सावे में शिरकत करने कोलकाता, हैदराबाद, बैंगलुरू, जैसलमेर, जोधपुर, नागौर आदि स्थानों से आएं लोगों ने प्रेम व स्नेह से रचे-पगे सावे में आनंद व उल्लास की सरिता में डूबकी लगाई। सामाजिक प्रगाढ़ता को बढ़ावा देने वाला यह सावा किसी उत्सव से कम नहीं है।
बीकानेर के ऐतिहासिक पुष्करणा सावे पर 9 फरवरी 15 के अंक में प्रकाशित 

नई सुबह

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नि:संदेह यह बदलाव की बयार है, जो कालांतर में मील का पत्थर साबित होगी। यकीनन यह सियासत के लिए शुभ व सुखद संकेत हैं। यह एक ऐसी सुबह है, जिसके परिणाम भी सुखद ही आएंगे। वाकई यह ऐसी मजबूत बुनियाद है, जिस पर भविष्य में विकास की नई इमारत तैयार होगी। सचमुच में यह सोने पर सुहागा होने जैसा ही है, जिसमें दो तरह की विशेषताओं का समावेश है। वास्तव में यह नया इतिहास है, जो आने वाले पीढ़ी को कुछ हटकर करने के लिए प्रेरित करेगा। वाकई यह एक नजीर है, जिसका आने वाली पीढिय़ां अनुसरण करेंगी। हकीकत में यह सपने सच करने की दिशा में कदमताल करने की एक कारगर एवं क्रांतिकारी मुहिम है, जो कुछ कर गुजरने का जज्बा व हौसला देगी। बड़ी बात यह भी है कि परिवर्तन की पहल नीचे के स्तर से शुरू हुई है और उम्मीद की यह किरण गांवों में हुए पंचायत चुनाव और उनके नतीजों ने दिखाई है।
दरअसल, पंचायत चुनाव में शिक्षा की अनिवार्यता के चलते इस बार राजनीतिक दलों को अपनी परम्परागत रणनीति में बदलाव करने को मजबूर होना पड़ा। दलों को अनुभवी व राजनीति के मंजे हुए प्रत्याशी तो मिले लेकिन संख्या बल में उतने नहीं, जितने पिछले चुनावों में मिलते आए हैं। यह बात दीगर है कि भाजपा व कांग्रेस ने उम्रदराजों को भी टिकट दी लेकिन अधिकतर जगह मतदाताओं ने युवाओं के प्रति समर्थन जताकर उनके चयन को गलत साबित कर दिखाया। अपवाद स्वरूप कुछ जगह पर उम्रदराज जीते भी हैं लेकिन उनका आंकड़ा अंगुलियों पर गिनने जितना ही है। देखा जाए तो यह बड़ी संख्या में जीते युवा जनप्रतिनिधियों का ही कमाल था कि प्रमुख एवं प्रधान के पद लिए भी परम्परागत योग्यता गौण होती दिखाई दी। बानगी देखिए, बीकानेर जिले की श्रीडूंगरगढ़ पंचायत समिति का प्रधान बना रामलाल मात्र 22 साल का है। वह अभी बीसीए (बैचलर इन कम्प्यूटर एप्लीकेशन) कर रहा है। बीकानेर पंचायत समिति की प्रधान बनी राधा भी केवल 24 साल की है। यह कहानी तो अकेली दो पंचायत समितियों की है। इस प्रकार के उदाहरण समूचे में प्रदेश में कई हैं।
वैसे युवाओं के लिए नई जिम्मेदारी किसी चुनौती से कम नहीं हैं। पंचायतों में भ्रष्टाचार, विकास कार्यों में भेदभाव व निर्माण सामग्री में गुणवत्ता से समझौता करने जैसे मामले अक्सर सामने आते हैं। जंग लगी व्यवस्ंथा और कमीशनखोरी के मकडज़ाल से पार पाना भी उनके लिए आसान काम नहीं है। इतना ही नहीं ग्राम पंचायत स्तर तक घुसपैठ कर चुकी दलीय राजनीति के कारण विकास से वंचित हिस्सों को मुख्यधारा में लाना भी उनके समक्ष टेढ़ी खीर है। उम्मीद की जानी युवा जनप्रतिनिधि पंचायत समितियों एवं जिला परिषद के प्रति बनी आम धारणा को तोड़ेंगे तथा लोकतंत्र के प्रति मतदाताओं की आस्था को और अधिक प्रगाढ़ करने की दिशा में काम करेंगे। युवा व शिक्षित होने के नाते उनसे यह अपेक्षा भी की जाती है कि वे हर तरह के फैसले के भागीदार नहीं बनेंगे। अनपढ़ जनप्रतिनिधियो की तरह वे किसी का टूल नहीं बनेंगे। बाहरी हस्तक्षेप से प्रभावित होने, किसी के बरगलाने या दबाव में आने की प्रवृत्ति से दूर रख खुद के स्वविवेक से लोगों के हित में फैसला लेंगे। इतना ही नहीं पंचायत समिति व जिला परिषद की बैठकों में चुपचाप बैठकर सुनने की बजाय समूचे जिले की विकास की बात करते हुए अपनी बात बेबाकी व ईमानदारी के साथ रखेंगे। युवा जनप्रतिनिधियों को तय कर लेना चहिए कि वे विकास कार्यों को न तो राजनीतिक चश्मे देखेंगे और न हीं किसी गड़बड़ी को देखकर आंखें मूंदेंगे। सभी जनप्रतिनिधियों का एक सूत्री कार्य सबका विकास और समान रूप से विकास होना चाहिए। वे ऐसे स्थानों का चयन भी कर सकते हैं, जहां विकास की लौ अब तक रोशन नहीं हो पाई है।
बहरहाल, नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधि भले ही राजनीति के नए खिलाड़ी हों। अनुभव के लिहाज से सियासत में उनको परिपक्व नहीं माना जाए, लेकिन उनके साहस, हौसले व ऊर्जा के सामने परिपक्वता व अनुभव जैसे शब्द छोटे पड़ जाते हैं। वैसे भारत युवाओं का देश है। देश की आबादी का पचास फीसदी से ज्यादा हिस्सा युवा है। कहा भी गया है कि अगर युवा शक्ति का उपयोग सही एवं सकारात्मक दिशा में किया जाए तो निंसदेह वह क्रांति ला सकती है। क्योंकि युवा मन में सपने होते हैं। कुछ कर गुजरने का साहस होता है। उनमें दुनिया बदलने का दमखम दिखाई देता है। चिर पुरातन वेद भी नमो युवभ्य कहकर ही युवाओं की महिमा का बखान करता है। तभी तो जिस उम्मीद और हसरत से ग्रामीणों ने सत्ता की चाबी युवाओं को सौंपी है। वे उनकी उम्मीदों पर खरा उतरेंगे और ग्रामीण गौरव व विकास की गाथा लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। युवाओं को देश का भविष्य और कर्णधार भी तो इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उनकी सोच, जोश, जज्बे और जुनून को अगर सकारात्मक दिशा मिल जाए तो फिर उसके सामने हर मुश्किल खुद-ब-खुद आसान हो जाती है। इस बड़े परिवर्तन के लिए मतदाताओं के फैसले को सलाम। युवा शक्ति को सलाम।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 8 फरवरी 15 के अंक में प्रकाशित

चमत्कार की उम्मीद


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शहर की बंद रोडलाइट को चालू करने तथा सफाई व्यवस्था में सुधार करने की मांग को लेकर कांग्रेस पार्षदों ने सोमवार को महापौर का घेराव किया और उनकी गाड़ी रोक ली। इन पार्षदों के अलावा विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं व जागरूक लोग भी समय-समय पर निगम प्रशासन व जिला प्रशासन को उक्त समस्याओं के बारे में अवगत कराते रहे हैं। सुगम पोर्टल पर भी प्रत्येक दिन दर्जन भर से ज्यादा शिकायतें पहुंच रही हैं। व्यवस्था में सुधार ना होने के कारण यह आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। वैसे प्रशासन ने भी जवाब में कई तरह की कवायद एवं दिशा-निर्देश जारी किए, लेकिन राहत नहीं मिली। स्वयं जिला कलक्टर ने तीन माह पूर्व शहर की समस्त खराब रोडलाइट का सर्वे करने के निर्देश दिए थे। सर्वे में किस तरह की रिपोर्ट आई? सर्वे हुआ या नहीं है? अगर हुआ तो उस पर क्या कार्रवाई हुई? आदि असंख्य जवाब हैं, जो कागजों में ही दफन है। हकीकत में कुछ होता तो रोडलाइट को लेकर रोजाना इस तरह चिल्ल पौं नहीं होती।
सिर्फ जिला प्रशासन ही नहीं सप्ताह भर पहले महापौर ने भी रात को शहर का भ्रमण कर बंद रोडलाइट का जायजा लिया। उनको निरीक्षण में करीब तीस फीसदी रोडलाइट खराब मिली थी। इनके निरीक्षण के बाद भी व्यवस्था पटरी पर नहीं लौटी, अलबत्ता बत्ती गुल होने के हर बार दीगर कारण सामने आ रहे हैं। ताजा कारण बताया जा रहा है कि रुपए बकाया होने के चलते संबंधित एजेंसी ने काम करना बंद कर दिया है। तब से शहर की रोडलाइट भगवान भरोसे ही हैं। दरअसल, शहर में रोडलाइट की समस्या लम्बे समय से बनी हुई है। कोई बड़ा कार्यक्रम होने या वीआईपी आगमन पर जरूर सरकारी अमला हरकत में आता है और वैकल्पिक जुगाड़ करके काम निकाल लेता है। ऐसे में समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो पाता है। हां इतना जरूर है कि हर बार मामले को टरकाने या नए कारण (बहाना) बनाने की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही है। प्रशासन के पास इस समस्या से निबटने की कोई ठोस कार्ययोजना भी दिखाई नहीं देती है। लापरवाही का इससे बड़ा नमूना और क्या होगा कि जहां रात को अंधेरा पसरा रहता है, वहां दिन में लाइट रोशन रहती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस दिशा में कभी ईमानदारी से सोचा ही नहीं गया। अवसर विशेषों पर प्रशासन द्वारा सरकारी भवनों पर सजावट करने की परम्परा न केवल कायम रहती है बल्कि हमेशा याद भी रहती है। लेकिन अंधेरे में डूबे शहर का कोई धणी-धोरी नहीं है। तात्कालिक आक्रोश को शांत करने के लिए प्रशासनिक अधिकारी हर बार दलील देते हैं। सुधार प्रक्रिया की दुहाई को दोहराते हैं लेकिन परेशान व पीडि़त लोगों को इससे किसी प्रकार की राहत नहीं मिल रही।
बहरहाल, घेराव करने वाले पार्षदों को महापौर ने पांच दिन में सब ठीक करने का आश्वासन दिया है। उम्मीद कीजिए पांच दिन बाद कोई चमत्कार होगा। महापौर कोई जादुई छड़ी घुमाएंगे और शहर की बंद रोडलाइट रोशन हो जाएंगी बल्कि सफाई व्यवस्था भी ढर्रे पर लौट आएगी। वैसे चमत्कार हकीकत में कैसे बदलेगा इस पर अभी रहस्य बरकरार है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 3 फरवरी 15 के अंक में प्रकाशित 

