Thursday, November 28, 2013

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(3)

बस यूं ही

बस में जैसे ही रेडियो ऑन किया तो उसमें नेटवर्क गायब हो गया। वह खिलौना बन गया था। उसका एंटीना निकालकर खिड़की से बाहर भी किया लेकिन सिवाय सरसराहट के कुछ सुनाई नहीं दिया। किसी ने सुझाव किया कि बस के अंदर रेडिया नहीं चलेगा छत पर बैठ जाओ। फिर क्या था रेडियो लेकर बस की छत पर बैठ गया। बारात चूरू जिले के हडिय़ाल गांव गई थी। बारात के पहुंचने तक श्रीलंका की पारी पूरी हो गई थी। बारात नाश्ता करती तब तक भारत की पारी शुरू हो चुकी थी। इसके बाद ढुकाव (तोरण) का वक्त हो गया। बाराती बैंडबाजी की धुन पर मगन होकर अपनी मस्ती में नाचने लगे थे। इधर, मैं कान के रेडियो लगाए सबसे पीछे चल रहा था। सचिन उस विश्व में अच्छा खेल रहे थे। उनसे सेमीफाइनल भी वैसी उम्मीद थी। और वो उम्मीद के हिसाब से खेले भी। सचिन ने इस मैच में 88 गेंदों पर 65 रन बनाए थे। सचिन के आउट होते ही भारतीय पारी अप्रत्याशित रूप से ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। महज 22 रन के अंतराल में सात विकेट गिर गए। कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जड़ेजा तो बिना कोई रन बनाए ही पवेलियन लौट गए थे। थोड़ी देर पहले 98 रन पर एक विकेट का स्कोरकार्ड अब बदल कर आठ विकेट पर 120 रन हो गया था। विनोद कांबली नाबाद थे दस रन पर। 35वां ओवर फेंका जा रहा था। क्रिकेट के प्रति मैं बेहद सकारात्मक एवं आशान्वित रहता हूं। इतने प्रतिकूल हालात के बावजूद मैं विनोद कांबली से चमत्कार के उम्मीद लगाए बैठा था कि शायद वह कुछ जौहर दिखा दे। अचानक दर्शकों का पारा गरम हो गया और वे मैदान में बोतल आदि फेंकने लगे। स्टेडियम में एक जगह तो आग भी लगा दी गई। कोलकाता के ईडन गार्डन में हाहाकार मचा था। भारतीय टीम के पोचे प्रदर्शन के चलते दर्शक बेहद गुस्से में थे। तनावपूर्ण हालात देखते हुए मैच रोक दिया गया। उम्मीद की किरण अब भी जिंदा थी कि शायद मैच शुरू हो और कांबली कुछ कर के दिखा दे। बारात ढुकाव पर पहुंच चुकी थी। दूल्हा तोरण मारने चला गया और बाराती बगल में लगे टैंट में भोजन के लिए बढऩे लगे। सांसें ऊपर नीचे हो रही थी.. पता नहीं क्या होगा..। अचानक घोषणा हुई। मैच रैफरी ने श्रीलंका को विजयी घोषित कर दिया। मैं बिलकुल आवाक था। मेरे लिए यह झटका बेहद असहनीय था। मैं बिना भोजन किए रेडियो को बंद कर चुपचाप निराश कदमों से जहां बारात रुकी थी उस तरफ दौड़ पड़ा। आंखों में आंसू थे और सिर मारे दर्द के फट रहा था। वहां पहुंचा तो गांव के दो तीन बुजुर्ग बैठे थे। उन्होंने मेरे को देखकर टोका, अरे जल्दी कैसे आ गया.. भोजन हो गया क्या.. मैंने लगभग सुबकते हुए ही सिर हिलाकर हामी भर दी। सर्दी का मौसम था..। मैंने रजाई उठाई और बिलकुल उदास, निराश एवं हताश होकर अपना मुंह उसमें छिपा लिया। सचमुच उस मैच के बाद मेरे को सामान्य होने में करीब सप्ताह भर का समय लग गया था।
अब भी भारत की हार पर मन दुखी तो होता है लेकिन वैसा नहीं जैसा 1996 में हुआ था। बीच-बीच में सट्टेबाजी एवं मैच फिक्सिंग को लेकर क्रिकेट की काफी छिछालेदर हुई लेकिन मेरा क्रिकेट से मोह भंग नही हुआ। वैसे भी क्रिकेट को लेकर सभी के अपने-अपने तर्क है। आलोचक, समालोचक, समर्थक सभी तरह के व्यक्ति मिलेंगे। लेकिन जब 1985-86 में जब क्रिकेट खेलना सीखा तब से लेकर आज के माहौल को देखता हूं तो आमूलचूल एवं क्रांतिकारी बदलाव आया है, लोगों की सोच में। गांव में उस वक्त प्रतियोगिता के लिए जाते तो मुश्किल से 11 खिलाड़ी भी नहीं हो पाते थे। मान-मनौव्वल करके किसी तरह 11 का आंकड़ा बनाते थे। और आज गांव का हाल ये है कि छह से सात टीम तो गांव में बन जाएंगी। सौ से ज्यादा खेलने वाले हो गए। और इधर जो बुजुर्ग क्रिकेट को लेकर उस वक्त हम पर ताने कसते थे। कहते थे, क्रिकेट महंगा गेम है.. इसने परम्परागत खेलों की लील लिया.. इसको कोई भविष्य नहीं है, आज उनको भी क्रिकेट के रंग में रंगा देखता हूं तो हंसी आती है। माना क्रिकेट में प्रतिस्पर्धा बेहद कड़ी है। लेकिन मनोरंजन तो मनोरंजन है। भले ही कोई कपड़े की गेंद बनाकर कपड़े धोने की थापी का बल्ला कर खेले या लेदर गेंद से। बहरहाल, मैं तो जैसा कि बता ही चुका हूं, समय मिलता है तो क्रिकेट खेलने से खुद को रोक नहीं पाता..। अपने बच्चों के साथ भी..। हार पर आंसू बहाने की आदत पर तो किसी हद तक काबू पा लिया लेकिन खेलने पर शायद ही काबू पा सकूं... दिल तो बच्चा है जी..।

