Saturday, March 30, 2013

बिल, बयान और बवाल-6


बस यूं ही

आंखों की जिंदगी में अहमियत इतनी है कि इनके बिना किसी तरह की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आंख है तभी तो दुनिया रोशन है, रंगीन है। आंखों के बिना तो घुप अंधेरा है। आप देख ही नहीं पाएंगे कि दुनिया कैसी है और उसमें क्या हो रहा है। आंखों के फिल्मी गीतों से संबंध को लेकर संभवत: यह आखिरी कड़ी है। इसके बाद इस बिल के संभावित परिणाम पर नजर डाली जाएगी। वैसे आज भी आंखों से संबंधित करीब तीन दर्जन गीत याद आ रहे हैं। बहुत चर्चित गीत है, यकीनन आपने भी सुना होगा और गुनगुनाया भी होगा। 'तुम्हारी नजर क्यों खफा हो गई, खता बख्श दो गर खता हो गई...।' अब कोई नजरों से खफा होने के बारे में पूछेगा ही नहीं। ऐसे में खता होने की गुंजाइश भी कम हो जाएगी। लेकिन संकट यह भी है कि अब नजर खफा है या नहीं इसका पता लगाना भी टेढ़ी खीर होगा। अब तो नजर जैसी है, वैसी ही रहे तो गनीमत है। वैसे अपुन को आंखों पर लिखे कई मुहावरे व शेरो-शायरियां भी याद हैं लेकिन फिलहाल चर्चा गीतों की ही होगी। यह गीत देखिए 'नैनों में सपना, सपनों में सजना...' इसमें जरूर बचाव का रास्ता दिखाई दे रहा है। आखिर देखना या घूरना ही तो अपराध है। किसी के सपने देखना अपराध थोड़े ही है। वह चाहे जागती आंखों से देखे या फिर सोते हुए, यह उसकी मर्जी। हां भविष्य में सपनों पर भी रोक लग जाए तो कह नहीं सकता लेकिन फिलहाल इस गीत को सुनने या गुनगुनाने में मेरे कोई खतरा नजर नहीं आता। शायद फिल्म वालों को भी नहीं आता। तभी तो यही गीत पहले जितेन्द्र पर फिल्माया गया और और अब नए कलेवर में अजय देवगन पर। लेकिन इस प्रकार के बिना खतरे वाले गीत कम ही हैं। 'तेरे दिल ने न जाने क्या कहा, तेरे नैन मेरे नैन देखते रहे...।' अब यहां तो फंसने के पूरे-पूरे आसार बन रहे हैं। अब दिल चाहे कुछ भी कहे लेकिन नैन आपस में देखने से तौबा कर लेंगे।
खैर, बिल, बहस और बवाल को लेकर यह छठी कड़ी हैं और लगातार आंखों पर ही लिखा जा रहा है। लेकिन लेखन को लेकर कोई अपुन पर किसी तरह का 'वाद 'चस्पा ना करे। क्योंकि अपुन को न वाद पसंद है और ना ही विवाद। अपुन को तो बस निर्विवाद बना रहना चाहते हैं। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि घूरने एवं ताकने को अपुन भी बुरा मानते हैं, लेकिन इसका पैमाना क्या होगा, बहस इसी बात को लेकर है। मतलब इसकी आड़ में इसका दुरुपयोग होने की आशंका रहेगी। अपुन उसी आशंका को आधार बनाकर लिख रहे हैं कि ऐसा हो जाएगा तो भी खतरा है। ऐसा भी नहीं है कि अपुन के लिखने से कानून या नियम तोडऩे वाला रुक जाएगा। देश में कानून एवं नियम अक्सर टूटते रहते हैं। गाहे-बगाहे उनका दुरुपयोग होता रहता है। वैसे अपुन की फितरत नियम एवं कानून को मानने एवं उनका पालन करने की ही रही है। इसलिए कोई यह ना समझ ले कि मैं ऐसा करके नियम या कानून पर कोई टीका-टिप्पणी कर रहा हूं। सार यही है कि लेख लिखने के पीछे अपुन की नेक नियति पर किसी को किसी तरह का शक ना हो और ना ही कोई सवाल उठाए। अपुन सभी का बराबर सम्मान करते हैं। भले ही वह आधी दुनिया हो या पूरी। अपना उद्देश्य केवल और केवल हास-परिहास एवं मनोरंजन है। अपुन का लिखा किसी को दिल पर लग रहा है तो माफ करे। किसी को भूल से भी दिल पर नहीं लेना चाहिए। भागदौड़ एवं तनाव भरी जिंदगी में वैसे भी हंसने या मनोरंजन के लिए किसके पास वक्त है। अपुन ने तो हंसाने का एक अदना सा प्रयास किया है। हाथ की पांचों अंगुलियां ही बराबर नहीं होती है तो फिर मानसिकता एक होना तो संभव ही नहीं है। अपुन तो यही सोच कर लिख रहे हैं कि अपुन के लिखे से किसी को बुरा नहीं लगे। फिर भी बात मानसिकता वाली आती है, लिहाजा किसी को बुरी लग भी सकती है। फिर भी पुरजोर शब्दों में आग्रह है कि , इस विषय को बेहद हल्के-फुल्के एवं मनोरंजन करने वाले अंदाज में ही लें, पढ़कर गंभीर तो कतई ना हों। अफसोस जताना है या नहीं यह अपुन आप सब के विवेक पर छोड़ते हैं।
अब, आंखों और बिल के बीच अपुन की बात भी तो रखनी थी ना। लेकिन बात रखने का अंदाज बड़ा हो गया और आंखों वाले गीत फिर छूट गए। चलो कोई नहीं। जब इतना ही झेल लिया तो फिर इतना तो हक बनता ही है। वैसे भी दो चार लाइन ज्यादा पढऩे से कौन सा फर्क पड़ जाएगा। एक बात और है, लिखना भी आपके मूड पर निर्भर रहता है। जिस दिन जैसा मूड होता है वह आपके विचारों में झलक जाता है। अब यह मत सोच लेना कि अपुन का मूड आज कैसा था जो आंखों से हटकर लिख दिया। सच बताऊं तो आज लिखने का मूड ही नहीं था। मतलब गंभीरता नहीं थी। आधे-अधूरे मन से ही शुरुआत की, वह भी काफी देर से। अब कड़ी तो पूरी करनी थी ना। सौ लगे रहे रबड़ की तरह बढ़ाने में। वैसे मूड मजाकिया भी नहीं था। बिलकुल बीच का सा था। अब बीच में रहने से नुकसान की आशंका ज्यादा रहती है। लगता है कि आज की कड़ी पूरी होने को है। जाते-जाते एक गीत याद आ रहा है। 'मेरे नैना, सावन भादो, फिर भी मेरा मन प्यासा...।' अपुन के पसंदीदा गायक किशोर कुमार का गाया यह गीत मौजूदा माहौल में जरूर प्रासंगिक लगता है। क्योंकि इस गीत के बोलों में अपुन को कोई खतरा नजर नहीं आता। ऐसे में यह गीत दुबारा चर्चा में आ जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जमाना रीमेक का है। हिम्मतवाला फिल्म का गीत आपके सामने है, जिसका जिक्र पूर्व में किया जा चुका हैं। तो आप भी नैन बंद करके सपने देखिए क्योंकि 'देखा एक ख्याब तो यह सिलसिले हुए, दूर तक निगाह में है गुल खिले हुए...' शायद आपको भी खिले हुए गुल नजर आ जाए।     
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क्रमश:                                                                                                                                                 

