Friday, October 19, 2018

इक बंजारा गाए -51

फिर भी दावेदारी
चुनावी मौसम है और इसके लिए मैदान तैयार हो चुका है लेकिन अभी योद्धाओं के नाम तय होने बाकी हैं। हां, रण में शामिल होने के लिए संभावित योद्धाओं में जबरदस्त होड़ मची है। सभी अपने लाव-लश्कर के साथ दावा मजबूत करने में जुटे हैं। इन संभावित योद्धाओं में कुछ नाम तो चिर-परिचित हैं लेकिन कुछ नए नवेले तो कुछ अचानक से प्रकट हो गए हैं। राजनीतिक रूप से इन नामों का कद या पद भी नहीं है। हां, उनको इस बात की तसल्ली तो हो सकती है कि भले ही चुनाव में टिकट न मिले लेकिन तब तक चर्चाओं में नाम तो आ रहा है, वह भी क्या कम है।
परिचय से गुरेज
चुनाव में भाजपा के संभावित उम्मीदवार तय करने के लिए अभी रायशुमारी की गई थी। इसमें श्रीगंगानगर जिले की सभी छह विधानसभाओं से संभावित दावेदारों के नाम आए हैं। चर्चाओं में सुनने को आया है कि रायशुमारी के वक्त जिले के एक मौजूदा विधायक ने दावेदारी से खुद को अलग कर लिया। दावेदारी के लिए संभावितों से जब हाथ खड़े करवाए गए तो विधायक ने हाथ नहीं उठाया। बताते हैं जब परिचय की बारी आई तो विधायक ने वर्तमान पद के बजाय संगठन से जोडकऱ अतीत का परिचय दिया। इस तरह के परिचय के राजनीतिक गलियारों में अलग-अलग कयास लग रहे हैं।
पूछ परख नहीं
चुनाव मौसम में मतदाताओं की पूछ परख बढ़ती है। रुठों को मनाया जाता है। उनकी आवभगत व मान मनौव्वल की जाती है। कोई किसी कारणवश पार्टी से इधर-उधर चला जाता है तो उसकी घर वापसी के भी पूरे प्रयास किए जाते हैं। इन दिनों एक पुराने नेताजी भी चुनावी समर में कूदने की तैयारी करके बैठे हैं लेकिन पार्टी उनको पूछ नहीं रही है। नेताजी ध्यान खींचने का पूरा प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी पार्टी ने भाव नहीं दिया है। चुनाव के समय शायद पार्टी को नेताजी की याद आ जाए लेकिन फिलहाल तो दूरी बनी हुई है।
आयोजकों की मजबूरी
शहर में इन दिनों धार्मिक आयोजन खूब हो रहे हैं और लगातार हो रहे हैं। जाहिर सी बात है इन आयोजनों में अतिथि भी बनाए जाते हैं। वैसे अतिथि बनाने के पीछे आयोजकों का लालच कहीं न कहीं यह भी रहता है कि अतिथियों से किसी प्रकार की मदद मिल जाएगी। इस मदद की आस में आयोजकों को अतिथियों के नखरे भी उठाने पड़ते हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी है। यहां तक कि कई अतिथि समय सीमा का भी ख्याल नहीं रखते। और जब तक अतिथि नहीं आते आयोजक कार्यक्रम को रोके रखते हैं। आयोजक का धर्मसंकट भला दूर हो तो हो कैसे।
संहिता का असर
चुनाव की घोषणा होने के साथ ही आचार संहिता लागू हो गई है। घोषणा से पहले जो प्रचार व पोस्टर लगाने का जोर था वह थम गया। अब तो एकदम सन्नाटा सा पसरा हुआ है। अभी चुनाव मैदान के संभावित चेहरे सामने नहीं आए हैं लेकिन जो घोषणा होने से पहले दावेदारी जताकर प्रचार में जुटे थे अब चुपचाप प्रचार कर रहे हैं। होर्डिंग्स, बैनर, पोस्टर आदि भी गायब हैं लेकिन कारों के पीछे शीशों पर संभावित दावेदारों के नाम व फोटो के पोस्टर जरूर लगे हैं और खूब लगे हैं। इस कार वाले प्रचार पर फिलहाल संहिता का असर दिखाई नहंी दे रहा।
बयान से हलचल
चुनावी मौसम में बयानों का बड़ा महत्व है। पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष का बीकानेर में दौरा था। उस दौरान उनका दिया गया बयान फिलहाल नई-नई इंट्री मारने वालों के लिए एक बार परेशानी का सबब बन गया। उन्होंने कहा था पांच साल काम करने वालों को टिकट दी जाएगी। खैर चुनाव के समय टिकट मिलने न मिलने के पीछे बहुत सारे समीकरण काम करते हैं लेकिन फिलहाल बयान से सांसें थमी हुई है। विशेषकर श्रीगंगानगर में कांग्रेस के दामन थामने वाले नए नवेले नेताजी व रायसिहंगर में अपनी पार्टी छोड़ कर कांग्रेस राह पकडऩे वालों के समर्थकों में इस बयान से कुछ बैचेनी है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 18 अक्टूबर 18 को प्रकाशित...

