Thursday, February 27, 2014

... तो क्या कुत्ते काटना छोड़ देंगे!



टिप्पणी

रायपुर में कुत्ते के हमले में हुई मासूम की मौत के बाद समूचे प्रदेश में इस बात पर बहस छिड़ी हुई है कि खूंखार होते आवारा कुत्तों से पार कैसे पाया जाए? नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग ने आनन-फानन में प्रदेश के निकायों को आवारा कुत्तों से निपटने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। साथ ही 28 फरवरी तक कुत्तों से निपटने के लिए किए उपायों के संबंध में रिपोर्ट भी मांगी गई है। शासन के आदेशों की अनुपालना में निगमों में हरकत शुरू हो गई है। दुर्ग एवं भिलाई निगम के अधिकारी भी इसी उधेड़बुन में हैं कि निर्देशों का जवाब किस तरह तैयार किया जाए, ताकि शासन को संतुष्ट किया जा सके। वैसे देखा जाए तो दोनों ही निगमों में कुत्तों से निबटने के लिए कभी गंभीरता नहीं दिखाई गई। तभी तो निगमों के पास न तो कोई संसाधन है और ना ही प्रशिक्षित कर्मचारी। कुत्तों को पकड़कर उनकी नसबंदी करने के लिए भी निजी एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है। भिलाई निगम के अधिकारी तो दावा कर रहे हैं कि पिछले साल दिसम्बर में करीब 25 सौ कुत्तों की नसबंदी की गई, लेकिन दुर्ग में तो इस प्रकार की कोई योजना ही अमल में नहीं आई। अकेले जनवरी में दुर्ग के जिला अस्पताल में 471 मरीजों ने एंटी रैबीज इंजेक्शन लगवाया। निजी अस्पतालों में जाकर इंजेक्शन लगवाने वालों की संख्या इससे अलग है।
दिन-प्रतिदिन गंभीर होती इस समस्या के लिए अब परम्परागत तरीकों मे बदलाव करना बेहद जरूरी हो गया है। सिर्फ नर कुत्तों की नसबंदी करने से ही समस्या का हल नहीं होने वाला। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब आवारा कुत्तों की वास्तविक संख्या का आंकड़ा ही पता नहीं है, तो फिर नसबंदी का लक्ष्य कैसे निर्धारित कर दिया गया। वैसे भी आवारा कुत्तों का कोई क्षेत्राधिकार नहीं होता है। वो एक से दूसरी जगह भी जाते हैं। नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के निर्देशों में आवारा कुत्तों से स्थायी छुटकारा पाने का रास्ता दिखाई नहीं देता। ऐसे में दिशा-निर्देश कागजी ज्यादा नजर आते हैं। इनकी पालना ईमानदारी से होगी, इसमें भी संशय है। और अगर किसी तरह से लागू भी किए गए तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह सब करने के बाद कुत्तों के आतंक से मुक्ति मिल जाएगी।
बहरहाल, समस्या कुत्तों की फौज बढऩे के अलावा उनके खूंखार व हिंसक होने की ज्यादा है। शासन के दिशा-निर्देशों में कहीं पर भी यह उल्लेख नहीं है कि ऐसा करने से कुत्ते काटना छोड़ देंगे। नसबंदी कर देने से, मटन-मछली की दुकान कम करने या उनको बंद कर देने से कुत्तों का आतंक खत्म हो जाएगा, यह बेहद हास्यास्पद बात लगती है। ऐसे में समस्या के स्थायी समाधान के लिए ठोस एवं कारगर उपाय खोजने की जरूरत है। अब जरूरी हो गया है कि आवारा पशुओं की तर्ज पर आवारा कुत्तों को पकड़कर उनको एक जगह रखने की व्यवस्था हो। आवारा कुत्तों के साथ पालतू कुत्तों व मादा कुत्तों की नसबंदी भी हो..। अगर यह उपाय जल्द नहीं खोजे गए तो कुत्ते यूं ही काटते रहेंगे। काटना उनकी आदत है।


