Saturday, June 30, 2018

इक बंजारा गाए-36


श्रीगंगानगर शहर ही नहीं समूचे जिले में शराब प्रिंट रेट से अधिक पर बिक रही है। यह बिक्री कोई आज नहीं बल्कि जब से यह ठेके शुरू हुए तब से है। कई बार शिकायतें हुईं, जांच भी हुई लेकिन प्रिंट रेट से अधिक कीमत पर बिक्री नहीं रुकी। रुकती भी कैसे, आबकारी विभाग ने लक्ष्य पूरे करने के चक्कर में शराब ठेकेदारों को अभयदान दे रखा है। पिछले दिनों एक जने ने इस बाबत संपर्कपोर्टल पर शिकायत की लेकिन वहां से भी वही होना था, जो पहले हुआ। विभाग की दुविधा यह थी कि वह सच स्वीकार करे तो फंसता है, लिहाजा उसने प्रिंट रेट से अधिक पर बिक्री के मामले को सिरे से ही नकार दिया। बिल्ली ही जब दूध की रखवाली करेगी तो दूध कितना और कैसा सुरक्षित रहेगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
बदले-बदले सुर
परिषद वाले नेताजी लगता है अपने दल में वापसी से नाउम्मीद हो चुके हैं। कभी पार्टी को अपनी मां की संज्ञा देने वाले नेताजी को अब पार्टी से किसी सकारात्मक इशारे की उम्मीद नहीं रही है। नेताजी ने वापसी के तमाम प्रयास कर लिए लेकिन बात अभी तक नहीं बनी। अब नेताजी ने पाला बदल लिया है और पार्टी के खिलाफ बगावती सुर अपना लिए हैं, लेकिन यहां तीर खुद चलाने के बजाय दूसरा कंधा देखा गया है। पिछले ही दिनों नेताजी के निजी सचिव के हवाले से एक प्रेस नोट जारी हुआ है। इसमें नेताजी ने राज्य सरकार को जन विरोधी बताया है। नेताजी ने प्रदेश सरकार पर विकास के लिए बजट न देने का आरोप भी लगाया है। खैर, नेताजी के सुर बदलने के पीछे कोई न कोई राज जरूर है।
श्रेय की लड़ाई
नशामुक्ति के मामले में श्रीगंगानगर के एनजीओ को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिला है। वैसे इस एनजीओ के सर्वेसर्वा का मीडिया मैनेजमेंट कैसा है यह किसी से छिपा नहीं है। शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जब एनजीओ के मुखिया चर्चा में न हो। खैर, इस एनजीओ ने किसी तरह के काम किए और वो सम्मान के दायरे में कैसे आए यह अलग विषय है लेकिन सोशल मीडिया पर एक चर्चा पर जोरों पर चली। राष्ट्रीय स्तर के सम्मान में नाम एनजीओ के मुख्य कर्ताधर्ता का न होकर उनके नीचे के किसी पदाधिकारी का है। ऐसा किसी के साथ भी हो तो भला कैसे स्वीकार होगा। और तो और पुरस्कार भी नीचे वाले पदाधिकारी को ही मिल गया। सत्तारूढ़ दल में वापसी करने वाले नेताजी के नाम से इस पुरस्कार के मामले में चटखारे खूब लिए जा रहे हैं। मामला श्रेय का जो था पर नेताजी चूक गए।
सेठजी का बचपन
मेडिकल कॉलेज वाले सेठजी जिनको उनके विरोधी अक्सर सपनों का सौदागर भी कहते हैं, एक बार फि र से चर्चा में हैं। इस बार चचाज़् का विषय है सेठजी का एक टीवी चैनल को दिया गया साक्षात्कार। एंकर के रूप में उनके सामने एक युवक व युवती ने जिस अंदाज में सवाल किए सेठजी ने भी उसी अंदाज में उत्साहित होकर जवाब दिए। मसलन, मधुमक्खियों के छत्ते शहद खाने, जोहड़ में भैंस को नहलाने, पेड़ से जोहड़ में छलांग लगाने जैसे संस्मरण सेठजी बड़े चटखारे के साथ सुनाते हैं। हंसी तो उस वक्त नहीं रुकती जब सेठजी काले कुत्तों को गुलगुले खिलाने पर इतने उत्साहित हो जाते है जब खुद को डॉगवाच की संज्ञा से यह साक्षात्कार किसी कॉमेडी फिल्म से कम नहीं लगता।


राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 28 जून 18 के अंक में प्रकाशित

गुरुद्वारों में लंगर के साथ बूटा प्रसाद!

श्रीगंगानगर. वैसे तो पर्यावरण बचाने के लिए कई स्तर पर पहल हुई हैं। कुछ सफल भी तो कुछ बीच राह में दम तोड़ गई लेकिन एक अंतरराष्ट्रीय संस्था का काम पर्यावरण प्रेमियों को अच्छा खासा प्रभावित कर रहा है। यह संस्था है इको सिक्ख ऑर्गनाइजेशन, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी काम कर रही है। इसी संस्था के प्रयासों से अब गुरुद्वारों में लंगर बरताने के साथ बूटा प्रसाद मतलब पौध वितरण का काम भी होने लगा है। श्रीगंगानगर में इस तरह का काम जल्द दिखाई देगा। इतना ही नहीं, गुरुद्वारों में स्टील के बर्तनों के उपयोग पर भी जोर दिया जाने लगा है। पर्यावरण प्रदूषण के बढ़ते खतरे को जानते हुए अब डिस्पोजल व प्लास्टिक से बनी चीजों व पॉलिथीन को अलविदा कहा जा रहा है। इस संस्था की शुरूआत एक प्रवासी भारतीय डॉ. राजवंतसिंह ने की। वर्तमान में इस संस्था की देश-विदेश में कई शाखाएं काम 
कर रही हैं।
गुरुद्वारों में पॉलीथिन बैन
इस संगठन के श्रीगंगानगर से जुड़े सदस्य जसवंत सिंह ने बताया कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के साथ ईको सिक्स ऑर्गनाइजेशन के पदाधिकारियों ने लगातार बैठकें कीं। इसका नतीजा यह निकला है कि पंजाब के अधिकतर गुरुद्वारों में पॉलिथीन बैन हो चुकी है। फिलहाल यह संस्था दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के संपर्क में है, जिसका सपना है रजिस्ट्रड गुरुद्वारों को सौलर ऊर्जा से जोडऩा। अमरीका व ब्रिेटन आदि जगह गुरुद्वारों को सौलर ऊर्जा से जोड़ा जा चुका है। संस्था ऊर्जा बचत के लिए एलईडी बल्ब लगाने पर भी जोर देती है।
पर्यावरण संरक्षण एक सूत्री ध्येय
ईको सिक्ख ऑर्गेनाइजेशन का एक सूत्री ध्येय पर्यावरण संरक्षण है। इसी के तहत रद्दी कागज से पेंसिंल बनाना ताकि पेड़ कम कटें। आर्गेनिक खेती को बढ़ावा। पेस्टीसाइडस का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करने, पॉलिथीन की जगह वैकल्पिक बैग तथा नहरों में गंदे पानी के लिए पंजाब प्रदूषण बोर्ड से लगातार बैठकें करना शामिल हैं। इस संस्था की भारत में पंजाब, दिल्ली, हरियाण, गुजरात, मुंबई व चैन्नई आदि जगह शाखाएं हैं। राजस्थान के जयपुर तथा श्रीगंगानगर में भी यह संस्था काम कर रही है। किसी के जन्म या मृत्यु पर संस्था के स्वयंसेवक संबंधित परिवार से पौधरोपण करने तथा उसकी देखभाल करने का भरोसा भी लेते हैं।
श्रीगंगानगर संस्करण में 17 जून 18 के अंक में प्रमुखता से प्रकाशित