खुलेआम खिलवाड़


 टिप्पणी

कितनी विचित्र बात है कि हम शहर को साफ सुथरा रखने की कसम खाते हैं, खुले में शौच न जाने का संकल्प लेते हैं, वहीं बेटर बीकानेर का सपना भी देखते हैं, लेकिन दूषित पानी से पैदा होने वाली सब्जियोंं को बड़े शौक के साथ न केवल खरीदते हैं बल्कि खा भी लेते हैं। शायद इसीलिए कि यह बाजार में बेरोकटोक बिकती हैं? या इसीलिए कि यह सब्जी प्रशासन के रहमोकरम पर पैदा हो रही हैं? वैसे कारण दोनों ही सही हैं। बिकती भी हैं और निगम व प्रशासन की भूमिका भी किसी से छिपी हुई नहीं है। तभी तो प्रशासन की भूमिका सवालों के घेरे में है। एक तरफ साफ-सफाई रखने की नसीहत और दूसरी तरफ सेहत से खिलवाड़ के मामले में आंखें बिलकुल बंद। ठीक आप न जावे सासरे, औरन को सीख देत की तर्ज पर। इतने विरोधाभास की जरूर कोई बड़ी वजह है, वरना सेहत से जुड़े मसले में इस तरह की उदासीनता नहीं बरती जाती। विडम्बना देखिए निगम से लेकर जिला प्रशासन के आला अधिकारियों तक ने नियमों का हवाला देकर इस मामले को फुटबाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
दरअसल, शहर में लम्बे समय से गंदे पानी से सब्जियां पैदा की जा रही हैं। निगम प्रशासन के संज्ञान में (जबकि समूचे शहर को पता है) जब यह मामला लाया गया तो उसने तीस से अधिक सब्जी उत्पादकों को नोटिस जारी कर इतिश्री कर ली। निगम प्रशासन की मंशा पर सवाल तो उसी दिन से उठने लग गए थे जब उसने कार्रवाई करने के बजाय सब्जी उत्पादकों को तीन दिन की मोहलत दे दी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पिछले साल मई में भी 22 सब्जी उत्पादकों को नोटिस जारी किए गए थे लेकिन कार्रवाई के नाम पर लीपापोती कर दी गई। ताजा मामले में भी निगम के अधिकारी जरूरत से ज्यादा समझदारी दिखा रहे हैं। जब स्वयं जिला कलक्टर एवं अतिरिक्त जिला कलक्टर यह कह चुके हैं कि निगम कार्रवाई के लिए स्वतंत्र है तो फिर निगम के अधिकारी किस लिहाज से जिला प्रशासन के पास फाइल भेज रहे हैं? और जब निगम स्वतंत्र ही है तो जिले के अधिकारी फाइल को खंगालने में क्यों जुटे हैं? अधिकारियों के इस सांप-सीढ़ी के खेल में कोई नतीजा नहीं निकल रहा है। इससे तो यही समझा जाना चाहिए कि निगम व जिला प्रशासन के अधिकारी इस मामले में जरूरत से ज्यादा सतर्कता व सावधानी बरत रहे हैं। तभी तो उनकी इस सतर्कता व सावधानी से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं, मसलन क्या सब्जी उत्पादक इतने प्रभावशाली एवं पहुंच वाले हैं कि कार्रवाई करते हुए अधिकारियों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो रही है? क्या किसी तरह का कोई बाह्य हस्तक्षेप है जो अधिकारियों को कार्रवाई करने से रोक रहा है? या फिर किसी तरह की कोई मिलीभगत है जो कार्रवाई में बाधक बन रही है? इन सभी सवालों के जवाब इनके अंदर ही छिपे हैं।
फिर भी अगर सेहत से खिलवाड़ का यह खेल इसी तरह खुलेआम चलता रहा तो निगम व प्रशासन से किसी तरह की कार्रवाई की उम्मीद करना ही बेमानी है और साफ-सफाई व स्वच्छता की शपथ व संकल्प भी किसी से दिखावे से कम नहीं है। कम से कम सेहत से जुड़े इस गंभीर एवं संवदेनशील मसले पर निगम व प्रशासन की भूमिका व रवैया टरकाने वाला कतई न हो। स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ बिना किसी भेदभाव के ठोस व कारगर कार्रवाई हो ताकि भविष्य में कोई इस तरह की हिमाकत ना करे। शपथों, संकल्पों एवं सपनों की प्रासंगिकता भी तभी ही है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 11 जनवरी 15 के अंक में प्रकाशित

शुरुआत तो हो


टिप्पणी

बीकानेर के लोगों ने जिस भरोसे एवं उम्मीद के साथ निकाय चुनाव में बहुमत के साथ भाजपा को जिताया तो लगा कि अच्छे दिन आने वाले हैं। इसकी एक और वजह यह भी थी कि निकाय से लेकर प्रदेश एवं देश में एक ही दल की सरकार होना। खैर, निगम में सत्ता एवं चेहरा बदलने से भले ही संबंधित पार्टी व उसके समर्थक प्रफुल्लित हों लेकिन आमजन को शहर की व्यवस्था में अभी तक किसी तरह का कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है। तभी तो निगम की सरकार बनने के करीब एक माह बाद शहरवासियों का भरोसा कुछ डगमगाने सा लगा है। शहर के हालात भी कमोबेश वैसे ही हैं, जैसे पिछली सरकार में थे। व्यवस्था सावन सूखा न भादो हरा वाले ढर्रे पर ही चलती प्रतीत हो रही है। और तो और नए महापौर ने कार्यभार ग्रहण करते ही कुछ प्राथमिकताएं बताई थीं। उनकी प्राथमिकताओं में वैसे तो कोई लम्बा चौड़ा विषय नहीं था लेकिन प्रमुख रूप से एक माह तक शहर में सफाई अभियान चलाने, आवारा पशुओं के लिए शहर से बाहर व्यवस्था करने, यातायात व्यवस्था में सुधार, सूरसागर एवं गंगाशहर में पानी भराव की समस्या से निजात तथा फड़ बाजार में सीवरेज समस्या का निराकरण आदि शामिल थे, लेकिन इन समस्याओं को दूर करने के लिए अभी तक कोई हलचल होती दिखाई नहीं दे रही अलबत्ता स्वागत सत्कार व अभिनंदन का दौर चरम पर जरूर है। इन सब के बीच कई पार्षदों ने साधारण सभा की बैठक बुलाने की मांग भी कर डाली है। काबिलगौर है कि करीब साल भर से यह बैठक नहीं हो पाई है। इस कारण शहर के विकास से जुड़े मुद्दों पर चर्चा ही नहीं हो पा रही है। इतना ही नहीं मंगलवार को तो कुछ पार्षदों ने शहरहित से जुड़े मुद्दों को लेकर महापौर का घेराव तक कर डाला। पार्षदों की पीड़ा थी कि उनके वार्ड के लोग उनको काम को लेकर टोक रहे हैं। वैसे पार्षदों ने जो बताया वह देखा जाए तो गलत भी नहीं है। काम न होने के कारण लोग अब जनप्रतिनिधियों को उलाहने देने लगे हैं।
बहरहाल, पांच साल के कार्यकाल में एक माह का समय कोई अहमियत नहीं रखता है लेकिन इससे अंदाजा तो ही जाता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि नवनियुक्त अधिकारी हो या नवनिर्वाचित प्रतिनिधि शहरवासी बिना किसी उल्लेखनीय उपलब्धि के उनका अभिनंदन एवं स्वागत करने को लालायित रहते हैं। कितना अच्छा हो जनप्रतिधि पहले शहर के लिए कुछ करके दिखाएं। बाद में जनता भले ही उनका अभिनंदन करे। निगम में सतारूढ़ पार्टी व उसके मुखिया को इस दिशा में सोचना चाहिए। अभी भी देर नहीं हुई विकास से जुड़े कामों की शुरुआत तो हो ही सकती है। बड़े नहीं तो कम से कम छोटे स्तर पर ही हो, लेकिन शुरुआत जरूरी है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 31 दिसम्बर 14 के अंक में प्रकाशित

नहीं रह जाए सब्जबाग

टिप्पणी
मूलभूत सुविधाओं से जूझ रहे हमारे शहर के नए साल से दिन फिरने वाले हैं। जिला प्रशासन की पहल पर हमारे शहर को और अधिक साफ सुथरा, हरा-भरा, प्रदूषण मुक्त व बेहतर बनाने के लिए विभिन्न संस्थाएं अपनी भागीदारी निभाएंगी। इस समूची कार्ययोजना को अमलीजामा पहनाने की कवायद को नाम दिया गया है बेटर बीकानेर। इस महाभियान को मूर्त रूप देने की दिशा में शनिवार को बैठक भी हुई है, तो कुछ संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने इसके लिए कमर भी कस ली। वैसे यह सब सुनकर चौंकना स्वाभाविक है, क्योंकि बीकानेर के मौजूदा हालात देखते हुए यह सब होना किसी सुहाने सपने के सच होने से कम नहीं है। सरकारी घोषणाओं/योजनाओं का हश्र हम लोग पहले भी देख चुके हैं, इसलिए जेहन में कई तरह की शंकाओं व सवालों का उठना लाजिमी भी है कि आखिरकार यह सुहाना सपना कब व कैसे पूरा होगा? शहर में पहले से पसरी समस्याओं का समाधान हुए बिना आखिर इसकी परिकल्पना भी कैसे की जा सकती है?
वैसे हम सभी ने देखा है कि शहर के सौन्दर्यीकरण को लेकर कई बार कई तरह के प्रयोग हो चुके हैं, लेकिन शहर का सौन्दर्यीकरण कैसा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। सड़क, बिजली, पानी, सीवरेज, गंदगी, रोडलाइट, आवारा पशु, बदहाल यातायात व्यवस्था व अतिक्रमण को लेकर न जाने कितने ही कार्ययोजनाएं बनी। व्यवस्था बनाए रखने के जिला स्तर पर दिशा-निर्देश तो हर सप्ताह ही जारी होते हैं लेकिन इनको गंभीरता से लेता कौन है? दिशा-निर्देशों की सर्वाधिक अवहेलना तो प्रशासनिक स्तर पर होती है। इधर, सफाई व्यवस्था को लेकर इन दिनों शहर में सक्रिय कई स्वयंसेवी संगठनों की हार्दिक इच्छा समस्या के समाधान के बजाय प्रचार व तात्कालिक लोकप्रियता हासिल करने की ज्यादा नजर आती है। तभी तो अधिकतर सफाई अभियानों में गंभीरता कम बल्कि औपचारिता हावी है। शोचनीय विषय यह भी है कि औपचारिता निभाने वालों की फेहरिस्त में सर्वाधिक संख्या सूचना एवं तकनीक का उपयोग करने वालों की ही है।
बहरहाल, जिला प्रशासन की पहल अच्छी है। अगर ईमानदारी से यह लागू हुई और इससे जुडे़ सभी संगठनों व संबंधित विभागों ने पूरी मेहनत एवं तन्मयता के साथ काम किया तो नि:संदेह इसके परिणाम सकारात्मक आएंगे लेकिन इस तरह के बड़े कामों के लिए ठोस कार्ययोजना और उसे पूरा करने का जज्बा होना भी जरूरी है। कागजों में बनी कार्ययोजना हो या पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन, देखने और सुनने में तो अच्छे लगते हैं, लेकिन उनको लागू करने की राह में आने वाली रुकावटों का समाधान भी जरूरी है। खैर, यह महाभियान सुहाना सपना सच करेगा या केवल सब्जबाग साबित होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल हम सुहाने सपने के सच होने की कल्पना कर खुश तो हो ही सकते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा भी है कि जिसने कल्पना के महल नहीं बनाए उसे वास्तविक महल भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। यह बात दीगर है कि कल्पना को साकार करने के लिए हम कितने प्रयास करते हैं। यही बात जिला प्रशासन, स्वयंसेवी संस्थाओं व संगठनों से भी जुड़ी है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 28 दिसम्बर 14 के अंक में प्रकाशित