अठारह से प्रेम है मुझे

बस यूं ही
अठारह शब्द दिमाग में आते ही कई खूबसूरत ख्याल आने लगते हैं। पहला ख्याल तो अठारह साल की कमसिन उम्र, जहां सतरंगी सपने और उडऩे की ख्वाहिश होती है। अठारह की उम्र जिसमें मत डालने का अधिकार मिलता है। अपना भी इस अठारह से गहरा नाता है। वैसे बचपन से जवानी की दहलीज पर कदम रखने तथा अठारहवें साल को जिए जीवन के लगभग ढाई दशक गुजर गए। अपना अठारहवां लगा था तब बारहवीं उत्तीर्ण कर कॉलेज में आ चुके थे। खैर, अभी भी इस अठारह से गहरा लगाव है और जिंदगी भर रहेगा। अब देखिए ना थोड़ी देर बाद 18 तारीख लग जाएगी। मामला रोचक इसीलिए भी है इस बार साल भी अठारह का चल रहा है। चूंकि 18 से लगाव है तो लगे हाथ इससे संबंधित बातों पर भी चर्चा हो जाए। महाभारत का युद्ध तो आपको याद ही होगा। इस महाभारत कथा में 18 (अठारह) संख्या का बड़ा महत्त्व है। महाभारत का युद्ध कुल अठारह दिन तक चला था। कौरवों (11 अक्षोहिनी) और पांडवों (9 अक्षोहिनी) की सेना भी कुल 18 अक्षोहिनी थी। इसी तरह महाभारत में कुल 18 पर्व हैं। इनके नाम हैं, आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, स्वगारज़ेहण पर्व तथा आश्रम्वासिक पर्व। इससे थोड़ा आगे चलें तो गीता उपदेश में भी कुल 18 अध्याय ही हैं। इतना ही नहीं इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे। इनके नाम ध्रतराष्ट्र, दुर्योधन, दुशासन, कर्ण, शकुनी, भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवमात, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी एवं विदुर।
इसके साथ एक संयोग और जुड़ा है। महाभारत के युद्ध के पश्चात् कौरवों के तरफ से तीन और पांडवों के तरफ से 15 यानि कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। और सुनिए महाभारत को पुराणों के जितना सम्मान दिया जाता है और पुराणों की संख्या भी 18 है। श्रीमद् भागवत में कुल अठारह हजार श्लोक हैं। मां भवानी के भी अठारह ही स्वरूप हैं। काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कुष्मांडा, कात्यायनी, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री, पार्वती, श्रीराधा, सिद्धिदात्री और शैलपुत्री। इसी क्रम में श्रीविष्णु, शिव, ब्रह्मा, इंद्र, आदि देवताओं के अंश से प्रकट हुई भगवती दुर्गा अठारह भुजाओं से सुशोभित हैं। चर्चा और आगे बढ़ाए तो सिद्धियां भी अठारह ही हैं। अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, सिद्धि, ईशित्व या वाशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञात्व, दूरश्रवण, सृष्टि, परकायप्रवेशन, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, संहराकरणसामथ्र्य, भावना और सर्वन्यायकत्व। इसके अलावा सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति, मन, पांच महाभूतों ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) पांच ज्ञानेंद्रियां (श्रोत, त्वचा, चक्षु, नासिका एवं रसना) और पांच कमेंद्रियां( वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ) इन अठारह तत्वों का विवरण मिलता है। छह वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्यायशास्त्र, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद और गंधर्ववेद अठारह तरह की विद्याएं हैं। इसी तरह एक संवत्सर, पांच ऋतुएं और बारह महीने ये मिलाकर काल के अठारह भेदों को प्रकट करते हैं।
थोड़ी और जानकारी जुटाई तो पता चला केरल में ओणम पर दुग्ध से 18 तरह के पकवान बनते हैं। शंकर-पार्वती की पूजा का पर्व गणगौर भी अठारह दिन चलता है। हिन्दू धर्म में 18 मुखी रूद्राक्ष भी होता है।.यह बेहद दुर्लभ होता है, और 18 वनस्पतियों मतलब औषधियों का प्रतीक माना गया है। वैसे तो साल में बारह बार 18 तारीख आती है लेकिन 18 अक्टूबर की बात ही कुछ और है। धर्म और दर्शन की बाद नजर इतिहास पर डाली जाए तो ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की स्थापना 18 अक्टूबर 1922 को हुई थी। इसी दिन 1972 में भारत के पहले बहुद्देशीय हेलिकॉप्टर एस ए 315 का बैंगलोर में परीक्षण किया। प्रसिद्ध अभिनेता ओमपुरी का जन्म भी इसी दिन हुआ था। 18 अक्टूबर का इतिहास लंबा है, चर्चा चले तो कई पृष्ठ भर जाएं। अठारह साल के साथ साथ गौर करने की बात यह है कि हमको पत्रकारिता में भी अठारह साल पूरे हो चुके हैं। हां इस पत्रकारिता के कारण गांव छूटा। उसको छोड़े हुए भी 18 साल हो गए। अभी थोड़ी देर पहले टीवी ऑन किया तो सुहाग फिल्म का गाना चल रहा था। अमिताभ व रेखा मस्ती में गा रहे थे। गाने के बोल थे। अठरहा बरस की तू होने को आई रे...वाकई जवां होते दिलों की खूबसूरत नोकझोंक है इस गाने में हैं। अब अठारह की प्रशंसा में इतने कशीदे गढ़ ही दिए हैं तो इतना बता दूं कि चार अठारह के संंयोग के साथ पांचवां अठारह और जोड़ दीजिए। यह पांच अठारह का संयोग जिंदगी में पहली बार आया है, इसलिए एेतिहासिक है, अगले साल से तो फिर एक ही अठारह रहना है मरते दम तक। तो अब रहस्य से पर्दा उठा देता हूं। 18 अक्टूबर अवतरण दिवस है। यही वह दिन था जब मेरा जन्म हुआ। बोले तो 18 अक्टूबर 1976...और इसी के साथ जिंदगी के 42 बसंत भी पूरे किए।

सबसे ज्यादा और सबसे कम संपत्ति वाले विधायक श्रीगंगानगर में

दोनों ही महिलाएं और दोनों एक ही पार्टी से जीती थीं
श्रीगंगानगर. यह अजीब संयोग है कि मौजूदा विधानसभा सदस्यों में प्रदेश का सर्वाधिक धनवान विधायक श्रीगंगानगर से है और सबसे कम संपत्ति वाला विधायक भी श्रीगंगागर जिले से ही है। संपत्ति के अर्श और फर्श के इस संयोग के साथ एक संयोग यह भी जुड़ा है कि दोनों विधायक महिलाएं हैं और दोनों ही जमींदारा पार्टी से जीती। प्रदेश विधानसभा के मौजूदा 197 विधायकों में संपत्ति के मामले में श्रीगंगानगर विधानसभा से विधायक जमींदारा पार्टी की कामिनी जिंदल पहले स्थान पर हैं। उनकी चल व अचल संपत्ति दो अरब के करीब है जबकि सबसे कम संपत्ति श्रीगंगानगर जिले की रायसिंहनगर विधानसभा से विधायक सोनादेवी के पास है। संयोग यह है भी कि सोनादेवी भी जमींदारा पार्टी से ही जीती। यह बात अलग है कि हाल में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। चल व अचल संपत्ति के मामले में एक यह भी संयोग जुड़ा है कि प्रदेश में पांच विधायकों के पास अचल संपत्ति नहीं हैं। इनमें भी दो श्रीगंगानगर से हैं। रायसिंहनगर विधायक सोनादेवी व अनूपगढ़ विधायक शिमला देवी के पास अचल संपत्ति नहीं हैं। इसके अलावा सिरोही विधायक ओटाराम, बायतू विधायक कैलाश चौधरी तथा भीलवाड़ा विधायक धीरज गुर्जर के पास भी अचल संपत्ति नहीं है। शिमला देवी के अलावा शेष सभी विधायकों के पास चल-अचल संपत्ति करोड़ों व लाखों में है जबकि उसके पास चल संपत्ति लाख से भी नीचे मतलब हजारों रुपए में है। यह भी प्रदेश का इकलौता उदाहरण है।
विदित रहे कि राजस्थान इलेक्शन वाच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफोम्र्स ने राजस्थान विधानसभा सचिवालय से विधायकों के बारे में आरटीआई दाखिल की थी। यह जानकारी वहीं से ली गई है।
श्रीगंगानगर विधानसभा
विधायक नाम पार्टी चल संपत्ति अचल संपत्ति कुल संपत्ति विधानसभा
कामिनी जिंदल जमींदारा पार्टी 27060802 1947200000 1974260802 श्रीगंगानगर
सोना देवी जमींदारा पार्टी 61357 कोई नहीं 61357 रायसिंहनगर
[ सोना देवी ने अब कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली है ]
हनुमानगढ़ के सभी विधायक करोड़पति
चल-अचल संपत्ति के मामले में हनुमानगढ़ के पांचों विधायक करोड़पति हैं। सर्वाधिक संपत्ति हनुमानगढ़ विधायक व मंत्री डॉ. रामप्रताप के पास है। जबकि आखिरी नंबर पीलीबंगा विधायक द्रोपती मेघवाल का आता है।
किसके पास कितनी संपत्ति
(हनुमानगढ़ जिला)
नाम विधायक चल संपत्ति अचल संपत्ति कुल संपत्ति विधानसभा क्षेत्र
डॉ. रामप्रताप 16267754 248000000 264267754 हनुमानगढ़
कृष्ण कड़वा 6224215 85385000 91609215 संगरिया
अभिषेक मटोरिया 17880356 64460000 82340356 नोहर
संजीव बेनीवाल 1050951 42100000 40665000 भादरा
द्रोपती 2020343 9700000 11720343 पीलीबंगा
किसके पास कितनी संपत्ति
(श्रीगंगानगर जिला)
राजेन्द्र भादू 10634266 17000000 27634266 सूरतगढ़
गुरजंटसिंह 2626906 1547500 18101096 सादुलशहर
सुरेन्द्रपालसिंह टीटी 4246795 1364000 17886795 श्रीकरणपुर
शिमला देवी 917885 ------- 917885 अनूपगढ़
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 17 अक्टूबर 18 के अंक में प्रकाशित।