Friday, March 29, 2013

बिल, बयान और बवाल-5


बस यूं ही

बचपन से लेकर जवानी की दहलीज पर कदम रखने तक अपुन ने आंखों
को  केन्द्र मानकर लिखे गए बहुत से गीतों को बार-बार सुना है। क्यों एवं कैसे सुना इसमें आप दिमाग मत लगाना। अपुन को भारतीय संगीत से प्रेम है और सभी तरह के गीत सुने हुए हैं बस। फिल्म देखने का शौक तो बचपन में ही लग गया था, लिहाजा उन फिल्मों के गीत जुबान पर चढऩे लाजिमी थे। आलम यह था कि घर में नीम के पेड़ की सबसे ऊंची शाखा पर जाकर अपुन बैठ जाते और फिर जैसा भी बनता जोर-जोर से गाने लगते। उस वक्त जो भी गाना सुनते बस गुनगुनाने लगते। उम्र रही होगी यही कोई सात-आठ साल। एक दिन तो एक परिजन ने टोक ही दिया था। अपुन अपनी मस्ती में गाए जा रहे थे 'मोहब्बत बड़े काम की चीज है..' अब परिजन ने पलट के पूछ लिया बेटा यह मोहब्बत क्या होती है और यह किस तरह काम की चीज है। सच कह रहा हूं, यकीन कीजिए अपुन को अर्थ मालूम नहीं था, लिहाजा बगलें झांकने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। अब भी वह वाकया याद आता है तो सच में हंसी थमने का नाम नहीं लेती है। खैर, रेडियो तो घर में पैदा होने से पहले ही आ गया था लेकिन टेपरिकार्डर उस वक्त आया जब अपुन ने दसवीं पास की ही थी। बस ऑडियो कैसेट खरीदने का ऐसा चस्का लगा कि 1992 से लेकर 2000 के बीच में जो भी फिल्म प्रदर्शित होती अपुन कैसेट खरीद लाते। देखते-देखते में घर में साढ़े पांच सौ के करीब ऑडियो कैसेट एकत्रित हो गए। खूब गीत सुने। दिन भर यही एकसूत्री कार्यक्रम चलता और गीत सुनते-सुनते ही नींद आ जाती। पढ़ाई के दौरान भी गीत बजते रहते। शौक तो अब भी है लेकिन वक्त नहीं है। घर में अलमारी में रखे वो साढे पांच सौ कैसेट्स धूल फांक रहे हैं। वैसे जमाना हाइटेक हो गया आजकल मोबाइल जितना चाहो गीत डाउनलोड कर लो लेकिन अड़चन वही वक्त की आती है।
खैर, लम्बी चौड़ी भूमिका बांधने का आशय यही था कि गीत से अपुन को जबरदस्त लगाव है और कोई गीत किसी वजह से अप्रासंगिक हो जाए तो अपुन को नागवार गुजरता है। आंखों को लेकर काफी कुछ लिख चुका हूं फिर भी लगता है कुछ छूट रहा है। बस यही सोच कर आगे से आगे लिखता जा रहा हूं। बचपन में सुना यह गीत 'भूल-भुलैय्या सैंया अंखियां तेरी, रस्ता भूल गई मैं, ओ घर जाऊं कैसे...। ' क्या अब मौजूं रह पाएगा, क्योंकि अब रास्ता भूलने का झंझट ही नहीं रहेगा। ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। चूंकि आंखों को आईना भी कहा गया है। याद आया इस पर एक गीत है 'ये आंखें हैं आईना मेरी जिंदगी का...।' आईने में जिस तरह अक्स उभरते रहते हैं वैसे ही अपनी स्मृतियों में जिंदा आंखों पर लिखें गीत एक-एक कर याद आ रहे हैं। 'तू कुछ कहे ना मैं कुछ कहूं आ बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं..।' कितने प्यारे बोल हैं इस गीत के। ना कुछ कहने की ना सुनने की बस और बस केवल देखने की हसरत है। लेकिन यह हसरत अब घूरने या ताकने की श्रेणी में गिनी जाएगी। 