व्यवहार के मायने


बस यूं ही

पिछले सप्ताह की ही तो बात है। कार्यालय के काम से तीन दिन के लिए जयपुर जाना हुआ। संयोग देखिए जाते वक्त भी राजस्थान रोडवेज की बस मिली और आते समय भी। दोनों ही बसें बीकानेर आगार की थी। जाते वक्त शाम को बस मिली बीकानेर से सांगानेर। परिचालक महोदय अपनी सीट पर अपने बैग के साथ पसरे हुए थे। कोई भूल से भी बैठता भी तो खड़ा कर देते गोया पूरी सीट पर उनका ही एकाधिकार हो। व्यवहार इतना रुखा जैसे घर से लड़ के आए हो या कोई जबरस्ती यह काम करवा रहा हो। पूरे रास्ते अकेले ही बैठे रहे। बैग को भी ऊपर नहीं रखा। रतनगढ़ से फतेहपुर के बीच एक युवक जरूर पता नहीं कैसे बैठ गया। बाकी किसी को बैठने नहीं दिया। सामान कोई बीच में रखता तो टोक देते। रींगस में बस रोककर चालक-परिचालक भोजन करने चले गए। आधा पौन घंटे तक सवारियां उनके आने का इंतजार करती रहीं। परिचालक महोदय कंजूस इतने कि गुटखा भी मांगकर खा रहे थे। आखिरकार फतेहपुर उतरे एक युवक ने उनको पूरा पाउच ही थमा दिया। खुल्ले पैसे किसी ने दे दिए ठीक वरना उन्होंने पलट कर वापस नहीं किए। मैंने भी पांच सौ का नोट थमाया तो टिकट के पीछे लिख दिया और कहा बाद में ले लेना। रींगस से जैसे ही बस रवाना हुई मैंने परिचालक के हाथ में खुल्ले पैसे देखे तो सोचा क्यों ना अब बकाया पैसे का हिसाब कर लिया जाए। मैंने टिकट थमाया तो ऐसे चौंक गए जैसे सारा हिसाब-किताब किए हुए बैठे हो। कुछ देर तो मेरे तरफ ताकते रहे फिर बोले, आपको वापस नहीं दिए क्या। मैंने ना में सिर हिलाया तो बुझे मन से 220 रुपए थमा दिए। बीकानेर से जयपुर का किराया 274 रुपए है लेकिन परिचालक महोदय ने छह रूपए वापस नहीं लौटाए। उनके हाथ में मैंने चिल्लर देखी लेकिन पता नहीं क्यों व क्या सोचकर उन्होंने देना उचित नहीं समझा। मैं चुपचाप उनको देखता रहा। चौमूं से आगे निकले तो उन्होंने अपने बैग से कम्बल निकाली और खाली बैग ऊपर ठूंस दिया। सीट पर पसर कर जल्द की खर्राटे मारने लगे। मैं अपने गंतव्य स्थान पर उतरने के लिए खड़ा हुआ लेकिन उन्होंने एक स्टैण्ड आगे ले जाकर बस रोकी।
दो दिन जयपुर में रुकने के बाद सुबह मैं चौमूं पुलिया आया तो स्टैण्ड पर जयपुर से बीकानेर बस खड़ी थी। मैंने परिचालक की तरफ सवालिया निगाहों से देखा तो वो मेरा आशय समझ गए। बोले, बीकानेर जाना है, मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया तो बोले, जल्दी से टिकट ले लो। बस में जगह नहीं मिले तो आप मेरी सीट पर बैठ जाना। मैं बस में चढ़ा तो परिचालक की सीट पर दो जने बैठे थे। वो मेरे पीछे-पीछे आए और एक युवक को खड़ा करने लगे। इतने में आगे की सीट उनको खाली दिखाई दी तो बोले आप उस पर बैठ जाओ खाली पड़ी है। मैँ अपना बैग में बगल में रखकर बैठ गया। थोड़ी देर में वो आए और जो भी सामान नीचे रखा था उठा उठाकर ऊपर रैक में रखने लगे। यात्रियों से बिलकुल मित्रवत व्यवहार। अपनी सीट पर बैठे ही नहीं। कभी महिला को कभी किसी वृद्ध सीट देते रहे। चिल्लर को लेकर भी किसी से नहीं उलझे। उल्टे एक तो वृद्ध महिलाओं को एक रुपया ज्यादा ही दे दिया। मैं परिचालक की एक-एक गतिविधि बड़ी बारीकी से देख रहा था। एक ही आगार के कर्मचारियों में इतना परिवर्तन मेरे को सोचने पर मजबूर कर रहा था। परिचालक महोदय, केबिन के पास जुगाड़ के रुप में बैठे थे। मेरे से रहा नहीं गया। आखिरकार मैंने अपनी सीट बदली और थोड़ा उनके पास गया। राम-रमी के करने के बाद मैंने उनसे परिचय पूछा तो बोले मेरा नाम शिवकरण डेलू है। मैं बिश्नोई हूं। निवास तो बोले नोखा से आगे गांव है फिलहाल बीकानेर में ठिकाना है। परिचय के बाद बातों का सिलसिला चल निकला। चूूंकि मैं उनके व्यवहार से प्रभावित था। उन्होंने बताना शुरू किया तो मैं चौंक गया। बोले। एक बार हृदयाघात हो चुका है। उच्च रक्तचाप से पीडि़त हूं। दो बार आंखों का आपरेशन हो चुका है। डिस्क की समस्या भी है सात माह बिस्तर पर रहा। इतनी सारी बीमारियां और फिर भी सीट नहीं तो बोले.. यह तो ऊपर वाले का आशीर्वाद है। पता नहीं कब मंैने किसी का बुरा किया तब ऐसा हुआ। भगवान से कोई शिकायत नहीं वह तो अच्छा ही करता है।
जीवन के प्रति इतना सकारात्मक दर्शन कम ही लोगों में दिखाई देता है। बातों ही बातों में बात आगे बढ़ी तो बोले जीव रक्षा समिति से भी जुड़ा हूं। सामाजिक काम कर लेता हूं जब जब भी फुर्सत मिलती है। गुटखा-बीडी-सिगरेट से बचपन से दूरी है। अब तक करीब 200 लोगों का गुटखा छुड़ा चुका हूं।
हमारे वार्तालाप के दौरान एक सवारी ने सीट पर उल्टी कर दी। वहां बैठे यात्री खड़े होकर इधर-उधर बैठ गए। शिवकरण उठे और जयपुर-बीकानेर लिखी लोहे की प्लेट निकाली। बस रुकवाकर उतरे और दो बार मिट्टी लाकर सीट के नीचे डाली। बस फिर चल पड़ी। बावन साल की उम्र में युवाओं जैसी फुर्ती और व्यवहार का तो कोई जवाब नहीं। राजस्थान रोडवेज की बस में तीन दिन में दो तरह के अनुभव देखकर मैं चकित था। सोच रहा था, शिवकरण जैसे लोग सब जगह हो जाएं तो संभव है हमारी दूसरों पर निर्भरता कम हो जाए। धन्य हैं ऐसे लोग जो मानव सेवा को सर्वोपरि रखते हंैं। वास्तव में मैं बहुत प्रभावित हुआ शिवकरण जी से। भगवान उनको स्वस्थ्य रखे और लम्बी आयु दे।

मेरी बूढी मां...

 स्मृति शेष

दादी मां (बूढी मां) चली गईं। हमेशा के लिए हमको छोड़कर। विश्वास ही नहीं होता कि वो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। उनका आशीर्वाद, उनका स्नेह, उनका मार्गदर्शन, उनका सम्बल जिंदगी का मार्ग प्रशस्त करता रहेगा लेकिन उनकी रिक्तता भर पाना संभव नहीं। विराट व्यक्तित्व की धनी बूढ़ी मां पर लिखने के लिए काफी कुछ है। फिलहाल बड़े भाईसाहब केशरसिंह की कविता से शुरुआत, जो उन्होंने दादीजी के निधन के उपरान्त लिखी। यह कविता मैं जब-जब भी पढ़ता हूं तब तब आंखों से आंसुओं की धारा बह निकलती है। दादीमां खमा कंवर को श्रद्धांजलि स्वरूप लिखी यह कविता बड़े ही निराश एवं बुझे हुए मन से आप से साझा कर रहा हूं....।
विश्वास नहीं होता, तुम नहीं हो,
घर की दीवारें दालान, दरवाजे,
तुम्हारे होने के अहसास से भरे-भरे।
बरगदी व्यक्तित्व समेटे था शीत,
व धीर की असीम गहराई।
बचपन की चादर लपेटे घूमते थे,
तुम्हारे आसपास।
कभी न सोचा था, तुम जाओगी।
सब कुछ कितना भरा-भरा था,
तुम्हारे होने से।
इतराते फिरते थे, वात्सल्य की
सम्पूर्णता लिए।
तुम्हार प्यार, दुलार संगत सब कुछ
ईश्वर की नियामत जैसा।
दूर तलक नहीं दिखता तुम जैसा।
औरत होने की मायने तुमने सिखाए।
दहलीज से अटूट लगाव।
निंदा, चुगलियां, कानाफूसियों से परहेज।
घर की आवश्यकताओं को हर पल भरने की चाह।
लालच व याचना की विरोधी,
सफाई व स्वच्छता के मूल्यों की शिक्षिका।
नख से शिख तक ताजगी से भरी, तुम्हारी देह जैसे
साक्षात देवी का रूप।
जीने का भाव जगाती।
कितने जी पाते हैं सौ बरस।
जिजीविषा हमेशा थामे रही तुम्हे,
सादा व सरल किन्तु आसमान सा,
ऊंचा निर्मल जीवन।
सादगी व सपाट गंवई भोजन तुम्हारी पसंद।
राबड़ी की चुस्कियों में भरा था तुम्हारी तन्दुरस्ती
का संदेश।
आखिरी सांस तक चमकती,
दंत पंक्ति व नेत्र ज्योति ने कितने
चिकित्सीय सूत्रों को चुनौती दी।
तनाव व तृष्णा से मुक्त जीवन।
भरपूर नींद का आनंद।
बतियाते-बतियाते भी सोने का अद्भुत गुण।
घर बसाने व चलाने का प्रबंधन।
थोड़े साधनों से बड़े काम का साहस।
भाग्य से भरी।
भरे पूरे परिवार की स्वामिनी।
राम जैसा पुत्र और सीता सी समर्पित बहू।
तुम्हारे निर्णयों में सहमति देते
आदेशों के प्रहरी।
हमेशा तुम्हारी सेवा में खड़े।
जीवन की अंतिम सांस तक तुम्हारा हाथ थामे,
टुकर-टुकर देखते रहे तुम्हे जाते।
निशब्द बिगड़ते चेहरे व आंसुओं का समन्दर
कह रहा था अंतर की पीड़ा।
तुम्हारी वंशरुपी बेल के
पल्लव कुसुम शाखाएं।
तुम्हारे कुल रत्न।
तुम्हारे सपनों के बुनकर।
हर कदम हर निर्णय में तुम्हे 'लूंगा'
याद आती थी।
सुन रही हो उसकी सिसकियां,
थामे नहीं थम रही।
बोलकर न सही इशारो में कही।
'सत्तू' में कितना विश्वास तलाशती थी।
तत्परता निर्णयों व उत्तदायित्व के रूप में।
'महेन्द्र' तो तुम्हारा श्रवण निकला।
जिम्मे को अपनत्व से निभाने का जज्बा।
'पुष्पा' में उदारता व विश्वास ढूंढती थी तो,
'नीरू' तरकीब व तहजीब की प्रतीक।
'निर्मल' शांत स्थिर सेवा भाव की प्रतिनिधि।
मां तुम कितनी धनवान थी।
रिश्तों की उच्चता,
प्रीत का परिवेश व सरोकारों के शिखर का,
मातृत्व भाव लिए।
तुम्हारे ख्यालों में 'केसरिया' भाव।
वात्सल्य व चाह की पराकाष्टा में डूबा तुम्हारा समर्पण।
धड़कन-धड़कन में दर्द को अनुभूत करती।
पत्थर हो गया था मैं तुम्हे जाते देखते हुए।
मन शीशे की मानिन्द टूट गया।
जिन्दगी रीती हो गई।
प्यार का सोता सूख गया।
कौन भरेगा इस रिक्तता को मेरी बूढी मां।
कभी मिल पाओगी किसी रूप में ?
मेरी चाह कभी तो किसी रूप में पूरी होगी,
मुझे यकीन है।
खमा घणी, खमा घणी।
मेरी प्यारी-प्यारी बूढ़ी मां।
सांस-सांस में बसने वाली मेरी
बूढी मां के लिए.........................।

यह लाचारी क्यों?

टिप्पणी...

माननीया, जिला कलक्टर, बीकानेर।
आप बीकानेर में काफी समय से हैं, इसलिए यह तो हो ही नहीं सकता है कि यहां की खूबियों एवं खामियों से आप वाकिफ नहीं हैं? समय-समय पर आपने कार्यकुशलता एवं संवेदनशीलता का परिचय भी दिया है। इतना कुछ होने के बाद भी शहर का एक हिस्सा ऐसा भी है, जो लम्बे समय से प्रशासनिक उदासीनता का शिकार है। हालात इस कदर बिगड़े हुए हैं कि यहां व्यवस्था नाम की चीज दिखाई ही नहीं देती। ऐसा लगता है सब कुछ मनमर्जी से हो रहा है। मामला पुलिस लाइन के पास कोलायत रोड पर बने रेलवे ओवरब्रिज की लाइटों और ब्रिज के नीचे फैली अराजकता का है। छोटी या मामूली सी लगने वाली इस बात की हकीकत बेहद गंभीर है। उदासीनता का आलम यह है कि लम्बे समय से विभिन्न माध्यमों के जरिये प्रशासन के संज्ञान में लाए जाने के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ है। ऐसे में लोगों के जेहन में एक ही सवाल उठता है कि प्रशासन की यह लाचारी क्योंं? व किसलिए? आखिर ओवरब्रिज के आसपास रहने वाले तथा यहां से गुजरने वाले किस अपराध की सजा भुगत रहे हैं।
बीकानेर आपके लिए अब नया नहीं रहा। फिर भी बताते चलें कि ओवरब्रिज के पास महिला कॉलेज, अनाथालय, छात्रावास आदि हैं। लेकिन ब्रिज के नीचे का माहौल दिन में भी भले-चंगे को गश खाने पर मजबूर करने वाला है। दिन-दहाड़े ब्रिज के नीचे पियक्कड़ों व शोहदों के जमावड़े के बीच से रोज निकलने की यंत्रणा झेलने वाली कॉलेज छात्राओं की कल्पना मात्र ही सिरहा देने वाली है। इधर-उधर फैली शराब की खाली एवं फूटी बोतलें यहां पुलिस गश्त की चुस्ती की चुगली करती हैं। शाम ढलते-ढलते तो हालात और भी भयावह हो जाते हैं। कारण है घुप्प अंधेरा। ओवरब्रिज के ऊपर व आजू-बाजू में लगी लाइटें नियमित रूप से नहीं जलती हैं। लापरवाही की हद तो यह है कि अक्सर लाइट दिनभर जलती रहती हैं और रात को गुल हो जाती हैं। रात के अंधेरे में ब्रिज के नीचे का नजारा खुली बार में तब्दील हो जाता है। यहां शराब के दो ठेके भी हैं। कहने को ये तय समय पर खुलते-बंद होते हैं, लेकिन इससे शराब बिकना या जाम छलकना नहीं रुकता। बस जगह थोड़ी सी आगे-पीछे हो जाती है और कीमत बढ़ जाती है। ऐसे में देर रात तक वाहनों की आवाजाही व जमावड़ा लगा रहता है।
शायद आपकी जानकारी में न हो कि कुछ समय पहले तक रात के समय पुलिस/ होमगार्ड के दो जवान यहां ड्यूटी करते थे। उनकी आंखों के सामने भी यही सब चलता रहता था। अब तो यहां की व्यवस्था भगवान भरोसे है। किसी की ड्यूटी लगना भी बंद हो गई है।
बहरहाल, मौजूदा हालात से ऐसा प्रतीत होता है कि लाइटों को जानबूझकर बंद रखा जाता है ताकि कारनामों को आसानी से अंजाम दिया जा सके। कहने की आवश्यकता नहीं है, आप कभी भी मामले की सत्यता अपने किसी मातहत से या खुद जांच सकती हैं। मामला गंभीर हैं लेकिन आपके मातहतों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। इससे पहले ही कि यहां कोई अप्रिय वारदात या किसी तरह की कोई अनहोनी हो, आंखें खोलना जरूरी हो गया है। उम्मीद है कि आप इस दिशा में कोई कारगर पहल कर समस्या का निराकरण करवाएंगी।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 31 अक्टूबर 14 के अंक में प्रकाशित