इक बंजारा गाए-35

 विफलता का ठीकरा
दस दिन का किसानों का आंदोलन खत्म तो हो गया है, लेकिन कई तरह की चर्चाओं को जन्म दे गया। वैसे तो आंदोलन के तौर-तरीकों से भी लग रहा था कि यह बिना किसी कार्ययोजना व नेतृत्व के हो रहा है। तभी तो आंदोलन के नाम पर कहीं पर समाज कंटक भी सक्रिय हुए। आमजन को बेवजह परेशान किया गया, जबरन तलाशी तक ली गई। इतना ही नहीं अपनों को उपकृत करने के चक्कर में आंदोलन करने वालों में फूट भी पड़ी। किसी ने अपने हाथ वापस खींचे तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला। नौबत यहां तक आ गई कि बीच में ही आंदोलन की रणनीति भी बदली गई। शहर के रास्तों पर नाके लगाकर बैठे लोग गांवों में लौट गए। खैर, अब आंदोलन को लेकर टीका-टिप्पणियों का दौर चल रहा है। अक्सर ऐसा होता आया है कि बात जब बिगड़ती है तो दोषी कई हो जाते हैं।
कमाल की कार्रवाई
श्रीगंगानगर के आबकारी विभाग की तो बात ही निराली है। यह कब क्या कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता है। मतलब जहां जब विभाग की जरूरत महसूस होती है उस समय वहां तो कोई दिखाई नहीं देता। और जहां उम्मीद ही नहीं वहां कार्रवाई हो जाती है। कभी हथकढ़ के खिलाफ कार्रवाई तो कभी देसी के खिलाफ। इतना ही नहीं, अब तो आबकारी विभाग ने देसी शराब कम मूल्य पर बेचने के एक कथित हैरतअंगेज मामले को उजागर किया है। यह कार्रवाई बड़ी हास्यास्पद नजर आती है। शहर में वैसे ही देसी शराब पीने वाले कम हैं, फिर भी उसकी कम कीमत आबकारी अधिकारियों को दिखाई दे गई, लेकिन दिन-रात बेधड़क सरेआम अधिक मूल्य पर बिकने वाली अंग्रेजी शराब को लेकर आबकारी विभाग चुप्पी साधे हुए हैं। कमबख्त टारगेट के चक्कर में आबकारी विभाग के नीचे से लेकर तक के अधिकारियों ने मुंह व आंख दोनों पर ही पट्टी बांध रखी है।
तलाशी अभियान
जॉर्डन हत्याकांड के बाद हरकत में आई खाकी अब वाहनों की तलाशी से आगे बढ़ रही है। अब वह शहर के होस्टल व पीजी भी खंगाल रही है। जिस तरह से लोगों को कथित धमकियां मिल रही हैं, उससे ऐसा कदम उठाना लाजिमी भी है। पुलिस को इस तरह के अभियान चलाने ही चाहिए। हैरत की बात तो यह है कि इस तरह के अभियान नियमित नहीं चलते हैं। जब कोई बड़ा हादसा होता है, तब खाकी जरूर सक्रिय होती है। कहने की आवश्यकता नहंीं है कि शहर में कितने पीजी व होस्टल संचालित हो रहे हैं? उनमें किस तरह के लोग रहते हैं तथा उनमें किस तरह की गतिविधियां संचालित होती हैं। हैरानगी तो यह भी है कि यह खाकी से छिपा भी नहीं है। और अगर यह सब छिपा है तो फिर यह खाकी की चूक ही है। यह रोजमर्रा के काम हैं, नियमित होते तो शायद इस तरह होस्टल जाकर खाक नहीं छाननी पड़ती। पर क्या हो, क्योंकि कुआं अक्सर आग लगने पर ही खोदा जाता है।
बयानवीर नेता
नेताओं में वैसे तो कई तरह की वैरायटी होती हैं। बयान देना भी नेताओं की एक कला है। श्रीगंगानगर शहर के दो मुखिया भी बयान देने में कम नहंी हैं। मानसून सिर पर है, लेकिन पानी निकासी के कोई पुख्ता प्रबंध नहीं हैं। कल परसों की मामूली बरसात ने ही नानी याद दिला दी। अगर बरसात जोरदार हो गई तो फिर भगवान ही मालिक है। परिषद वाले नेताजी कुछ न कर पाने का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ते हैं जबकि यूआईटी वाले नेताजी सब कुछ सही बताते हैं। दोनों नेताओं की बातों का यह विरोधाभास ही अपने आप में काफी कुछ कह जाता है। पानी शहर से निकलने के रास्ते ही सही नहीं हैं तो वह गड्ढों तक पहुंचेगा कैसे? वैसे परिषद वाले नेताजी को शहर की फिक्र है भी नहीं। पिछले साल भी उन्होंने कहा था बरसात आई तो सेना को बुला लेंगे। मतलब खुद कुछ नहीं करना। बुराई का भांडा सरकार के सिर फोड़ते चलो, खुद को सेफ रखो।
दिल का दर्द
शहर में दो जनों को कथित धमकी मिलने के बाद शहर के लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल श्रीगंगानगर आए आईजी से मिलने पहुंचा, लेकिन वहां प्रतिनिधिमंडल के लोग आपस में ही उलझ गए। दरअसल, उलझने वालों के दिलों में कई दिनों से दर्द था। यह तो संयोग रहा कि सभी का आमना-सामना नहीं हुआ। धमकी के बाद पुलिस की भूमिका कैसी रही, इसको लेकर पुलिस को गरियाया जाए या उसकी पीठ थपथपाई जाए, इस पर प्रतिनिधिमंडल के लोग एकमत नहीं थे। बात इतना बढ़ी कि तनातनी तक पहुंच गई। आखिरकार पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। वैसे दिलों में खटास मुक्तिधाम में बच्चों के गायब के मामला सामने के बाद ही शुरू हो गई थी। अप्रेल में बंद के बाद के दौरान कथित टिप्पणी से खटास और बढ़ी। आग में घी का काम सोशल मीडिया पर वायरल की जाने वाली पोस्टों ने किया। आखिरकार दर्द कभी तो हकीकत के धरातल पर बाहर भी आना ही था, सो आ गया।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 14 जून 18 को प्रकाशित

स्तर सुधरे तो बात बने

बस यूं ही
दृश्य नंबर एक
पिछले साल अगस्त में गांव गया था। इस दौरान गांव के राजकीय बालिका उमा विद्यालय में स्वाधीनता दिवस समारोह देखने चला गया। समारोह के दौरान गांव के लोगों ने प्रतिभावान छात्राओं को दिल खोलकर प्रोत्साहन राशि दी। कई घोषणा भी हुई हैं। बताया गया कि स्कूल में आसपास की ढाणियों से छात्राओं को एक गाड़ी के माध्यम से लाया जाता है जो निशुल्क है। गाड़ी का खर्चा ग्रामीण ही उठाते हैं। समारोह में मुझे भी संबोधित करने के लिए आग्रह किया तो मैंने सुझाव दिया कि सिर्फ छात्राएं ही नहीं बल्कि उन अध्यापकों को भी पुरस्कार दिया जाए जिनका परिणाम शत-प्रतिशत रहता है। इससे पढ़ाई का स्तर सुधरेगा। हालांकि स्कूल प्राचार्य मेरी बात से सहमत नजर नहीं आए और उन्होंने अपने संबोधन में कहा भी कि अध्यापकों को सम्मान की क्या जरूरत है।
दृश्य दो
इसी साल अप्रेल के आखिर में फिर गांव गया तो एक अध्यापक व एक मैडम को बच्चों वाले घरों में दस्तक देते देखा। वे दोनों अभिभावकों को समझा रहे थे कि आप प्राइवेट के ही पीछे क्यों पड़े हैं। बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजो। वहां हम मेहनत करते हैं। आप अपने बच्चों को चैक करते रहो। हमारी मेहनत में कोई कमी दिखाई दे तो अभिभावक मीटिंग में आकर अपनी बात रखो। हम सुधार करेंगे। हम दावा करते हैं कि अच्छा परिणाम देंगे। दरअसल, यह सारी कवायद स्कूल में नामांकन बढ़ाने को लेकर थी। मैं इस समूचे वाकये का साक्षी रहा। मैंने भी सरकारी स्कूल का समर्थन करते हुए एक तरह से उनका सहयोग किया लेकिन एक सुझाव भी दिया कि सारे अध्यापक भी अगर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने लग जाएं तो माहौल व मानसिकता में बदलाव आएगा।
दृश्य तीन
अभी कल परसों राजस्थान बोर्ड दसवीं का परीक्षा परिणाम आया है। अधिकतर निजी स्कूलों में अव्वल आने वाले विद्यार्थियों का सम्मान हो रहा है। दरअसल, यह प्रचार ही अभिभावकों को बताएगा कि कौनसे स्कूल का परिणाम कैसा रहा है। इसी सम्मान के बीच झुंझुनूं के शहीद जेपी जानू राउमा विद्यालय के एक छात्र को पचास हजार रुपए नकद पुरस्कार देने की जानकारी मिली है। यह राशि विद्यालय स्टाफ ने दी है। स्टाफ ने घोषणा की थी कि जिस बच्चे के 90 प्रतिशत से ऊपर आएंगे उसको पचास हजार तथा 95 प्रतिशत से अधिक अंक आए तो एक लाख रुपए का नकद इनाम दिया जाएगा। संयोग देखिए एक छात्र ने उपलब्धि हासिल की और विद्यालय स्टाफ ने कलक्टर के हाथों से राशि छात्र को दिलवाकर उसका सम्मान करवाया।
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उक्त तीनों दृश्यों में कई तरह की समानताएं भी हैं और विरोधाभास भी हैं। और तीनों में एक-एक मैसेज भी छिपा है। पहले दृश्य में मैसेज है अध्यापकों को सम्मानित करने का। इससे कौन सा अध्यापक कितनी मेहनत कर रहा है? पता चलेगा। अध्यापकों के बीच प्रतिस्पर्धा भी होगी। साथ ही एेसा करने से कमजोर कड़ी का पता लगेगा और उसका समाधान भी होगा। दूसरे दृश्य का मैसेज है सरकारी अध्यापक अपने बच्चों को भी सरकारी स्कूल में पढाएं तो उनको अपनी बात रखने में आसानी होगी। वो अभिभावाकों के सामने खुद का उदाहरण रखेंगे तो निसंदेह अभिभावकों की मानसिकता में बदलाव आएगा। तीसरे दृश्य में मैसेज यह है कि अध्यापक सिर्फ अभिभावकों के भरोसे नहीं रहें। वो खुद भी बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए इनाम आदि कुछ दें ताकि माहौल प्रेरणादायी बने और बच्चों में पढ़ाई के प्रति और अधिक ललक पैदा हो।
दूसरी बात यह है कि सिर्फ आर्थिक प्रोत्साहन ही नहीं बच्चों के सर्वांगीण विकास के प्रयास होने चाहिए। व्यवस्थाओं व सुविधाओं के मामले में भले ही सरकारी स्कूल निजी स्कूलों का मुकाबला नहीं कर पाए लेकिन वो पढ़ाई का स्तर तो सुधार ही सकते हैं। मान भी लिया जाए सुविधाओं व व्यवस्थाओं के मामले में सरकारी स्कूल निजी स्कूलों के समकक्ष नहीं हैं। वो उनके आगे पीछे कहीं नहीं टिकते है लेकिन बात सरकारी व निजी स्कूलों के अध्यापकों को मिलने वाले वेतन की जाए तो निजी स्कूल के अध्यापक आसपास ही नहीं ठहरते। खैर, यह लंबी बहस का विषय है लेकिन सोचने पर मजबूर करता है। अभिभावक कैसा भी हो। आर्थिक रूप से संपन्न हो, औसत हो या निम्न तबके का। अधिकतर अभिभावकों की पहली पसंद स्कूल के पढाई के स्तर पर रहती है। सुविधाओं व व्यवस्थाओं को वह बाद में देखता है उसका पहला ध्यान वहां के शैक्षणिक माहौल पर रहता है। हालांकि कई सरकारी स्कूलों में वाहन, भोजन, स्कूल गणवेश, पाठयपुस्तकें आदि का खर्च भी ग्रामीण उठाते हैं। फिर भी स्कूल में पढ़ाई का स्तर सुधारने का जिम्मा तो अध्यापका का ही है। वो पढ़ाई का स्तर सुधारेंगे तो निसंदेह नामांकन के लिए उनको घर-घर जाने की आवश्यकता नहीं होगी। विद्यार्थी व उनके अभिभावक खुद ब खुद चलकर स्कूल आएंगे।

संगीत, शायरी और सरहद-2

और गांव का वृतांत तो बेहद संवेदनाओं से भरा है। लूणा जाते समय हसन साहब रास्ते में एक टीले पर रेत में पलटी खाने लगे और रोने लगे। मानों अपनी मां से बिछुड़ा लाल मुद्दतों बाद मिला हो। बाद में वो सामान्य हुए और बताया कि इस जगह बैठकर वो कभी भजन गया करते थे। इसके बाद हसन साहब एक बार और आए। उन्होंने गांव में बनी दादा इमाम खान व मां अकमजन की मजार की मरम्मत करवाई थी। उनकी सादगी का एक किस्सा कल परसों ही पता लगा। साथी पत्रकार रमेश जी सर्राफ के एफबी पर झुंझुनूं के जनाब ख्वाजा आरिफ ने एक फोटो पोस्ट करते हुए लिखा कि वो इतने सादगी पसंद थे कि हमारे कहने पर फोटो स्टूडियो आ गए और हमारे साथ फोटो खिंचवाई। बीमारी के चलते हसन ने गायकी काफी पहले छोड़ दी थी। बीच बीच में उनके स्वास्थ्य में गिरावट की खबरें आती रही। जब जब भी सरहद के उस पार से उनकी तबीयत नासाज होने की खबरें आती तब तब सरहद के इस पार वाले उनके कद्रदान भी चिंतित हो उठते। हसन साहब के स्वास्थ्य की सलामती के लिए न जाने कितनी ही प्रार्थनाएं और दुआएं की गईं। उनके गिरते स्वास्थ्य को लेकर लूणा क्या सोचता है, वहां किसी को चिंता है या नहीं है, यह सब देखने और जानने 2010 में एक बार मैं भी लूणा गया था। लूणा में दो उपेक्षित मजारों के अलावा हसन साहब का कुछ नहंी है। न घर, न खेत। हां एक बुजुर्ग मिले थे, जिनको ग्रामीणों ने हसन साहब के बचपन का साथी बताया लेकिन उम्र के इस पड़ाव में उनकी याददाश्त भी जवाब दे चुकी थी। उनको कुछ याद न था। मैं इस बीच छत्तीसगढ़ चला गया तो 2011 में एक बार फिर स्वास्थ्य खराब होने की खबर आई। फिर वही दुआओं व प्रार्थनाओं का दौर। खैर, 2012 में 13 जून को हसन साहब इस जहां से रुखसत हो गए। शाम को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ कार्यालय से जयपुर फोन लगाकर अपनी भावनाओं से अवगत कराया कि हसन साहब पर कुछ लिखना चाहता हूं। जवाब मिला आप बहुत लेट हैं। यह काम दिन में हो जाना चाहिए भी। फिर भी आपने जो लिखा है वह भेजिए। मैंने हसन साहब के बारे में आलेख लिखा और जयपुर कार्यालय को मेल कर दिया। रात को जब हसन साहब पर पेज बनकर आया तो उस पर मेरा भी लेख लगा था लेकिन काफी संपादित होकर बिना नाम के। इस पूरे लेख को मैंने अपने ब्लॉग बातूनी
(https://khabarnavish.blogspot.com/2012_06_14_archive.html ) पर भी लगाया। इसका शीर्षक था मोहब्बत करने वाले कम न होंगे...आज हसन साहब की पुण्यतिथि है, उनकी मखमली आवाज गजल-गीतों के गुणग्राहकों के लिए अनमोल थाती है, जो हमेशा हमेशा जिंदा रहेगी।