'तुझे देखा तो यह जाना सनम...।' की जुर्रत कौन करेगा। वैसे अपुन ने तो शुरू से ही स्पष्ट कर दिया था कि आंखें हैं तो सब कुछ हैं। अपुन अपने बयान पर अभी कायम हैं लेकिन लोग फिर जाते हैं। अब देखो ना जो सलमान खान दबंग फिल्म में 'मेरे दिल का ले गए चैन, तेरे मस्त-मस्त दो चैन...' गाते हुए नजर आते हैं लेकिन अपनी दूसरी फिल्म दबंग-2 में नैनों को दगाबाज कहने से नहीं चूकते। 'कल मिले थे, भूल गए आज रे, तोरे नैना बड़े दगाबाज रे...।' अब नैन मस्त से दगाबाज कैसे एवं क्यों बने यह तो सलमान ही बता सकते हैं। इधर अजय देवगन भी तो आंखों को तीर कमान समझ बैठे। तभी तो बोल बच्चन में 'चलाओ ना नैणों से बाण रे..। ' गाते हुए नजर आते हैं।
वैसे गीतकारों की नजरों में आंखें कभी सागर, तो कभी मयखाना है। मयखाने से एक गीत का अंतरा याद आ गया। 'इक सिर्फ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं... कहने को तो दुनिया में मयखाने हजारों हैं...। ' अब पीने-पिलाने की बात कहां संभव होगी। वैसे हकीकत की शराब महंगी बहुत हो गई है। ऐसे में लोगों के पास यह विकल्प था लेकिन अब तो यह भी जाता रहेगा। 'छलके तेरी आंखों से शराब और ज्यादा...।' तथा 'आंखों में मस्ती शराब की..।' अब गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। ना ही आंखों से शराब छलकेगी और ना ही आंखों में शराब की मस्ती दिखाई देगी। किसी 'पियक्कड़ ' ने पीने की भूल की तो अंजाम के लिए भी तैयार रहे। कहने वालों ने तो यहां तक कह दिया कि 'ये हल्का-हल्का सुरुर है, सब तेरी नजर का कसूर, मुझे एक शराबी बना दिया रे मुझे जाम लबों से पिला दिया...।' लेकिन अब सुरुर पैदान करने के लिए दूसरा ठिकाना तलाशना ही बेहतर होगा।
बहरहाल, अभी तक तो आखें में सपने भी सजते रहे हैं और ख्वाब भी महकते रहे हैं। उदाहरण के लिए 'आंखों में हमने आपके सपने सजाए हैं..' , 'आपकी आंखों में कुछ महके हुए से ख्वाब हैं..।' तथा 'हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू...।' को सुना जा सकता है। कल्पना की ऐसी उड़ान क्या अब संभव है। जब देखना ही प्रतिबंधित हो जाएगा तब न सपने सजेंगे ना ही ख्वाब महकेंगे और ना ही महकती खुशबू का एहसास होगा। किसी ने गुस्ताखीवश या भूल से पूछ लिया कि 'आंखों में क्या जी..।' तो पलटवार करते हुए जवाब दिया जाएगा 'आंखों में कयामत के बादल..।' आंखों में कयामत के बादल साक्षात नजर आएंगे तो कोई आ बैल मुझे मार की कहावत क्यों चरितार्थ करेगा। इतना ही नहीं अब तो कोई यह कहकर कि 'तेरी आंख का जो इशारा ना होता.. तो बिस्मिल कभी दिल हमारा ना होता..। ' की दलील भी तो नहीं दे सकता...। क्योंकि आंखें, आंखों को देखेंगी ही नहीं तो बिस्मिल (घायल/ जख्मी) भला कहां से होंगी।                                                                                                                                                                                                                                    .... क्रमश:

Thursday, March 28, 2013

बिल, बयान और बवाल-4


बस यूं ही

आंखों पर लिखे गए फिल्मी गीत और एंटी रेप बिल को लेकर यह चौथी किश्त है, लेकिन आंखों से संबंधित गानों की फेहरिस्त छोटा होने का नाम ही नहीं ले रही है। घूरने और ताकने के समर्थन एवं विरोध करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं लेकिन मेरा मानना है कि कई बार नजर अनायास भी मिल जाती है। यकीन मानिए ऐसा कभी आप के साथ भी हुआ होगा। आप देखना कुछ और चाहते हैं लेकिन नजर यकायक कहीं और चली जाती है। यह अलग बात है कि ऐसा होने के बाद चौंकना या झेंपना लाजिमी है। फिर भी गीतकारों ने इस तरह के वाकये को भी कलमबद्ध कर दिया है। 'बेइरादा नजर मिल गई तो, मुझसे दिल वो मेरा मांग बैठे...।' गीत कुछ ऐसा ही है। अब किसी के साथ ऐसा हो जाए और कोई मांग पूरी नहीं करे तो फिर मौजूदा माहौल में हश्र क्या होगा समझा जा सकता है। हां, इस गीत से इतना तो तय है कि नजर इरादतन और बेइरादतन भी मिलाई जाती है। खैर, आंखों और गीतों का एपीसोड लम्बा हो रहा है, लेकिन लम्बे समय से गीतों का तलबगार रहा हूं और अब भी हूं, लिहाजा इस बहाने आंखों से वाबस्ता उन सभी गीतों को याद कर रहा हूं। क्या पता बाद में गीत सुनना तो दूर गुनगुनाने का मौका भी ना मिले। 'तेरे चहरे से नजर नहीं हटती...' यह गीत खूब गाया और गुनागुनाया गया है। कइयों ने गीत के माध्यम से दिल की बात दिलरुबा तक पहुंचाई। लेकिन अब नजर नहीं हटेगी तो हवालात की हवा खानी पड़ जाएगी। इसलिए नजरों की यह 'दादागिरी' अब खत्म ही समझो। चर्चित और हजारों दिलों को जोडऩे वाले गीत का इस तरह दर्दनाक द एंड हो जाएगा कभी सोचा भी ना था ? इसी तरह अब 'जरा नजरों से कह दो तुम निशाना चूक ना जाए...' लेकिन अब निशाना चूकना शर्तिया तय है, क्योंकि अब निशाना लगाना ही गुनाह हो रहा है।
वैसे आंखों की इस चर्चा में एक बात याद आ गई। बचपन में पढे कुछ शेर याद आ गए। ग्रामीण इलाकों में चलने वाली बसों के अंदर कई तरह की शेरों-शायरियां लिखी हुई होती हैं। पहले यह पेंटर से लिखवाई जाती थी, आजकल जमाना तकनीक का है ऐसे में बसों वाले आजकल रेडीमेड स्टीकर चिपका कर काम चला लेते हैं। शेर देखिए 'संत भला एकांत में संसार की बातें क्या जाने, जब नजरों पर पाबंदी हो वो प्यार की बातें क्या जाने..।' बीस-पच्चीस साल पहले लिखे गए शेर का भावार्थ भी यही है कि नजरों पर जब पाबंदी हो तो वे प्यार की बातें नहीं करेंगी। अब कोई 'नजर के सामने, जिगर के पास, कोई रहता है वो हो तुम..' कहेगा तो यकीनन कसूरवार माना या ठहराया जाएगा। 'दिल की आवाज भी सुन, मेरे फसाने पर ना जा, मेरी नजरों की तरफ देख जमाने पे ना जा..' लेकिन अब दिल की आवाज अनसुनी कर दी जाएगी। अब जमाने का नहीं बल्कि कानून का डर नजरों को देखने से रोकेगा। हां, तो चर्चा बसों में लिखे शेरों की हो रही थी। इसी तरह एक शेर था 'नजर से नजर मिली मगर कमाल ना हो सका, हाय रे हाथ उठाया था मगर सलाम ना हो सका..' अब ना कमाल होगा और ना सलाम। अब यह गीत 'अकेली ना बाजार जाया करो, नजर लग जाएगी..।' एक एकदम ही निरर्थक हो जाएगा। नजर तो तभी लगेगी ना जब कोई देखेगा। इसलिए अब नजर लगने का डर खत्म समझो। ऐसे में नजर उतारने वालों की दुकान पर ताला लगना तय है। नजर लगने से संबंधित यह गाना 'तुझे लागे ना नजरिया..' भी अब नेपथ्य में चला जाएगा।
'मुझको हुई ना खबर, कब प्यार की पहली नजर' जैसे गीत अपवाद स्वरूप जिंदा जरूर रह सकते हैं। क्योंकि यहां तो नायिका इतनी बेखबर है कि उसको खबर हुए बिना प्यार भरी नजर उसका दिल चुरा कर ले गई। वैसे गीतों से मेरे को बेहद प्यार है लेकिन यह गीत पता नहीं क्यों बिलकुल भी नहीं जमता। अब हकीकत में ऐसा हो नहीं सकता है, क्योंकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। पहली नजर में प्यार होना तो सभी ने सुना है लेकिन बिना खबर हुए ऐसा होना तो किसी से आश्चर्य से कम नहीं है। उदाहरण के लिए 'सैंया ले गई जिया तेरी पहली नजर...'जैसे गीत को लिया जा सकता है। यहां नजरें पहली बार मिली और दिल भी लगा। कहने का आशय है कि एक दूसरे ने आपस में देखा तभी तो यह संभव हुआ ना। 'जादू तेरी नजर, खुशबू तेरा बदन...' पहले प्रंशसा के दो बोल कह कर बाद में हक जताने की हद भला अब माफी के काबिल कैसे होगी। 'तेरी झुकी नजर, तेरी हर अदा, मुझे कह रही है ये..' यहां तो कुछ कहना ही बेकार है। यहां तो झुकी हुई नजर भी बोल रही है। आखिर में एक गीत और याद आया 'लैला बेचारी क्या करती,, नजरिया मजनूं से लड़ गई..' देखिए गीत में लैला कितनी लाचार और मजबूर हो गई फिर भी दोष नजरों का ही बताया जा रहा है। बहरहाल, आंखों की महिमा अपरमपार है। आंखों से प्यार भला किसको नहीं होगा। हम सभी को है। और कोई आंखों से प्यार न कहने की बात करता है तो यकीनन वह झूठ बोल रहा है। लेकिन मौजूदा हालात में झूठ बोलने वालों की संख्या में दिनोदिन इजाफा हो रहा है। भले ही ऐसे लोग रात को तनहाई में 'किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है..' सुनें और गुनागुनाएं लेकिन बात वही कथनी और करनी में अंतर वाली ही है। इस गीत पर जरा गौर फरमाइए 'चंदन सा बदन, चंचल चितवन...' ऐसा होना स्वाभाविक है। तभी तो नायक सरेआम कहता भी कि उसको दोष मत देना। नायक का यह कहना उचित भी प्रतीत होता है। सुंदरता होती ही देखने के लिए है। उसकी बातों का समर्थन यह शेर भी तो करता है..। 'तुम देखने की चीज हो, इसलिए देखता हूं मैं, मुझको सजा ए मौत जो मेरा कसूर हो..। '
 
...क्रमश:

Tuesday, March 26, 2013

बिल, बयान और बवाल-3


बस यूं ही

बातचीत का सिलसिला इस विषय पर चल रहा था कि एंटी रेप बिल पास होने के बाद आंखों पर आधारित गीतों का हश्र क्या होगा? पिछली कड़ी में आंखों पर जो लिखा गया वह तो केवल परिचय भर ही था। देखा जाए तो आंखों के बिना फिल्मी गीतों का इतिहास ही अधूरा हैं। आंखों को लेकर कई तरह की कल्पनाएं की गई हैं। हां, इतना जरूर है कि कहीं आंखों को बेहद नाजुक एवं खूबसूरत बताया गया है, वहीं, कहीं पर नैन आक्रामक होकर वार करने से भी नहीं चूकते। हालिया प्रदर्शित एक फिल्म का यह गीत 'तेरी अंखियों का वार, जैसे शेर का शिकार' घूरने और ताकने के विरोध में कानून बनाने का समर्थन करने वालों के लिए ढाल की तरह काम करेगा। जब अंखियों का वार शेर के शिकार की तरह होगा तो भला कौन होगा जो ऐसे विकट हालात में आंखों से आंखें मिलाना चाहेगा। वो तो मैं पहले ही कह चुका हूं कि आंखों पर कई विरोधाभासी गाने लिखें गए हैं, फिर भी किसी ने आंखों का विरोध नहीं किया लेकिन मौजूदा समय में विरोध होना बड़ी बात नहीं है, क्योंकि देश में बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिनको बेवजह बाल की खाल निकालने की आदत है। ऐसे लोगों के लिए मौजूदा माहौल एकदम मुफीद है। हालांकि इस बात की गुंजाइश ना के बराबर है, फिर भी कई गीतों में आंखों को आक्रामक और दबंग बताया गया है। घूरने और ताकने के आरोपों को यह गीत पुष्ट जरूर कर सकते हैं। यह गीत देखिए 'अंख लड़ गई मेरी अंख लड़ गई...।' यहां आंख लड़ रही है। 'आंख लडऩा।' एक चर्चित मुहावरा भी है। यह बात दीगर है कि आंखों के लडऩे के पीछे गहरा राज छिपा है। मतलब उनके एक होने से पहले इस तरह की लड़ाई होना लाजिमी है, लेकिन गीत ख्यामखाह की आंखों को लड़ाकू बता रहा है। 'आंखों का था कसूर छुरी दिल पर चल गई...' भला वास्तव में ऐसा होता है क्या.? फिर भी कसूरवार आंखें ही हैं, वो दिल पर छुरी चला रही हैं, इस कारण वो कातिल की भूमिका में हैं। 'एक आंख मारूं तो..' इस गीत में तो कल्पना की ऊंची और अविश्वनीय उड़ान है। पहले एक आंख फिर दूसरी और आखिर में दोनों आंखों के बारे में बताया गया है। मसलन एक आंख मारने से रास्ता रुक जाता है, तो दूसरी आंख मारने से जमाना झुक जाता है। दोनों साथ-साथ मारने से लड़की पटने का दावा किया गया है। हकीकत में ऐसा संभव है भला ? फिर भी गाना न केवल हिट है बल्कि बदस्तूर जारी है।
वैसे अक्सर बातचीत में कहा जाता है। आपने भी जरूर कहीं सुना होगा कि आंखों की भाषा आखें ही समझती हैं। अब आंखें, आंखों की तरफ देखेंगी ही नहीं फिर तो भाषा समझ में कैसे आएगी। सीधा सा फंडा है कि नजर से नजर मिलने पर ही पता चलता है कि आंखों की भाषा क्या है। लेकिन विरोधाभास की गुंजाइश यहां भी है। वह भी भरपूर मात्रा में है। लोग कहते हैं आखों की भाषा समझने के लिए आंखों का आपस में मिलना जरूरी है। कोई इनको लडऩा भी कहता है लेकिन अर्थ एक ही है। तभी तो इनके समर्थन में 