चीकू का अंदाज

 बस यूं ही

दरअसल, यह फोटो फेसबुक पर अपलोड करने से मैं डर रहा था। जेहन में कई तरह के ख्यालात थे। और साथ में वो ही सबसे बड़ा रोग... क्या कहेंगे लोग..वाला जुमला भी। खैर, जिद के आगे मैंने आत्मसमर्पण कर ही दिया। बाल हठ जो ठहरी। चूंकि छोटा बेटा एकलव्य (चीकू) बचपन से ही ड्रामेबाज है। अभी वह साढ़े सात साल का हुआ है लेकिन अपने अभिनय से कई बार चौंका देता है। टीवी व फिल्मी कलाकारों को देखकर उनके जैसा बनने और उनकी स्टाइल कॉपी करने में उसकी खासी दिलचस्पी है। अभी कक्षा दो का छात्र है, लेकिन वह सांस्कृतिक गतिविधियों में हमेशा भाग लेता है। गायक हनीसिंह के लगभग गीत तो उसको कंठस्थ है। चीकू कम्प्यूटर पर हनीसिंह के अपने पसंदीदा गीत लगाकर डांस भी खूब करता है। आजकल तो वैसे भी बेहद खुश है। अपनी कक्षा का मॉनिटर जो बना हुआ है। अब बात पीके की। दो दिन के लिए मैं गांव गया था। बच्चे अपनी मम्मी के साथ बीकानेर में ही थे। रविवार को दोपहर बाद जब घर लौटा तो बड़ा बेटा योगराज अपनी मम्मी का मोबाइल लेकर आया बोला पापा देखो चीकू की फोटो। मैं फोटो देखकर मुस्कुरा उठा। बिलकुल आमिर खान वाले अंदाज में चीकू पीके बना हुआ था। निर्मल (धर्मपत्नी) ने बताया कि दोपहर को पता नहीं अचानक उसके क्या जची और दादोसा के पास जाकर रेडियो मांगने लगा। दादोसा का चीकू पर स्नेह कुछ ज्यादा ही है, उन्होंने बैग से रेडियो निकाल कर उसे दे दिया। उसके बाद दोनों बच्चों ने मिलकर यह फोटो खींच लिए।
खैर, मैं घटनाक्रम से अवगत होता तब तक चीकू भी पास आ गया कहने लगा पापा मेरी फोटो फेसबुक पर लगा दो। मम्मी के फोन से फेसबुक पर नहीं जाएगी। आप दुबारा खींचो अपने मोबाइल से और फेसबुक पर लगाओ।
मैंने एक दो बार तो मना कर दिया, लेकिन वह नहीं माना। आखिर बाल हठ के आगे झुकना पड़ा। फोटो खींचे तो दौड़कर आया और कहने लगा पहले मेरे को दिखाओ। इसके बाद उसने चार-पांच जगह वाटस एप पर फोटो भेज दिए। भानजे प्रदीप ने फोटो के साथ कुछ कलाकारी कर दी। उसने पीके लिख दिया और कुछ सीन जोड़ दिए। इसके बाद तो फोटो को फेसबुक पर लगाने की जिद जोर पकड़ गई। अंतत: फोटो फेसबुक पर रिलीज किया जब जाकर चीकू ने मेरा पीछा छोड़ा।

मासूमियत

 तीसरी लघु कथा

मुफलिसी में किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़़ करने वाले उस गरीब परिवार पर तो जैसे विपदाओं का पहाड़ ही टूट पड़ा था। पड़ोस की ढाणी में कक्षा पांच में जाने वाली उनकी बच्ची पर हवस के भूखे भेडिय़ों की बुरी नजर जो पड़ गई थी। यह सब करने वाले गांव के ही प्रभावशाली परिवारों के दो बिगड़ेल शोहदे थे। किसी तरह पुलिस में प्राथमिकी तो दर्ज कर दी गई लेकिन बात उससे आगे नहीं बढ़ी। प्रभावशाली परिवारों की पहुंच को देखते हुए वैसे पुलिस से कार्रवाई की उम्मीद भी बेमानी थी। इधर, पीडि़त परिवार को मुंह बंद रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए, लेकिन परिवार का मुखिया बड़ा खुद्दार था। उसका एकमात्र उद्देश्य आरोपियों को सजा दिलवाना ही था। वह खुद ब खुद ही कहता 'गरीब हूं तो क्या? भला इज्जत का सौदा कैसे कर लूं, मेरी लाडली के सपनों को कुचलने वालों की कड़ी से कड़ी सजा मिले, बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं चाहता।' खैर, इस घटनाक्रम को हुए करीब दो माह बीत गए। उस दिन से बच्ची स्कूल नहीं जा पाई। अचानक एक स्वयंसेवी संगठन को इस समूचे प्रकरण की जानकारी हुई। सारी टीम गांव पहुंची और पीडि़त परिवार और उस बालिका को अपने साथ जिला मुख्यालय ले आए। पीडि़त परिवार भी न्याय मिलने की उम्मीद में चला आया।
इसके बाद जिला मुख्यालय पर धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। धीरे-धीरे जनसमर्थन मिलने लगा। बालिका के समर्थन में बढ़ती भीड़ देखकर कई सामाजिक संगठन एवं राजनीतिक पार्टियों के भी कान खड़े हो गए। छुटभैये नेता तो खुद ही समाचार पत्रों के कार्यालय पहुंचने लगे थे। धरने पर बैठे पीडि़त परिवार एवं बालिका के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ सी लग गई। हद तो तब हो गई जब एक संगठन बालिका व उसके परिवार को लेकर समाचार पत्र कार्यालय पहुंच गया। उधर, कार्यालय का फोटोग्राफर टेबल पर फोटो फैलाकर उनका चयन करने में जुटा था। अचानक बालिका की नजर टेबल पर पड़े खुद के फोटो पर गई। वो जोर से चिल्लाई 'बाबा.. देखो मेरी फोटो..।' मैं हतप्रभ था, उसकी मासूमियत पर। सोच रहा था, अपने प्रचार के लिए लोगों ने एक मासूम को कैसे 'तमाशा' बना रखा है।

श्रेय की भूख

 दूसरी लघु कथा

हमेशा उत्साह एवं जोश से लबरेज दिखने वाले, साथियों को प्रोत्साहित करने तथा लक्ष्य के लिए दिन रात एक करने की सीख देने वाले गुरुजी आज बड़े उदास थे। घर में तेजी से चहलकदमी करते और एक हाथ की मुट्ठी बनाकर दूसरे हाथ पर मारते देख उनकी परेशानी का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव आ और जा रहे थे। रह-रह कर गुरुजी के कानों में पिताजी की वह नसीहत गूंज रही थी 'बेटा मंजिल पाने के लिए धैर्य रखो। इतनी जल्दी भी मत करो कि लोग दुश्मन हो जाए और अधिकारियों की आपसे अपेक्षा बढ़ जाए। झुंझलाहट में गुरुजी को कुछ नहीं सूझ रहा था। जेहन में विचारों का द्वंद्व चल रहा था। बार-बार एक ही सवाल गुरुजी को कचोट रहा था, आखिर इतनी मेहनत और निष्ठा का यह सिला क्यों? इन सब के बीच ख्याल आता, शायद पिताजी ने सही ही कहा था। वजह भी थी। गुरुजी ने असंभव से दिखने वाले काम को न केवल निर्धारित समय से पहले पूरा किया बल्कि राज्य स्तर पर पुरस्कार भी मिल गया। बस यही पुरस्कार उनके लिए जी का जंजाल बन गया। काम न करने वालों एवं मीन-मेख निकालने वालों को बड़ी पीड़ा हुई कि आखिर यह क्यों हो गया? इसके बाद कई लोग तो जैसे हाथ धोकर गुरुजी के पीछे ही पड़ गए। जिन अधिकारियों के दम पर गुरुजी आज तक यह सब करते आए थे, वो ही अब उनको शक की नजर से देखने लगे। टांग खींचने वाले लोग, अधिकारियों के कान भरने में सफल हो गए थे। दरअसल, गुरुजी के काम के साथ अधिकारियों ने भी सपना देखना शुरू कर दिया था। काम और मेहनत भले ही गुरुजी की थी लेकिन इससे अधिकारियों का भी हित जुड़ा था। अचानक एक बड़े अधिकारी के तबादले की चर्चा शुरू हो गई। गुरुजी को सौंपा गया काम शत-प्रतिशत पूरा होने को था। अधिकारी की प्रबल इच्छा थी कि काम उनके तबादले से पूर्व ही हो जाए ताकि उपलब्धि उनके खाते में जुड़ जाए। चूंकि गुरुजी अब दोराहे पर थे। 'शुभचिंतकों का असहयोग और अधिकारी का बार-बार 'मैंने तुमको राज्य स्तर पर सम्मानित करवा दिया.. कहना गुरुजी के कान में ऐसे गूंज रहा था जैसे किसी ने कानों में गर्म शीशा डाल दिया है..। उनको वह पुरस्कार अब तुच्छ दिखाई देने लगा..क्योंकि गुरुजी को अपनी मेहनत और निष्ठा पर श्रेय की भूख भारी पड़ती दिखाई दे रही थी।

मंत्रीजी का कुत्ता

पहली लघु कथा
वो बिलकुल तनाव में थे। झुर्रियां होने के बावजूद उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। पिछले 15 दिन से उनके दिन का चैन एवं रातों की नींद उड़ी हुई थी। वजह थी वह मोटरसाइकिल, जो चोरी हो गई। बैंक से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने यह मोटरसाइकिल खरीदी थी। पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगवाने के बाद पुलिस ने रिपोर्ट तो दर्ज कर ली लेकिन मोटरसाइकिल का कोई सुराग नहीं लगा। वो बार-बार पुलिस थाने इस उम्मीद से जाते कि शायद कोई खुशखबर मिल जाए लेकिन हमेशा निराशा ही हाथ लगती। एक दिन तो पुलिसवाले नेझिड़क भी दिया। कहने लगा, रोजाना आने की जरूरत नहीं है, जब मिलेगी तो आपको फोन पर सूचित कर देंगे। वह मन मसोस कर रह गया। जिंदगी भर की कमाई से जो पैसा शेष बचा था, उसी तो बेटे के लिए मोटरसाइकिल खरीदी थी। थक हारकर उन्होंने सोचा क्यों ना अखबार में यह खबर दे दी जाए। इस उम्मीद के साथ कि खबर पढ़कर हो सकता है कोई मोटरसाइकिल की जानकारी दे दे। आखिरकार हिम्मत जुटाकर वह बेटे के साथ अखबार के दफ्तर पहुंचा। चेहरे पर चिंता के साथ आग्रह के कुछ भाव थे। पत्रकार ने जब उनसे आने की वजह पूछी तो उन्होंने एक प्रार्थना पत्र एवं पुलिस एफआईआर की कॉपी टेबल पर रख दी। पत्रकार ने पढऩे के बाद पूछा.. बताइए क्या करना है?। सज्जन बोले, पन्द्रह दिन हो गए मोटरसाइकिल खोए हुए कोई सुराग नहीं मिल रहा है। इस उम्मीद से आया हूं कि आपकी खबर से शायद काम बन जाए। पत्रकार थोड़ा मुस्कुराया फिर बोला, आप भी बड़े आशावान हैं, जब पुलिस ही नहीं तलाश पाई तो खबर से कैसे पता चलेगा। अचानक वो शख्स कुछ आवेश में आए और कहने लगे, भाईसाहब आपकी कलम में ही ताकत है, आप कुछ लिखेंगे, तभी यह पुलिसवाले कुछ हरकत में आएंगे। इनके लिए मोटरसाइकिल तलाशना कोई मुश्किल काम नहीं है। जब यह मंत्रीजी का कुत्ता तलाशने के लिए दिनरात एक कर सकते हैं तो फिर हमारे लिए क्यों नहीं? पत्रकार निरुतर था और वो सज्जन अपना प्रार्थना पत्र टेबल पर छोड़कर जा चुके थे।

