Thursday, November 28, 2013

क्रिकेट... सचिन... और मैं...


बस यूं ही

 
मास्टर ब्लास्टर सचिन आज अपने आखिरी टेस्ट मैच में शतक से चूक गए। उनके समस्त प्रशंसकों को इसी बात का मलाल रहा कि काश, वे शतक बनाते। वैसे सचिन जिस अंदाज में खेल रहे थे, उससे ऐसा लग भी रहा था कि शतक मार देंगे, लेकिन ऐसा हो न सका। क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल ऐसे ही नहीं कहा जाता। यह खेल होता पर नहीं है पर चलता है। फिर भी दिल है कि मानता ही नहीं। मैं भी सचिन का मुरीद हूं। आज से नहीं बस उसी दिन से जब उन्होंने अपने साथी खिलाड़ी विनोद काम्बली के साथ 664 रनों की साझेदारी कर विश्व रिकार्ड बनाया था। उस वक्त मैं सातवीं कक्षा में था। आज भी याद है कि इंडिया टूडे में इस साझेदारी के बारे में पढ़ा था। काम्बली एवं सचिन का फोटो भी साथ में लगा था। संभवत: यह खबर चर्चित चेहरे वॉले कॉलम में लगी थी। वैसे मेरे गांव में क्रिकेट ने भारत के 1983 में वल्र्ड कप जीतने के बाद ही ज्यादा जोर पकड़ा। गांव के चुनिंदा युवा ही उस वक्त क्रिकेट खेला करते थे। बचपन में गांव के युवाओं को क्रिकेट खेलता देख मैं भी इस खेल की तरफ आकर्षित हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण देखना तो उस सपने जैसा ही था। गांव में टीवी जो नहीं थे। इस कारण रेडियो ही प्रमुख साधन था, जिसके माध्यम से आंखों देखा हाल बड़ी तल्लीनता के साथ सुना जाता था। दस-बारह युवाओं के बीच रेडिया तेज आवाज करके रख जाता था और सब बड़े गौर से कमेंटरी सुनते थे। इसके बाद 1985-86 में गांव में अस्थायी रूप से एक टीवी लगा। शारजाह में भारत-पाक के बीच क्रिकेट प्रतियोगिता के कारण। बिलकुल स्कूल की बगल में ही था वह घर। स्कूल से बीच-बीच में बंक मार कर टीवी देखने पहुंच जाते। धीरे-धीरे क्रिकेट इतना रच बस गया कि बस सोते-उठते क्रिकेट ही दिखाई देता। उस दौर में गांव में क्रिकेट का खेल भी बड़ा रोचक होता था। लेदर बॉल उस वक्त शायद 32 रुपए की आती थी। ठीक-ठाक बल्ला भी 150-200 के बीच आ जाता था। गेंद के लिए बाकायदा चंदा किया जाता था। सभी खेलने वालों का योगदान रहता था, उसमें। जो पैसे नहीं देता वह खेल नहीं पाता था। मैं छोटा था, इस कारण मेरे को गांव के युवा इसलिए नहीं खिलाते थे कि कहीं चोट ना लग जाए। यह सब देखकर मैं मन ही मन बहुत दुखी होता लेकिन कोई चारा नहीं था। पापाजी उस वक्त अजमेर में सेवारत थे। मैंने उनको पत्र लिखकर बल्ला और गेंद मंगवाने की मांग कर डाली। घर में सबसे छोटा होने के कारण सभी का चहेता रहा हूं, विशेषकर पापाजी का स्नेह तो मेरे पर कुछ ज्यादा ही रहा है और आज भी है। वो बल्ला और कॉर्क गेंद ले लाए। अब तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, गेंद और बल्ले को मालिक होने के कारण भला अब मेरे को खिलाने से कौन रोक सकता था। स्कूल से आने के बाद बस क्रिकेट ही दिखाई देता था। कई बार झूठ मूठ में तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर स्कूल मिस कर के भी क्रिकेट खेला। मां बहुत डांटती, टोकती लेकिन बस उस वक्त क्रिकेट के अलावा सूझता ही नहीं था।
दरअसल, यह सब कहानी बताने का मकसद इतना है कि सचिन ने जिस उम्र में अंतराष्ट्रीय मैचों में पदार्पण किया, उस वक्त मेरे जैसा किशोर भी क्रिकेट को लेकर सपने देखा लगा था। मन में ख्याल था कि जब सचिन ऐसा कर सकता है तो अपन क्यों नहीं..। बस धुन सवार हो गई। और वह धुन ऐसी चढ़ी कि आठवीं कक्षा तक हमेशा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने का सिलसिला नवमीं कक्षा से बंद हो गया। बड़ी मुश्किल नवमीं-दसवीं उत्तीण कर पाया वह भी द्वितीय श्रेणी से। घर वालों की डांट डंपट के बाद भी मैं परीक्षा के दौरान भी क्रिकेट खेलने से गुरेज नहीं करता। परीक्षा परिणाम खराब रहना, उसी का नतीजा था। यही हाल ११ व १२ वीं कक्षा में रहा..। कॉलेज में प्रवेश लेने के साथ तो क्रिकेट परवान चढ़ गया। कॉलेज टीम के ट्रॉयल में ही इतना धांसू खेल दिखाया कि चयन हो गया। वैसे मैं क्रिकेट के तीनों फोरमेट में आजमाया गया। मतलब बल्लेबाजी, गेंदबाजी एवं विकेट कीपिंग और तीनों में ही मैंने खुद को साबित किया। बीए फाइनल तक क्रिकेट के प्रति दीवानगी ऐसी बढ़ी कि साल भर में केवल चार पीरियड ही अटेंड किए। इस बीच अंतर विश्वविद्यालयीन क्रिकेट मैच भी खेले। आगे बढऩे का सपने तो उस वक्त धराशायी हुए जब ट्रायल देने अलवर गया था। राजस्थान विश्वविद्यालय के करीब 147 खिलाड़ी पहुंचे थे वहां पर और जब टीम की घोषणा हुई तो 147 में से दो चार नाम ही थे। बाकी का चयन तो पहले ही हो चुका था। बहुत निराशा हाथ लगी थी उस वक्त। अलवर से घर लौटना भी मुश्किल हो गया था। ....... क्रमश :...

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