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(2)


बस यूं ही

 
कल भावनाओं पर काबू नहीं था। यह सब लाजिमी भी था। ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा। ना ऐसा संन्यास और ना ही ऐसी विदाई। सचमुच कल मेरे लिए सब कुछ अविस्मरणीय था। वैसे क्रिकेट के प्रति मेरा जुनून बचपन से ही रहा है। अब भी गांव जाता हूं तो बच्चों के साथ खेलने से खुद को रोक नहीं पाता हूं। यह अलग बात है कि इसके बाद तीन चार दिन तक सारा शरीर अकड़ा रहता हैं, दर्द होता है सो अलग। न जाने कितनी ही बार दर्द निवारक गोलियां खाकर काम चलाया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब नियमित अभ्यास नहीं हो पाता है। जुलाई 2000 तक तो क्रिकेट खेला हूं। उस वक्त बिना क्रिकेट खेले शायद ही कोई दिन नहीं बीतता था। जिले की शायद ही ऐसी कोई बड़ी क्रिकेट प्रतियोगिता रही होगी, जिसमें मैं नहीं खेला ..। इतना ही नहीं गांव में भी लगातार तीन साल तक बड़े पैमाने पर क्रिकेट प्रतियोगिता करवाई। कमरे की अलमारियों में सजे क्रिकेट प्रतियोगिताओं में जीते इनाम व स्मृति चिन्ह देखकर मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं। वैसे विश्वविद्यालय टीम के लिए ट्रायल देने से पहले की बात का जिक्र तो भूल ही गया था। बीए द्वितीय वर्ष के दौरान लगातार तीन माह तक अलसभोर गांव से बगड़ आया। उस वक्त मां घर के कामों में व्यस्त रहती है, इस कारण बस चाय पीकर चुपके से निकल लेता। दिन भर भूखा ही क्रिकेट खेलता। बीच-बीच में चाय एवं कुछ बिस्किट्स का दौर जरूर हो जाता, नहीं तो क्रिकेट के जुनून में भूख महसूस ही नहीं होती थी। यह क्रिकेट के प्रति समर्पण था, प्यार था, दीवानगी थी। उस दौरान खाई चोटों के निशान आज भी अतीत को जिंदा कर देते हैं। सिर से लेकर पैर तक शरीर का कोई भी अंग चोट से अछूता नहीं बचा। नाक भी टूटी, सिर भी फूटा, और तो और दोनों हाथों की लगभग सभी अंगुलियां भी टूटी हैं। क्रिकेट के दौरान लगी यह सभी चोट आज तक राज ही हैं, किसी को नहीं बताया। चुपचाप दर्द सह लेता लेकिन बताता नहीं था। मन में यही डर रहता था कि अगर बता दूंगा कि तो फिर वाले घर क्रिकेट खेलने ही नहीं देंगे। एक बार जरूर चोट ऐसी लगी थी जो छुपाई नहीं जा सकी। विकेटकीपिंग करते वक्त स्टम्पस से टकराकर गेंद सीधी नाक पर आकर लगी थी। नाक से खून बहने लगा था। कई देर तक ग्राउंड पर ही लेटा रहा। खून जब रुका उस वक्त नाक पर काफी सूजन आ चुकी थी। यूं समझ लीजिए कि नाक की साइज सामान्य से दुगुनी हो गई थी। रुमाल से नाक छिपाने का बहुत प्रयास किया लेकिन घर पर पता चल ही गया। लेकिन झूठ बोलकर अपना बचाव किया। यह कहकर कि कैच लेने के प्रयास में दौड़ रहा था और दूसरे खिलाड़ी से भिड़ गया। इसीलिए चोट लग गई।
खैर, चोट लगने के इस प्रकार के वाकये तो बहुत हैं। बात तो भावुक होने की चल रही थी। एक वह भी दौर था जब सोते-उठते-बैठते बस क्रिकेट के अलावा कुछ नहीं सूझता था। पता नहीं क्यों, उस दौरान किसी भी मैच में भारत के हारने के बाद मैं खुद को सामान्य नहीं रखा पाता था। बड़ी तकलीफ होती थी। और बिना खाना खाए ही सो जाता था। कमोबेश ऐसा ही हाल भारत की रोमांचक जीत के दौरान भी होता था। जीत की खुशी से इतना उत्साहित हो जाता कि बस कुछ खाने की इच्छा ही नहीं होती थी। इसको पागलपन कहा जाए या दीवानापन लेकिन भारत की हार-जीत के साथ यह दोनों संयोग मेरे साथ लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं। बड़ी मुश्किल से इस अनूठी आदत पर काबू पाया है फिर भी कभी-कभी भावुकता हावी हो ही जाती है। 1996 के विश्व कप के सेमीफाइनल में भारत की शर्मनाक हार तो जेहन में आज भी जिंदा है। उस मैच का एक एक-एक लम्हा याद करता हूं तो साथ में एक रोचक वाकया भी याद आता है। 13 मार्च को खेले गए उस मैच के ही दिन गांव में एक शादी थी..। बारात भी जाना था और मैच भी था। दोनों काम जरूरी थे। अब क्या किया जाए.. बारात की बस में रेडिया लेकर बैठ गया। डे-नाइट मैच था। बारात दोपहर बाद ही रवाना हुई थी, उस वक्त मैच शुरू हो चुका था। भारत ने टॉस जीतकर पहले क्षेत्ररक्षण करने का निर्णय लिया था.। क्रमश...।

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(1)