दोनों मंत्रियों की विधानसभा में उपस्थिति रही कम

भादरा व रायसिंहनगर विधायक ने पूछे सर्वाधिक सवाल
श्रीगंगानगर. नई विधानसभा के चुनाव की तैयारियों का दौर जोर पकड़ रहा है। पुराने जनप्रतिनिधि अपने कार्यकाल की उपलब्धियों और कामों को मतदाताओं के समक्ष रख रहे हैं। हाल में एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफोम्सज़्) ने विधायकों का रिपोटज़् कार्ड जारी किया है। इसमें श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ के सभी जनप्रतिनिधियों की विधानसभा में उपस्थिति व उनके द्वारा पूछे गए सवालों का विवरण है। सवाल पूछने के मामले में हनुमानगढ़ जिले में भादरा विधायक संजीव बेनीवाल अव्वल रहे जबकि सदन में सर्वाधि उपस्थिति देने के मामले में संगरिया विधायक कृष्ण कड़वा पहले स्थान पर रहे। इसी तरह श्रीगंगानगर जिले में सर्वाधिक सवाल रायसिंहनगर विधायक सोनादेवी ने पूछे जबकि सर्वाधिक उपस्थिति सादुलशहर विधायक गुरजंटसिंह की रही। सुरेन्द्रपाल टीटी सदन में 30 दिन उपस्थित हुए और 53 सवाल पूछे जबकि डॉ. राप्रताप 18 दिन उपस्थित हुए और कोई सवाल नहीं पूछा। काबिलगौर है पांच साल में विधानसभा 139 दिन लगी। सर्वाधिक उपस्थिति 137 दिन की भाजपा के झाबरसिंह खर्रा के नाम रही है जबकि सर्वाधिक सवाल 678 कांग्रेस के रमेश ने पूछे।
विधायकों का रिपोर्ट कार्ड
हनुमानगढ़ जिला
विधायक उपस्थिति सवाल
कृष्ण कड़वा 134 64
डॉ. रामप्रताप 18 00
संजीव बेनीवाल 110 462
अभिषेक मटोरिया 101 232
द्रोपती 128 374
श्रीगंगानगर जिला
कामिनी जिंदल 75 370
सुरेन्द्रपालसिंह टीटी 30 53
गुरजंटसिंह 125 57
शिमला देवी 124 120
सोना देवी 120 452
राजेन्द्र भादू 121 111
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 17 अक्टूबर 18 के अंक में प्रकाशित। 

नहरी पानी की छीजत

 प्रसंगवश
हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर की आजीविका व अर्थव्यवस्था नहरी पानी पर ही निर्भर है। इन दो जिलों सहित प्रदेश के करीब दस जिलों में इंदिरा गांधी नहर का पानी लोगों के हलक तर करने के साथ सिंचाई के भी काम आता है। इस तथ्य के साथ एक कटु सत्य यह भी जुड़ा है कि हर सप्ताह या पखवाड़े में किसी न किसी हिस्से का किसान पानी की कमी से परेशान होकर सडक़ों पर उतरता है। नहरों में पानी कम होने के मुख्य कारण छीजत, चोरी व नहर कमजोर होने के कारण क्षमता के अनुसार पानी न ले पाना है। कई बार असमान वितरण के मामले भी सामने आए हैं, जब नहर के हैड वाले किसान बागबाग हो लेकिन आखिरी छोर यानी टेल वाले किसान पानी को तरसते रह गए। तमाम प्रयासों के बावजूद जल संसाधन विभाग पानी चोरी व छीजत पर अंकुश नहीं लगा पाया है। यही कारण है कि पानी चोरों के हौसले बुलंद हैं। श्रीगंगानगर शहर के बीचोबीच गुजरने वाले एक छोटी-सी माइनर से रोज पानी चोरी होता है। यह चोरी ऐसी जगह होती है जहां सारा प्रशासनिक अमला बैठता है। जिला मुख्यालय के ठीक पास साधुवाली में आए दिन पानी के लिए टैंकरों की कतार लगती है। इसकी जानकारी विभाग के अधिकारियों को नहीं हो, यह संभव नहीं।
इसे विभाग की उदासीनता कहें या शह लेकिन पानी चोरी करने वाले इसका बेजा फायदा उठाकर पात्र किसानों के हक पर सरेआम डाका डालते रहे हैं। यह पानी चोरी का ही परिणाम था कि पिछले दिनों गंगनहर,पंजाब में क्षतिग्रस्त हो गई। इससे नहर में करीब 80 फीट का कटाव आया। इससे काफी पानी व्यर्थ बह गया। बाद में किसानों ने मौका देखा तो वहां पानी चोरी के बहुत से मामले मिले। वैसे विभाग ने भी नहर टूटने का कारण पानी चोरी ही बताया था। किसान संगठनों के तात्कालिक विरोध के कारण जरूर कुछ दिशा-निर्देश जारी करने में तत्परता दिखाई जाती है लेकिन बाद में हालात वही ढाक के तीन पात हो जाते हैं। किसान संगठन समय-समय पर मांग करते रहे हैं कि पंजाब व राजस्थान के अधिकारी सामूहिक रूप से माह में दो या तीन बार संयुक्त गश्त करें। पानी चोरी पर मुकदमा दर्ज करें तो उनमें भय होगा। नहरों से जुड़ी विडम्बना यह है कि लाखों-करोड़ों रुपए नहरों के जीर्णोद्धार में खर्च होने के बावजूद उसका पूरा लाभ किसानों को नहीं मिलता।

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राजस्थान पत्रिका के 13 अक्टूबर 18 के अंक में राजस्थान के तमाम संस्करणों में.संपादकीय पेज पर प्रकाशित..