संगीत, शायरी और सरहद-1

पुण्यतिथि पर विशेष
'आंखों का वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आंखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं, मिलने मेहदी हसन से..। ' प्रसिद्ध गीतकार गुलजार की यह रचना बताती है कि सपनों की कोई सरहद नहीं होती। कुछ इसी तरह के ख्यालात सरहद के उस पार रहने वाले गजल गायक मेहदी हसन के थे। किसी पत्रकार के सवाल के जवाब में उन्होंने एक बार कहा था 'संगीत और शायरी किसी सरहद को नहीं जानतीं। मेरी गज़़लों पर जितना हक़ पाकिस्तान का है, उतना ही हिंदुस्तान का भी है। हिंदुस्तान ने भी मुझे कम प्यार नहीं दिया।' सरहद, शायरी व सपनों की बात इसीलिए क्योंकि 13 जून 2012 को खनकती आवाज का यह फनकार इस दुनिया से रुखसत हो गया था। उनकी पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में उनकी गाई एक गजल मौजूं है। सरहद से इस पार व उस पार उनको मोहब्बत करने वाले लाखों हैं लेकिन हसन साहब के बिना महफिल सूनी हैं। रुमानी आवाज के इस जादूगर को इस दुनिया से विदा हुए छह साल हो गए लेकिन उनकी आवाज गीतों व गजलों में सदा-सदा के लिए अमर है। हिन्दुस्तान में हसन को याद करने की वजह सिर्फ इसीलिए नहीं है वो मकबूल गजल गायक थे, बल्कि इसीलिए भी है कि हसन साहब का जन्म हिन्दुस्तान की सरजमीं पर हुआ था। राजस्थान के झुंझुनूं जिले के छोटे से गांव लूणा में 18 जुलाई 1927 को जन्मे थे मेहदी हसन। हसन के पिता अजीम खान मंडावा ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे, इसीलिए हसन को गीत-संगीत एक तरह से विरासत में मिला था। भारत पाक विभाजन के दौरान हसन पाकिस्तान चले गए तब उनकी उम्र 20 साल थी। भले ही वो पाकिस्तान गए लेकिन हिन्दुस्तान की यादें जिंदगी भर उनके साथ रही हैं। पाकिस्तान जाने के बाद 1978 में वो पहली बार जयपुर में गजल के एक कार्यकम में आए थे। तब उन्होंने जन्मभूमि जाने की इच्छा जताई। तब लूणा तक पक्की सड़क बनी थी। हसन झुंझनूं के डाक बंगले में ठहरे थे।

बेचारा एडमिन

बस यूं ही
शादी में बाराती पता नहीं कब भन्ना जाएं। उनका दिमाग कब गरम हो जाए कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। वैसे कहा भी गया है कि बारात में गया शख्स खुद को राजा-महाराजा से कम नहीं समझता। घर पर भले ही चूहे कुलांचें मारें लेकिन बारात में उसके जलवे तौबा रे तौबा। दिमाग के घोड़े दौड़ाएं तो हो सकता है आप भी कभी इस तरह के अनुभव से गुजरे हों। लड़की का बाप हो या वधु पक्ष के लोग, बेचारे हाथ जोड़े मान-मनुहार करते दिखाई देते हैं। इतना कुछ होने के बाद भी बारातियों के नखरे कम होने का नाम लेते। यह करो, वो करो। यह क्यों नहीं, वो क्यों नहीं फलां-फलां। खैर, लड़की का बाप या वधु पक्ष के लोग सबको संतुष्ट करने के चक्कर में याचक की भूमिका निभाते हैं। कहीं-कहीं पर मामला उलट हो जाता है और बात छित्तर परेड तक चली जाती है लेकिन अक्सर बेटी का बाप लाचार व मजबूर की भूमिका में ही दिखाई देता है। गोया उसने बेटी पैदा कर कोई गुनाह कर दिया हो। सिर पर किसी का लाखो टन एहसान ले लिया हो।
लड़की के बाप का जिक्र इसीलिए किया क्योंकि कुछ इसी तरह की भूमिका आजकल सोशल मीडिया पर ग्रुप बनाने वाले एडिमन की होती है। इन ग्रुपों की कहानी भी बड़ी रोचक है। इससे भी कहीं चुनौतीपूर्ण काम है ग्रुप में जोड़े गए सदस्यों को एकजुट रखना तथा उनको ग्रुप में बनाए रखना है। कोई खबरों का ग्रुप तो कोई दोस्तों का ग्रुप। कोई लेखकों का ग्रुप तो कोई चिकित्सकों का ग्रुप। कोई बुद्धिमानों का ग्रुप तो कोई नेताओं का ग्रुप। इसी तर्ज पर आजकल साहित्यकारों के ग्रुप भी बनने लगे हैं। खैर, ग्रुप कितने भी हो लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि साहित्यकारों के ग्रुप का एडमिन होना एक तरह से कांटों भरा ताज पहनना ही होता है। जितने संकट और चुनौती इस ग्रुप में आते हैं, शायद ही किसी दूसरे में आते होंगे। कहा भी गया है कि जिस तरह तराजू में मेंढकों को तौलना आसान नहीं होता, उसी प्रकार बुद्धिमानों को भी एक मंच पर लंबे समय तक साथ नहीं रखा जा सकता है। और बात जब साहित्यकारों की हो तो मामला और भी पेचीदा हो जाता है। अहम और वहम मानव स्वभाव हैं लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसका बोलबाला कुछ ज्यादा ही होता है। वैसे साहित्यकार स्वभाव से भावुक होता है, लिहाजा दिल पर जल्दी ले लेता है। साहित्यकार/ कवि को ज्ञानी, मानी, अभिमानी और स्वाभिमानी भी कह दिया जाता है। इस तरह के लोगों को एक मंच पर एकजुट रखना कोई दिलेरी व हिम्मत वाला ही काम होता है। हां, दिलेरी व धैर्य की परीक्षा तब शुरू होती हैं जब सब अलग-अलग सुरो में अपनी-अपनी ढपली बजाने लगते हैं। सच में इस तरह के अनियंत्रित झुंड को कंट्रोल करना व उनको शांत करना किसी जंग जीतने से कम नहीं होता। किसी बात या विषय पर मतैक्य होने पर एडमिन की भूमिका बिलकुल लड़की के बाप की तरह होती है। बिलकुल सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे की तर्ज पर। मतलब सब कुछ शांति से निबट जाए ताकि कोई किन्तु परन्तु भी न हो। बड़ा टेढा काम है जी ग्रुप चलाना...इसलिए साहित्यकारों के ग्रुप बनाने व उनका संचालन करने वालों को मेरा लाखों सलाम।