बस यूं ही

 
सुबह घर से कार्यालय के लिए निकला था उस वक्त वेस्टइंडीज के दूसरी पारी के पांच विकेट गिर चुके थे। आखिरकार वैसा हुआ जैसी संभावना थी। लंच का समय आते-आते वेस्टइंडीज की पूरी टीम सिमट गई और भारत मैच जीत गया था। मैंने कार्यालय की मीटिंग से फारिग होकर कम्प्यूटर पर नजर डाली तो न्यूज वेबसाइट पर पट्टी चल रही थी। भारत टेस्ट जीता, मैदान से लौटते वक्त सचिन की आंखों में आंसू। मैं कम्प्यटूर शट डाउन करके केबिन से निकला ही था कि श्रीमती की कॉल आ गई। बोली सचिन की फेयरवेल चल रही है, टीवी पर लाइव आ रहा है जल्दी से घर आ जाओ। मैं तत्काल घर पहुंचा। ससुर जी एवं श्रीमती दोनों टीवी के सामने जमे थे। उस वक्त रवि शास्त्री ने माइक संभाल रखा था। उन्होंने सचिन को बुलाया। शरद पवार ने उनको श्रीलंका की तरफ से प्रतीक चिन्ह भेंट किया। इसके बाद वेस्टइंडीज के कप्तान आए। इसके बाद जब सचिन को फिर कुछ कहने के लिए बुलाया गया तो समूचे स्टेडियम में सन्नाटा पसरा था। सचिन इतने भावुक हो गए थे कि कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। भावनाओं पर काबू पाते हुए उन्होंने बोलना शुरू तो किया लेकिन बार-बार सूखे होठों पर जीभ फेरते सचिन की मनोदशा समझी जा सकती थी। उन्होंने अपनी बात पूरी करने तक तीन-चार बार पानी भी पीया। सचिन की एक-एक बात सुनकर लोग भावुक थे। वानखेड़े स्टेडियम में मौजूद सभी लोग गमगीन थे। सबकी आंखों में नमी थी। क्या युवा, क्या बड़े, यहां तक विदेशी भी यह नजारा देखकर उदास थे। सबके चेहरे लटके हुए थे। सचिन-सचिन की गूंज के बीच संवदेनाओं का सैलाब सा आ गया था। सचिन की पत्नी, पुत्र एवं पुत्री भी रोने लगे थे। सचमुच स्टेडियम पर ऐसा नजारा मैंने आज तक नहीं देखा। इधर, हमारी दशा भी ऐसी ही थी। आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी, बगल में बैठी धर्मपत्नी का भी यही हाल था। आगे कुर्सी पर बैठे ससुर जी भी बार-बार चश्मे को ऊपर कर गीली आंखों को पौंछ रहे थे। सचमुच भावनाओं की बारिश हो रही थी। वानखेड़े स्टेडियम में भी और बाहर भी। सचिन क्रिकेट से विदा हो गए लेकिन दिल में हमेशा रहेंगे, जिंदगीभर। आज बस इतना ही.. भावनाओं पर काबू नहीं है। कल क्रिकेट, सचिन व खुद के बारे में कुछ लिखा तो फेसबुक के साथी भाई तौफिक ने कहा सर, आप इमोशनल हो गए। सचमुच तौफिक भाई मैं हूं ही भावुक एवं संवदेनशील... आज फिर इमोशनल हो गया हूं। क्रिकेट एवं सचिन को लेकर शायद पहली बार इतना.. भावुक। और इसी भावुकता के साथ कई पुरानी यादें भी ताजा हो गई हैं। यादों के बारे में फिर कभी आज तो बस इतना ही... सलाम सचिन..। क्रमश:

क्रिकेट... सचिन... और मैं...