यह रिश्ता कुछ खास है....

बस यूं.ही
कुछ रिश्ते खास होते हैं। एेसे रिश्ते मुलाकात के मोहताज भी नहीं होते। इन रिश्तों की बुनियाद विश्वास पर टिकी होती है। इन रिश्तों में जाति धर्म कहीं आड़े नहीं आते। हां कभी वक्त इजाजत देता है तो फिर रिश्ते बड़ी शिद्दत से निभते हुए महसूस किए जा सकते हैं। बीते सात दिनों में मैंने ऐसे ही एक रिश्ते को न केवल प्रत्यक्ष देखा है बल्कि महज दो मुलाकातों में लगाव व स्नेह को अनुभूत कर लगा जैसे यह कोई पूर्व जन्म का नाता है। दरअसल, पहली मुलाकात ने ही दूसरी मुलाकात का रास्ता खोला लेकिन दोनों मुलाकातों की परिस्थितियां एक जैसी थीं। अपनेपन को प्रदर्शित करने वाली यह मुलाकातें श्रीगंगानगर में ही हुई हैं। वह भी घर पर। मां पिछले पन्द्रह दिन से बीमार है, हालांकि इन दिनों तबीयत में थोड़ा सुधार हैं। उनकी तबीयत की सुनकर कुछ परिचित घर आए। इनमें पूर्व जनसंपर्क अधिकारी फरीद खानजी व उनकी धर्मपत्नी सईदा खान जी भी शामिल हैं। फरीद खान जी का जिक्र मैं एक बार पहले पिछले साल होली पर कर चुका हूं। उनकी जिंदादिली और उत्सवधर्मिता के बारे में तब विस्तार से लिखा था। उनसे परिचय इतना ही है कि डेढ़ दशक पूर्व जब श्रीगंगानगर था तब वो यहां बतौर जनसंपर्क अधिकारी कार्यरत थे। बाद में सेवानिवृत्त हुए और यही बस गए, वैसे बीकानेर के हैं। बीते ढाई साल के श्रीगंगानगर प्रवास में मेरा सिर्फ एक बार फरीद खान जी के घर जाना हुआ। हां बड़े वाला बेटा योगराज इनके घर रोज जाता है। वह फरीद खान जी की पुत्रवधु से ट्यूशन करता है।
मां की तबीयत की सुनकर दोनों मियां बीवी करीब सप्ताह भर पहले घर आए। बाहर चर्चा करने के बाद दोनों ने मां से मिलने की इच्छा जताई। दोनों मां के पास चले गए। फरीद खान जी की पत्नी सईदा खान जी मां के बिलकुल पास बैठ गई। मैं अंदर गया तो उनकी आंखों से आंसू टप-टप गिर रहे थे। मां का हाथ उन्होंने अपने हाथ में.थाम रखा था। यह सब देखकर मैं चौंका। उनका गला रुंध गया था। वो इतना ही बोल पाई कि यह तो बिलकुल मेरी मां जैसी लगती है। इधर, पीआरओ साहब का भी यही हाल था। अपनी पत्नी की तरफ इशारा.करके कहने लगे, इसने मां की खूब सेवा की है, बहुत सेवा की है। यह कहते-कहते पीआरओ साहब भी रोने लगे। उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी। कहने लगे महेन्द्रजी, मेरी मां तो मैं जब पांच साल का था तभी चल बसी। आप खुशकिस्मत हो जो मां की सेवा का सौभाग्य मिल रहा है। काफी देर बाद दोनों मियां बीवी सहज हुए। मां भी इनको देखकर बेहद खुश थी। मां की बैठकर दोनों.से बातें करने और उनकी सुनने की इच्छा थी लेकिन शरीर साथ नहीं दे पाया, लिहाजा मां को बिस्तर पर लिटा दिया। 
आज शुक्रवार को दोपहर बाद फरीद खान जी की धर्मपत्नी ऑटो से घर आ गई। आज वो अकेली थीं। इधर मां भी आज कुछ अनमनी सी थी। दोनों दुबारा मिली तो ठीक वैसा ही नजारा आज फिर था। आज तो मां भी गमगीन थी, दोनों तरफ आंसू थे। मैं लेट कर उठा तो दोनों का यह अपनापन देखकर मुस्कुराए बिन नहीं रहा सका। वो देर तक मां के पास बैठी रही। हां आफिस निकलने से पहले मां और सईदा जी का एक फोटो खींचने के लिए निर्मल को कह दिया था। मैं आफिस के लिए निकला तब दिमाग में विचारों का द्वंद्व जारी था। आखिर यह कौनसा रिश्ता है, जो महज दो मुलाकात में इतना प्रगाढ हो गया। दोनों ने कभी एक दूसरे को देखा तक नहीं फिर भी इतना गहरा लगाव और जुड़ाव। यह मानवीयता, इंसानियत व भाईचारे जैसे शब्द इसी तरह के उदाहरणों से ही तो जिंदा हैं। मैं सोचते सोचते इतना गहराई में चला गया। इतना गहरा कि जहां जात, धर्म के नाम पर बांटने की बातें, सम्प्रदाय के नाम पर सियासत करने की बातें बेमानी नजर आई। वाकई आदमी का आदमी से प्यार का रिश्ता धर्म, मजहब, जाति, स्थान आदि की परिधियों से अलग है, अलहदा है, अनूठा है, प्यारा है, निश्छल है। गंगाजल की तरह पवित्र , बिलकुल स्वार्थहीन।यह रिश्ता कायम रहे... आमीन।

