Wednesday, May 20, 2015

मासूमियत

 तीसरी लघु कथा

मुफलिसी में किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़़ करने वाले उस गरीब परिवार पर तो जैसे विपदाओं का पहाड़ ही टूट पड़ा था। पड़ोस की ढाणी में कक्षा पांच में जाने वाली उनकी बच्ची पर हवस के भूखे भेडिय़ों की बुरी नजर जो पड़ गई थी। यह सब करने वाले गांव के ही प्रभावशाली परिवारों के दो बिगड़ेल शोहदे थे। किसी तरह पुलिस में प्राथमिकी तो दर्ज कर दी गई लेकिन बात उससे आगे नहीं बढ़ी। प्रभावशाली परिवारों की पहुंच को देखते हुए वैसे पुलिस से कार्रवाई की उम्मीद भी बेमानी थी। इधर, पीडि़त परिवार को मुंह बंद रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए, लेकिन परिवार का मुखिया बड़ा खुद्दार था। उसका एकमात्र उद्देश्य आरोपियों को सजा दिलवाना ही था। वह खुद ब खुद ही कहता 'गरीब हूं तो क्या? भला इज्जत का सौदा कैसे कर लूं, मेरी लाडली के सपनों को कुचलने वालों की कड़ी से कड़ी सजा मिले, बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं चाहता।' खैर, इस घटनाक्रम को हुए करीब दो माह बीत गए। उस दिन से बच्ची स्कूल नहीं जा पाई। अचानक एक स्वयंसेवी संगठन को इस समूचे प्रकरण की जानकारी हुई। सारी टीम गांव पहुंची और पीडि़त परिवार और उस बालिका को अपने साथ जिला मुख्यालय ले आए। पीडि़त परिवार भी न्याय मिलने की उम्मीद में चला आया।
इसके बाद जिला मुख्यालय पर धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। धीरे-धीरे जनसमर्थन मिलने लगा। बालिका के समर्थन में बढ़ती भीड़ देखकर कई सामाजिक संगठन एवं राजनीतिक पार्टियों के भी कान खड़े हो गए। छुटभैये नेता तो खुद ही समाचार पत्रों के कार्यालय पहुंचने लगे थे। धरने पर बैठे पीडि़त परिवार एवं बालिका के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ सी लग गई। हद तो तब हो गई जब एक संगठन बालिका व उसके परिवार को लेकर समाचार पत्र कार्यालय पहुंच गया। उधर, कार्यालय का फोटोग्राफर टेबल पर फोटो फैलाकर उनका चयन करने में जुटा था। अचानक बालिका की नजर टेबल पर पड़े खुद के फोटो पर गई। वो जोर से चिल्लाई 'बाबा.. देखो मेरी फोटो..।' मैं हतप्रभ था, उसकी मासूमियत पर। सोच रहा था, अपने प्रचार के लिए लोगों ने एक मासूम को कैसे 'तमाशा' बना रखा है।

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