आओ संकल्प लें


टिप्पणी


जब समूचा शहर मां दुर्गा की आराधना में डूबा हुआ है। शक्ति रूप में कन्याओं की पूजा की जा रही है। ऐसे समय में नाली में कन्या भ्रूण मिलना गंभीर है। एक ऐसी सामाजिक बुराई, जो हमको कचोटती है और झकझोरती भी है। एक ऐसा बदनुमा दाग जो हमको शर्मसार करता है। बीकानेर में एक सप्ताह के भीतर भ्रूण मिलने की यह दूसरी घटना है। बात शर्मनाक इसीलिए भी है कि यह सब हमारे शहर में हो रहा है। हमारा शहर जो छोटी काशी के नाम से विख्यात है। यहां आस्था की प्रगाढ़ता दूसरे शहरों के लिए किसी नजीर से कम नहीं है। धर्म-कर्म व सेवा भावना यहां के खून में है। धार्मिक पदयात्रियों के लिए कदम-कदम पर सेवा शिविर लगाकर खुद को धन्य समझने वाले भी हम ही लोग हैं। आवारा पशुओं के लिए हरा चारा खरीदकर उनकी निस्वार्थ सेवा करने वाले भी बीकानेरी ही हैं। सहयोग व सद्भाव यहां की परम्परा है। भाईचारे एवं इंसानियत के तो यहां कई उदाहरण हैं।
मानवीय संवेदनाओं को सहेजने और महसूस करने वाले हमारे बीकानेर में इस प्रकार का घटनाक्रम निसंदेह घिनौना कृत्य है। बीकानेर जैसे शहर एवं माहौल में ऐसे कृत्य घटित होना शोचनीय भी है। इतना ही नहीं प्रशासन एवं स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता बदलने तथा बेटा-बेटी को समान समझने के लिए कई तरह की इनामी योजनाएं भी ईजाद की गई हैं। अभी हाल ही में जिला कलक्टर ने तो अभिनव प्रयोग करते हुए किसी के घर में कन्या पैदा होने पर संबंधित दम्पती को बधाई संदेश भेजने का फैसला किया है। इस तरह की कवायद से परिणाम अनुकूल आएंगे। लेकिन शहर एवं जिले के मौजूदा जो हालात हैं वो चौंकाते हैं। जिले की तस्वीर डराती है। सन २००१ की जनगणना के मुकाबले २०११ की जनगणना में जिले में प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं की संख्या में कुछ बढोतरी जरूर हुई लेकिन इस आंकड़े पर हम ज्यादा खुश नहीं हो सकते। क्योंकि ० से छह साल के बच्चों की तुलना करें तो लिंगानुपात कम हुआ है। सोचिए हम इसी रफ्तार से बढ़ते रहे तो बेटियों का अकाल पड़ जाएगा।
बहरहाल, संकल्प करें। इस बात की शपथ लें कि हम बेटियों को भी उतना ही मान-सम्मान, प्यार व स्नेह देंगे जितना बेटों को देते आए हैं। दोनों में किसी तरह का भेद नहीं करेंगे। समय की मांग भी यही है, अगर आज हमने इस मांग को अनसुना कर दिया तो कल कुंवारों की लम्बी चौड़ी फौज खड़ी हो जाएगी। चूंकि हमारा शहर सेवाभावी लोगों का है। यहां मानवीय संवेदनाएं अभी जिंदा हैं। जब नवरात्र में हम कन्याओं को दुर्गा का स्वरूप मान पूजा करते हैं तो बाकी दिनों में क्या यह संभव नहीं? नवरात्र से पुनीत एवं अच्छा मौका और कोई हो भी नहीं सकता। और हां, मां दुर्गा भी तभी खुश होंगी जब हम उनकी प्रतिमूर्तियों को बराबर का हक देकर मान-सम्मान के साथ उनको आगे बढाएंगे। खैर, अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है। हम सब ठान लें और प्रण करें कि इस बुराई को दूर करके रहेंगे तो मुश्किल कुछ भी नहीं है। वाकई मां दुर्गा की सच्ची पूजा भी तभी होगी।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 30 सितम्बर14  के अंक में प्रकाशित  

एमटीएस क्या लिया आफत मोल ले ली...