श्रीगंगानगर की हर विधानसभा सीट के नाम में छिपा है राज

श्रीगंगानगर. आम बोलचाल में अक्सर एक जुमला चलता है ‘नाम में क्या रखा है।’ लेकिन यहां आकर यह जुमला बेमानी हो जाता है। यहां नाम बहुत मायने रखता है। यहां न केवल नाम की प्रतिष्ठा है बल्कि नाम के आगे कई जगह आदरसूचक शब्द ‘श्री’ लगाने की परम्परा भी है। 
संभवत: यह सिर्फ प्रदेश ही नहीं वरन देश का इकलौता उदाहरण है। अनूठी खासियतों के धनी इस जिले का नाम है श्रीगंगानगर। श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय सहित सभी विधानसभा क्षेत्रों के नाम के पीछे एक राज छिपा है। यह राज है उनके नाम का।
श्रीगंगानगर विधानसभा
नामकरण बीकानेर के पूर्व शासक गंगासिंह के नाम पर हुआ। पहले इसको रामनगर या रामू की ढाणी कहा जाता था। श्रीगंगानगर में नहर लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। नहर के साथ साथ श्रीगंगानगर जिले को रेल सेवा से जोडऩे में भी पूर्व शासक का ही योगदान रहा है। पूर्व शासक की याद में श्रीगंगानगर कलक्ट्रेट के पास उनकी अश्वारूढ़ प्रतिमा भी लगी है।
श्रीकरणपुर विधानसभा
भारत-पाक सीमा पर लगता विस क्षेत्र। मुख्यालय श्रीकरणपुर का नाम कभी रत्तीथेड़ी था। यह नाम 1922 में यहां आकर बसे दो परिवारों के मुखिया हाकमराम व मोहरीराम रस्सेवट ने दिया। बाद में महाराजा गंगासिंह के प्रयासों से 1927 में गंगनहर आने से यहां की कायापलट हुई। इस दौरान महाराजा गंगासिंह के पौत्र व सरदूल सिंह के पुत्र करणीसिंह के नाम पर श्रीकरणपुर की स्थापना हुई। इसी विधानसभा में कस्बे गजसिंहपुर का नाम बीकानेर रियासत के शासकों में एक शासक गजसिंह व पदमपुर का नाम राजा करण सिंह के पुत्र पदमसिंह के नाम पर रखा गया। पदमपुर का पुराना नाम बैरां था। केसरीसिंहपुर का पुराना नाम फरीदसर था। सन 1926-27 में जब क्षेत्र में नहर व रेल लाइन आई तब यहां रेलवे स्टेशन का नाम महाराजा गंगासिंह के पारिवारिक सदस्य केसरी सिंह के नाम से रखा गया।
सूरतगढ़ विधानसभा
वर्ष 1787 में सोढ़ल नाम से बसे इस क्षेत्र को बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह ने नियंत्रण में लिया था। महाराजा सूरत सिंह ने सोढ़ल नगर से रियासती व्यवस्थाओं के संचालन के लिए वर्ष 1799 में एक बड़े किले का निर्माण करवाया। जिसे सूरतगढ़ का गढ़ कहा गया। इसी के नाम पर आगे चलकर शहर का नाम सूरतगढ़ पड़ा। बीकानेर रियासत की चार निजामतों (जिलों) में सूरतगढ़ भी जिला था। वर्ष 1884 से 64 साल तक यह जिला रहा।
सादुलशहर विधानसभा
कालान्तर में एक छोटा-सा गांव हुक्मपुरा था फिर मटीली बना। सन् 1927 में सादुलशहर को वाया कैनाल लूप रेलवे लाइन से जोड़ा गया। मटीली रेलवे स्टेशन की स्थापना महाराजा गंगा सिंह के छोटे पुत्र सार्दुल सिंह के नाम से हुई। इस मण्डी का नाम सादुलशहर बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह के पुत्र सार्दुल के नाम पर सादुलशहर रखा गया।
रायसिंहनगर विधानसभा
कस्बे का नाम बीकानेर के छठे महाराजा रायसिंह के नाम पर रायसिंहनगर रखा गया। कस्बे की स्थापना 1927-28 में बीकानेर रियासत के मुख्य अभियंता रिचर्डसन की देखरेख में हुई थी। गंगासिंह के शासन में नहरों पर बनी कोठियां आज भी उस समय की याद दिलाती है।
अनूपगढ़ विधानसभा
पुराना नाम चुघेर था। चुघेर और उसके आस पास का क्षेत्रों पर भाटियों का कब्जा था। सन 1677-78 में मुगल शासक औरंगजेब ने महाराजा अनूप सिंह को औरंगाबाद का शासक नियुक्त किया। अनूप सिंह की सेना ने भाटियों को हराकर गढ़ पर कब्जा कर लिया। अनूप सिंह ने गढ़ का निर्माण किया, जिसका नाम अनूपगढ़ रखा गया।
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राजस्थान पत्रिका के चुनावी पेज राजस्थान का रण पर आज 11अक्टूबर 18 के अंक में प्रकाशित।

इक बंजारा गाए-50


श्रेय की लड़ाई
राजनीति में श्रेय की लड़ाई का खेल अलग ही होता है। श्रीगंगानगर में नगरपरिषद व यूआईटी के प्रतिनिधि भी इस राजनीति से अछूते नहीं हैं। सुखाडिय़ा सर्किल से मीरा मार्ग तक बनने वाली सडक़ को ले लीजिए। यह सडक़ कौन बना रहा है, क्यों बना रहा है। किसलिए बना रहा है। इसका उद्घाटन कब हुआ तथा किसने यह शुरू किया, यह सब जानते हैं। इसके बावजूद पीछे की तारीख लिखा एक शिलापट्ट रातोरात लगा दिया गया। बात यहीं तक सीमिति नहीं रही, इस शिलापट्ट पर जो तिथि अंकित की गई है वह उस दिन की है जब मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा श्रीगंगानगर में थी। ऐसे में यह सवाल खदबदाना लाजिमी है कि इतने व्यस्त समय में आखिर यह उदघाटन कौन व कैसे कर गया।
संहिता का डंडा
चुनाव में आचार संहिता के लगने के बाद मतदाताओं को प्रभावित कर सकने वाली तमाम तरह की गतिविधियों पर रोक लग जाती है। इसके अलावा समय-समय के साथ नियमों में संशोधन आदि भी इसी उद्देश्य से होते हैं कि कहीं किसी तरह की पतली गली की गुंजाइश ही नहीं रहे। इस बार चुनाव में झंडा, बैनर, पोस्टर आदि भी कम ही दिखाई देंगे जबकि चुनावों में इनका प्रचलन बहुत होता रहा है। पहले नामांकन के बाद ही इन चीजों पर रोक लगती थी, इस बार आचार संहिता लागू होने के साथ ही यह रोक प्रभावी हो गई। कोई प्रत्याशी ऐसा करता पाया तो इन सब का खर्च उसके खाते में जुड़ेगा। देखने की बात यह है कि खर्च का भय कितनी कारगर भूमिका निभा पाता है।
नहीं चलेगा बहाना
चुनावी कार्य में ड्यूटी लगने पर नाम कटवाने का इतिहास पुराना है। नाम कटवाने के लिए पता नहीं कितने ही तरह के जनत करने पड़ते हैं। बहाने तक भी बनाने पड़ते हैं। सर्वाधिक बहाने तो बीमारी से संबंधित होते हैं। खैर, बीमारी के बहाने कर्मचारी नाम कटवाने में सफल भी होते रहे हैं, लेकिन इस बार उनका बहाना शायद ही चले। बताया जा रहा है कि इस बार सभी कर्मचारियों को स्पष्ट हिदायत दे दी गई है कि ड्यूटी का मतलब ड्यूटी ही है। किसी तरह की सिफारिश या बहाना नहीं चलेगा। ऐसे में मुश्किल उन कर्मचारियों को हो रही है जो अब तक किसी न किसी बहाने से नाम कटवाकर चुनावी ड्यूटी से बचते रहे हैं।
न खुदा न विसाले सनम
अपनी मांगों के समर्थन में हड़ताल पर बैठे कर्मचारियों के साथ ‘न खुदा न विसाले सनम’ वाला वाक्य चरितार्थ हो गया। इस शेर का आशय होता है, न इधर के रहे न उधर के। कर्मचारी हड़ताल पर बैठे थे। सरकार ने उनकी मांग सुनने की बजाय नो वर्क नो पेमेंट का आदेश दे दिया। आचार संहिता से पहले यह आदेश प्रभावी भी हो गया। अब कर्मचारी खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। एक तो मांगी ही नहीं मानी गई और ऊपर से हड़ताल के समय के समय के पैसे और कटेंगे। कर्मचारियों का यह दोहरा दर्द चुनावी में क्या गुल खिलाता है देखने की बात है।
काम मिलने की उम्मीद
यह सही है कि चुनावी वर्ष में आचार संहिता लगने के बाद समस्त विभागों में एक अलग तरह की खामोशी छा जाती है। कामकाज की रफ्तार भी अपेक्षाकृत धीमी हो जाती है। कई बार तो ऐसा आभास होता है कि बहुत से लोग बेरोजगार हो गए हैं, लेकिन इसी मामले का दूसरा पहलू भी है। चुनाव के साथ ही चुनाव से जुड़े काम युद्ध स्तर पर शुरू होते हैं। इससे भी कइयों का रोजगार मिलता है। शादी समारोह तक सीमित रहने वाले फोटोग्राफर को भी अब काम मिलने वाला है। वीडियोग्राफी के काम के लिए उनकी पूछ परख जल्द बढऩे वाली है। इस बहाने फोटोग्राफर भी खुश है कि एक डेढ़ माह के लिए उनको अपनी पसंद का काम जो मिल रहा है।
नहले पर दहला
श्रीगंगानगर जिला परिषद में इन दिनों नहले पर दहले वाली बात सटीक बैठ रही है। जिला प्रमुख व परिषद की मुख्य कार्यकारी अधिकारी के बीच चल रही है खटपट वैसे तो जगजाहिर ही है। खैर, इस मामले में रोचक मोड़ तब आया जब आचार संहिता लगने के दिन पहले मुख्य कार्यकारी अधिकारी का तबादला हो गया। वो रिलीव होकर नई जगह जाती, उनकी जगह नया अधिकारी आता, इससे पहले आचार संहिता लग गई। आचार संहिता के कारण जो जहां था, वहीं रह गया। अब अधिकारी के तबादले के पीछे जो लोग थे, उनकी हालात बड़ी खराब है। हां, तबादला विरोध जरूर उनकी हालात को देखकर जबरन चटखारे लगाकर उनको सता रहे हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 11 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित।