'नैनों को करने दो, नैनों से बात आओ हम चुप बैठें...' जैसे गीतों की रचना हुई, क्योंकि जब नैन बात करते हैं तो जुबान खामोश हो जाती हैं। अब कोई इस तर्क को यह कहकर कि 'उनसे मिली नजर कि मेरे होश उड़ गए...' गलत साबित करने का प्रमाण दे तो दे लेकिन नजर मिलने से होश कितनों के उड़े। कम से मैंने तो ऐसा नहीं सुना और ना ही कोई मेरे को ऐसा मिला जिसके नैनों से किसी का होश उड़ गया हो..। खैर, जैसे दिन-रात, सच-झूठ अच्छा-बुरा आदि विषयों पर गाने लिखे गए हैं। वैसे ही आंखों पर लिखे गए हैं, इनका अंदाज अलग है लेकिन भावार्थ कमोबेश एक जैसा ही है। हां इतना जरूर है गीतों के बोल कहीं सरल, सीधे, सपाट एवं आसानी से समझ में आ जाते हैं तो कहीं वे गूढ़ और कलिष्ट हो जाते हैं।
आंखों से संबंधित गीतों के इस विरोधाभास के विवरण को आगे बढ़ाए तो पाएंगे कि एक तरफ 'अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे' 'आंख मारे, सिटी बजाए, ओ लड़की आंख मेरे', 'अंखियां लड़ी हो बीच बाजार..दिल मेरा लुट गया पहली बार' और 'रफ्ता-रफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है' जैसे गीतों की फेहरिस्त लम्बी है, जो आंखों के लडऩे, झगडऩे और उनसे गोली मारने तक की बात करते हैं। चूंकि हम आंखों के लडऩे की बात पहले कर चुके हैं। यहां गोली मारने का उल्लेख हुआ है, मतलब आंख अब बंदूक का काम भी करने लगी है। सचमुच में ऐसा हो तो फिर देश में सेना के लिए गोला-बारुद पर अरबों-खरबों रुपए खर्चने की जरूरत की कहां है। यह काम तो अंखियां ही कर देती। बहरहाल, आंखों को इस तरह आक्रामक, लड़ाकू, कातिल एवं बंदूक की संज्ञा देने वालों को एक तरह से नकारात्मक प्रवृत्ति का ही माना जाएगा, क्योंकि ऐसे गीतों की रचना होने के कारण ही तो आंखें बदनाम हो रही हैं। आंखों को खलनायक बनाने वाले इस तरह के गीत ही आरोपों को मजबूत कर रहे हैं। घूरने एवं ताकने को कानून बनवाने का समर्थन करने वालों के लिए ऐसे गीत बतौर सबूत काम आ सकते हैं। उदाहरण बन सकते हैं। वैसे यह सब अपना-अपना नजरिया है, वरना आंखों की महिमा किसी से छिपी नहीं है। आंखों की कीमत पूछनी है तो किसी अंधे से पूछो। कहा भी गया है कि आंख गई तो संसार गया है। इस प्रकार की सकारात्मक सोच वालों की बदौलत ही तो 'देखा है तेरी आंखों में प्यार ही प्यार..' तथा ' तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है....' जैसे गीत रचे गए हैं। लेकिन इनको अब याद कौन रखेगा। हमारी कथनी और करनी में अंतर की खाई बहुत गहरी हो चुकी है। कोई सच कहताभी है तो उसका विरोध हो जाता है। वह भी इसीलिए क्योंकि खुद को पाक दामन और चरित्रवान बताने का दावा अमूनन सभी करते हैं। ईमानदारी एवं दिल पर हाथ रखकर बताएंगे तो यकीनन 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं..' वाला गीत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी। ऐसा हकीकत में है फिर भी दोगलापन दिखाया जा रहा है। पता नहीं क्यों...?
 

....क्रमश:

Friday, March 22, 2013

बिल, बयान और बवाल-2


बस यूं ही

एंटी रेप बिल अमल में आया तो फिल्मी गीतकारों को फिर नए अंदाज में सोचना पड़ेगा। नए सिरे से गीतों की रचना करनी पड़ेगी। कई कालजयी गीतों पर बेमानी होने का खतरा मंडराने लगेगा। गीतकार भविष्य में आंखों को केन्द्र में रखकर गीत लिखने से परहेज करने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं। क्योंकि घूरने या ताकने के लिए बजाय किसी हथियार या साधन के सिर्फ और सिर्फ आंखों की ही जरूरत पड़ती है और किसी ने आंखों का महिमामंडन तो दूर आंखों से संबंधित गीत भी गुनगुनाए तो वह भी गुनाह ही माना जाएगा। गुनाह करने वाले की प्रशंसा करना भी तो एक तरह का सहयोग ही हुआ और गुनाह में सहयोग तो सीधा-सीधा अपराध की श्रेणी में ही आएगा। खैर, आंखों से जुड़े गीतों को याद करने बैठा तो फिर लम्बी सूची बन गई। आंख, नैन, निगाह, नजर आदि सभी इसी श्रेणी में तो आएंगे। सबसे पहले गीत याद आया 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया...बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया...' लेकिन अब आंखों में इशारा कैसे होगा। आंखें, आखों को देखने से ही डरेंगी, तो इशारा भला क्या खाक करेंगी। और जब इशारा ही नहीं होगा तो जीने के सहारे का तो सवाल ही नहीं उठता है। इसी कशमकश के बीच एक और गीत याद आया 'अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास, दूर से दिल की बुझती रहे प्यास।' अब ऐसे माहौल और कानून के डर के आगे अंखियां, आंखों के पास कैसे रह सकती हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में प्यास भी फिर अधूरी ही रहेगी। 'सरबती तेरी आंखों की गहराई में मैं डूब जाता हूं...' अब ऐसा कहना तो बड़ा ही संगीन अपराध होगा। जहां देखना तक गुनाह है, वहां डूबना तो उससे भी बड़ा अपराध हो जाएगा। लिहाजा डूबने की तो अब कल्पना करना ही बेकार है। 'ये रेशमी जुल्फे, ये सरबती आंखें, इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी...' लेकिन अब ऐसा कहने वाले और जीने वालों की संख्या कितनी रह जाएगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। 'तुझे देखें मेरी आंखें, इसमें क्या मेरी खता है..' वाकई कभी ऐसा करना खता नहीं था लेकिन अब हो जाएगा और किसी ने दिल के हाथों मजबूर होकर यह खता कर भी दी तो उसकी खैर नहीं होगी। सोचनीय विषय तो यह है कि किसी को देखने को खता न मानने वाले ने भूल से भी यह गीत गुनागुनाया तो मान लिया जाएगा कि उसके ख्याल 'नेक' नहीं हैं। 'नैन लड़ जैहें तो मनवा मा कसक होय ब करी... ' लेकिन अब नैन लडऩे की संभावना पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा तो फिर मन में न तो कसक होगी और ना ही प्रेम का पटाखा छूटेगा। दिल की बात अब दिल में रहेगी। और किसी ने 'चोरी-चोरी तेरे संग अखिंया मिलाई रे..' की तर्ज पर आंख मिला भी ली तो वह गंभीर परिणाम भुगतने के लिए खुद को तैयार रखे। एक और गीत है ना.. 'आंखों के रस्ते, तू हंसते-हंसते दिल में समाने लगा है..।' लेकिन आंखों के रास्ते पर अब बैरियर लग चुका है, लिहाजा आंखों के सहारे दिल की तरफ जाने का रास्ता अब बंद ही समझो । और किसी ने इस रास्ते पर चलने की सोची तो फिर 'सवारी अपने सामान की रक्षा स्वयं करे...' के जुमले को दिमाग में रखना होगा। 'अंखियों के झरोखे से तूने देखा जो सांवरे...' कल्पना कीजिए, बेचारा सांवरा क्या अब ऐसा कर पाएगा। वह तो आंखों के झरोखे से तो दूर सीधी आंखों से देखने से तौबा करता दिखाई देगा।
ऐसी विषम परिस्थितियों एवं प्रतिकूल माहौल में आंखों का अतिश्योक्ति वर्णन या कई तरह की उपमाओं का दौर खत्म हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे देश में विभिन्न मतों का समर्थन करने और उनको मानने वाले लोग रहते हैं लेकिन आंखों के साथ यह सुखद संयोग जुड़ा है कि उसको समर्थन ही मिला है। गीत चाहे कैसा भी हो, भले ही वह आंखों की बड़ाई करें, आलोचना करें, उलाहना दें या फिर कोई उपमा दें। ऐसा है तभी तो जो आंखें जीने का सहारा बनती हैं, वही आंखें जुल्मी भी बन जाती हैं। ठीक आंखों का तारा होना और आंखों की किरकरी होना की तर्ज पर। यकीन ना हो तो देखिए..। 'जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करे जीने के लिए...' यहां आखों में जीवन नजर आता है वो जीने के लिए मजबूर करती नजर आती हैं लेकिन दूसरे ही पल 'ओ गौरी तेरी नैना हैं जादू भरे, हम पे छुप-छुप जुल्म करे' वह जुल्म पर उतारू हो जाती हैं। कितना विरोधाभास है फिर भी कोई विरोध नहीं है, आलोचना नहीं है। लेकिन अब ऐसे गीत लिखे जाएंगे तो विरोध की आशंका बलवती हो उठेगी। क्योंकि विरोध ही नहीं हुआ तो लोग ऐसे गीतों से प्रेरणा लेंगे और वास्तविक जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। इतिहास गवाह है। ऐसा होता आया है। देश में प्यार पनपाने में फिल्मों का बड़ा योगदान रहा है और अब भी मौजूं हैं। जब आंखों को इस देश में इतना मान-सम्मान मिला है। आंखों पर लिखे गए गीतों को गुणग्राहकों व कद्रदानों ने दिल से लगाया है तो फिर इस एंटी रेप बिल के बहाने आंखों को खलनायक बनाने का सवाल तो गलत ही हुआ ना। सभी भेड़ चाल में हां-हां में मिलाए जा रहे हैं। कोई आंखों का समर्थन कर रहा है तो उसका विरोध किया जा रहा है। वैसे यह देश विविधता से भरा है। यहां खुली आंखों के ही नहीं बल्कि बंद आंखों के मुरीद भी मिल जाएंगे। ऐसा है तभी तो 'ये तेरी आंखें झुकी -झुकी , ये तेरा चेहरा खिला-खिला, बड़ी किस्मत वाला है वो प्यार तेरा जैसा मिला' जैसे गीतों की रचना हुई। मौजूदा हाल में ऐसे गीतों में ही बचाव की आंशिक गुंजाइश नजर आती है, क्योंकि यहां कशीदे खुली आंखों के नहीं बल्कि झुकी हुई आंखों की शान में गढ़े और पढ़े जा रहे हैं। लेकिन जब कोई पलटवार करते हुए यह गाने लगे कि 'तुम्हारी नजरों में हमने देखा, अजब सी चाहत झलक रही है, ना देखो ऐसे झुका के पलकें हमारी नियत बहक रही है..।' अब इसका इलाज क्या होगा। यहां तो झुकी हुए पलकें देखकर ही नियत डोल रही है। ऐसे में तो फिर भगवान ही मालिक है। ......  


क्रमश: ..

बिल, बयान और बवाल-1


बस यूं ही

अस्सी के दशक में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली का एक चर्र्चित गीत हम सभी ने सुना ही होगा। गीत के बोल थे 'सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन...' इसी गीत का एक अंतरा है, जिसके बोल हैं 'कोई हसीना कदम, पहले बढ़ाती नहीं, मजबूर दिल से ना हो, तो पास आती नहीं..' इसके ठीक अगले अंतरे के भाव भी कमोबेश ऐसे ही हैं 'तू जो हां कहे तो बन जाए बात भी, हो तेरा इशारा तो चल दूं मैं साथ भी..' दोनों ही अंतरों के भावार्थ देखें तो मतलब साफ है कि नायिका, नायक से यह अपेक्षा रखती है कि वही पहल करे और इशारा भी। ऐसा न कर पाने के लिए वह अपनी मजबूरी भी बयां करती हैं। प्रसिद्ध गीतकार हसरत जयपुरी की ओर से लिखे इस गीत के करीब 28 साल बाद जद यू नेता शरद यादव द्वारा दिया गया बयान भी इस गीत के बोलों के आसपास ही प्रतीत होता है। हाल ही में संसद में एंटी रेप बिल पर बहस के दौरान जद यू नेता यादव ने कहा था कि 'जब महिला से बात करनी होती है, तब पहल महिला नहीं करती है। पहल तो हमें ही करनी होती है। कोशिश तो हमें ही करनी पड़ती है। प्यार से बताना पड़ता है। यह पूरे देश का किस्सा है, हमने खुद अनुभव किया है। हम सब लोग उस दौर से गुजरे हैं, उसको ऐसे मत भूलो।' विडम्बना देखिए गीत सुपर-डुपर हिट रहा लेकिन बयान विवादित हो गया। बयान को लेकर चटखारे लिए जा रहे हैं, व्याख्याएं की जा रही हैं। बयान का विरोध एवं समर्थन करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं और उसी के हिसाब से शरद बाबू के बयान को परिभाषित किया जा रहा है। देशव्यापी बहस चल रही है। इतना ही नहीं बहस घूरने एवं पीछा करने की बात पर भी चल रही है।
यह बिल वैसे तो शुरू से ही विवादों एवं चर्चा में रहा है। पहले सम्बंधों की उम्र १६ करने को लेकर बहस छिड़ी तो अब घूरने एवं पीछा करने जैसी बातों के लिए। संसद में जिस दिन यह बिल पास हुआ, उसी दिन मन में सवाल था कि घूरने एवं पीछा करने के आरोपों की सच्चाई जानने का पैमाना क्या होगा। मैंने घूरना शब्द के बारे में गंभीरता से सोचा। शब्दकोश में इस शब्द के पर्यायवाची भी देखे। सार यही रहा कि देखना से ही घूरना शब्द बना है और उसी को ताकना भी कहते हैं। ताकना से तात्पर्य स्थिर दृष्टि से ध्यानपूर्वक देखना व कुदृष्टि डालना होता है। इसी तरह घूरना का मतलब आंखें गड़ाकर देखना, क्रोधभरी नजर से देखना या कामातुर होकर देखना होता है। इन्ही शब्दों से मिलता-जुलता एक और शब्द है, निहारना। इसके मायने हैं, निरखना या गौर से देखना। विडम्बना यह है कि यह सभी शब्द आपस में समानार्थी हैं लेकिन इनका प्रयोग परिस्थितियों के हिसाब से किया जाता है। देखना या निहारना शब्द इतने आपत्तिजनक नहीं हैं, जितने कि ताकना या घूरना। ताकना या घूरना शब्द भी जरूरी नहीं गलत मकसद के साथ ही जोड़े जाएं या प्रयोग किए जाएं। मसलन कोई संकट के समय में मदद के लिए किसी की तरफ उम्मीद भरी नजरों से ताकता है तो कोई किसी अपराधी को सजा मिलने या पकड़े जाने की स्थिति में विजयी मुद्रा के हिसाब से भी देखता है, तब उसका अंदाज कमोबेश घूरने जैसा ही होता है। खैर, विषय रोचक लगा है, इसलिए अपन ने इस पर लिखने का मानस तो पहले दिन ही बना लिया था। रात को कार्यालयीन काम पूर्ण होने के बाद घर गया और धर्मपत्नी से रूबरू होते हुए कहा कि देश में अब महिलाओं को घूरना या ताकना भी अपराध हो गया है। मेरा सवाल पूर्ण होने से पहले ही धर्मपत्नी का जवाब आया इसका सबूत क्या होगा। यकीन मानिए उसके पलटवार का मेरे पास कोई माकूल जवाब नहीं था। भले ही मेरे तर्कों को महिला विरोधी मान लिया जाए लेकिन देश में दहेज प्रताडऩा एवं अनाचार के ऐसे मामलों में फेहरिस्त बहुत लम्बी है, जो जांच के बाद झूठे पाए गए। दहेज प्रताडऩा में गवाह एवं अनाचार के मामलों में मेडिकल जांच मामले की सत्यता जांचने का आधार बनते हैं लेकिन घूरना या ताकना के प्रावधान में तो ऐसी कोई संभावना भी तो नजर नहीं आती है। जाहिर सी बात है ऐसे में इस प्रावधान के गलत उपयोग की आशंका अधिक होगी। मन में विचारों का द्वंद्व चलता रहा लेकिन धर्मपत्नी के सवाल का जवाब खोज नहीं पाया।
द्वंद्व को शब्दों में पिरोने का विचार तो शुरू से ही था लेकिन आज बिल के राज्य सभा में पास होने की खबर होने के बाद एक वेबसाइट देखी तो चौंक गया। इसमें बताया गया था कि इस एंटी रेप बिल से घूरकर देखने के अपराध को प्रावधान हटा दिया गया है। एक पल फिर रुक गया, सोचा जब विषय ही खत्म हो गया है तो फिर लिखना प्रासंगिक नहीं होगा। अचानक ख्याल आया कि वेबसाइट पर दी गई जानकारी गलत भी तो हो सकती है। बस फिर क्या था लगातार टीवी चैनलों एवं समाचार पत्रों की वेबसाइट खंगालने में जुट गया। करीब एक घंटे की माथापच्ची करने के बाद भी सफलता नहीं मिली। आखिरकार अपनी पीड़ा को लिखकर संबंधित चैनलों एवं बेवसाइट के लिंक के साथ फेसबुक पर चस्पा कर दिया। इसके बाद सर्वप्रथम रतनसिंह जी भाईसाहब का कमेंट आया। उन्होंने भी इसी विषय पर ज्ञान दर्पण डॉट कॉम में विस्तार से लिखने की जानकारी दी। मैंने तत्काल उनकी पोस्ट पोस्ट पढ़ी। उन्होंने इस प्रावधान के अमल में आने के बाद की संभावित परिस्थितियों का जो खाका खींचा वह न केवल चौंकाने वाला बल्कि सोचने पर मजबूर भी करता है। सटीक शब्दों में व्यंग्यात्मक शैली में लिखी उनकी पोस्ट इतनी पठनीय लगी है कि मैं एक सांस में नॉनस्टॉप पढ़ गया। पोस्ट पढऩे के बाद द्वंद्व फिर शुरू होना लाजिमी था। रहा सहा पोस्ट पर कमेंट लिखा, जिसमें इसी विषय पर लिखने का जिक्र भी कर दिया। खैर, ईमानदारी से कहूं मैंने भी व्यंग्यात्मक शैली में लिखने का मानस बनाया था। लेकिन मेरा अंदाज अलग होगा। 

क्रमश: ...