बस यूं ही

भिलाई से बीकानेर आने के बाद सबसे पहले मैंने घर पर इंटनरेट कनेक्शन के लिए प्रयास शुरू किए। ऐसा करना जरूरी भी था, क्योंकि मुझे भली भांति मालूम था कि बच्चे आते ही सबसे पहले कम्प्यूटर ही तलाशेंगे। वैसे कनेक्शन के लिए पहली प्राथमिकता बीएसएनएल ही थी लेकिन इसमें निजी फोन कंपनियों के बरक्श औपचारिकता कुछ ज्यादा थी। मैं धीरे-धीरे उनको पूरी कर ही रहा था कि अचानक एक परिचित से मैंने इसकी चर्चा कर दी। उन्होंने एमटीएस का कनेक्शन लेने का सुझाव दिया। बस फिर क्या था मैंने तत्काल फोन कंपनी के प्रतिनिधि को फोन लगाया। वह भी लगभग तैयार ही था। थोड़ी ही देर बाद वह कार्यालय में हाजिर हो गया। खैर, मैंने वाई फाई कनेक्शन का डोंगल ले लिया। शुरुआती दौर में स्पीड वगैरह ठीक मिली लेकिन जैसे-जैसे माह पूर्ण होने को आया स्पीड घटने लगी। उसी प्रतिनिधि से फिर पूछा तो जवाब दिया गया कि माह के आखिरी में अक्सर ऐसा ही होता है, आप बिल जमा करवा देंगे तो स्पीड ठीक हो जाएगी। ऐसा हुआ भी। वैसे बिल जमा करवाने की अंतिम तिथि माह की १८ तारीख होती है। मैं कभी भी आखिरी बॉल पर छक्का लगाने का पक्षधर नहीं रहा, लिहाजा समय से पहले ही बिल जमा करवाता रहा हूं। चाहे घर का बिजली बिल रहा हो या मोबाइल का। इतना ही नहीं एलआईसी एवं अन्य पॉलिसीज भी निर्धारित तिथि से पूर्व ही जमा करवाता हूं। दो चार दिन पहले करवाने के पीछे मंशा यही रहती है कि आखिरी दिन लम्बी लाइन में ना लगने पड़े तथा किसी प्रकार की अनावश्यक परेशानी भी न हो।
इस बार व्यस्तता ज्यादा थी। ना चाहते हुए भी इस बार बिल निर्धारित तिथि से पहले जमा नहंी हो पाया। आखिरी दिन 18 सितम्बर को बिल जमा करवा दिया गया, लेकिन कंपनी से बिल जमा होने का कोई मैसेज मोबाइल पर नहीं आया। मेरे पास बिल जमा करवाने का प्रमाण था। मैं आश्वस्त था कि मैसेज नहीं आया तो कोई बात नहीं यह कंपनी का सिरदर्द है, जो होगा देखा जाएगा। 19 सितम्बर को मोबाइल पर कम्पनी के दो मैसेज आए। मैसेज बिना पढ़े ही सेंडर का नाम देखकर मैंने अंदाजा लगाया कि शायद बिल राशि जमा होने के बारे में आए हैं। लेकिन मेरा ऐसा सोचना गलत था। मैसेज में लिखा था कि आपका बिल अभी ड्यू है, इससे तत्काल जमा करवाएं। संयोग देखिए इसके ठीक अगले दिन इंटरनेट सेवा ठप हो गई। तीन दिन तक यही सिलसिला चलता रहा। कार्यालय से घर जाता तो धर्मपत्नी उलाहना देनी लगी।
कहती तीन दिन से नेट नहीं चल रहा है, इसको ठीक क्यों नहीं करवाते?। इधर, मेरे जेहन में यही चल रहा था कि हो न हो बिल सही तरीके से जमा न होने (मोबाइल पर मैसेज नहीं आया था ) के कारण नेट का कनेक्शन विच्छेद कर दिया गया है। मन में गुस्सा भी था कि सब कुछ समय पर करने के बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है। कुछ आक्रोश कंपनी की सेवा को लेकर भी था। कई बार कस्टयूमर केयर में स्पीड की शिकायत दर्ज करवा चुका था। आखिरकार उसी प्रतिनिधि को फोन लगाया, जिससे डोंगल लिया। पहले तो उसने कार्यालय के किसी अधिकारी के नम्बर दिए और कहा कि आप इनसे सुबह दस बजे के बाद बात करना। चूंकि मैं सुबह बात करना भूल गया। दोपहर को याद आया तो मैंने उनको करीब 10 से 15 बार तक फोन लगाया लेकिन उन्होंने अटेण्ड नहीं किया। मैंने फिर प्रतिनिधि को फोन लगाया और झल्लाते हुए अपनी पीड़ा बताई। वह बोला कि शाम छह बजे आफिस जाऊंगा तब आपकी बात करवा दूंगा। मैंने छह बजे फिर फोन लगाया तो उसने बात नहीं करवाई लेकिन कहा, कि अपने नम्बर मैसेज कर दो। मैं मन ही मन फिर झल्लाया और खुद से कहा कि.. भाई यह काम तो तू सुबह ही करवा सकता था, तेरे को यह नेक ख्याल आने में आठ से दस घंटे क्यों लग गए। खैर, मैंने उसको मैसेज किया तो उसका कहना था कि भाईसाहब आपका नेट चालू है। आपके कम्प्यूटर में कोई दिक्कत है, उसको चैक करवा लें।
उसकी सलाह पर मैने सीपीयू चैक करवाया लेकिन कोई गड़बड़ नहीं मिली तो। उसको इस संबंध में बताया तो कहने लगा कि आप डोंगल लेकर कार्यालय आ जाना। वहां दिखाने के बाद डोंगल ठीक हो गया। कम्प्यूटर पर नेट भी चलने लगा। थोड़ा दिलासा हुआ कि भले ही मैसेज नहीं आया लेकिन नेट तो चालू है। मतलब बिल संबंधी दिक्कत दूर हो गई है। लेकिन मेरा यह भरोसा दूसरे ही दिन टूट गया। जब बीकानेर के स्थानीय कार्यालय से फोन आया और पूछा गया कि आप बिल जमा कब करवा रहे हो? मैं हतप्रभ था। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या जवाब दूं। मन में हल्का सा आक्रोश भी था। फिर भी संयमित होकर मैंने जवाब दिया कि भाईसाहब बिल तो मैं जमा करवा चुका हूं, मेरे पास बाकायद रसीद भी है। उसने रसीद को कार्यालय में आकर चैक करवाने की बात कहकर फोन काट दिया।
पिछले रविवार दोपहर तीन बजे फिर फोन आया। अटेण्ड किया तो फिर वही चिर-परिचित डायलॉग, आप बिल जमा कब करवा रहे हो। अब मेरा धैर्य जवाब दे चुका था। मैंने बिना कोई जवाब दिए सीधे ही कह दिया.. यार, मैंने एमटीएस का कनेक्शन का लेकर गुनाह कर दिया क्या?। मेरा इस प्रकार का जवाब सुनकर वह सकपका गया। पूछा भाईसाहब कैसे? मैंने कहा कि मैं कितनी बार बताऊं कि बिल जमा हो चुका है। मैं 18 सितम्बर को बिल जमा करवा चुका हूं। बिल 891 रु का आया था और मैंने 900 रुपए जमा करवाया है। मैं पिछले पांच माह से एमटीएस का ग्राहक हूं और हमेशा बिल समय से पहले ही जमा करवाया है। मेरी बात सुनकर वह बोला भाईसाहब मैं चैक करवा लेता हूं। हो सकता है बिल की जानकारी अपडेट ना की गई हो। मैने फिर कहा कि यह आपका मामला है लेकिन मैं कब तक जवाब देता रहूं। यकीन ना हो तो रसीद लेकर आपके कार्यालय आ जाऊं। संभवत: वह मेरा मिजाज भांप चुका था, लिहाजा वह थोड़ा नम्र होते हुए बोला, भाईसाहब भविष्य में आपको हमारे कार्यालय आने की जरूरत नहीं है। हम आपके पास आकर ही बिल की राशि ले जाएंगे। खैर, उसने कुछ संतोषजनक जवाब जरूर दिया लेकिन मन में शंका बरकरार थी।
खैर, मंगलवार को फिर वही घटनाक्रम दोहराया गया। सबसे पहले जयपुर से फोन आया। सामने से कोई मोहरतमा बिलकुल रिकॉर्डेड आवाज तरह बोले जा रहे थी। मैंने कहा कि आप अपनी ही सुनाएंगी या मेरी भी सुनेंगी। तो बोली आप को जो कहना है हमारे कार्यालय में जाकर बताइए, मैं कुछ नहीं जानती, आपको तो बिल जमा करवाना ही पड़ेगा। मैं बिलकुल अवाक था। मोहतरमा की इस तरह के व्यवहार पर गुस्सा आना लाजिमी थी। मैंने कहा कि मैडम, आपके आफिस मैं क्यों जाऊं। उसने कहा, आपकी मर्जी और फोन रख दिया। इसके बाद रविवार को एमटीएस के जिस नम्बर से मेरे पास फोन आया था, उस पर डायल किया तो जवाब आया अरे सर, आपका बिल जमा है लेकिन एक बार आफिस आ जाओ। मैंने वजह जानी तो बताया कि सीनियर से मिल लो। मैंने कहा कि आप सीनियर के नम्बर दे दो। उसने नम्बर दिए, तो मैं चौंक गया।
यह उसी शख्स के नम्बर थे, जिनको मैं पूर्व में कई बार फोन लगा चुका था लेकिन उन्होंने उठाया नहीं था। महोदय के फोन पर हैंगओवर की हेलो टून बज रही थी। मैंने मैसेज भी छोड़ा लेकिन कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद मैंने लैंडलाइन से लगाया। संयोग से इस बार फोन उठा लिया गया। मैंने कहा, अरे सर, आप तो बहुत बिजी हैं। आप तो फोन अटेण्ड ही नहीं करते। बड़े इंतजार के बाद आपने फोन उठाया है। सामने वाले सज्जन पता नहीं किस बात पर भन्नाए हुए थे, तपाक से बोले.. बाद में बात करना। बाजार में हूं, बाइक चला रहा हूं। मैंने कहा सर, आपका शुभनाम क्या है। बोले मेरा नाम ललित है, आप आधा घंटे बाद कार्यालय में आकर मिलना। मैं आगे कुछ कहता इससे पहले उन्होंने फोन काट दिया। मैं एमटीएस के नुमाइंदों के व्यवहार एवं कार्यप्रणाली से बेहद उकता गया था। मन ही मन सोच रहा था कि रात को एमटीएस का नेट धीमा क्यों हो जाता है? क्यों इतनी बड़ी कंपनी की सेवा संतोषजनक नहीं है? कर्मचारियों के साथ हुए वार्तालाप के बाद मुझे अपने सवालों के जवाब कुछ हद तक मिल चुके थे। फिर भी अपनी बात कहने के लिए मैं शाम को एमटीएस कार्यालय पहुंचा। सबसे पहले बिल जमा करवाने वाले काउंटर पर पहुंचा और रसीद दिखाते हुए और कुछ अनजान बनते हुए पूछा क्या यह आपने ही दी है?। पर्ची को देखकर युवक ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी। चूंकि मैं गुस्से में था और खरी-खोटी सुनाने के पूरे मूड में था। युवक से पूछा कि यह मिस्टर ललित कौन हैं और कहां मिलेंगे। उसने बगल में इशारा कर दिया कि इस आफिस में मिलेंगे।
वहां से निकल कर मैं वह बगल वाले कक्ष में घुसा तो वहां बैठे सुरक्षाकर्मी ने मेरा परिचय पूछा तो मैं बिना कोई भूमिका बनाते हुए सीधे मिस्टर ललित से मिलने की इच्छा जताई। उसने कहा वो तो बाहर हैं, अभी नहीं मिल सकते। मैंने कहा कि उनके बाद कोई दूसरा जिम्मेदार तो होगा, जिसको मैं अपनी बात कह सकूं। तभी एक युवक आया, मैंने उसको अपनी पीड़ा बताई तो वह अंदर गया। कम्प्यूटर पर कुछ चैक करने के बाद वापस आया और कहने लगा कि आपका बिल जमा है, आपने तो उल्टे नौ रुपए ज्यादा जमा करवा रखे हैं। मैंने कहा कि जब यह सब कर रखा तो पिछले दस-बारह दिन से यह नौटंकी क्यों? वह बोला आपका बिल 19 सितम्बर को जमा हुआ है, लेकिन कुछ तकनीकी गड़बड़ की वजह से कम्प्यूटर पर शो नहीं कर रहा है। इसके बाद उस युवक ने मिस्टर ललित को फोन लगाया और सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया। मैं तो इस जिद पर अड़ा था कि मुझे एमटीएस के किसी बड़े पदाधिकारी के नम्बर मिल जाएं ताकि बीकानेर के कर्मचारियों की कार्यकुशलता की बड़ाई मैं उसके सामने कर सकूं। मैं कोई नम्बर या आईडी मांग रहा था, लेकिन सामने वाला युवक थोड़ा व्यवहार कुशल लगा। वह भी अपने साथी के व्यवहार पर अफसोस जताते हुए मेरे से पूछ बैठा भाईसाहब आप कहां के हो। जब मैंने झुंझुनूं का नाम लिया तो वह झट से पूछ बैठा झुुंझुनूं में कहां के तो मैंने चिड़ावा तहसील में अपना गांव बता दिया। मेरा इतना कहते ही वह बोला चिड़ावा में हमारे परिजन भी रहते हैं। मैंने युवक से पूछा तो उसने कहा कि वह भी झुंझुनूं के मलसीसर का रहने वाला है। उसने अपना नाम प्रदीप खेमका बताया।
फिर तो वह मेरे से खुलकर बातें करने लगा। उसने बताया कि जयपुर से जो फोन आ रहा है वह एमटीएस का न होकर एक एजेंसी का है। हम जो बिल जमा नहीं होते हैं, वह नम्बर एजेंसी को दे देते हैं। वहां से संबंधित उपभोक्ता के पास फोन आते रहते हैं। आपके पास दुबारा फोन नहीं आएगा। आखिरकार मैं उनके ऑफिस से बाहर आने लगा और फिर से नम्बर और मेल आईडी मांगी तो वह मुस्कुरा दिया, मानो कह रहा हो, अब रहने भी दो, इतना कुछ तो सुना चुके। उसने मेरे से मोबाइल नम्बर लिए, उसके बाद एक मिस्ड कॉल दी और बोला, यह मेरे नम्बर हैं आप इसे सेव कर लो। खैर, मिस्टर ललित से मिलने की अधूरी हसरत के साथ मैं वहां से घर लौट आया। आश्वासन तो मिल गया लेकिन मन में यह बात अभी भी घर किए हुए है क्योंकि मोबाइल पर मैसेज फिर भी नहंी आया है। वैसे मेरे पास उन सभी कर्मचारियों के मोबाइल नम्बर भी हैं, जिनके साथ मेरा वार्तालाप हुआ। मुझे सर्वाधिक पीड़ा तो उस ललित गौड़ नामक शख्स से है जो जिम्मेदार पोस्ट पर होने के बाद भी बचकानी हरकतें करने से बाज नहीं आया। एमटीएस को ऐसे नौसिखुओं की बजाय किसी व्यवहार कुशल व्यक्ति को जिम्मेदारी देनी चाहिए ताकि वे उपभोक्ताओं को कम से कम बातों से तो संतुष्ट कर सकें। बहरहाल, मैं इसे कर्मचारियों की लापरवाही कहूं या तकनीकी दिक्कत लेकिन मामला गंभीर तो है ही। मैं वह रसीद भी इस पोस्ट के साथ चस्पा कर रहा हूं। बस इसी उम्मीद के साथ के एमटीएस प्रबंधन के संज्ञान में यह मामला आए ताकि और किसी के साथ ऐसा अनुभव ना हो।

मगर चोट खा बैठा...


बस यूं ही
एशियाड में भारतीय तीरंदाजों द्वारा स्वर्ण पदक जीतना महज संयोग ही था, क्योंकि हमारा तीरंदाजी का कार्यक्रम पहले से ही तय था। रविवार सु़बह आठ बजे हम भी तीरंदाजी की बारीकियां सीखने पहुंचे। साथ में स्टाफ के कई सदस्य भी थे। वैसे मैंने आज से पहले तीरंदाजी को केवल टीवी पर ही देखा था। आज तीर चलाए, लेकिन चोट खा बैठा। इसमें गलती हमारी नहीं थी। प्रशिक्षु खिलाडिय़ों ने हम सब को तीरंदाजी की छोटी से लेकर बड़ी जानकारी तक बताई लेकिन चोट से बचने का तरीका नहीं बताया। चोट मेरे अकेले को ही नहीं बल्कि दो तीन साथियों को और भी लगी। मैंने कमान को जैसे ही खींच कर छोड़ा वह हाथ को छूती हुई निकली और चोट का निशान छोड़ गई। वैसे मैंने जिंदगी में पहली बार तीर चलाए। ना शब्दों के ना नैनों के बल्कि हकीकत वाले। निशाने भी वैसे बुरे नहीं थे। तीनों तीर लक्ष्य पर तो नहीं लगे लगे लेकिन उसके आसपास ही थे। वैसे इस खेल में एकाग्रता, संतुलन, धैर्य, आत्मविश्वास आदि का गजब समावेश है। हां इतना जरूर है कि तीर जब निशाने पर लगता हैं तो आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। खैर, अब चोट को सहला रहा हूं। अनुभव तो यही कहता है कि तीर चाहे कैसे भी चलाओ, कुछ ना कुछ सीख/ सबक तो मिलता ही है।

ताकि कुछ तो सुधार हो

टिप्पणी

जिला कलक्टर ने गुरुवार को राजकीय अंध आवासीय विद्यालय तथा राजकीय मूक बधिर विद्यालय के औचक निरीक्षण में जो हालात देखे वो बेहद शोचनीय हैं। न केवल इसीलिए कि वहां अव्यवस्थाएं मिलीं, विद्यार्थियों के उपयोग में आने वाला सामान बंद ताले में मिला, बल्कि इसीलिए भी कि यह जिला मुख्यालय की तस्वीर है, जहां शिक्षा विभाग के जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक के आला अधिकारी बैठते हैं। यहां से पूरे प्रदेश के लिए नियम बनते हैं। दिशा-निर्देश जारी होते हैं। उसी विभाग की नाक के नीचे ऐसी बदइंतजामी सरासर लापरवाही है। अकर्मण्यता का जीता-जागता नमूना है। सबसे बड़ी गंभीर बात तो यह है कि सब निशक्त बच्चों के साथ हो रहा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि कलक्टर के निरीक्षण के बाद विभाग हरकत में आएगा। व्यवस्था में सुधार भी होगा लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस प्रकार की परिस्थितियां पैदा ही क्यों होती हैं?
वैसे, यह कहानी अकेले इन दोनों विद्यालय की नहीं है। शहर व जिले में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। हां, इतना जरूर है कि ये हमको चौंकाते तभी हैं, जब सामने आते हैं। वरना सरकारी कामकाज के ढर्रे से भला अनजान व अनभिज्ञ है कौन? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। शहर की सफाई, यातायात व्यवस्था, अतिक्रमण, चिकित्सा व्यवस्था आदि नासूर बन चुके हैं। पता नहीं क्यों जिम्मेदारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। यह बात दीगर है कि जिला कलक्टर शहर की सफाई व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखा रही हैं लेकिन हालात में आशातीत सुधार नहीं हो रहा है। हर सप्ताह की समीक्षा बैठक सफाई व्यवस्था को लेकर किए जा रहे प्रयासों की चुगली करती दिखाई देती हैं। बहरहाल, इस प्रकार के निरीक्षणों से मातहत कर्मचारियों में भय जरूर रहता है। इस बहाने से वे न केवल समय पर कार्यालय आते हैं बल्कि कामकाज के निष्पादन में भी अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। इसलिए जिला कलक्टर को लगे हाथ शहर की यात्रा भी कर लेनी ताकि उनको व्यवस्थाओं की वास्तविक स्थिति व शहर के अंदरुनी हालात का पता तो लगे। इतना ही नहीं जिला कलक्टर की तर्ज पर अगर बाकी वरिष्ठ अधिकारी भी इसी तरह निरीक्षण करने की इच्छाशक्ति दिखाएं तो कु़छ सुधार की उम्मीद तो की ही जा सकती है। वैसे भी वास्तविकता के दर्शन तो फील्ड में जाने से ही संभव है। वातानुकूलित कक्षों में बैठ चिंता करने से शहर का भला नहीं होने वाला।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 19 सितम्बर 14 के अंक में प्रकाशित 

उम्मीद की किरण

टिप्पणी.

विधि विवि के वे दोनों छात्र बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने बीकानेर की बदहाली के लिए प्रशासन को न्यायालय तक खींचा। फड़बाजार, कोटगेट, सांखला फाटक आदि स्थानों पर प्रशासनिक अमले की जो हलचल इन दिनों दिखाई दे रही है, उसके मूल में यह दोनों युवक ही हैं। दोनों छात्रों ने शहर के प्रमुख स्थानों की सफाई व अतिक्रमण को लेकर न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। इस मामले में आखिरी फैसला अभी आना बाकी है लेकिन न्यायालय ने अब तक हुई सुनवाई में प्रशासन की कार्रवाई को उचित नहीं माना है।
वैसे भी युवा वर्ग कुछ करने की ठान ले तो फिर उनके हौसले के आगे मुश्किलें, हल होते देर नहीं लगती। उनकी सोच, जोश, जज्बा और जुनून को अगर सकारात्मक दिशा मिल जाए तो फिर परिणाम शर्तिया अनुकूल ही आते हैं। कुछ इसी जोश एवं जज्बे के साथ बीकानेर की बदहाल एवं बेपटरी हो चुकी व्यवस्था को पटरी पर लाने का बीड़ा इन दोनों उत्साही युवकों ने उठाया है। संख्या की दृष्टि से भले ही ये दो हों लेकिन इनकी सोच उम्मीद की किरण जगाती हैं। जड़ हो चुकी व्यवस्था को झकझोरने तथा सुषुप्त लोगों में चेतना जागृत करने को प्रेरित करती है। उनका यह प्रयास दिशा दिखाता है। धारा के विपरीत बहने का हौसला भी बंधाता है।
दरअसल, समूचा शहर मूलभूत समस्याओं को जूझ रहा है। कोई भी वर्ग इन समस्याओं से अछूता नहीं है। अव्यवस्थाओं के खिलाफ कहने को थोड़ा-बहुत विरोध कभी-कभार जरूर होता है लेकिन वह रस्मी और स्तही ज्यादा होता है। उसमें शहरहित कम स्वहित ज्यादा जुड़ा है। फिलवक्त निगम चुनाव के मद्देनजर कई समाजसेवी और जागरूक लोग अचानक व अकस्मात ही पैदा हो गए हैं। इनका विरोध कैसा है? क्यों व किसलिए है, कहने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग तात्कालिक कार्रवाई करवा अपना स्वार्थ जरूर साथ लेते हैं, लेकिन समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो पाता है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इन अव्यवस्थाओं के खिलाफ कभी संगठित रूप से आवाज उठी ही नहीं। कभी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचा ही नहीं गया। समस्याओं के स्थायी निराकरण के बजाय फौरी तौर पर समाधान ढूंढा गया।
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि लम्बे इंतजार और बड़ी मुश्किल से प्रज्वलित हुई उम्मीद की यह छोटी सी लौ कालांतर में जागरुकता की बड़ी ज्वाला बनेगी। ऐसा होना जरूरी भी है क्योंकि अब तक जनप्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों के आश्वासनों की रेवडिय़ों पर संतोष करते आए लोगों के हिस्से कुछ नहीं आया। अगर अब भी नहीं जागे तो फिर शहर के हालात और अधिक भयावह होंगे। हमको ऐसे युवाओं से न केवल सीख लेनी चाहिए बल्कि खुद के साथ-साथ अपने आसपास के युवाओं को भी शहरहित व समाज हित में काम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अगर शहर के लोग भी इन युवाओं की तरह जागरूक होकर आगे आएं तो निसंदेह शहर की सूरत एवं सीरत बदलते देर नहीं लगेगी।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 16 सितम्बर 14 के अंक में प्रकाशित .

यह चिंता ही तो आपका स्नेह है...


बस यूं ही
आपको क्या हो गया... सब ठीक तो है.. भाईसाहब आपको यह सब करने की जरूरत नहीं है... यह सब करना जरूरी है, आपने ठीक किया...। आपका तो ठीक है, दूसरों का बढ़ गया.. और भी न जाने कितनी ही तरह की प्रतिक्रियाएं। मैं उस फोटो की बात कर रहा हूं, जिसमें मैं अपने ब्लड प्रेशर की जांच करवा रहा हूं और आप सब ने उसको देखकर पता नहीं क्या-क्या कल्पनाएं कर ली।
दरअसल, अगस्त के आखिरी सप्ताह में राजस्थान पत्रिका बीकानेर के स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में लगाए गए चिकित्सा शिविर की बात कर रहा हूं। इसमें ब्लड प्रेशर एवं शुगर की जांच भी गई थी। शाखा प्रभारी के साथ शिविर का अवलोकन करने मैं भी गया था। इसी दौरान हमारे शाखा प्रभारी ने बीपी एवं शुगर की जांच करवाई तो सहयोगियों ने मेरे से भी निवेदन किया कि मैं भी यह सब करवा लूं। जब ब्लड प्रेशर चैक करवाने लगा तो फोटोग्राफर ने दो तीन-फोटो खींच लिए..। फोटोग्राफर को देखकर बीपी जांचने वाला, जिसको यह पता नहीं था कि मैं कौन हूं, कहने लगा.. भाईसाहब फोटो तो बार-बार खींच रहे हैं लेकिन लगाएंगे या नहीं यह तय नहीं है। मैं उसकी बात सुनकर हंसने लगा। उससे परिचय पूछा तो बोला भाईसाहब मैं मनोज भादू हूं और सूडसर का रहने वाला हूं। मैं मंद-मंद मुस्कुराता रहा कुछ नहीं बोला। इसके बाद शुगर की जांच करवाई। हकीकत तो यह है कि अपने को पता ही नहीं है रक्तचाप कितना होता है तो सही होता है और कितना गड़बड़। यही हाल शुगर का था। मेरे को बताया गया कि ब्लड प्रेशर 80 से 130 है और शुगर 91 है। साथियों ने बताया कि आप एकदम फीट हो।
खैर, मैं आप सबके स्नेह से अभिभूत हूं। मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं जब शुभचिंतकों के इतने बड़े समूह को चिंता करते हुए देखता हूं। दरअसल, यह सब आप लोगों का साथ, सहयोग, स्नेह और बड़े-बुजुर्गों व ऊपर वाले का आशीर्वाद है कि पिछले 14-15 साल से प्रकृति के विपरीत काम करने के बाद भी पूर्णतया स्वस्थ हूं। वैसे कई साथी तो मेरे स्वास्थ्य के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होने दावा तक कर दिया. कि आपको यह सब करने की जरूरत ही नहीं है। आप बीमार तो हो ही नहीं सकते। बिलकुल आप सब की दुआएं साथ हैं तो सब ठीक है। ऑल इज वेल। शुक्रिया सभी का..।

आज हिन्दी दिवस है...


बस यूं ही

हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में आज न केवल समाचार पत्र रंगे हुए थे बल्कि परिचितों के मोबाइल पर संदेश भी मिल रहे थे। फेसबुक और वाट्स एप भी हिन्दी दिवस के गुण गाए जा रहे हैं। हिन्दी दिवस को लेकर मेरे विचार कुछ अलग हैं। शाम को घर पर लेटे-लेटे कुछ विचार आए बस उनको तुकबंदी कर कविता का रूप दे दिया.. आप भी देखें..। 

सुना है, आज हिन्दी दिवस है,
खूब आयोजन-प्रयोजन होंगे।
हिन्दी को आगे बढ़ाने,
कई बातें और भाषण होंगे।
हिन्दी की महिमा और महत्ता
का आज बखान होगा।
सुबह से लेकर शाम तक
बस हिन्दी का ही गुणगान होगा।
अंग्रेजी के दीवाने आज,
हिन्दी में कविता सुनाएंगे।
तालियां बजवाकर श्रोताओं से,
अपना हिन्दी प्रेम दिखलाएंगे।
आयोजक भी वाह-वाह कर
खूद का धन्य समझेंगे ।
एक दिन के बाद ये तो,
फिर अगले साल ही गरजेंगे।
ऐसा साल में बस,
एक बार ही होता है।
जब समूचा देश,
हिन्दी की शान में
कई कशीदे गढ़ता/पढ़ता है।
लेकिन मैं कभी ऐसे,
दिवसों में विश्वास नहीं करता।
न किसी को बधाई देता,
और ना किसी की स्वीकारता।
क्योंकि मैं रोज ही,
हिन्दी बांचता हूं।
सफेद पन्नों पर ही नहीं,
कल्पनाओं में भी हिन्दी मांडता हूं।
हिन्दी मेरे खून में,
हिन्दी ही मेरा स्वभाव है।
मैं हिन्दी का मुरीद सदा,
मुझ पर हिन्दी का ही प्रभाव है।
हर सांस मेरा हिन्दी का,
हिन्दी का मेेरे पर उपकार हैं।
हर जन्म में मिले हिन्द/हिन्दी
परवरदिगार से विनती बार-बार है।
हिन्दी गौरव देश का,
हम सब की शान है।
बोलूंगा सदा ही हिन्दी,
जब तक जी में जान है।
.....जय हिन्द.... जय हिन्दी..।

दिल है कि मानता नहीं..