 भिलाई पत्रिका के  बुधवार 19 फरवरी के अंक में प्रकाशित  टिप्पणी..।

आठ दिन का सप्ताह


बस यूं ही 

आज सुबह टीवी पर गाना आ रहा था, गीत के बोल थे.. 'फूलों सा चेहरा तेरा, कलियों सी मुस्कान है, रंग तेरा देख के रूप तेरा देख के कुदरत भी हैरान है। वैसे यह गीत कॉलेज के जमाने में कई बार सुना है। उस वक्त यह गीत नया-नया आया था और बार-बार सुनने को मन करता था, लेकिन आज गीत ने सोचने पर मजबूर कर दिया। सोचने की सबसे बड़ी वजह थी युवा पीढ़ी का प्रमुख त्योहार वेलेंटाइन डे। हमारे देश के बड़े एवं चुनिंदा शहरों में ही कभी इसकी शुरूआत हुई थी। प्रेमी युगल डरे सहमे एवं छिप-छिपकर पाश्चात्य संस्कृति से रचे-बसे इस त्योहारों को मनाते थे। इसके बाद तो जो हुआ बस पूछिए मत..। नकल करने में माहिर देशवासियों ने इस त्योहार को हाथो हाथ लेकर इसकी लोकप्रियता में चार चांद लगा दिए। रफ्ता-रफ्ता इसे वेलेंटाइन सप्ताह का रूप दे दिया गया। हर दिन एक अलग-अलग गतिविधि। मतलब एक ही सप्ताह में प्रेम का अंकुरण प्रस्फुटित होने से लेकर प्रेम के पेड़ बनने तक की कहानी पूर्ण हो जाती है। यह बात दीगर है कि इस वेलेंटाइन सप्ताह में सात की बजाय आठ दिन होते हैं। यकीन ना आए तो गिनती कर लीजिए..। शुक्रवार को इस सप्ताह का पहला दिन था और आठवें दिन वेलेंटाइन डे है। खैर, प्रेम एवं युद्ध में सब जायज है, इस कारण सप्ताह में सात की बजाय आठ दिन भी हो सकते हैं। सप्ताह के पहले दिन को नाम दिया गया रोज डे..। यानि की प्रेम की राह पर बढऩे या चलने की शुरुआत करने वाले इस दिन एक दूसरे को गुलाब का फूल देते हैं। मुझे गीत के बोल फिर याद रहे थे.. मैं सोच में डूबा था कि जब चेहरा ही फूलों जैसा है तो फिर उसे अलग से फूल देने की जरूरत ही कहां रह जाती है। बात फूलों की चली तो फिर फूलों से वाबस्ता कई तराने जेहन में घूम गए। ए गुलबदन, फूलों की महक कांटों की चुभन, तुम्हे देख के कहता है मेरा दिल कहीं आज महोब्बत ना हो जाए..। ऐ फूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गजब हो गया.. ना दिल होश में हैं ना हम होश में नजर का मिलाना गजब हो गया। वैसे, जहां चेहरे ही फूलों जैसे हों, वहां अलग से फूल देना या देने की बात करने का कोई मतलब नहीं होता है। हां, इतना जरूर है कि साल भर ग्राहकों के इंतजार में हाथ पर हाथ धरकर बैठने वाले फूल विक्रेताओं के लिए रोज डे व्यस्तता भरा रहता है। वे युगलों की शक्ल एवं हैसियत देखकर मुंहमांगी कीमत जो वसूलते हैं। इसके अलावा करें भी क्या.? कल गुलाब के फूल को पूछेगा भी कौन..। बात फूलों से आगे जो बढ़ जाएगी। अरे भई प्रपोज डे जो आ जाएगा। प्रपोज बोले तो प्रेम के इजहार करने का दिन। इसके बाद तो कभी चाकलेट डे, कभी टेडी डे, कभी प्रोमिस डे तो कभी कुछ और इन सबके बाद वेलेंटाइन डे आता है। इन सात आठ दिन में इजहार, वादा सब कुछ हो जाता है।
मैं ख्यालों में अभी खोया ही था कि दूसरा गीत बजने लगा.. 'प्यार किया नहीं जाता.. हो जाता है, दिल दिया नहीं जाता.. खो जाता है। वेलेंटाइन सप्ताह में गीत के बोल मुझे बेमानी से लग रहे थे। क्योंकि मौजूदा दौर में वेलेंटाइन सप्ताह में किस दिन क्या करना है, यह सब मुकर्रर है। ऐसे में इस सप्ताह के अलावा प्यार करने और दिल खोने की तो वैसे भी कल्पना नहीं जा सकती।

काश, बयान का समर्थन होता...!!!


बस यूं ही 

गरीब की कोई जाति नहीं होती है। और हमारे देश में शायद ही ऐसी कोई जाति होगी, जिसमें गरीब नहीं हैं। कहने का आशय यह है कि हर जाति में गरीब व अमीर मिल जाएंगे। हां, इतना जरूर है कि गरीब-अमीर का प्रतिशत कुछ ऊपर-नीचे जरूर हो सकता है, लेकिन मिलेंगे सब जातियों में। इसके बावजूद हमारे देश की सियासत आजादी के समय से ही गरीबी का आधार जाति को मानती रही है, ताकि वोट बैंक सुरक्षित रहे। समय-समय पर आरक्षण विधेयकों में बहुत संशोधन किए गए। प्रतिशत घटाने-बढ़ाने का अंकगणित भी खूब चला लेकिन केन्द्र बिन्दु में जाति ही रही। जिस जाति का ज्यादा वोट बैंक उसको आरक्षण देने में या उनका कोटा बढ़ाने में प्राथमिकता बरती गई। और इसी आधार पर आरक्षण का लाभ भी दे दिया। वोट बैंक खिसकने एवं जनाधार कम होने के डर से किसी ने भी सच जानने के बावजूद आरक्षण के खिलाफ बोलने का साहस नहीं किया। विशेषकर, चुनाव के आसपास आरक्षण को लेकर राजनीतिक शिगूफे प्रायोजित तरीके से छोड़े जाते हैं, ताकि मतदाताओं की भावनाओं का भरपूर दोहन कर लाभ उठाया जा सके। कुछ इसी तरह का शिगूफा हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने छेड़ा है। जाति आधारित आरक्षण खत्म करने की वकालत करते हुए द्विवेदी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से आग्रह किया है कि वे इस मामले में पहल करें। द्विवेदी यहीं नहीं रुके, साहसिक अंदाज में उन्होंने यह तक कह दिया कि .. सामाजिक न्याय की अवधारणा आजकल जातिवाद में बदल गई है। इसे खत्म करने की जरूरत है।
कांग्रेस नेता द्विवेदी के इस ऐतिहासिक बयान के कई मायने हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि साठ के दशक से राजनीति करते आ रहे द्विवेदी का यह नया बयान राजनीति से प्रेरित नहीं है। लेकिन सबसे यक्ष सवाल यही है कि आजादी से लेकर अब सर्वाधिक सत्ता में रही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता को यह नेक और सद्विचार इतने लम्बे समय के बाद क्यों आया? दरअसल, मौजूदा दौर में चुनावी रण में इतने दल हो गए हैं कि अब चुनाव जीतना आसान काम नहीं है। जिस आरक्षण के नाम पर राजनीतिक दल और उनके नुमाइंदे चुनावी वैतरणी पार करते थे, उस पर अब कई दल सवार हैं। जातियों के भी कई पैरोकार पैदा हो गए हैं। ऐसे में आरक्षण देने का श्रेय कई दलों में बंट गया है। आरक्षण का अब उम्मीदानुसार फायदा किसी दल को नहीं मिल पा रहा है। इसलिए आरक्षण को नए सिरे से परिभाषित करना कांग्रेस नेता की एक तरह से देखा जाए तो मजबूरी भी है। द्विवेदी को उम्मीद है कि अगर कांग्रेस ऐसा करने में कामयाब रही तो आरक्षण से वंचित तबका उसके खेमे आ सकता है। और इसी मसले के सहारे के कांग्रेस फिर सत्ता में वापसी कर सकती है।
बहरहाल, देश में जाति आधारित आरक्षण की बुनियाद रखने में कांग्रेस का ही प्रमुख योगदान था। उस वक्त आरक्षण का मुख्य उद्देश्य दबे, कुचले एवं पिछड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा से जोडऩा था। यह बात राजनीतिज्ञों को बहुत जल्दी समझ में आ गई थी कि जिन उद्देश्यों से आरक्षण की परिकल्पना कर इसे लागू किया गया था, वह उन उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर रहा है। चंद लोग ही इसका फायदा उठा रहे हैं। दबा कुचला वर्ग मुख्यधारा से नहीं जुड़ पा रहा, आदि-आदि। यह कड़वा सच जानने के बाद कमोबेश सभी राजनीतिक दल इसको नजरअंदाज करते रहे, क्योंकि यह ऐसा मसला था, जिसका विरोध करने का मतलब सीधे-सीधे आरक्षण से लाभान्वित तबके को नाराज करना था। ऐसे में गरीबी के आधार पर आरक्षण के बात दरकिनार की जाती रही। आजादी के 67 साल बाद अब कांग्रेस नेता द्विवेदी को लग रहा है कि आरक्षण का आधार जाति ना होकर गरीबी ही होना चाहिए था। वैसे द्विवेदी भले ही गरीबी के आधार पर आरक्षण की पैरवी कर इसमें अपना नफा-नुकसान तलाशे लेकिन यह सुझाव बुरा नहीं है। सभी दलों को राजनीतिक चश्मे से इतर इस मसले पर गंभीरता दिखानी चाहिए ताकि सामाजिक न्याय की अवधारणा को सही मायनों में जिंदा रखा जा सके। वैसे इस मसले पर अगर सभी राजनीतिक दल सहमत होते हैं तो यह देर से ही लेकिन एक कालजयी फैसला होगा, जिसके कई तरह के दूरगामी फायदे होंगे।
वैसे बयान को लेकर कांग्रेस ने खंडन जारी कर दिया है। पार्टी का कहना है कि यह जनार्दन द्विवेदी के निजी विचार हैं, पार्टी का इससे कोई सरोकार नहीं है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी द्विवेदी के बयान से खुद को अलग करते हुए कहा कि कांग्रेस हमेशा से ही आरक्षण का समर्थन करती आई है और इसे लेकर उसकी नीतियां जगजाहिर हैं। काश, द्विवेदी के बयान का पार्टी समर्थन करती। सुझाव पर अमलकरने का साहस दिखाती लेकिन ऐसा हो न सका। इस सारे घटनाक्रम से यह बात तो सामने आती है कि नेताओं को हकीकत तो पता है लेकिन जानबूझकर वो अपने लब सीलकर रखते हैं। द्विवेदी ने लब खोलने की हिम्मत दिखाई लेकिन पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया।

खुशियां मनाओ, झूमो और गाओ.!


बस यूं ही

यह हम सब के लिए खुशी का दिन है। जश्न मनाने का दिन है। ढोल बजाकर नाचने और झूमने का दिन है। मिठाई बांटकर खुशी का इजहार करने का दिन है। एक दूसरे के गले मिलकर बधाई देने का दिन है। यकीन कीजिए यह बहुत बड़ा दिन है। देश के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि वाला दिन है। देश की गंभीर एवं विकट समस्या को हल करने का रास्ता खोजने का दिन है। ऐतिहासिक, अविस्मरणीय व अविश्वसनीय दिन है। यह जागती आंखों से सपने देखने का दिन है। यह एक तरह का कमाल है, एक तरह का प्रयोग है, जो हाल में खोजा गया है, हालांकि शुरुआत तो दो तीन साल पहले ही हो गई थी लेकिन सफलता की कसौटी पर खरा यह अब जाकर उतरा है। अब, दिमाग के घोड़े मत दौडा़ओ...।
दरअसल, खुशी इस बात की है कि हमारे देश से गरीबी खत्म हो रही है। इतनी तेज रफ्तार से गरीबी उन्मूलन हो रहा है कि दुनिया की तमाम तरह की रफ्तारें इस रफ्तार के आगे पानी भर रही हैं। आजादी से लेकर बड़े-बड़े धुरंधर जो काम नहीं कर पाए वो काम अब क्रिकेट के ट्वंटी-ट्वंटी मैच की तर्ज पर हो रहा है। वैसे गरीबी ने कई लोगों का भविष्य बनाया। उनकी जिंदगी संवार दी। गरीबी हटाओ के नारे से न जाने कितनी ही नेताओ की डूबती नैया पार लगी। न जाने कितनों ने ही इसके सहारे सफलता की सीढ़ी चढ़कर सत्ता का सुख भोगा। गरीबी मिटाने के नाम पर न जाने कितनों ने अपनी जेबें भरी। खूब माल बटोरा। इतने करने के बाद भी गरीबी कम नहीं हुई है। जनसंख्या बढऩे के साथ गरीबी भी बढ़ती गई। शायद इसीलिए भी कि अगर गरीबी खत्म कर दी गई तो कोई बड़ा मुद्दा बचेगा ही नहीं। खैर, हमारे नेताओं को अब सदबुद्धि आ गई है। लगता है उन्होंने यह मुद्दा खत्म करने का मानस बना ही लिया है। नेताओं को लगने लगा है कि अब जनता जाग गई है। गरीबी के नाम पर ज्यादा दिन तक उसको बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है, इसलिए गरीबी का खात्मा जरूरी हो गया है।
जमाना हाइटेक है, सूचना एवं प्रौद्योगिकी का है, लिहाजा गरीबी उन्मूलन भी उसी तर्ज पर हो रहा है। वैसे बचपन में एक कहावत सुनी थी कि बड़ी लकीर को अगर छोटा करना है तो उसके पास उससे भी बड़ी एक लकीर खींच दो.. पहले वाली लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। देश से गरीबी भी कुछ इसी अंदाज में खत्म की जा रही है। नेताओं ने गरीबी का पैमाना ही बदल दिया है। इससे गरीब अपने आप ही कम हो रहे हैं। अब देखिए ना सन 2011 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा था कि प्रतिदिन 32 रुपए कमाने वाला शहरी और 23 रुपए कमाने वाला ग्रामीण गरीब नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि उस वक्त इस बात का विरोध करने वाली भाजपा ने भी अब कमोबेश वैसा ही रास्ता अख्तियार कर लिया है। गुजरात सरकार ने खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग को हाल ही में जारी किए गए एक पत्र में कहा है कि हर माह 324 रुपए कमाने वाले ग्रामीण और 501 रुपए कमाने वाले शहरी को गरीबी रेखा से ऊपर रखा जा सकता है। पिछले माह जारी किए गए इस पत्र के मुताबिक ग्रामीण की रोज की आय 11 रुपए और शहरी व्यक्ति की प्रतिदिन आय 17के करीब रुपए होती है।
अब, नए तरीके से देश से गरीबी खत्म हो रही है तो कई तरह की प्रतिक्रियाएं भी आना लाजिमी है। इसलिए जो गरीबी हटाने के समर्थन में हैं वे चुप रहे। और जिनको हमारे नेताओं का यह तरीका नागवार गुजरा हो तो कृपा करके वे इससे बेहतर कोई दूसरा नायाब तरीका बताएंगे तो मेहरबानी होगी। वरना, आप भी गरीबी कम होने का जश्न मनाओ।

बेचारा, गली का कुत्ता!