गड़े मुर्दे उखाडऩे का दौर

बस यूं ही
आजकल गड़े मुर्दे उखाडऩे का दौर है। होड़ लगी है। खतरनाक वाली होड़। बाकायदा दो धड़े बने हैं। एक तबका होड़ के समर्थन में हैं तो दूसरा इसको उचित नहीं मानता। मतलब खिलाफ में है। वैसे इस होड़ का मकसद क्या है? होड़ की इस दौड़ का अंजाम क्या होगा? इन सवालों को होड़ का समर्थन या विरोध वाले अपने तर्कों से बेहतर समझा देंगे। बानगी देखिए, होड़ के समर्थकों का कहना है कि यह सार्वजनिक मंच है। यहां अपनी बात रखने का मौका मिलता है। एक दूसरे को देखकर हौसला बढ़ता है। संबल मिलता है। यहां दबी हुई भावनाएं उजागर हो रही हैं। यहां कभी न जाना गया सच जाहिर हो रहा है , इस तरह की तर्कों की फेहरिस्त लंबी है। बेहद लंबी है। जितने मुंह उतने तर्क और उससे कहीं ज्यादा हां में हां मिलाने वाले समर्थक या यूं कहिए अंधभक्त।
इधर, होड़ विरोधी मुहिम चलाने वालों के पास भी अपनी दलीलें हैं। मसलन, सही-गलत का फैसला करने के लिए कानून है। गलत को सजा देने का काम कानून करता है। इस होड़ के बहाने चरित्र हनन हो सकता है? ब्लेकमेल किया जा सकता है? तब चुपी की वजह क्या रही और अब मुखर होने के कारण क्या है़? किसी दर्द या पीड़ा पर प्रतिक्रिया तत्काल क्यों नहीं? कभी गलत हुआ भी तो इस होड़ में शामिल होने से कौनसा न्याय मिल जाएगा। सजा तो कानून ही देगा। या सिर्फ किसी को गरियाना, उनका मान मर्दन करना ही सजा है, आदि-आदि।
खैर, समाज हमेशा ही दो धड़ों में बंटा रहा है। कभी अमीर-गरीब का भेद तो कभी अगड़े-पिछडे़ तो कभी राजा-रंक के नाम पर। मौजूदा दो धड़े महिला-पुरुषों के हैं। वैसे तो महिला-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के बिना सृष्टि सृजन का सपना अधूरा है। दोनों एक दूसरे के रक्षक है। बोले तो एक गाड़ी के दो पहिये। पर अभी दोनों तरफ तलवारें तनी हैं। बात मान, सम्मान, इज्जत, अधिकार व मर्यादा से जुड़ी है। जो धड़ा कथित रूप से पीडि़त है, दबा कुचला है, वह कुछ ज्यादा ही आक्रामक और मुखर है तो दूसरा धड़ा जो कथित रूप से दोषी है, वह थोड़ा सुरक्षात्मक अंदाज में है। इन सबकी वजह है एक विदेशी अभियान। बारह साल पहले शुरू हुआ और वक्त के थपेड़े खाता हुआ यह अभियान अब भारत में प्रवेश कर गया है। अतिथि देवों भव: की मानसिकता में जीने वाले हम भारतीयों ने इस विदेशी अभियान को भी हाथोहाथ लिया। यह इसी अभियान का नतीजा है कि कभी चुपचाप अत्याचार सहन करने वाला धड़ा समय के साथ साहस जुटाकर अब मुखर हो रहा है। तब न कह सकने वाली बात, भले ही वह तब दोनों पक्षों की रजामंदी से हुई हो,अब शोषण की श्रेणी में आ गई है। देरी से की जा रही इस स्वीकारोक्त्ति में कई तरह के संगीन आरोप हैं, जो कानून की दृष्टि में अपराध की श्रेणी में आते हैं लेकिन विडम्बना है न्याय के लिए दरवाजा न तब खटखटाया न अब। दलीलें यहां भी हैं, जैसे कि सार्वजनिक रूप से किसी का नाम लेकर स्वीकार कर लेना वाकई दिलेरी व साहस का काम है। कौन कर सकता है, इतना हिम्मत भरा काम। इतनी हिम्मत तो महिलाएं क्या पुरुष भी ना करे। भला अपने साथ बुरे बर्ताव को कौन सार्वजनिक करता है। यह अच्छी पहल है। इसका समर्थन करना चाहिए। पर सवाल इन दलीलों से ही निकलते हैं। सार्वजनिक नाम लेकर चरित्र हनन के पीछे कहीं कोई गणित तो नहीं? कहीं कोई सस्ती लोकप्रियता पाने या चर्चा में आने का चक्कर तो नहीं? सहानुभूति क्या सिर्फ अभियान से जुडऩे वालों को ही मिलती है? कानून की शरण में जाने वाले न्याय देरी से मिलने की बात जरूर कर सकते हैं लेकिन यहां कौनसा अभियान है।
बहरहाल, इस अभियान से जुड़ा सच यह भी है कि कथित पीडि़त पक्ष भी एकतरफा सा ही है। भला यह कभी संभव हो सकता है? पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता, महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार, लिंग भेद आदि के तर्कों से यह तो साबित किया जाता सकता है कि कथित पीडि़त ज्यादा कौन और क्यों हैं? लेकिन सिर्फ वो ही पीडि़त हैं तो शंका होना लाजिमी है। देखते हैं विदेशी संस्कृति का यह अभियान कालांतर में और क्या-क्या गुल खिलाता है। कितनों का मान मर्दन करता है। कितनों के चरित्र से जुड़े राज फाश होते हैं। इन सबके बावजूद मजा तो तब है जब इन आरोपों की गहनता से जांच हो। फिर जांच के आधार पर सजा मिले। निगरानी इस बात भी रखी जानी चाहिए कि फकत चर्चा में बने रहने के लिए किसी की इज्जत बीच चौराहे पर नीलाम न हो। इज्जत महिला-पुरुष सभी को प्यारी है और सभी के लिए अहम भी, इसलिए, बिना किसी के ठोस प्रमाणों के महज कपोल कल्पित आरोप लगाकर इज्जत से खिलवाड़ कभी किसी के साथ भी न हो।