पुरुष का मायका

बस यूं ही
'महिला की वास्तविक खुशी पति या ससुराल नहीं बल्कि मायका होता है।' करीब दर्जन भर शब्दों का यह वाक्य तीन दिन पहले मैंने अपने एफबी बॉल पर लगाया था। पिछले दो दिन से यह एक वाक्य बहस का विषय बना हुआ है। किसी ने मेरी बात के समर्थन में तो किसी ने इससे इतर अपनी बात रखी। एक दो ऐसे भी जो जिन्होंने इसको मजाक का हिस्सा भर ही माना। खैर, बहस गंभीर होती दिखाई दी तो मुझे बीच में हस्तक्षेप कर यह कहना भी पड़ा कि 'एक सहज और सामान्य बात को व्यक्ति विशेष से ना जोड़ा जाए......। दूसरी बात अपवाद कभी बहस के दायरे में नहीं आता..तीसरी बात...मायके की खुशी से तात्पर्य है जब तक मां बाप जिंदा रहते हैं तब खुशी ज्यादा होती है।' दरअसल, मैंने यह सब क्यों लिखा? कैसे लिखा? किसलिए लिखा? यह सब राज रह भी नहीं पाया है क्योंकि श्रीमती ने अपने पिताश्री के साथ बिलकुल डेढ़ इंच मुस्कान वाली फोटो कमेंट में पोस्ट करके यह जाहिर भी कर दिया। वैसे सच्चाई यही है कि यह विचार मेरे मन डेढ इंच वाली फोटो देखकर ही आया था। खैर, कमेंट आने का सिलसिला जारी है। लेकिेन मेरी बात का समर्थन करने वालों की सूची लंबी देख आखिरकार श्रीमती का धैर्य जवाब दे गया हालांकि उसने शुरू में इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था। अंतत: उसको कहना पड़ा कि 'और पुरुष जो पूरे साल मायके (यानी के अपनी माँ के पास) में रहते हैं फिर भी मन तृप्त नहीं होता उनका और उनके माता पिता का..... महिलाओं की चार दिन की खुशी पर बयानबाज़ी ठीक नहीं होती।' हालांकि श्रीमती के जवाब के प्रत्युत्तर में मैंने अपना पक्ष लिखा 'मैंने पहले ही कहा था अपवाद बहस में शामिल नहीं है.....सभी ने हमारी धर्मपत्नी के मायके जाने की बात को इससे जोड़ दिया....और हमारी श्रीमती ने भी....जबकि यह सामान्य या कॉमन बात कही है मैंने।' खैर, हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद जीवन का हिस्सा है लेकिन इस मजाक व एक तरह से चुहलबाजी वाली पोस्ट में एक नया शब्द मिला। और वह शब्द है 'पुरुष का मायका।' जैसे पुरुष का ससुराल अर्थात पत्नी का मायका की तर्ज पर पत्नी का ससुराल मतलब पति का मायका। इस शब्द ने मुझे क्लिक किया। सोचा इस शब्द की कुछ खोज खबर ली जाए। गूगल बाबा से भी सर्च कर लिया लेकिन यह पुरुष का मायका कहीं पर भी नहीं मिला। आखिरकार मोटा मोटा यही समझा कि पत्नी का ससुराल ही पति का मायका होता है। दिक्कत यहां भी खड़ी हो गई। चलों मैं तो माता-पिता के साथ ही रहता हूं, इसलिए जहां सास-ससुर वहीं ससुराल। श्रीमती ने कोष्ठक में लिखकर कि 'यानि की अपनी मां के पास' कह कर स्पष्ट भी कर दिया। फिर भी इस नाम से कुछ सवाल तो जेहन में कौंधै। मसलन. सास-ससुर गांव में हो और पति-पत्नी शहर में हो तो फिर पुरुष का मायका कौनसा हुआ। या फिर पत्नी सास-ससुर के पास हो और पति अकेला कमाए तो पुरुष का मायका कहां हुआ। इतना ही नहीं अगर पति-पत्नी दोनों कमाते हों और अलग अलग रहते हों तो फिर किसका मायका कहां और ससुराल कहां। यह सवाल मेरे मन को मथ रहे हैं। कहीं आपको इस पुरुष वाले मायके का जवाब मिले तो बताइएगा जरूर।

दोहे-4


1.
पथराई आंखें, रही पथ निहार
उम्र बीत चली, कर कर इंतजार
2.
ओलूं आवै औलाद की
मैं जोऊं बां री बाट
आंख्या मं दिन कटै
इंतजार मं रात...
3.
वैधव्य, बुढापा व इंतजार
बने जीवन के हैं आधार
4.
याद सतावै, घणी रुवावै
कुण बंधावै धीर
बाट देखतां बूड्ढी होगी
बोझ बण्यो शरीर
5.
पर्वत सा इंतजार
लबों पर आहें
उम्मीद में आंखें
तक रही है राहें
6.
देहरी ऊपर बैठ डोकरी
कर री सोच बिचार
बाट देखतां उम्र बीतगी
मिलसी कद अधिकार
7.
अंतिम घड़ी अब आयगी
लेबा आसी राम
यादां मं कटी जिंदगी
करयो न कदै आराम
8.
भले बुढापा आ गया
फिर भी है विश्वास
सुध लेने वो आएगा
जो है मेरा खास
9.
चलती रही तू सदा
किया न कभी आराम
अब बुढापा आ गया
सूझे न कोई काम
10.
माथै हाथ लगा डोकरी
घणी रही पछताय
कुण सुणैगो दर्द सांवरा
बात समझ ना आय

बोली मीठी बोल


बड़े बड़ाई ना करें
बड़े ना पीटें ढोल
दो दिन की है जिंदगी
बोली मीठी बोल....
.........................
जीवन है अनमोल
बोली मीठी बोल
जीवन रस घोल
बोली मीठी बोल
मत पीट ढोल
बोली मीठी बोल
उड़ रहा मखौल
बोली मीठी बोल
जग है डांवाडोल
बोली मीठी बोल
गांठें सारी खोल
बोली मीठी बोल
व्यर्थ ना डोल
बोली मीठी बोल
बजते हैं रमझोळ
बोली मीठी बोल
तोल मोलके बोल
बोली मीठी बोल

दोहे-3


1..
गरमी फोडा घाले
पोळी में है खाट
बिजळी तो बेवफा
बादळ थारी बाट
2.
बिन बरखा बिन बादळी
क्यां रा दिन और रात
सुबह शाम हूं जोवतो
ओ बादळ थारी बाट
3.
छोड़ गए सब संगी साथी
कहां रहे अब वो ठाट
तू साथीड़ो जन्मा को
जोऊं बादळ थारी बाट
4.
बादळ थारी बाट जोवतां
आंखड़ली पथराई है।
भाव मना तू खा बावळा
जान कठां मं आई है।
5.
बिजली चमकै जोर की
खूब करै गरडा़ट
प्यासी मरुधर देखती
बादळ थारी बाट
6.
प्रीत करी बादळ सूं
बादळ सूं ही ठाट
मिलन रै बहाने देखूं
बादळ थारी बाट
7.
प्रीत म्हारी बादळी
बिजळी रो साथ
हेत निभाणै र मिस
बादळ थारी बाट
8.
कित बरसेगा रामजी
कित करेगा ठाट
नजरां रोज ई देखती
बादळ थारी बाट