बस यूं ही

 
मास्टर ब्लास्टर सचिन आज अपने आखिरी टेस्ट मैच में शतक से चूक गए। उनके समस्त प्रशंसकों को इसी बात का मलाल रहा कि काश, वे शतक बनाते। वैसे सचिन जिस अंदाज में खेल रहे थे, उससे ऐसा लग भी रहा था कि शतक मार देंगे, लेकिन ऐसा हो न सका। क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल ऐसे ही नहीं कहा जाता। यह खेल होता पर नहीं है पर चलता है। फिर भी दिल है कि मानता ही नहीं। मैं भी सचिन का मुरीद हूं। आज से नहीं बस उसी दिन से जब उन्होंने अपने साथी खिलाड़ी विनोद काम्बली के साथ 664 रनों की साझेदारी कर विश्व रिकार्ड बनाया था। उस वक्त मैं सातवीं कक्षा में था। आज भी याद है कि इंडिया टूडे में इस साझेदारी के बारे में पढ़ा था। काम्बली एवं सचिन का फोटो भी साथ में लगा था। संभवत: यह खबर चर्चित चेहरे वॉले कॉलम में लगी थी। वैसे मेरे गांव में क्रिकेट ने भारत के 1983 में वल्र्ड कप जीतने के बाद ही ज्यादा जोर पकड़ा। गांव के चुनिंदा युवा ही उस वक्त क्रिकेट खेला करते थे। बचपन में गांव के युवाओं को क्रिकेट खेलता देख मैं भी इस खेल की तरफ आकर्षित हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण देखना तो उस सपने जैसा ही था। गांव में टीवी जो नहीं थे। इस कारण रेडियो ही प्रमुख साधन था, जिसके माध्यम से आंखों देखा हाल बड़ी तल्लीनता के साथ सुना जाता था। दस-बारह युवाओं के बीच रेडिया तेज आवाज करके रख जाता था और सब बड़े गौर से कमेंटरी सुनते थे। इसके बाद 1985-86 में गांव में अस्थायी रूप से एक टीवी लगा। शारजाह में भारत-पाक के बीच क्रिकेट प्रतियोगिता के कारण। बिलकुल स्कूल की बगल में ही था वह घर। स्कूल से बीच-बीच में बंक मार कर टीवी देखने पहुंच जाते। धीरे-धीरे क्रिकेट इतना रच बस गया कि बस सोते-उठते क्रिकेट ही दिखाई देता। उस दौर में गांव में क्रिकेट का खेल भी बड़ा रोचक होता था। लेदर बॉल उस वक्त शायद 32 रुपए की आती थी। ठीक-ठाक बल्ला भी 150-200 के बीच आ जाता था। गेंद के लिए बाकायदा चंदा किया जाता था। सभी खेलने वालों का योगदान रहता था, उसमें। जो पैसे नहीं देता वह खेल नहीं पाता था। मैं छोटा था, इस कारण मेरे को गांव के युवा इसलिए नहीं खिलाते थे कि कहीं चोट ना लग जाए। यह सब देखकर मैं मन ही मन बहुत दुखी होता लेकिन कोई चारा नहीं था। पापाजी उस वक्त अजमेर