Saturday, June 30, 2018

इक बंजारा गाए-34


अपनों की खातिर
अपनों की खातिर आदमी क्या-क्या नहीं करता। यह अलग बात है कि कभी अपने बेगाने भी निकल जाते हैं। फिर भी अपनों को उपकृत करने का सिलसिला चलता ही रहता है। ताजा मामला किसानों के गांव बंद आंदोलन का है। आंदोलन के चलते इस बार इतनी चाक चौबंद व्यवस्था की गई कि शहरवासी दूध व सब्जी तक को तरस गए। मतलब किसान शहर में अपनी कोई चीज लेकर नहीं आए। अब दबे स्वर में चर्चा है कि जिन किसानों के चना व सरसों के टोकन मंडी में बेचान के लिए कटे हुए थे, उनको मंडी आने से रोका नहीं गया। उन्होंने बंद के चलते रुकना मुनासिब भी नहीं समझा। लोगों के समझ नहीं आ रहा है बंद में चने व सरसों का बेचान कैसे हो गया। या बेचने वाले किसान नहीं थे।
फूट की वजह
लड़ाई हो या आंदोलन हमेशा एकजुटता से लडऩे पर ही परिणाम सामने आते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ जहां आड़े आ जाता है वहां एकजुटता को खतरा पैदा हो जाता है। किसान आंदोलन को वैसे तो विभिन्न संगठनों ने समर्थन दिया। एक दो दिन तो मामला ठीक भी रहा लेकिन इसके बाद हित टकराने लगे। ऐसा होने के कारण अंदरखाने आक्रोश भी पनपने लगा। आखिरकार आंदोलन में दरार मतलब फूट पड़ गई। हित यह था कि आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने अपने चहेतों के ट्रकों को निकलने दिया। यह बात आंदोलन में शामिल अन्य लोगों को जमी नहीं, लिहाजा उन्होंने भेदभाव का आरोप लगाते हुए खुद को आंदोलन से अलग कर लिया। उन्होंने नाकों पर बैठे अपने आदमी भी हटा लिए।
वादा तेरा वादा
किसान आंदोलन के दौरान एक गाड़ी से दूध पैकेट वितरण करने के मामले में शहर के एक नेताजी का नाम सामने आ रहा है। वैसे तो नेताजी मना कर जाते लेकिन दूध की दुकान वाले ने बकायदा वीडियो बना लिया और पुलिस को सौंप दिया। पुलिस ने दूध वाले को मुकदमा दर्ज करवाने की बजाय जो नुकसान हुआ उसके बदले में पैसे लेने की सलाह दी। नेताजी को भी सलाह अच्छी लगी और उन्होंने मुकदमे से बचने के लिए पैसे देने का वादा कर लिया। मामला आंदोलन के पहले ही दिन का है लेकिन अभी तक नेताजी ने पैसा दिया नहीं है। दूध विक्रेता नेताजी के वादे पर फिलहाल तो भरोसा किए हुए है लेकिन बात बनेगी इसकी उम्मीद उसको भी कम है। फिलहाल वह पुलिस की सलाह को कोस रहा है।
मतलब के यार
गांव बंद आंदोलन का विभिन्न किसान संगठनों व राजनीतिक दलों ने समर्थन कर रखा है। इसके बावजूद भाजपा से जुड़े किसान संगठनों से आंदोलनकारी संगठनों ने किनारा कर लिया। न तो समर्थन मांगा और न ही उन्होंने दिया। इन सबके बावजूद एक राजनीतिक दल जो कि आंदोलन में शामिल नहीं है, उसकेअनुशांगिक संगठन के अध्यक्ष के पिता जरूर आंदोलन के समर्थन में मैदान में कूद पड़े। आंदोलन के दौरान नोकझोंक हुई तो मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया। मामला तक दर्ज हो गया। अब संबंधित पक्ष निंदा कर रहा है लेकिन समर्थन लेने वाले अब खामोश हैं। और तो और कल की जो बैठक थी, उसमें भी आंदोलनकारियों ने पहले अलग से मंत्रणा की और बाद में सबके सामने आए।
प्रचार का तरीका
कहते हैं, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मुसीबत या जरूरत पडऩे पर आदमी कोई रास्ता खोज ही लेता है। अगर वह रास्ता खुद की मर्जी का हो तो फिर कहना ही क्या। विधायक बनने का सपने देखने वाले शहर के एक नेताजी का हाल भी इन दिनों कुछ ऐसा ही है। प्रचार प्रसार के लिए खुद ही जी जान से जुटे हैं। सरकार की योजना हो या फिर किसी का जन्म दिन उसके साथ अपनी फोटो लगाकर सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं। शायद नेताजी को दूसरों पर भरोसा नहीं है या फिर खुद के मरे स्वर्ग नहीं मिलता वाले जुमले में विश्वास ज्यादा है, लिहाजा खुद ही लगे हैं। हां फोटो को सजाने व संवारने का काम यकीनन कोई दूसरा रहा है। देखते हैं प्रचार का यह तरीका कितना कारगर रहता है।
आए दिन नाकाबंदी
हिस्ट्रीशीटर की सरेआम हत्या के बाद शहर की खाकी इन दिनों कुछ ज्यादा ही सक्रिय है। दो व्यवसायियों को वसूली की कथित धमकी के बाद तो शहर का नजारा ही बदल गया है। शाम होते-होते छोटे से लेकर बड़े स्तर तक के अधिकारी वाहनों की जांच पड़ताल करने में जुट जाते हैं। अब खाकी को कौन समझाए कि अपराध करने वाला इतनी सघन नाकाबंदी के बीच क्या करने आएगा? और यह भी जरूरी है कि नहीं कि अपराधी गाड़ी में ही आए। वह दुपहिया पर भी हो सकता है और पैदल भी। खैर, यह तो कल्पनाओं के घोड़े हैं। बहरहाल, हत्या के पखवाड़े भर बाद भी खाकी के हाथ खाली हैं। लगता नहीं है अपराधी इस तरह की नाकाबंदी में फंसेगा, फिर भी यह नाकाबंदी चर्चा में बने रहने का जरिया तो है ही।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण मे सात जून 18; को प्रकाशित 

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