Thursday, February 27, 2014

बेचारा, गली का कुत्ता!


बस यूं ही

सुबह आंखें कुछ देरी से खुली थी। नित्यकृमों से निवृत्त होने के बाद तत्काल कार्यालय के तरफ दौड़ पड़ा। घर से निकला उस वक्त दस बजकर दस मिनट हो चुके थे। मैं लगभग दौडऩे वाले अंदाज में लम्बे कदम भरते हुए कार्यालय के तरफ चला जा रहा था। रास्ते में अचानक पांच छह कुत्तों का झुण्ड मेरे सामने आ गया। मैंने देखा कि उन कुत्तों के बीच मेरी गली का कुत्ता फंसा हुआ था। उसका अंदाज तो बिलकुल बदला हुआ था। हो भी, कैसे नहीं, बेचारा भूले-भटके दूसरी गली में जो आ गया था। उसकी दुम दोनों टांगों के बीच दबी हुई थी। बिलकुल यू टर्न वाले अंदाज में। उसके भौंकने की आवाज तो बिलकुल बदली हुई थी। भौंक नहीं रहा बल्कि इस अंदाज में रिरिया रहा था, गिड़गिड़ा था, जैसे कह रहा हो कि.. भइया गलती हो गई, आइंदा ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी। इस बार के लिए कृपया माफ कर दो, आदि- आदि। लेकिन वो बाहर वाले कुत्ते तो जैसे मौका ही तलाश रहे थे। वे गली के कुत्ते को छोडऩे के मूड में कतई नहीं थे। उनकी लाल-लाल आंखों से गुस्सा साफ जाहिर हो रहा था। मेरी गली वाला कुत्ता बचाव की मुद्रा में हल्के से गुर्राता.. दांत दिखाता और कदम वापस खींचने के जतन कर रहा था। वह और कर भी क्या सकता था। माहौल अनुकूल न होने के कारण उसका कोई जोर भी तो नहीं चल रहा था। बिलकुल निरीह और बेचारा बना हुआ था। लेकिन दूसरे कुत्ते तो जैसे मौके की ताक में ही थे। वे गुस्से में गुर्रा रहे थे, दांत दिखा रहे थे, जैसे कह रहे हों, अरे वाह, कल तो अपनी गली में शेर बना हुआ था। कैसे भौंक रहा था। छोटे से लेकर बड़े कुत्तों तक से पंगा ले रहा था, बड़ी दिलेरी के साथ। पता नहीं अपनी गली में इतनी हिम्मत कहां से आ गई थी। किसी को भी नहीं बख्शा था। तभी तो आसपास के मोहल्लों में नम्बर वन होने का तमगा हासिल कर लिया।
बाहरी कुत्तों का गुस्सा देखकर मैं तनिक सा घबराया कि कहीं गली का समझकर ये मेरे को ना घेर लें। इसलिए मैं चुपचाप अजनबी ही बना रहा। गली के कुत्ते के गले में पट्टा देखकर अचानक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे, मानो वह मेरी गली के कुत्ते पर अट्टाहास कर रहे हों। मजाक में ठहाके लगा रहे हों। मैंने वहां ज्यादा देर रुकना उचित नहीं समझा और कुत्तों से बचते हुए तत्काल कार्यालय की तरफ बढ़ गया।
कार्यालय में सुबह की मीटिंग निबटा कर घर पहुंचा उस वक्त दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे। सुबह जल्दबाजी में क्रिकेट मैच को भी भूल गया था। घर आते ही टीवी ऑन किया। वैसे मैच केवल इसीलिए देख रहा था कि शायद अंतिम वन डे जीतकर हमारे खिलाड़ी बची-खुची लाज तो बचा लें.. लेकिन ऐसा नहीं हो सका। हमारे धुरधंरों ने बड़ी आसानी से आत्समर्पण कर दिया। बड़ी शर्मनाक हार हो चुकी थी। टीवी से तत्काल मैच हटाकर समाचार चैनलों की तरफ बढ़ा तो उन पर भी भारतीय टीम की हार छाई हुई थी। मैंने टीवी बंद किया तो जेहन में सुबह का दृश्य फिर जीवंत हो उठा.. बेचारा गली का कुत्ता। अपनी गली में तो शेर था लेकिन आज उसकी उन बाहरी कुत्तों ने क्या गत बनाई। निरीह बनकर कैसे दुम दबाकर खड़ा था उस वक्त। ।
कमरे से उठकर मैं बाहर आया और छत्त से नीचे झांका तो बेचारा पेड़ की छांव में अपनी जीभ से जख्मों को चाटने में जुटा था, बीच-बीच में कराह भी रहा था। उसके आसपास कुछ युवक खड़े थे जो कुत्ते के गले से नम्बर वन लिखा पट्टा गायब होने पर चिंतातुर थे। 

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