इक बंजारा गाए-34


अपनों की खातिर
अपनों की खातिर आदमी क्या-क्या नहीं करता। यह अलग बात है कि कभी अपने बेगाने भी निकल जाते हैं। फिर भी अपनों को उपकृत करने का सिलसिला चलता ही रहता है। ताजा मामला किसानों के गांव बंद आंदोलन का है। आंदोलन के चलते इस बार इतनी चाक चौबंद व्यवस्था की गई कि शहरवासी दूध व सब्जी तक को तरस गए। मतलब किसान शहर में अपनी कोई चीज लेकर नहीं आए। अब दबे स्वर में चर्चा है कि जिन किसानों के चना व सरसों के टोकन मंडी में बेचान के लिए कटे हुए थे, उनको मंडी आने से रोका नहीं गया। उन्होंने बंद के चलते रुकना मुनासिब भी नहीं समझा। लोगों के समझ नहीं आ रहा है बंद में चने व सरसों का बेचान कैसे हो गया। या बेचने वाले किसान नहीं थे।
फूट की वजह
लड़ाई हो या आंदोलन हमेशा एकजुटता से लडऩे पर ही परिणाम सामने आते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ जहां आड़े आ जाता है वहां एकजुटता को खतरा पैदा हो जाता है। किसान आंदोलन को वैसे तो विभिन्न संगठनों ने समर्थन दिया। एक दो दिन तो मामला ठीक भी रहा लेकिन इसके बाद हित टकराने लगे। ऐसा होने के कारण अंदरखाने आक्रोश भी पनपने लगा। आखिरकार आंदोलन में दरार मतलब फूट पड़ गई। हित यह था कि आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने अपने चहेतों के ट्रकों को निकलने दिया। यह बात आंदोलन में शामिल अन्य लोगों को जमी नहीं, लिहाजा उन्होंने भेदभाव का आरोप लगाते हुए खुद को आंदोलन से अलग कर लिया। उन्होंने नाकों पर बैठे अपने आदमी भी हटा लिए।
वादा तेरा वादा
किसान आंदोलन के दौरान एक गाड़ी से दूध पैकेट वितरण करने के मामले में शहर के एक नेताजी का नाम सामने आ रहा है। वैसे तो नेताजी मना कर जाते लेकिन दूध की दुकान वाले ने बकायदा वीडियो बना लिया और पुलिस को सौंप दिया। पुलिस ने दूध वाले को मुकदमा दर्ज करवाने की बजाय जो नुकसान हुआ उसके बदले में पैसे लेने की सलाह दी। नेताजी को भी सलाह अच्छी लगी और उन्होंने मुकदमे से बचने के लिए पैसे देने का वादा कर लिया। मामला आंदोलन के पहले ही दिन का है लेकिन अभी तक नेताजी ने पैसा दिया नहीं है। दूध विक्रेता नेताजी के वादे पर फिलहाल तो भरोसा किए हुए है लेकिन बात बनेगी इसकी उम्मीद उसको भी कम है। फिलहाल वह पुलिस की सलाह को कोस रहा है।
मतलब के यार
गांव बंद आंदोलन का विभिन्न किसान संगठनों व राजनीतिक दलों ने समर्थन कर रखा है। इसके बावजूद भाजपा से जुड़े किसान संगठनों से आंदोलनकारी संगठनों ने किनारा कर लिया। न तो समर्थन मांगा और न ही उन्होंने दिया। इन सबके बावजूद एक राजनीतिक दल जो कि आंदोलन में शामिल नहीं है, उसकेअनुशांगिक संगठन के अध्यक्ष के पिता जरूर आंदोलन के समर्थन में मैदान में कूद पड़े। आंदोलन के दौरान नोकझोंक हुई तो मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया। मामला तक दर्ज हो गया। अब संबंधित पक्ष निंदा कर रहा है लेकिन समर्थन लेने वाले अब खामोश हैं। और तो और कल की जो बैठक थी, उसमें भी आंदोलनकारियों ने पहले अलग से मंत्रणा की और बाद में सबके सामने आए।
प्रचार का तरीका
कहते हैं, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मुसीबत या जरूरत पडऩे पर आदमी कोई रास्ता खोज ही लेता है। अगर वह रास्ता खुद की मर्जी का हो तो फिर कहना ही क्या। विधायक बनने का सपने देखने वाले शहर के एक नेताजी का हाल भी इन दिनों कुछ ऐसा ही है। प्रचार प्रसार के लिए खुद ही जी जान से जुटे हैं। सरकार की योजना हो या फिर किसी का जन्म दिन उसके साथ अपनी फोटो लगाकर सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं। शायद नेताजी को दूसरों पर भरोसा नहीं है या फिर खुद के मरे स्वर्ग नहीं मिलता वाले जुमले में विश्वास ज्यादा है, लिहाजा खुद ही लगे हैं। हां फोटो को सजाने व संवारने का काम यकीनन कोई दूसरा रहा है। देखते हैं प्रचार का यह तरीका कितना कारगर रहता है।
आए दिन नाकाबंदी
हिस्ट्रीशीटर की सरेआम हत्या के बाद शहर की खाकी इन दिनों कुछ ज्यादा ही सक्रिय है। दो व्यवसायियों को वसूली की कथित धमकी के बाद तो शहर का नजारा ही बदल गया है। शाम होते-होते छोटे से लेकर बड़े स्तर तक के अधिकारी वाहनों की जांच पड़ताल करने में जुट जाते हैं। अब खाकी को कौन समझाए कि अपराध करने वाला इतनी सघन नाकाबंदी के बीच क्या करने आएगा? और यह भी जरूरी है कि नहीं कि अपराधी गाड़ी में ही आए। वह दुपहिया पर भी हो सकता है और पैदल भी। खैर, यह तो कल्पनाओं के घोड़े हैं। बहरहाल, हत्या के पखवाड़े भर बाद भी खाकी के हाथ खाली हैं। लगता नहीं है अपराधी इस तरह की नाकाबंदी में फंसेगा, फिर भी यह नाकाबंदी चर्चा में बने रहने का जरिया तो है ही।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण मे सात जून 18; को प्रकाशित 

दोहे -2

1.
रिश्तो जगत में प्रेम को
ओ ही रिश्तों खास
उम्मीदा री आंधी मं
अब थारी ही आस
2.
अब थारी ही आस मंनै,
और थारों ही है विश्वास
सगळा साथी छोड़ गया
जो सब था म्हारा खास
3.
मैं पुज़ारी राम रो
राम ही म्हारो खास
राज रुठग्यो सांवरा
अब थारी ही आस
4.
सांच कहूं सांच लिखूं
सदा सांच रो देऊं साथ
झूठ परीक्षा लेवे सांवरा
अब थारी ही आस
5.
कदमां सूं धरती नापूं
निजरां सूं आकाश
सुपनों सांचो ना हुवै
अब थारी ही आस
6.
धरा तपै, धूळ उडे़
सूनो सूनो आकाश
बादल बरसा सांवरा
अब थारी ही आस
7.
काग उडावै गोरडी
पिव बिन हुई उदास
पीड़ा मेरी हर सांवरा
अब थारी ही आस
8.
साजन म्हारो सायबो
साजन ही उजास
औळू आवै पीवजी
कद आवण की आस
9.

  लूवां चालै जुलम करै है ,
तावड़ियो तड़पावै है ।
बेगो बरस सांवरा अब तो ,
जीव घणों दुख पावै है ।। 

अम्मा

हुई कृशकाय बुजुर्ग फिर भी
कितना लाड लडाती अम्मा
रही याद न अतीत की बातें
नाम मेरा ना भूली अम्मा
मेरा हाल रोज ही पूछती
अपना कुछ न बताती अम्मा
मुझे हंसाने को वो हंसती
अपना दर्द छिपाती अम्मा
मिलता है जन्नत सा सुख यारो
सिर पर हाथ जब फेरती अम्मा......

दोहे -1

इन दिनों एक साहित्यिक व्हाहटस एप ग्रुप से जुड़ा हुआ हूं। वहां रोज एक विषय पर अपनी रचना लिखनी होती है भले ही वह दोहा हो, छंद हो, सोरठा हो या फिर कविता...। वैसे अधिकतर रचनाएं राजस्थानी में.ही लिखी जाती हैं। कल का विषय था, रूंख आपणा राम है। इतना सोचने का रोज तो वक्त नहीं.मिलता लेकिन कल मैंने भी तुकबंदी कर कुछ राजस्थानी तो कुछ हरियाणवी में दोहे लिखने का प्रयास किया। आप भी देखें.....
1.
रूंखा री थे करो रुखाली
लागै न कोई दाम...
ठंडी ठंडी छांया आं की
रूंख आपणा राम.....
2.
रूंख आपणा राम है
रूंख ही सांचा मीत
रूंखा सूं ही जीवन है
रूंखा सूं ही संगीत
3.
रूंखा रो मैं भायलो
राखूं रूखां सूं प्रीत
रूंख आपणो राम है
रूख ई म्हारो गीत
4.
रूंख लगाऊं धन्य हो जाऊं
पुण्य कमाऊं चार धाम रो
रूंख आपणो राम सदा सूं
सबनै सहारो इण नाम रो
5.
आओ साथ्यो रूंख लगावां
रूंख आपणो राम है
दो बर नही मिले जिंदगानी
रूंख ही चारों धाम है...
6.
मिलकै पेड़.लगा लो भाई
सब तै बड़ा ओ काम सै
शीतल छाया दे ठंडी हवा
रूंख ही आपणा राम सै
7.
तेरा कै घट ज्यागा बंदे
क्यूं तू जग मं आया
रूंख आपणा राम सै यारा
क्यूं मोहमाया मं भरमाया
8.
कै बिगड़ैगा माणस तेरा
किमीं पुण्य तू भी कमा ले
रूंख आपणा राम सै भाई
बात या तू मन मं रमा ले