में सेवारत थे। मैंने उनको पत्र लिखकर बल्ला और गेंद मंगवाने की मांग कर डाली। घर में सबसे छोटा होने के कारण सभी का चहेता रहा हूं, विशेषकर पापाजी का स्नेह तो मेरे पर कुछ ज्यादा ही रहा है और आज भी है। वो बल्ला और कॉर्क गेंद ले लाए। अब तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, गेंद और बल्ले को मालिक होने के कारण भला अब मेरे को खिलाने से कौन रोक सकता था। स्कूल से आने के बाद बस क्रिकेट ही दिखाई देता था। कई बार झूठ मूठ में तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर स्कूल मिस कर के भी क्रिकेट खेला। मां बहुत डांटती, टोकती लेकिन बस उस वक्त क्रिकेट के अलावा सूझता ही नहीं था।
दरअसल, यह सब कहानी बताने का मकसद इतना है कि सचिन ने जिस उम्र में अंतराष्ट्रीय मैचों में पदार्पण किया, उस वक्त मेरे जैसा किशोर भी क्रिकेट को लेकर सपने देखा लगा था। मन में ख्याल था कि जब सचिन ऐसा कर सकता है तो अपन क्यों नहीं..। बस धुन सवार हो गई। और वह धुन ऐसी चढ़ी कि आठवीं कक्षा तक हमेशा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने का सिलसिला नवमीं कक्षा से बंद हो गया। बड़ी मुश्किल नवमीं-दसवीं उत्तीण कर पाया वह भी द्वितीय श्रेणी से। घर वालों की डांट डंपट के बाद भी मैं परीक्षा के दौरान भी क्रिकेट खेलने से गुरेज नहीं करता। परीक्षा परिणाम खराब रहना, उसी का नतीजा था। यही हाल ११ व १२ वीं कक्षा में रहा..। कॉलेज में प्रवेश लेने के साथ तो क्रिकेट परवान चढ़ गया। कॉलेज टीम के ट्रॉयल में ही इतना धांसू खेल दिखाया कि चयन हो गया। वैसे मैं क्रिकेट के तीनों फोरमेट में आजमाया गया। मतलब बल्लेबाजी, गेंदबाजी एवं विकेट कीपिंग और तीनों में ही मैंने खुद को साबित किया। बीए फाइनल तक क्रिकेट के प्रति दीवानगी ऐसी बढ़ी कि साल भर में केवल चार पीरियड ही अटेंड किए। इस बीच अंतर विश्वविद्यालयीन क्रिकेट मैच भी खेले। आगे बढऩे का सपने तो उस वक्त धराशायी हुए जब ट्रायल देने अलवर गया था। राजस्थान विश्वविद्यालय के करीब 147 खिलाड़ी पहुंचे थे वहां पर और जब टीम की घोषणा हुई तो 147 में से दो चार नाम ही थे। बाकी का चयन तो पहले ही हो चुका था। बहुत निराशा हाथ लगी थी उस वक्त। अलवर से घर लौटना भी मुश्किल हो गया था। ....... क्रमश :...

वैज्ञानिक प्रयोग.. अजीबोगरीब पात्र...