बस यूं ही

कुछ भूमिका बांधने या किसी तरह का स्पष्टीकरण देने से पहले बता दूं कि मैच हम चार रन से हार गए। उस वक्त 9 गेंद शेष बची थी लेकिन हमारी टीम इतनी जल्दबाजी में थी कि ऑलआउट हो गई। आखिरी बल्लेबाज के रूप में मेरा ही विकेट गिरा। बाहर जाती गेंद पर स्क्वायर ड्राइव लगाने के चक्कर में विकेट के पीछे लपका गया। दरअसल, मैं बात आज स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में प्रशासन एवं होटल, टूर एंड ट्रेवल्स एजेंसी संचालकों के मध्य खेले गए मैच की कर रहा हूं। बीकानेर में पत्रकार बनाम प्रशासन के बीच मैच होते रहे हैं। मैच के लिए कलेक्ट्रट कार्यालय से फोन आया भी आया था। मैं भी रेलवे ग्राउंड में गया तो उसी उद्देश्य से था कि पत्रकारों का मैच है, लेकिन वहां का नजारा दूसरा था। खैर, होटल, टूर एंड ट्रेवल्स एजेंसी संचालकों ने विशेष आग्रह किया तो नकार नहीं सका। वैसे भी खेलने की इच्छा तो मन में ठांठे पहले से ही मार रही थी। नियमित रूप से क्रिकेट खेले तो १५ साल हो गए। बीच-बीच में कभी-कभार मौका या समय मिलता है तो खुद को रोक नहीं पाता हूं, लेकिन अब नियमित अभ्यास नहीं है। जिस दिन खेल लेता हूं, बाद में बहुत तकलीफ पाता हूं। सप्ताह भर तो दर्द निवारक टेबलेट का सहारा लेना पड़ता है।
खैर, हमारी टीम टॉस हार चुकी थी। नतीजतन, हमारे को पहले क्षेत्ररक्षण करना था। इस दौरान क्रमश: दसवां और बारहवां ओवर मैंने किए। पहले में मात्र एक दिन रन दिया जबकि दूसरे में छह रन बने। इन छह रनों में एक चौका भी शामिल था, क्योंकि वह कैच था, जिसे हमारा क्षेत्ररक्षक पकड़ नहीं सका और गेंद सीमा रेखा के बाहर चली गई। दो ओवर में ही सांसें फूल गई। धूप एवं गर्मी से वैसे ही बुरा हाल था। मैच पहले 15 ओवर का घोषित किया था, इसलिए 15 ओवर तो आसानी से पूरे हो गए। इसके बाद मैच 20 ओवर का कर दिया गया। यकीन मानिए वो पांच ओवर मैदान में किस तरह बिताए मैं ही जानता हूं। यह सब नियमित न खेलने का नतीजा था। वरना नब्बे के दशक में जब अभ्यास था तो सुबह से लेकर शाम तक मैच खेल लेता लेकिन कभी थकान महसूस होती ही नहीं थी। इस मैच में थकान ऐसी हुई कि जब हमारी बल्लेबाजी की बारी आई तो मेरी पारी शुरुआत करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वैसे जब क्रिकेट नियमित रूप से खेलता था तब सलामी बल्लेबाज ही था। शुरुआत में मना क्या किया बाद में मेरे को आठ विकेट गिरने के बाद भेजा गया। हालांकि जब बल्लेबाजी करने आया तब तक तबीयत सामान्य हो चुकी थी। मैं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरा था। चूंकि मेरे टीम के खिलाड़ी मेरे अतीत से परिचित नहीं थे, लिहाजा मेरे को तरह तरह की हिदायत दे रहे थे। ऐसे खेलो, वैसे खेलो और मैं चुपचाप बड़े ही इत्मिनान के साथ बल्लेबाजी करने लगा। पहली ही गेंद पर स्क्वायर लेग अंपायार के तरफ खेल कर एक रन लिया। दो तीन रन बाई/ लेगबाई के बने। हम धीरे-धीरे मंजिल के करीब आ रहे थे। जीत के लिए मात्र पांच रन की आवश्यकता था। 19 ओवर में स्ट्राइक मेरे पास थी। इस बीच एक विकेट और गिर चुका था। अंतिम जोड़ी बीच मैदान पर संघर्ष कर रही थी। पहली गेंद को मैंने कवर की तरफ खेला लेकिन वह मुस्तैद क्षेत्ररक्षक ने उसे पकड़ लिया। इसके बाद दूसरी गेंद को मैंने सुरक्षात्मक अंदाज में खेला, जिसे गेंदबाज ने पोलोथ्रू में पकड़ लिया। तीसरी गेंद ऑफ से काफी बाहर थी और थोड़ी सी ओवरपिच थी। बस मन ललचा गया। बिना फुटवर्क किए खड़े-खड़े खेलने का नतीजा यह हुआ कि गेंद बल्ले का हल्का किनारा लेते हुए विकेटकीपर के दस्तानों में जा चुकी थी। मैं अपने निर्णय पर पछता रहा था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और हमारी टीम मैच हार गई। मैं मेरे प्रदर्शन पर बेहद नाखुश था।
खैर, मेरा क्रिकेट खेलने का अनुभव कहता है कि हारने के बाद थकान ज्यादा होती है। और मेरे जैसे अनियमित खिलाड़ी को तो होनी ही थी। मैदान से घर के लिए रवाना हुआ तो रास्ते में दवा की दुकान से दर्दनिवारक दवा ली और घर आया। घर पर आकर टेबलेट ली। वैसे क्रिकेट खेलकर हमेशा तकलीफ ही पाता हूं। शरीर का अंग-अंग दर्द करने लगता है। ऐसा दर्द ही कहीं से मांसपेशी में थोड़ा सा भी खिचाव होता है तो दर्द से कराह उठता हूं। लेकिन यह क्रिकेट का मोह पता नहीं कब छूटेगा। क्रिकेट देखकर दिल मचल उठता है, मानता ही नहीं है। कष्ट की कीमत पर भी भारी पड़ता है।

कभी 'घर' की सुध भी लिया करो

लेख
हम बीकानेर के लोग सचमुच सोचते बहुत हैं। सपने भी खूब देखते हैं, वो भी बड़े-बड़े। कल्पनाओं के सागर में भी अक्सर डूबते उतराते रहते हैं। हम देश-दुनिया के हर छोटे-बड़े घटनाक्रमों पर बड़ी बारीकी से नजर रखते हैं। किसी भी तरह की होनी-अनहोनी पर चिंता जताते हैं। प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। आंधी-बारिश भले ही टल जाए लेकिन हमारी प्रतिक्रिया सदाबहार है, वह आती जरूर है। यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। बुजुर्गों से लेकर युवा पीढ़ी तक इस 'प्रतिक्रिया जताने की परम्परा' में शामिल हैं। इस काम में आलस्य तो बिलकुल भी नहीं है। वैसे प्रतिक्रिया के इस खेल में 'नाम' की फ्रिक छिपी है। 'नाम' की चाह ही ऐसी है। बस किसी भी तरह 'नाम' चर्चा में रहे, हम इसी प्रयास में रहते हैं, तभी तो इस 'नाम' नामक खेल में शहर की चिंता और चर्चा गौण हो गई। जनप्रतिनिधियों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। शहर में पक्ष-विपक्ष का तो पता ही नहीं है। दोनों में 'गठजोड़' है या 'लापता' हो गए भगवान ही जाने। बस उनका 'नाम' जुबान पर रहे, इसलिए किसी कार्यक्रम में फीता काटने या कहीं भाषण देते वक्त कभी-कभार इनके दर्शन लाभ जरूर हो जाते हैं, वरना इनके 'अज्ञातवास' के 'तिलिस्म' को कोई नहीं जानता। कहने का मतलब यही है कि जैसी 'प्रजा' है वैसे ही 'राजा' हो गए हैं। बिलकुल यथा राजा तथा प्रजा की तर्ज पर।
खैर, हमारी एक खासियत यह भी है कि हम इतिहास पर गर्व करते हैं, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को लेकर इतराते हैं, लेकिन वर्तमान को लेकर चिंता नहीं करते। आतिथ्य सत्कार तो हमारी रग-रग में है। पुलिस या प्रशासन का जिले में कोई भी नया अधिकारी आता है तो हम उसके कामकाज का ठीक से आकलन करने से पहले उससे नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास करते हैं। स्वागत सत्कार व अभिनंदन करते हैं। खुशी-खुशी साथ में फोटो खिंचवाते हैं। दरअसल, अतिथि देवो भव: की परम्परा का निर्वहन करने के मूल में भी 'नाम' ही छिपा है। कौन किस अधिकारी के नजदीक है या कौन किसका खास है, इस बात का संदेश शहर में प्रसारित करने की कवायद शुरू हो जाती है। केवल 'नाम' के लिए हम में से कई तो दौड़-धूप में दिन रात एक कर देते हैं। इतना कुछ करने के बाद शहर को यहां भी नजरअंदाज किया जाता है। इधर जिले में आने वाले नए अधिकारी भी हमारे इस 'आतिथ्य सत्कार' और 'सादगी' के पीछे छिपे मर्म को तत्काल भांप लेते हैं। तभी तो वे गाहे-बगाहे हमारा 'बेजा फायदा' उठाने से भी नहीं चूकते। और हम 'नाम' बड़ा करने के चक्कर में हंसते-हंसते उनका 'सहयोग' करने को तत्पर रहते हैं।
बहरहाल, शहर में 'नाम' का बोलबाला इस कदर हावी है कि छोटी से लेकर बड़ी समस्याएं तक मुंह बाए खड़ी हैं लेकिन उन पर कोई चर्चा तक करने को तैयार नहीं है। समूचा शहर 'बीमार' और 'बदहाल' है। सड़क, बिजली, पानी, प्रकाश, सीवरेज, सफाई, यातायात, ड्रेनेज, शिक्षा, चिकित्सा आदि में कोई भी तो ऐसा नहीं है, जिस पर संतोष किया जा सके या गर्व के साथ किसी को बताया जा सके। कई जगह तो हालात गांवों से भी बदतर है। बाहर से आने वाले लोग हमारे शहर को 'एशिया के सबसे बड़े गांव' की संज्ञा देते हैं और हम यह नामकरण सुनकर बजाय चिंता करने के हंसते हैं। दरअसल, हमने कभी खुद से सवाल किया ही नहीं कि शहर के यह हालात क्यों हैं? इस दशा के लिए कौन जिम्मेदार है?। वैसे, जिस दिन हम खुद की या 'नाम' की चिंता छोड़कर इन सवालों के जवाब खोजने शुरू करेंगे, यकीनन शहर की दशा सुधरते देर नहीं लगेगी। बीकानेर 'भगवान भरोसे' नहीं रहेगा, बल्कि विकास की नई इबारत लिखेगा। आइए, हम सब 'नाम' की इस संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर शहर हित में सोचें और उसके विकास का संकल्प लें। ऐसे पुनीत काम के लिए स्वाधीनता दिवस से अच्छा अवसर और हो भी क्या सकता है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 15 अगस्त 14  के अंक में प्रकाशित  लेख...

टूटता सब्र का बांध

टिप्पणी
क्या प्रशासन की भूमिका यही होती है कि वह संवदेनशील मसलों एवं बुनियादी जरूरतों की बात पर मूक बनकर सब देखता रहे और हालात जब नियंत्रण से बाहर होने लगे तो हरकत में आए? क्या प्रशासन इसीलिए होता है कि वह बार-बार लोगों के धैर्य की परीक्षा ले और सब्र का बांध टूटने का इंतजार करे? क्या प्रशासन का दायित्व यही है कि वह अपने कर्मचारियों की लापरवाही, उदासीनता एवं अकर्मण्यता को नजरअंदाज करता रहे। दरअसल, ये सारे सवाल ऐसे हैं, जो बीकानेर के संदर्भ में सटीक बैठते हैं। शहर के लोगों को बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मुहैय्या नहीं हैं। इसके लिए संबंधित जनप्रतिनिधि तो जिम्मेदार हैं ही, कमोबेश प्रशासन की भूमिका भी वैसी ही है। शहरभर की सफाई व्यवस्था बदहाल है। सीवरेज एवं डे्रनेज ने तो समूचे शहर की सूरत बिगाड़ रखी है। पुराने शहर के अंदरूनी हालात गांव-ढाणी से भी बदतर हैं। कहीं-कहीं पर तो पैदल चलना भी मुश्किल है। बिजली आपूर्ति का तो कहना ही क्या। वह कब आए और कब चली जाए पता नहीं है। सालभर रखरखाव के नाम पर दो से तीन चार घंटे तक बिजली कटौती करने के बाद भी यहां बत्ती गुल होना आम बात है। मामूली से फॉल्ट तक को ठीक करने में पांच-छह घंटे लग जाते हैं। यही हाल पेयजल आपूर्ति का है। सालभर शहरवासी पेयजल को लेकर परेशान रहते हैं। कहीं सप्लाई नियमित नहीं है तो कहीं मांग के हिसाब से पानी नहीं मिलता। यातायात व्यवस्था बेपटरी है। अतिक्रमण तो हर बड़े से लेकर छोटे-छोटे रास्तों तक पसरा हुआ है। आवारा पशुओं के स्वच्छंद विचरण पर किसी प्रकार की कोई रोक नहीं है।
इतना कुछ होने के बाद यह उम्मीद करना बेमानी है कि लोग चुपचाप रहें। व्यवस्था के खिलाफ कुछ ना बोलें और बर्दाश्त करते रहें। आखिर सहन करने की भी एक सीमा होती है। वैसे भी समस्याओं की लम्बे समय तक अनदेखी से आक्रोश भड़कना लाजिमी है। मंगलवार को ईदगाह क्षेत्र में हुआ प्रदर्शन भी इसी प्रकार की अनदेखी का नतीजा था। तीन दिन से यहां पेयजल किल्लत बनी हुई थी। ईद के बावजूद यहां पेयजल आपूर्ति के किसी तरह के बंदोबस्त नहीं किए गए। ऐसे में व्यवस्था पर सवाल उठना लाजिमी है। क्या लोगों के पास यही अंतिम रास्ता बचा है कि वे कानून को हाथ में लें। रास्ता रोक कर प्रदर्शन करें। शासन-प्रशासन को कोसें। पुतले फूकें, नारेबाजी करें। लब्बोलुआब यह है कि इस प्रकार के हालात किसी भी सूरत में अच्छे नहीं हैं।
बहरहाल, प्रशासन को व्यवस्था बिगडऩे तथा आक्रोश भड़कने का इंतजार करने की प्रवृत्ति से बचना होगा। यह बात दीगर है कि जिले में प्रशासन की मुखिया संवदेनशील हैं। वे हर छोटे से लेकर बड़े मामलों को सुलझाने में तत्परता दिखाती हैं। आमजन से जुड़े मसलों में वे जितनी संजीदा हैं, उनके मातहतों की कार्यप्रणाली उतनी ही उलट नजर आती है, जो उनके सारे किए-धरे पर पानी फेरने में कोई कसर नहीं छोड़ती। अगर मामले की गंभीरता को पहले ही समझ लिया जाता तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। प्रशासन का काम आमजन का दर्द सुनने और उनका निराकरण करने के साथ व्यवस्थाओं पर सतत निगरानी रखना भी है ताकि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं हो। उम्मीद करनी चाहिए शहर में इस प्रकार के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति नहीं होगी। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था में भी आशातीत सुधार होगा।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 30 जुलाई 14 के अंक में प्रकाशित  टिप्पणी...