इक बंजारा गाए-49


जनता की अदालत
चुनाव में जनता की अदालत ही सर्वोपरि होती है। अभी विधानसभा चुनाव नजदीक है लिहाजा, जनता की अदालत की प्रासंगिकता बढ़ गई। इस अदालत में नए पुराने सभी प्रत्याशियों की हाजिरी लग रही है। ऐसे में श्रीगंगानगर के एक पुराने नेताजी ने टिकट के बजाय सीधे ही जनता की अदालत में हाजिरी दे दी है। उनके प्रचार का रिक्शा शहर में घूम रहा है। रिक्शे में समर्थन देने की गुहार तो है ही लेकिन उसकी शुरुआत अलग अंदाज में है। शुरू में गाना बजता है, ‘जयकारा जयकारा, देना साथ हमारा ’। अब देखना है कि चुनाव में इस जयकारे से कितनों का साथ मिलता है।
प्रचार की जिम्मेदारी
चुनाव में कोई भी दल हो या चाहे प्रत्याशी सभी अपने-अपने हिसाब से तैयारी एवं रणनीति बनाते हैं। अब श्रीगंगानगर में एक शराब व पोस्त के ठेकों से जुड़े व्यवसायी की तो तैयारी तो अलग ही तरह की है। चूंकि व्यवसायी ने सक्रिय राजनीति में नई-नई इंट्री मारी है, इसलिए उनको मैदान जमाने के लिए कार्यकर्ता भी चाहिए। अब नए कार्यकर्ता अचानक से कहां से मिलें तो, इसका भी रास्ता खोज लिया गया है। व्यवसायी ने अपने शराब व पोस्त के सेल्समैन को चुनाव में प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी दी है। देखते हैं सेल्समैनों के भरोसे नैया पार लगती है या नहीं?
इतिहास से नाता
राजनीति में संबंध भुनाने व पुराने संपर्कों को याद दिलाने का काम बखूबी किया जाता है। इतना ही नहीं खुद की छवि चमकाने के लिए कई बार अतीत के गौरव या उपलब्धि को भी जिंदा कर लिया जाता है। इतिहास से नाता जोडकऱ पुरानी पृष्ठभूमि बताने तथा उस पर चुनावी फसल उगाने की भरपूर कोशिश की जाती हैं। कुछ ऐसा ही हाल शहर में एक नए नवेले नेताजी का है। कल्पना की चाशनी मिलाकर बनाया गया एक कथित इश्तिहार को लेकर सोशल मीडिया पर न केवल जबरदस्त चटखारे लिए जा रहे हैं बल्कि नेताजी की राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि पर सवाल-जवाब तक हो रहे हैं।
टिकट के लिए
चुनावी मौसम में टिकट के लिए न जाने कितने ही जतन करने पड़ते हैं। महज टिकट के लिए कई तरह के पापड़ बोलने पड़ते हैं। आकाओं को जीत के समीकरण समझाने पड़ते हैं। खैर, ऊपर वालों पर इन सबका कितना असर पड़ता है, यह अलग बात है लेकिन श्रीगंगानगर जिले में भी एक दल की संगठन की जिम्मेदारी संभालने वाले नेताजी भी टिकट की दौड़ में हैं। सुनने में आ रहा है कि वो टिकट की खातिर संगठन की जिम्मेदारी भी छोडऩे को तैयार हैं। दरअसल, समाज के वोटरों की बहुलता के चलते नेताजी खुद को रोक नहीं पा रहे। इसी लालच के चलते वो टिकट मांग रहे हैं।
सडक़ का खेल
श्रीगंगानगर में सडक़ की राजनीति कोई पुरानी नहीं है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा के दौरान तो सडक़ों को लेकर मामला जबर्दस्त गरमा गया था। आनन-फानन में सडक़ें बनने के ऑर्डर तक जारी हो गए। इस सडक़ के खेल में कइयों के चेहरों पर लंबी चौड़ी मुस्कान दौड़ी तो कइयों के चेहरे लटके हुए भी नजर आए। बदली हुई परिस्थितियों में अब सब कुछ उलटा पुलटा हो गया है। जिन चेहरों पर पहले लंबी चौड़ी मुस्कान थी वहां मायूसी छाई हुई है और जिनके चेहरे पहले लटके थे, वहां अब मंद-मंद मुस्कान है। सडक़ के इस खेल में बाजी किसी तीसरे के हाथ लग गई।
दिन बीते
समय को बड़ा बलवान माना जाता है और समय बदलता भी बड़ी तेजी है। कहते हैं समय के आगे किसी की नहीं चलती। अब चिकित्सा विभाग के एक अधिकारी का उदाहरण सबके सामने है। उनकी जगह अब दूसरा अधिकारी आ गया है। इससे पहले भी अधिकारी को हटाया गया लेकिन समर्थकों के प्रयास व एक राजनीतिज्ञ का वरदहस्त होने के कारण उनको रातोरात वापस लगा दिया गया। पुराने अधिकारी के समर्थकों को भरोसा था कि इतिहास फिर दोहराया जाएगा लेकिन वक्त बदल चुका है। राजनीतिज्ञ की भी अब वैसे नहीं चलती।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 04 अक्टूबर 18 के अंक प्रकाशित। 

यह कैसी बराबरी, सूबे के 14 जिलों में नहीं है कोई महिला विधायक

श्रीगंगानगर जिले से हैं सर्वाधिक महिला विधायक 
श्रीगंगानगर. राजनीति में महिलाओं की बराबरी के अधिकार की बात तो की जाती है लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग है। हालात है यह है कि लोकसभा व विधानसभा में महिला के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का मामला अटका पड़ा है।
इसके बावजूद श्रीगंगानगर के मतदाताओं ने पिछले विधानसभा चुनाव में 33 फीसदी आरक्षण से कहीं आगे जिले की छह विधानसभाओं में से तीन पर महिला विधायक चुनकर प्रदेश में एक नजीर पेश की थी। मालूम हो, 14वीं विधानसभा में 28 महिला विधायक चुनी गईं। एक के निधन होने तथा एक के सांसद बनने के कारण संख्या 26 रह गई, लेकिन धौलपुर उपचुनाव में एक महिला के जीत जाने से महिला विधायकों की संख्या 27 है। समूचे प्रदेश की बात करें तो 33 में से 14 जिलों में कोई महिला विधायक ही नहीं है। विधानसभा में झुंझुनूं जिले के सूरजगढ़ विधानसभा से भाजपा की महिला विधायक संतोष अहलावत जीती, लेकिन में बाद में उन्होंने सांसद का चुनाव लड़ा और जीत गई। फिर हुए उपचुनाव में कांग्रेस के श्रवण कुमार जीत गए। इधर धौलपुर उपचुनाव में भाजपा की शोभारानी कुशवाहा जीती।
इन जिलों से हैं महिला विधायक
प्रदेश के श्रीगंगानगर जिले से तीन महिला विधायक हैं। इसके अलावा धौलपुर, अजमेर, अलवर, भरतपुर, दौसा व जोधपुर से दो दो महिला विधायक हैं। सवाईमाधोपुर, राजसमंद, पाली, नागौर, कोटा, करौली, झालावाड़, जालौर, जयपुर, हनुमानगढ़, डूंगरपुर व बीकानेर जिले से एक एक महिला विधायक है।
कम आयु की शीर्ष चार महिला विधायक
विधायक विधानसभा जन्म वर्ष
कामिनी जिंदल श्रीगंगानगर 1988
सोनादेवी रायसिंनगर 1987
अमृता मेघवाल जालौर 1986
शिमला बावरी अनूपगढ 1981
सर्वाधिक आयु की शीर्ष चार महिला विधायक
विधायक विधानसभा जन्म वर्ष
सूर्यकांता व्यास सूरसागर 1938
गोलमादेवी राजगढ़ 1949
वसुंधरा राजे झालरापाटन 1953
कृष्णेन्द्रकौर नदबई 1954
सर्वाधिक शिक्षित चार महिला विधायक
विधायक विधानसभा शैक्षणिक योग्यता
मंजू बाघमार जायल एम कॉम, एलएलएम, पीएचडी, पीजी डिप्लोमा
अलका सिंह बांदीकुई एमए, एलएलएम, पीएचडी
कामिनी जिंदल श्रीगंगानगर एमफिल
अनिता भदेल अजमेर दक्षिण एमए एमएड
सबसे कम शिक्षित चार महिला विधायक
विधायक विधानसभा शैक्षणिक योग्यता
गोलमादेवी राजगढ़ साक्षर
सूर्यकांता व्यास सूरसागर प्राथमिक
सुशील कंवर मसूदा सैकंडरी
राजकुमारी हिंडौन हायर सैकंडरी
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राजस्थान पत्रिका के 04 अक्टूबर 18 के अंक में राजस्थान के तमाम संस्करणों में चुनावी पेज 'राजस्थान का रण' पर  प्रकाशित। 

नदी होकर भी नाली कहलाती है राजस्थान की एकमात्र अंतरराष्ट्रीय नदी



हिमाचल व पंजाब में अच्छी बरसात के कारण नदी में पानी की जोरदार आवक
श्रीगंगानगर. यह मौसमी नदी है और इसका बहना बारिश पर निर्भर करता है। ज्यादा बारिश होती है तो यह सरहद लांघ जाती हैं, अन्यथा देश की सीमा तक ही सीमित रहती है। खास बात यह है कि जब यह देश की सीमा में रहती है तो घग्घर कहलाती है लेकिन सरहद पार कर पाकिस्तान प्रवेश करती है तब इसका नाम हकरा हो जाता है। रोचक तथ्य यह भी जुड़ा है कि श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी को नदी के बजाय नाली कहा जाता है। 
हिमाचल व पंजाब में अच्छी बरसात होने के कारण इन दिनों घग्घर में पानी की जोरदार की आवक हो रही है। लंबे समय बाद घग्घर में पानी की आवक से किसान खुशी हैं। घग्घर का पानी हनुमानगढ़ जिले की सीमा से निकलकर श्रीगंगानगर जिले में जैतसर से आगे तक पहुंचा चुका है। धीरे-धीरे यह अनूपगढ़ की ओर बढ़ रहा है। वैसे घग्घर नदी राजस्थान की आंतरिक प्रवाह की सबसे लंबी नदी है। यह हिमाचल प्रदेश में कालका के पास शिवालिक पहाडिय़ों से निकलती है। पंजाब व हरियाणा में बहते हुए यह नदी हरियाणा सीमा से सटे हनुमानगढ़ जिले के टिब्बी से राज्य में प्रवेश करती है। 
हनुमानगढ़ के ही भटनेर दुगज़् के पास आकर यह नदी अक्सर खत्म हो जाती है। बारिश ज्यादा होने के कारण नदी का पानी हनुमानगढ़ से श्रीगंगानगर जिले में प्रवेश कर जाता है। श्रीगंगानगर से सूरतगढ़, जैतसर, अनूपगढ़ होते हुए यह नदी पाकिस्तान के बहावलपुर जिले में प्रवेश कर जाती है। कुछ लोगों का मत है कि इसी नदी के किनारे ही कालीबंगा सभ्यता विकसित हुई थी। 
तब पानी में होती 
है गश्त
घग्घर का पानी श्रीगंगानगर जिले के अनूपगढ़ क्षेत्र से पाकिस्तान में प्रवेश करता है। यह बिंजौर गांव के पास है। घग्घर के बहाव क्षेत्र में लैला-मजून की मजार तथा सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ ) की पोस्ट भी है। यहां पर पानी झील का रूप से ले लेता है। ऐसे में सीमा सुरक्षा बल के जवानों को तारबंदी के इस पार पानी में ही गश्त करनी पड़ती है। यह तब होता है जबकि पानी की आवक ज्यादा हो जाती है। 
23 साल पहले आया सवाज़्धिक पानी
घग्घर नदी में 23 साल पहले 1995 में बीते तीन दशक में सवाज़्धिक आवक हुई। हनुमानगढ़ के पास बंधा टूटने से शहर का अधिकांश हिस्स जलमग्न हो गया था। इससे बाढ़ के से हालात बन गए थे। इसके बाद पानी की आवक हर साल घटती ही रही। बीते तीन-चार साल में तो आवक और भी कम हो गई। वतज़्मान में पानी की आवक बढऩे की बात कही जा रही है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ संस्करण में 02 अक्टूबर 18 को प्रकाशित