Thursday, October 13, 2011

वर्तमान की नहीं भविष्य की चिंता

टिप्पणी
पुरानी कहावत है कि राम और राज की 'मर्जी' के आगे किसी का बस नहीं चलता है। बिलासपुर नगर निगम की एमआईसी को भंग करने से यह साबित हो भी गया है। यह भी एक संयोग ही है कि नगरीय प्रशासन विभाग का यह निर्णय ऐसे समय पर आया जब महापौर अपने जन्म दिन की बधाइयां लेने में व्यस्त थीं तो स्थानीय विधायक बदहाल शहर को पटरी पर लाने की कवायद में अधिकारियों से बैठक करने में जुटे थे। इस संयोग के पीछे भी गहरे अर्थ छिपे हैं। तभी तो एमआईसी भंग होने के साथ ही सड़क, नाली, बिजली एवं पानी की व्यवस्था के लिए आनन-फानन में २० करोड़ रुपए के प्रस्ताव बनाकर स्वीकृति के लिए राज्य शासन को भिजवा भी दिया गया। संभवतः यह प्रस्ताव स्वीकृत भी हो जाएगा।
राज्य सरकार के नुमाइंदे भी तो यही चाहते हैं कि शहर में होने वाले विकास कार्यों का श्रेय उनके हिस्से में आएं। वे यह आसानी से प्रचारित कर सकें कि  निगम ने जो काम नहीं करवाए वे राज्य सरकार ने या उन्होंने कर दिखाए। देखा जाए तो एमआईसी भंग करने के पीछे भी शहर का विकास कम बल्कि नुमाइंदों के भविष्य की चिंता ज्यादा छिपी है। राज्य सरकार के नुमाइंदे सत्ता मद में इतने गाफिल हैं कि उनको शहर की वर्तमान दुर्दशा की चिंता की बजाय अपने भविष्य का डर सता रहा है। इसी डर को भगाने के लिए उन्होंने अभी से प्रयास करने शुरू कर दिए हैं। एमआईसी भंग करवाने को भी उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
वैसे भी राज्य सरकार का यह निर्णय राजनीति से प्रेरित ज्यादा नजर आता है। राज्य सरकार ने एमआईसी भंग करने के लिए दो साल किस बात का इंतजार किया?  इसके असंवैधानिक होने का ख्याल इसके गठन के समय क्यों नहीं आया? भंग करने के लिए बीच का समय ही क्यों चुना गया? भंग होने के बाद विकास कार्यों के लिए हाथोहाथ प्रस्ताव भिजवाने का मतलब क्या है? अगर गठन गलत था तो हर बैठक में निगम के आयुक्त तथा अधिकारी क्यों आए?  वे किस हैसियत से इन बैठकों में भाग लेते रहे?  एमआईसी की ओर से पारित प्रस्तावों को क्यों पास किया जाता रहा?  एमआईसी की ओर से पारित ३३ में से २५ को ही निरस्त क्यों किया? आठ प्रस्तावों के बारे में चुप्पी क्यों साधी गई? आदि अनगिनत सवाल हैं, जो आम मतदाता के जेहन में उमड़ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि एमआईसी से पारित योजनाओं पर खर्च हुई राशि का क्या होगा? 
एमआईसी भंग करने से ऐसा लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित था। सुनियोजित तरीके से ऐसे समय को चुना गया जब माहौल को अपनी तरफ मोड़ा जा सके। जनता की दुखती रग को टटोला जा सके। वर्तमान समय से ज्यादा मुफीद समय शायद हो भी नहीं सकता है। वर्तमान में शहरवासियों को मूलभूत एवं बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मय्यसर नहीं हो पा रही हैं। शहर की बदहाली से आमजन त्रस्त हैं। आलम यह है कि एमआईसी भंग होने के बाद प्रस्ताव तैयार करने में तत्परता दिखाने वाले निगम के अधिकारी हाईकोर्ट की फटकार पर भी गंभीर नहीं हुए। यह भी एक यक्ष प्रश्न है कि निगम अधिकारियों में इतना सजगता एवं सतर्कता यकायक कहां से एवं कैसे आ गई। वैसे भी एमआईसी के गठन के बाद से असंतोष के स्वर उठने शुरू हो गए थे। कांग्रेस के कुछ पार्षद भी एमआईसी के गठन से संतुष्ट नहीं थे। पार्टी के नाते एवं दिखावे के लिए अब भले ही वे राज्य सरकार के निर्णय का विरोध कर रहे हों लेकिन राज्य सरकार के नुमाइंदों से उनकी नजदीकियां शहरवासियों के लिए न तो नई हैं और न ही छिपी हुई नहीं है।
बहरहाल, एमआईसी भंग होने के बाद उसे सही एवं गलत ठहराने के अपने-अपने दावे किए जा रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि शहर अभी भी राजनीतिक चंगुल में फंसा हुआ है। शहर के नुमाइंदे बदहाल शहर एवं बेबस जनता के दुखदर्द दूर करने के बजाय अपना भविष्य पुख्ता एवं सुनिश्चित करने की कवायद में जुटे हैं। खामोश जनता यह सब देख रही है लेकिन  'उचित मौके'  की तलाश भी कर रही है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 13 अक्टूबर 11 के अंक में प्रकाशित।