Friday, October 19, 2018

गड़े मुर्दे उखाडऩे का दौर

बस यूं ही
आजकल गड़े मुर्दे उखाडऩे का दौर है। होड़ लगी है। खतरनाक वाली होड़। बाकायदा दो धड़े बने हैं। एक तबका होड़ के समर्थन में हैं तो दूसरा इसको उचित नहीं मानता। मतलब खिलाफ में है। वैसे इस होड़ का मकसद क्या है? होड़ की इस दौड़ का अंजाम क्या होगा? इन सवालों को होड़ का समर्थन या विरोध वाले अपने तर्कों से बेहतर समझा देंगे। बानगी देखिए, होड़ के समर्थकों का कहना है कि यह सार्वजनिक मंच है। यहां अपनी बात रखने का मौका मिलता है। एक दूसरे को देखकर हौसला बढ़ता है। संबल मिलता है। यहां दबी हुई भावनाएं उजागर हो रही हैं। यहां कभी न जाना गया सच जाहिर हो रहा है , इस तरह की तर्कों की फेहरिस्त लंबी है। बेहद लंबी है। जितने मुंह उतने तर्क और उससे कहीं ज्यादा हां में हां मिलाने वाले समर्थक या यूं कहिए अंधभक्त।
इधर, होड़ विरोधी मुहिम चलाने वालों के पास भी अपनी दलीलें हैं। मसलन, सही-गलत का फैसला करने के लिए कानून है। गलत को सजा देने का काम कानून करता है। इस होड़ के बहाने चरित्र हनन हो सकता है? ब्लेकमेल किया जा सकता है? तब चुपी की वजह क्या रही और अब मुखर होने के कारण क्या है़? किसी दर्द या पीड़ा पर प्रतिक्रिया तत्काल क्यों नहीं? कभी गलत हुआ भी तो इस होड़ में शामिल होने से कौनसा न्याय मिल जाएगा। सजा तो कानून ही देगा। या सिर्फ किसी को गरियाना, उनका मान मर्दन करना ही सजा है, आदि-आदि।
खैर, समाज हमेशा ही दो धड़ों में बंटा रहा है। कभी अमीर-गरीब का भेद तो कभी अगड़े-पिछडे़ तो कभी राजा-रंक के नाम पर। मौजूदा दो धड़े महिला-पुरुषों के हैं। वैसे तो महिला-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के बिना सृष्टि सृजन का सपना अधूरा है। दोनों एक दूसरे के रक्षक है। बोले तो एक गाड़ी के दो पहिये। पर अभी दोनों तरफ तलवारें तनी हैं। बात मान, सम्मान, इज्जत, अधिकार व मर्यादा से जुड़ी है। जो धड़ा कथित रूप से पीडि़त है, दबा कुचला है, वह कुछ ज्यादा ही आक्रामक और मुखर है तो दूसरा धड़ा जो कथित रूप से दोषी है, वह थोड़ा सुरक्षात्मक अंदाज में है। इन सबकी वजह है एक विदेशी अभियान। बारह साल पहले शुरू हुआ और वक्त के थपेड़े खाता हुआ यह अभियान अब भारत में प्रवेश कर गया है। अतिथि देवों भव: की मानसिकता में जीने वाले हम भारतीयों ने इस विदेशी अभियान को भी हाथोहाथ लिया। यह इसी अभियान का नतीजा है कि कभी चुपचाप अत्याचार सहन करने वाला धड़ा समय के साथ साहस जुटाकर अब मुखर हो रहा है। तब न कह सकने वाली बात, भले ही वह तब दोनों पक्षों की रजामंदी से हुई हो,अब शोषण की श्रेणी में आ गई है। देरी से की जा रही इस स्वीकारोक्त्ति में कई तरह के संगीन आरोप हैं, जो कानून की दृष्टि में अपराध की श्रेणी में आते हैं लेकिन विडम्बना है न्याय के लिए दरवाजा न तब खटखटाया न अब। दलीलें यहां भी हैं, जैसे कि सार्वजनिक रूप से किसी का नाम लेकर स्वीकार कर लेना वाकई दिलेरी व साहस का काम है। कौन कर सकता है, इतना हिम्मत भरा काम। इतनी हिम्मत तो महिलाएं क्या पुरुष भी ना करे। भला अपने साथ बुरे बर्ताव को कौन सार्वजनिक करता है। यह अच्छी पहल है। इसका समर्थन करना चाहिए। पर सवाल इन दलीलों से ही निकलते हैं। सार्वजनिक नाम लेकर चरित्र हनन के पीछे कहीं कोई गणित तो नहीं? कहीं कोई सस्ती लोकप्रियता पाने या चर्चा में आने का चक्कर तो नहीं? सहानुभूति क्या सिर्फ अभियान से जुडऩे वालों को ही मिलती है? कानून की शरण में जाने वाले न्याय देरी से मिलने की बात जरूर कर सकते हैं लेकिन यहां कौनसा अभियान है।
बहरहाल, इस अभियान से जुड़ा सच यह भी है कि कथित पीडि़त पक्ष भी एकतरफा सा ही है। भला यह कभी संभव हो सकता है? पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता, महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार, लिंग भेद आदि के तर्कों से यह तो साबित किया जाता सकता है कि कथित पीडि़त ज्यादा कौन और क्यों हैं? लेकिन सिर्फ वो ही पीडि़त हैं तो शंका होना लाजिमी है। देखते हैं विदेशी संस्कृति का यह अभियान कालांतर में और क्या-क्या गुल खिलाता है। कितनों का मान मर्दन करता है। कितनों के चरित्र से जुड़े राज फाश होते हैं। इन सबके बावजूद मजा तो तब है जब इन आरोपों की गहनता से जांच हो। फिर जांच के आधार पर सजा मिले। निगरानी इस बात भी रखी जानी चाहिए कि फकत चर्चा में बने रहने के लिए किसी की इज्जत बीच चौराहे पर नीलाम न हो। इज्जत महिला-पुरुष सभी को प्यारी है और सभी के लिए अहम भी, इसलिए, बिना किसी के ठोस प्रमाणों के महज कपोल कल्पित आरोप लगाकर इज्जत से खिलवाड़ कभी किसी के साथ भी न हो।

No comments:

Post a Comment