Saturday, June 2, 2018

आ बैल मुझे मार

बस यूं ही
मौजूदा समय में राजनीति पर कुछ लिखना एक तरह से आफत मोल लेने के समान ही है। बिलकुल आ बैल मुझे मार टाइप। फिर भी मैं लिखने से बाज नहीं आता। लेखन मेरा पेशा है और शगल भी। और विषय जब मेरा पसंदीदा हो तो लिखना बनता भी है। जी हां राजनीति मेरा पंसदीदा क्षेत्र है। छात्र जीवन में अध्ययन के दौरान विषय भी रहा है। वैसे राजनीति में रुचि में बचपन से ही रखने लगा था। इसकी बड़ी वजह घर में शुरू से ही शैक्षणिक वातावरण मिलना भी रहा। घर में प्रतियोगी परीक्षाओं की पत्र पत्रिकाओं के साथ-साथ सममामयिक विषयों की न जाने कितने की किताबें व मैगजीन भाईसाहब खरीद कर लाते। यह क्रम नियमित था। छोटा था तब मैगजीन के चित्र ही देखता था लेकिन धीरे-धीरे समझ विकसित हुई तो पढऩे की आदत भी हो गई। गांव के स्कूल की छोटी सी लाइब्रेरी में तब जितनी भी पुस्तकें थी वह लगभग सारी मैंने पढ़ी। इंडिया टुडे का पहला अंक जब घर में आया तब मैं आठ साल का था। हल्का सा याद है पहले अंक के कवर पेज पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का फोटो लगा था। इसके बाद आउटलुक मैगजीन भी आने लगी है। मैगजीन का सिलसिला पिछले कुछ समय से थमा है वरना लगातार जारी ही था। सफर या फुरसत के दौरान तो अब भी प्राथमिकताओं मंे यह मैगजीन ही शामिल है। खैर इंडिया टुडे के जितने भी अंक घर में आए वो आज भी सुरक्षित रखे हैं। 1984 से 2005 तक के तो लगभग सारे अंक। भले ही कोई माने या न माने लेकिन इन पत्र पत्रिकाओं में सर्वाधिक रूचिकर व चटखारे की खबरें राजनीति से संबंधित ही होती हैं। खैर अब स्वयं पत्रकारिता में हूं तो राजनीतिक समझ और परिपक्व होनी ही थी। खैर, इन दिनों परिदृश्य बहुत विकट बना है। विशेषकर सोशल मीडिया पर तो पत्रकारों के समक्ष सब के सब दुनाली ताने रखते हैं। एकदम पूर्वाग्रह से भरे हुए। कर्नाटक चुनाव व अब उपचुनाव पर जब मैंने प्रतिक्रियारूवरूप अपने फेसबुक पेज (जो कि मेरा व्यक्तिगत है आधिकारिक या ऑफिशियल नहीं है) पर कुछ लिखा तो पता नहीं क्या क्या उपमाएं दे दी गई। किसी ने लंपटगिरी कहा तो किसी ने कांग्रेसी होने का ठपा लगा दिया। किसी ने पत्रकारिता से संबंधित सवाल पूछा तो किसी ने पत्रकारिता पर ही सवाल उठा दिया। इतना ही नहीं पत्रकारिता की एबीसी या ककहरा तक न जानने वाले भी पत्रकारिता धर्म निभाने की सलाह देते नजर आए। इन तमाम परिस्थितियों को एक तरफ रखकर भी बात करें तो पत्रकारिता पेशा एक दोधारी तलवार है। वह किसी सतारूढ दल के पक्ष में कभी कोई बात करता है या लिखता है तो विपक्षी लोग उसको चाटुकार, चम्मचा, प्रवक्ता, पीआरओ जैसे नामों से पुकारते हैं। अगर सरकार की जन विरोधियों नीतियों की आलोचना करें, विसंगतियों को उजागर करे तो उस पर सरकार विरोधी होने का ठपा लगा दिया जाता है। स्वतंत्रता सेनानी व पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी कहा करते थे, पत्रकार को हमेशा सत्ता के प्रतिपक्ष में होना चाहिए। विद्यार्थी जी के कहने का यह मतलब नहीं है कि पत्रकार विकल्प बने या विपक्ष की भूमिका निभाए। बस भूल यहीं से शुरू हो जाती है। कमजोर विपक्ष अक्सर मुखर पत्रकारों पर निर्भर हो जाता है। पत्रकार का काम है हर काम को शंका के दृष्टिकोण से देखना उसको क्रॉस चैक करवाकर सही करवाना। खैर, इस तरह के बातें भी मौजूदा दौर में गौण सी हो गई हैं। अब तो एक सूत्री एजेंडा यही है कि हां में हां मिलाते चलो। और जिसने हां में हां न मिलाने की हिमाकत की उसको इस फिर कई तरह के उपनाम मिलने लगते हैं। एक और बड़ी गलफहमी जो मौजूदा दौर में कमोबेश हर दूसरा या तीसरा आदमी पाल बैठा है वह यह कि पत्रकार अगर सत्तारुढ दल की नीतियों की आलोचना करता है तो वह विपक्षी दल का एजेंट मान लिया जाता है। उसको जबरन विपक्षी दल का आदमी करार दे दिया जाता है। यह भूलते हुए कि अरे भाई सत्ता वाले विपक्ष में थे तो तब भी तो पत्रकार वैसा ही कर रहा था जैसा अब कर रहा है। एेसा तो है नहीं कि पहली बार ही कोई नई सरकार बनी है और पत्रकार भी पहली बार ही लिख रहे हैं।
बहरहाल, इस तरह का माहौल बेहद चिंताजनक है। और इसकी सबसे बड़ी चिंता तो फेक, अविश्वसनीय व अप्रमाणिक बातोंं को बार-बार वायरल कर झूठ को सच बनाने के जो कुत्सित प्रयास हो रहे हैं उसकी है । कई चैनल को तो इन वायरलों संदेशों को सही व गलत साबित करने का जोरदार काम भी हाथ लग गया है। मेरा मानना है सोशल मीडिया पर फेक/ आपत्तिजनक/ देश व धर्म विरोधी सामग्री वायरल करने वालों को तत्काल ब्लॉक करने या दंडित करने का प्रावधान हो तो माहौल में शांति होगी। इन सब के बावजूद मेरा पथ सच का है। न्याय का है। आदर्श का है। सिद्धांत का है। निजी जीवन में भी और पत्रकारिता के जीवन में भी। इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों व झंझावतों के बावजूद यह कलम इसी तरह निर्भीकता के साथ चलती रहेगी भले ही कितने ही बैल मारने को आएं। क्योंकि मैं लिखता रहूंगा और बार-बार यही ललकारता रहंूगा कि आ बैल मुझे मार- आ बैल मुझे मार..। मैं पत्रकार हूं और पत्रकार ही रहूंगा। किसी का पिट्ठू, चम्मचा, पीआरओ या दल विशेष का एजेंट कतई नहीं।