बस यूं ही

 
बच्चों का आग्रह था कि पापा दिवाली को तो आपका अवकाश है। आप आफिस नहीं जाओगे, प्लीज क्रिश-३ दिखा दो। मैं मासूमों के प्यार भरे आग्रह का नकार नहीं सका। रविवार को दोपहर 2.30 बजे वाला शो देखने का समय तय किया गया लेकिन बच्चों में उत्सुकता इतनी थी कि दस बजे ही नहा धोकर तैयार हो गए। दो बजने से पहले से मेरे से कम से दर्जन बार पूछ बैठे कि पापा कितना टाइम और बचा है। वैसे शुरू में तो कार्यक्रम बच्चों को लेकर जाने का ही था, लेकिन बाद में धर्मपत्नी ने कहा कि मैं भी चलूं क्या.? मैंने कहा, आपको को किसने रोका है, आप भी चलो। वह भी तैयार हो गई। मकान मालिक का बच्चा भी बच्चों का हमउम्र ही है। उसको भी साथ ले लिया। इसके अलावा साढू जी की बिटिया भी इन दिनों सास-ससुर जी के साथ भिलाई आई हुई है। इस प्रकार कुल चार बच्चे और दो हम मियां बीवी कुल छह लोग हो गए। निर्धारित समय से करीब 20 मिनट पहले ही सिनेमाघर पहुंच गए। बच्चों की उत्सुकता एवं उत्साह देखते ही बन रहा था। आखिर सिनेमाघर का दरवाजा खुला और हम अंदर प्रवेश कर गए। दर्शक उतने नहीं थे, जितने किसी बड़े बैनर की फिल्म के शुरुआती सप्ताह में होते हैं। कम दर्शक होने के दो ही कारण मेरे समझ में आए.. या तो दिवाली का दिन होने के कारण लोगों ने फिल्म देखने में दिलचस्पी कम दिखाई या फिर दो दिन में ही फिल्म लोगों के मन से उतर गई। समीक्षक फिल्म के फिल्मांकन, हैरतअंगेज एक्शन, स्पेशल इफेक्ट्स एवं ऋतिक की सुपरमैन की छवि को लेकर कशीदे गढ़ रहे हैं लेकिन फिल्म मेरे को बच्चों के मुकाबले कम ही जमी। इतना ही नहीं फिल्म के आखिरी सीन में ऋतिक के बेटे का जन्म तथा उसका अचानक अस्पताल से गायब होना यह बताता है कि फिल्म की अगली किश्त बनना तय है। फिल्म में इतने शीशे टूटे और फूटे हैं, यकीन मानिए आज तक ऐसा किसी फिल्म में नहीं हुआ होगा।
तकनीकी प्रेमी जरूर फिल्म देखकर ताज्जुब कर सकते हैं, हैरान हो सकते हैं। फिल्म में नायक का हवा में उडऩा मेरे को किसी कॉमिक्स के पात्र की तरह नजर आया। वैज्ञानिक प्रयोगों से तैयार किए गए पात्र बेहद ही अजीबोगरीब लगे। यह बात दीगर है कि बच्चे इन सबको देखकर अन्य दर्शकों की तरह जोर-जोर से हल्ला कर रहे थे, चिल्ला रहे थे। फिल्म में एक जानकारी मिली सूरप्रथा की। इसके माध्यम से कंगना रानौत किसी की भी शक्ल धारण कर लेती है। कभी वह पुरुष बन जाती है तो कभी महिला..। बड़ी-बड़ी इमारते गिरती हैं और सुपरमैन ऋतिक उनसे जनहानि नहीं होने देता। गाडिय़ां हवा में उड़ती हैं, हेलीकॉप्टर इशारे भर से भस्म हो जाते हैं। पुलिस की राइफल की दिशा घूम जाती हैं। विलेन का किला भी बेहद रहस्यमयी नजर आया। भला विज्ञान के इस युग में इस तरह या ऐसा हो सकता है, मैं तो नहीं मानता। फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। इस तरह के फिल्मांकन से फिल्म को प्रयोगवादी व फंतासी की श्रेणी में रखा जा सकता है। इतना कुछ कहने के बाद भी मैं किसी को यह नहीं कह रहा कि फिल्म देखने योग्य नहीं है... समय बर्बाद ना करें। यह मेरी व्यक्तिगत राय है, क्योंकि बच्चे तो घर लौटने तक फिल्म में ही डूबे थे। उनकी जुबान पर फिल्म के ही किस्से थे। दो तीन बार तो पास आकर थैक्यूं भी बोल दिया। कारण पूछा तो बोले आपने इतनी अच्छी फिल्म दिखाई। मैं इतना जरूर सोच रहा था कि वही एक नायक और विलेन की कहानी.. दोनों के बीच अदावत.. थोड़ा सा सस्पेंस और थ्रिलर..और आखिर में विलेन का अंत। आखिर ऐसी कहानी तो लगभग हर भारतीय फिल्म में होती है। बस अंतर इतना है कि इस कहानी को इस अंदाज में फिल्माया गया जो दर्शकों को कुछ नएपन का अहसास जरूर करवाती है।

एक दिन पहले ही दिवाली..