बस यूं ही

सुबह आंखें कुछ देरी से खुली थी। नित्यकृमों से निवृत्त होने के बाद तत्काल कार्यालय के तरफ दौड़ पड़ा। घर से निकला उस वक्त दस बजकर दस मिनट हो चुके थे। मैं लगभग दौडऩे वाले अंदाज में लम्बे कदम भरते हुए कार्यालय के तरफ चला जा रहा था। रास्ते में अचानक पांच छह कुत्तों का झुण्ड मेरे सामने आ गया। मैंने देखा कि उन कुत्तों के बीच मेरी गली का कुत्ता फंसा हुआ था। उसका अंदाज तो बिलकुल बदला हुआ था। हो भी, कैसे नहीं, बेचारा भूले-भटके दूसरी गली में जो आ गया था। उसकी दुम दोनों टांगों के बीच दबी हुई थी। बिलकुल यू टर्न वाले अंदाज में। उसके भौंकने की आवाज तो बिलकुल बदली हुई थी। भौंक नहीं रहा बल्कि इस अंदाज में रिरिया रहा था, गिड़गिड़ा था, जैसे कह रहा हो कि.. भइया गलती हो गई, आइंदा ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी। इस बार के लिए कृपया माफ कर दो, आदि- आदि। लेकिन वो बाहर वाले कुत्ते तो जैसे मौका ही तलाश रहे थे। वे गली के कुत्ते को छोडऩे के मूड में कतई नहीं थे। उनकी लाल-लाल आंखों से गुस्सा साफ जाहिर हो रहा था। मेरी गली वाला कुत्ता बचाव की मुद्रा में हल्के से गुर्राता.. दांत दिखाता और कदम वापस खींचने के जतन कर रहा था। वह और कर भी क्या सकता था। माहौल अनुकूल न होने के कारण उसका कोई जोर भी तो नहीं चल रहा था। बिलकुल निरीह और बेचारा बना हुआ था। लेकिन दूसरे कुत्ते तो जैसे मौके की ताक में ही थे। वे गुस्से में गुर्रा रहे थे, दांत दिखा रहे थे, जैसे कह रहे हों, अरे वाह, कल तो अपनी गली में शेर बना हुआ था। कैसे भौंक रहा था। छोटे से लेकर बड़े कुत्तों तक से पंगा ले रहा था, बड़ी दिलेरी के साथ। पता नहीं अपनी गली में इतनी हिम्मत कहां से आ गई थी। किसी को भी नहीं बख्शा था। तभी तो आसपास के मोहल्लों में नम्बर वन होने का तमगा हासिल कर लिया।
बाहरी कुत्तों का गुस्सा देखकर मैं तनिक सा घबराया कि कहीं गली का समझकर ये मेरे को ना घेर लें। इसलिए मैं चुपचाप अजनबी ही बना रहा। गली के कुत्ते के गले में पट्टा देखकर अचानक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे, मानो वह मेरी गली के कुत्ते पर अट्टाहास कर रहे हों। मजाक में ठहाके लगा रहे हों। मैंने वहां ज्यादा देर रुकना उचित नहीं समझा और कुत्तों से बचते हुए तत्काल कार्यालय की तरफ बढ़ गया।
कार्यालय में सुबह की मीटिंग निबटा कर घर पहुंचा उस वक्त दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे। सुबह जल्दबाजी में क्रिकेट मैच को भी भूल गया था। घर आते ही टीवी ऑन किया। वैसे मैच केवल इसीलिए देख रहा था कि शायद अंतिम वन डे जीतकर हमारे खिलाड़ी बची-खुची लाज तो बचा लें.. लेकिन ऐसा नहीं हो सका। हमारे धुरधंरों ने बड़ी आसानी से आत्समर्पण कर दिया। बड़ी शर्मनाक हार हो चुकी थी। टीवी से तत्काल मैच हटाकर समाचार चैनलों की तरफ बढ़ा तो उन पर भी भारतीय टीम की हार छाई हुई थी। मैंने टीवी बंद किया तो जेहन में सुबह का दृश्य फिर जीवंत हो उठा.. बेचारा गली का कुत्ता। अपनी गली में तो शेर था लेकिन आज उसकी उन बाहरी कुत्तों ने क्या गत बनाई। निरीह बनकर कैसे दुम दबाकर खड़ा था उस वक्त। ।
कमरे से उठकर मैं बाहर आया और छत्त से नीचे झांका तो बेचारा पेड़ की छांव में अपनी जीभ से जख्मों को चाटने में जुटा था, बीच-बीच में कराह भी रहा था। उसके आसपास कुछ युवक खड़े थे जो कुत्ते के गले से नम्बर वन लिखा पट्टा गायब होने पर चिंतातुर थे।