इक बंजारा गाए-33


पानी पर घमासान
जबसे नहरों में प्रदूषित पानी आया है तब से श्रीगंगानगर के सियासी हलके में जबरदस्त उबाल आया हुआ है। उबाल इतना कि ठाले बैठे छुटभैयों को भी जोरदार मुद्दा हाथ लग गया है। हालत यह है कि कोई दिल्ली जा रहा है तो कोई जयपुर। कोई मंत्री से मुलाकात कर रहा है तो कोई मुख्यमंत्री से। कोई प्रदेश के बड़े अधिकारियों मिल रहा है तो विरोध प्रदर्शन। और इन सब मेल मुलाकातों व बातों की बकायदा डुगडुगी भी पीटी जा रही है। पानी फिलहाल सबको मुफीद मुद्दा लग रहा है। कई तो पानी के सहारे विधानसभा तक पहुंचने के जागती आंखों से सपना तक देखने लगे हैं। वैसे पानी को लेकर श्रेय की लड़ाई भी शुरू हो चुकी है। संभव है यह लड़ाई आगे चलकर बड़ी हो जाए। हालांकि इस मामले में सभी से एकजुट होने की अपील तो की जा रही है लेकिन अंदरखाने एकजुट कोई है नहीं। इस कथित एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा तो पंजाब व केन्द्र में अलग-अलग दलों की सरकार होना भी है। वैसे दिल्ली में बैठने वाले इलाके के दोनों नेताओं के समर्थक भी इस मामले में एकमत नहीं हैं।
हरकत में आई खाकी
शहर में एक हिस्ट्रीशीटर की सरेआम हत्या के बाद खाकी अचानक हरकत में आ गई है। ताबड़तोड़ छापेमारी और सघन जांच अभियान चल रहे हैं। अपराधियों के छिपे होने के संभावित ठिकानों पर टीमें बनाकर भेजी जा रही हैं। पुलिस के आला अधिकारियों के दौरे हो रहे हैं। बैठकों के माध्यम से सामूहिक रणनीति बन रही है। इतना कुछ होने के बावजूद फिलहाल खाकी के हाथ कुछ नहीं लगा है। खैर, उम्मीद की जानी चाहिए देर सबेर आरोपी पकड़े जाएंगे लेकिन खाकी की अति सक्रियता ने यह जरूर साबित कर दिया है कि वह हरकत में तभी आती है तब कोई बड़ा मामला हो जाता है। वैसे भी खाकी का रोजाना यही अंदाज कायम रहे तो न तो अपराध पनपे और न ही अपराधियों का इस तरह दुस्साहस बढ़े। अपराध बढऩे के पीछे भी कहीं न कहीं खाकी की कमजेारी ही है तो है। वैसे इस हत्याकांड की जांच एसओजी को सौंपने के पीछे भी कहीं न कहीं बड़ा राज बताया जा रहा है। भले ही पुलिस यह सब गुत्थी जल्दी सुलझाने की कहकर अपना पक्ष रखे लेकिन पर्दे की पीछे कुछ तो है जिसने पुलिस की बजाय एसओजी पर विश्वास करने पर मजबूर किया।
कार्रवाई पर सवाल
यातायात पुलिस की कार्रवाई पर अक्सर टीका टिप्पणी होती ही रहती है। वैसे श्रीगंगानगर में यातायात पुलिस के रंग-ढंग देखकर टिप्पणी करना गलत भी नहीं लगता है। यातायात पुलिस शहर के बाकी स्थानों पर तो केवल दुपहिया वाहनों को ही रुकवाती है। जांच करती है और कोई कमी पाए जाने पर चालान आदि भी करती है। इसके अलावा गोल बाजार में तो यातायात पुलिस का एकसूत्रीय कार्यक्रम चौपहिया वाहनों को क्रेन से उठाना और जुर्माना वसूलना है। इन सबके बावजूद व्यवस्था में कहीं सुधार दिखाई नहीं देता है। हेलमेट तो लगभग हर सिर से गायब है। इसके अलावा कई नाबालिग दुपहिया वाहन फर्राटे से दौड़ते हुए दिखाई दे जाएंगे। इतना ही नहीं मोटरसाइकिल से पटाखे चलाने के उदाहरण तो लगभग हर गली में रोजाना देखने को मिल जाते हैं। इसके बावजूद इन पर अंकुश नहीं है। वैसे यातायात पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाने वाले तो यहां तक कहते हैं कि पुलिस टेंपो पर तो कभी कार्रवाई करती ही नहीं है। कुछ खास वाहनों पर कार्रवाई करने तथा कुछ पर नजरें इनायत करने से सवाल तो उठेंगे ही।
गफलत ही गफलत
श्रीगंगानगर की यूआईटी के कुछ काम तो अंधा पीसे कुत्ता खाय वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। पता नहीं यूआईटी के अधिकारी किस गफलत में है जो इस तरह के निर्णय या फैसले लेते हैं। शिव चौक से जिला अस्पताल तक सड़क चौड़ी और कथित सौन्दर्यीकरण का अधूरा काम तो लोगों को रोज रूला रहा है। सिर्फ अतिक्रमण करके व्यापार करने या गलत पार्किंग करने वालों को छोड़कर ऐसा कोई नहीं होगा जो यूआईटी को इस काम के लिए पानी पी पी कर नहीं कोसता होगा। एक माह से अधिक समय हो गया है यह काम अधूरा पड़ा है। न यूआईटी जाग रही है न जिला प्रशासन कोई एक्शन ले रहा है। ऐसा लगता है विभागों ने जनसरोकार से मुंह मोड़ लिया है। गफलत की एक और बानगी देखिए यूआईटी ने शुगर मिल की जमीन को बेचने को विज्ञप्ति तो जारी की। यह विज्ञप्ति व्यावसायिक व आवासीय भूख्ंाडों की बिक्री को लेकर थी, लेकिन इसमें भूखंडो की रेट नहीं बताए गए। आखिर जल्द ही यूआईटी के जिम्मेदारों को गलती का एहसास हुआ और बैठक फिर से बुलाकर भूखंडों की रेट निर्धारित की है। इसी तरह का मामला नए चौकों के नामकरण का है। अभी चौक बने ही नहीं हैं और उनका नामकरण भी कर दिया।

राजस्थान में बसता है फिल्मी दुनिया का पाकिस्तान!


श्रीगंगानगर. पाकिस्तान का नाम आते ही जेहन में एक ऐसे पड़ोसी की छवि उभरती है, जो प्यार की भाषा नहीं समझता। रिश्ते मधुर नहीं रखना चाहता तथा आतंक के दम पर दहशत का माहौल पैदा करना चाहता है। इतना कुछ होने के बावजूद पाकिस्तान से प्रेम करने वाले कम नहीं है। तभी तो राजस्थान में भी एक पाकिस्तान बसता है, लेकिन यह पाकिस्तान हकीकत का नहीं है। यह पाकिस्तान फिल्मी दुनिया का है। पश्चिमी राजस्थान के गांव, यहां की पृष्ठभूमि तथा लोकेशंस आदि मुंबइया सिने निर्देशकों को खासे लुभा रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के सीमावर्ती ग्रामीण इलाके रुपहले पर्दे पर पाकिस्तान के रूप में नजर आ रहे हैं। फिलहाल श्रीगंगानगर जिले में 'बैटल ऑफ सारागढ़ी' नामक फिल्म की शूटिंग चल रही है, जो कि आजादी से पहले ब्रिटिश भारतीय सेना और अफगानी सेना के बीच लड़े गए युद्ध पर आधारित है। इसमें मुख्य किरदार अभिनेता रणदीप हुड्डा निभा रहे हैं। विदित रहे कि तीन साल पहले आई सलमान खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में जो पाकिस्तान दिखाया गया, वह झुंझुनूं जिले के मंडावा में फिल्माया गया था।
इसी तरह सन 2003 में साहित्यकार अमृता प्रीतम के उपन्यास पर बनी फिल्म 'पिंजर' के भी काफी सीन श्रीगंगानगर व झुंझुनूं के नवलगढ़ में फिल्माए गए थे। 'पिंजर' भारत-पाक विभाजन पर बनी थी, जबकि 'बजरंगी भाईजान' में भारत आए एक पाकिस्तानी परिवार से भारत में बिछुड़ी एक बालिका को वापिस पाकिस्तान छोडऩे की कहानी है। इसी तरह 2001 में आई सन्नी देओल की फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' में भी पाकिस्तान से संबंधित अधिकतर दृश्य बीकानेर जिले में फिल्माए गए थे।
यह है 'बैटल ऑफ सारागढ़ी' की कहानी
सारागढ़ी युद्ध 12 सितम्बर 1897 को ब्रिटिश भारतीय सेना और अफ गानी सेना के बीच लड़ा गया था। यह युद्ध खैबर-पखतुन्खवा में हुआ था, जोकि अब पाकिस्तान में है। ब्रिटिश भारतीय सेना में सिख पलटन की चौथी बटालियन में 21 सिख थे, जिन पर 10 हजार अफगानी सैनिकों ने हमला किया था। इस बटालियन का नेतृत्व करने वाले हवलदार ईशर सिंह ने ऐसे मौके पर मरते दम तक लडऩे का फैसला लिया। इसे सैन्य इतिहास में सबसे महान अन्त वाले युद्धों में से एक माना जाता है। ब्रिटिश भारतीय सैनिक और अफगानी सैनिकों के बीच युद्ध के दो दिन बाद अन्य भारतीय सेना ने उस स्थान पर फिर से कब्जा जमा लिया था। सिख सैन्य कर्मी इस युद्ध की याद में 12 सितम्बर को 'सारागढ़ी दिवस' के रूप में मनाते हैं। यह फिल्म इसी ऐतिहासिक घटनाक्रम पर बनी है।
 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 30 मई 18 के अंक प्रकाशित
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