Wednesday, October 24, 2012

काश! हर दिन नवमी हो जाए...


( एक बच्ची का खुला पत्र )




 टिप्प्पणी

मंगलवार का दिन मेरे लिए ऐतिहासिक रहा। दिन भर खूब पूछ-परख हुई। घरों से लगातार निमंत्रण आते रहे। दुर्ग के सती चौरा माता मंदिर के पास कन्याओं के सामूहिक भोज का नजारा तो मेरे लिए अविस्मरणीय है। दो हजार से अधिक मेरी बहनें लाल चुनरी ओढ़े ऐसी लग रही थी मानो मैया साक्षात अवतरित हो आई हों। सामूहिक भोज से पूर्व शक्ति स्वरूपा मेरी बहनों का जगह-जगह स्वागत हुआ। गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकली। मंदिर परिसर पहुंचने के बाद हुआ स्वागत तो अपने आप में अनूठा रहा। पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाले समाज का यह श्रद्धा-भाव देखकर मैं गदगद् हूं।
लेकिन क्या करूं, मैं जानती हूं मेरी यह खुशी स्थायी नहीं है। साल भर में नवमी जैसे एक-दो आयोजन ही ऐसे आते हैं, जब हमारी इतनी पूछ-परख एवं आवभगत होती है। वरना हमारी हालत किसी से छिपी नहीं है। कौन परवाह करता है हमारी? कदम-कदम पर चुनौतियां हैं। और इन सब के पीछे जो कारण छिपा है वह है पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता। लिंग भेद की काली छाया से तो समूचा देश ही अछूता नहीं है। छत्तीसगढ़ का हाल भी ठीक नहीं है। गर्भ में ही गला घोंट देने तथा लड़का-लड़की में भेद करने के उदाहरण यहां भी हर जगह मिल जाएंगे। तभी तो पूरे प्रदेश में लिंगानुपात गड़बड़ाया हुआ है। महिला सशक्तिकरण की बातें करने वालों से कोई पूछे जरा कि प्रदेश में प्रति हजार पुरुषों के पीछे हमारा अनुपात 991 क्यों है? दुर्ग जिले में तो यह और भी कम है। यहां प्रति हजार पुरुषों के पीछे 988 महिलाएं ही हैं। लिंगानुपात में अंतर के अलावा महिलाओं की हालत भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। मेरी बहनों पर अनाचार एवं शोषण का रिकार्ड शर्मसार करने वाला है। प्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार से जुड़े आंकड़े तो निसंदेह चौंकाने वाले हैं। बलात्कार, अपहरण, दहेज हत्या, पति से प्रताडऩा, लड़कियों की तस्करी व दहेज प्रताडऩा के सन 2010 में 4146 मामले पंजीबद्ध हुए थे। 2011 में ये मामले बढ़कर 4219 हो गए। इसके अलावा बहुत से मामले तो ऐसे भी हैं, जो पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते। बहुत दुख एवं आश्चर्य होता है यह सब जानकर। जिस देश में एक से बढ़कर एक विदुषी महिलाएं पैदा हुईं। नारियों की जहां पूजा होती है, वहां देवताओं के निवास का फलसफा भी तो मेरे देश ने दिया है। वैसे भी देखा जाए तो किस मामले में कम हैं मेरी बहनें। आखिर कौनसा ऐसा काम है जो मेरी बहनें नहीं कर सकती? धरती से लेकर आकाश, घर से लेकर संसद, खेल से लेकर कला, सभी जगह मेरी बहनें अपनी दमदार उपस्थिति दे रही हैं। इतना कुछ होने के बाद भी यह दोहरा व्यवहार क्यों?  क्यों एक-दो दिन मान-मनुहार करने के बाद हमको हमारे हाल पर छोड़ दिया जाता है? क्यों मेरी बहनों को दया का पात्र बना दिया जाता है? आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया हमने? समाज में हमारा भी तो बराबर योगदान है। हम भी तो सम्मान से जीना चाहती हैं। इसलिए एक-आध दिन पूछ परख कर साल भर आंखें मूंदने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी। हर दिन को ही नवमी मान लें तो बहुत सारी समस्याओं का निराकरण स्वत: ही हो जाएगा। काश! हर दिन नवमी हो जाता।


 साभार- पत्रिका भिलाई के 24 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित