Monday, July 8, 2013

एक घंटे में फिल्म खत्म!


बस यूं ही
रविवार की वजह से आज सुबह देरी से ही उठा था। दस बजे के करीब साथी गोपाल जी शर्मा का फोन आया, बोले बन्ना जी, आज तो फुर्सत में हैं..। क्यों ना बच्चों को मैत्रीबाग घूमा दिया जाए। मैंने पलट कर जवाब दिया, बार-बार मैत्री बाग ही क्यों? अपन कई बार होकर आ गए वहां। क्यों ना कुछ नया किया जाए..। वे बोले, तो आप ही तय कीजिए क्या करना है। मैंने कहा कि शाम को फिल्म देखने चलते हैं। वैसे तो शहर में हालिया प्रदर्शित कई फिल्में लगी हैं लेकिन रांझणा की समीक्षा पढ़ी थी, कुछ जमी इसलिए तय किया गया कि वो फिल्म देखी जाए। शाम को छह से नौ वाले शॉ का समय तय कर दिया गया। टिकट के लिए मैंने ही हां कर दी। बोल दिया कि अपना परिचित है, उसको बोल देता हूं। वह एडवांस में टिकट ले लेगा ताकि कोई दिक्कत ना हो..। गोपाल जी से मोबाइल पर जैसे ही वार्तालाप खत्म हुआ मैंने तत्काल टिकटों के जुगाड़ की कवायद शुरू कर दी। स्टाफ के एक साथी से बोला तो उसका कहना था कि एडवांस की जरूरत नहीं है। सीटें खाली ही रहती हैं, आप जिस भी श्रेणी की टिकट लेंगे हाथोहाथ मिल जाएगा। मैंने फिर भी जोर देकर कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन रविवार है, हो सकता है टिकट के लिए मारामारी हो, इसलिए आप एक बार सिनेमाघर होकर आ ही जाना...।
भोजन करने के बाद जैसे ही लेटा तो आंख लग गई थी। दोपहर में उसका फोन आया। धर्मपत्नी ने मेरे को उठाना उचित नहीं समझा और फोन उसने ही स्वीकार किया। फोन टिकटों की जिम्मेदारी वाले साथी का ही था। जागने के बाद धर्मपत्नी ने बताया कि आपके स्टाफ वाले का फोन आया था। वो कह रहे थे कि टिकटों की एडवांस में बुकिंग नहीं होती है। वहीं मौके पर ही टिकट का जुगाड़ हो जाएगा। कोई दिक्कत नहीं होगी। शॉ का समय शाम साढे पांच बजे का रहेगा। मैं और अधिक आश्वस्त हो गया कि चलो टिकट की टेंशन तो खत्म हुई। घड़ी देखी तो पांच बज चुके थे। तत्काल गोपाल जी को फोन लगाया तो बोले... बन्ना जी आ जाओ, हम तो आपका ही इंतजार कर रहे हैं। मैं तत्काल तैयार हुआ और स्टाफ सदस्य से आग्रह किया कि आप बच्चों को अपनी कार से सिनेमाघर तक छोड़ दो। मैं और गोपाल जी मोटरसाइकिल पर चल पड़ेंगे। ऐसा ही हुआ। करीब सवा पांच बजे हम घर से रवाना हुए... इसके बाद गोपाल जी के घर पहुंचे। बच्चे कार में बैठकर निकल लिए जबकि मैं गोपाल जी की मोटरसाइकिल पर उनके पीछे बैठ गया। 
घर से मुश्किल से एक किलोमीटर की चले होंगे कि बूंदाबांदी का दौर शुरू हो गया। बादल भी इतने घने थे, जिनको देखकर लग रहा था कि बारिश हुई तो फिर जोरदार ही होगी। बूंदाबांदी के बीच हम चले जा रहे थे, क्योंकि साढ़े पांच हो चुके थे। सिनेमाघर अभी हमारी पहुंच से करीब दो किलोमीटर दूर था। बारिश तेज हुई तो हमने रुकना ही मुनासिब समझा और दुकान के बरामदे में खड़े हो गए। वहां और भी लोग खड़े थे। 
दस मिनट खड़े रहने के बाद जब बारिश खत्म नहीं हुई तब हमने बारिश में ही चलने का फैसला किया। लेकिन अब गोपाल जी की मोटरसाइकिल नखरे दिखाने लगी। स्पार्क प्लग में पानी जाने की वजह से वह बार-बार बंद हो रही थी। गोपाल जी बार-बार किक मार रहे थे लेकिन मोटरसाइकिल बंद होने से बाज नहीं आ रही थी। रास्ते में बारिश मूसलाधार में तब्दील हो गई। हम दोनों बारिश के पानी से सरोबार हो गए, फिर भी चले जा रहे थे। सिनेमाघर से हम अभी आधा किलोमीटर की दूरी पर थे कि मोटरसाइकिल ने इस बार बिलकुल जवाब दे दिया। गोपाल जी के लाख प्रयास के बाद भी वह स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी। थक हारकर हम दोनों फिर एक दुकान के बरामदे में खड़े हो गए। घड़ी छह बजाने को आतुर हो रही थी। हम दोनों अजीब धर्मसंकट में घिरे हुए थे। 
बच्चे व दोनों की धर्मपत्नियां सिनेमाघर पहुंच चुके थे, लेकिन हमारे बिना वो कैसे टिकट लेते और कैसे अंदर जाते, लिहाजा वे सभी लोग मूकदर्शक बने अंदर जाने वाले लोगों को देख रहे थे। समय की नजाकत देखते हुए गोपाल जी ने कहा, बन्ना जी फिर से कोशिश करते हैं। उन्होंने एक कपड़े से प्लग को साफ किया और किक मारी तो मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गई। जैसे ही बैठने लगा तो मोबाइल की घंटी बजी। अजनबी नम्बर से कोई फोन था। जैसा कि आदत है फोन किसी का भी अटेंड कर लेता हूं। फोन उठाया तो सामने से धर्मपत्नी बदहवाश वाले अंदाज में पूछ रही थी... कहां हो। मैंने सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वह कुछ सामान्य हुई। संयोग यह भी रहा कि फिल्म देखने की खुशी में दोनों ही अपने मोबाइल घर पर भूल गई थीं। खैर, जैसे-तैसे हम सिनेमाघर पहुंचे। मैं पार्किंग वाले स्थान से पहले ही उतर गया जबकि गोपाल जी मोटरसाइकिल को पार्किंग में खड़े करने चले गए। हमको देखकर सिनेमाघर के बाहर खड़े बच्चों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ गई। वे बूंदाबांदी के बीच भागते हुए मेरे पास आ गए। मैं गोपाल जी को साथ लेने के चक्कर में रुक गया। दोनों जब हम अपनी धर्मपत्नियों के पास पहुंचे तो उनके चेहरों पर शिकायत भरी हंसी तैर रही थी। दोनों बोली.. हाउसफुल है, आप तो टिकट आसानी से मिलने की बात कह रहे थे। 
इस सवाल के बाद सभी की निगाह मेरे चेहरे पर थी, कि मैं क्या जवाब देता हूं। मेरे को भी कुछ नहीं सूझ रहा था। तत्काल स्टाफ सदस्य को फोन लगाया। मैंने कहा, यार आप तो एडवांस में बुकिंग से मना कर रहे थे जबकि यहां तो सब कुछ फुल हो चुका है। आगे की सीट जरूर खाली हैं लेकिन वहां से फिल्म देखना तो न देखने के बराबर ही है। लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं था। बोला मैं जाकर आया लेकिर सिनेमाघर वालों ने एडवांस में टिकट नहीं दी, बोले कि हाथोहाथ टिकट मिल जाएगी। 
लेकिन मेरे तर्क से या मोबाइल से इस वार्तालाप से कोई संतुष्ट हुआ होगा, मेरे को नहीं लगता। इसी बीच सवा छह बज चुके थे। तय हुआ कि अब फिल्म तो देखने का सवाल ही नहीं उठता। कोई रास्ता या विकल्प ही नहीं है, इसीलिए अब घर चलने में ही भलाई है। एक बार फिर से स्टाफ सदस्य से आग्रह किया कि वो आएं ताकि बच्चों को गाड़ी से घर तक छोड़ दें। आखिरकार कार आ गई। बच्चे उसमें रवाना हो गए। मैं और गोपाल जी पार्किंग की तरफ बढ़े। मोटरसाइकिल लेकर हम बाहर निकल रहे थे तो पार्किंगवाले ने पूछ लिया क्या हुआ। हमने सारा घटनाक्रम बताया तो उसने कहा कि यहां एडवांस बुकिंग करवा लेनी चाहिए। हमने कहा कि आप एडवांस बुकिंग करते कहां हो... तो वह बोला, किसने कहां, यहां सब कुछ होता है, और आज तो संडे है। देख रहे हो ना कितनी गाडिय़ा खड़ी है। पार्किंग वाले से मुझे जवाब मिल चुका था। हम सभी लोग घर आए। धर्मपत्नी का आग्रह था कि सभी चाय पीकर जाएं। आखिर एक घंटे का घटनाक्रम इस प्रकार से बीता कि अपने पीछे कई यादें छोड़ गया। रांझणा भले ही ना देखी हो लेकिन उससे जुड़ा यह वाकया जरूर लम्बे समय तक याद रहेगा। और यह वाकया मेरे को रांझणा से कम नहीं लगा, भले ही एक घंटे में इसका द एंड हो गया हो।