बस यूं ही

 
यकीनन भारत की जीत से आज समूचा देश एवं क्रिकेट प्रेमी झूम रहे हैं लेकिन पटाखा विक्रेताओं की खुशी तो और भी बढ़ गई होगी। दीपावली के लिए लाए गए पटाखे लोगों ने एक दिन पहले ही जो फोड़ लिए। जब से भारत की जीत का समाचार आया है तब से लेकर अब धमाकों का दौर लगातार जारी है। भिलाई में पटाखे फूट रहे हैं आतिशबाजी हो रही है। मेरा मानना है कि ऐसा सिर्फ यहीं नहीं कमोबेश पूरे देश में हो रहा होगा। वैसे बैंगलोर के चिन्ना स्टेडियम स्वामी स्टेडियम में भी धमाके कम नहीं हुए। भाग्यशाली हैं, वो क्रिकेटप्रेमी, जिन्होंने यह मैच अपनी आंखों से देखा। वे भी कम भाग्यशाली नही, जिन्होंने इसको टीवी पर देखा। खैर, अपने हिस्से तो किसी भी प्रकार का प्रसारण नहीं आया, लिहाजा मैं तो नेट पर स्कोरकार्ड देखकर ही खुश हो लिया। इतना बड़ा स्कोर बनाने के लिए निसंदेह विस्फोटक क्रिकेट खेलना ही पड़ता है। नतीजा कुछ भी रहा दीपावली की पूर्व संध्या इस यादगार एवं ऐतिहासिक मैच से और भी सुहानी हो गई। चौकों एवं छक्कों की बरसात तो ऐसी हुई लोग लम्बे समय तक याद रखेंगे। दोनों पारियों में कुल 38 छक्के लगे। मतलब कुल 709 रनों में से 228 रन तो छक्कों से ही बन गए। चौके भी कम नहीं लगे। दोनों टीमों की तरफ से कुल 59 चौके लगे। इसका मतलब 236 रन चौकों से बन गए। इस प्रकार 464 रन तो चौकों एवं छक्कों की मदद से बन गए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है मैच कितना विस्फोटक था। दोनों टीमों की तरफ से 19-19 छक्के लगे। यही कहानी चौकों की रही। भारत ने 30 तो आस्टे्रेलिया टीम ने 29 चौके लगाए। जब इस बेरहमी के साथ बल्लेबाजी हो तो बेचारे गेंदबाजी का पिटना तो स्वाभाविक ही है। बल्ले द्वारा बेदर्दी से की गई इस कुटाई को भी गेंदबाज भूल नहीं पाएंगे। मैंने भी लम्बे समय तक क्रिकेट खेला है। इसलिए क्रिकेट प्रेम आज भी जिंदा है। मैच को लेकर मैं भी बेहद रोमांचित हो गया। सचमुच जिस अंदाज में आस्ट्रेलिया खिलाडिय़ों ने नवें विकेट के लिए साझेदारी की, उसने एक बार तो धड़कने बढ़ा दी थी। इसी सीरिज में एक ओवर में 30 रन लेकर भारत के हाथों से जीत छीनने वाले जेम्स फॉकनर तो इस मैच में इतने आक्रामक थे कि बस पूछिए मत। खैर, क्रिकेट अनिश्चिताओं का खेल है। जब तक आखिरी गेंद ना हो कुछ भी कहना मुश्किल होता है। आखिरी गेंद की नौबत तो इस मैच में नहीं आई लेकिन आस्टे्रेलियाई पुछल्लों ने मैच में रोमांच बरकरार रखा। मेरा मानना है आसान जीत की बजाय रोमांच के बीच जो जीत मिलती है उसका मजा ही कुछ और होता है। तो इसी के साथ कल दीपावली दुगुने उत्साह के मनाएंगे, ऐसा यकीन है। भारत जीत की बधाई की साथ-साथ सभी को दीपावली की भी राम-राम, बधाई, शुभकामनाएं।