Wednesday, June 12, 2019

मुकाम तक पहुंचे मुहिम

टिप्पणी
पंजाब से राजस्थान आने वाली नहरों में दूषित पानी आता है, यह सर्वविदित है। विशेषकर, श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के लोगों के लिए यह नई बात है भी नहीं। सभी को पता है नहरों में क्या-क्या बहकर आता है। नहरों मंें दूषित पानी का मसला भी ठीक वैसा ही है, जैसा कि नहरों में पानी कमी का। पीछे का इतिहास देखें तो दोनों मुद्दों में मोटा अंतर यही दिखाई देता है कि पानी कमी का मुद्दा जहां हमेशा चर्चा में रहता आया है, वहीं दूषित पानी का मुद्दा कभी-कभार या अवसर विशेष के दौरान ही उछला है। विधानसभा चुनाव के बाद एक बार फिर श्रीगंगानगर में दूषित जल मुद्दा बना है। 
पिछले तीन दिन से यह मुद्दा चर्चा में है। शनिवार को गंगानगर सांसद निहालचंद का बयान आया कि दूषित जल पर रोक लगाने की मांग संसद में उठाई जाएगी और इससे भी बात नहीं बनी तो धरना भी लगाया जाएगा। इसी बयान के अगले दिन शहर के कुछ लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल, पत्रकारों के साथ पंजाब के उन स्थानों पर पहुंचता है, जहां सतुलज नदी में यह दूषित जल मिलता है और वहां से नहरों के माध्यम से राजस्थान में आता है। 
पत्रकारों को पंजाब का भ्रमण करवाने का उद्देश्य भी यही था कि वो भी उन स्थानों को देखें और लोगों को प्रदूषण की भयावहता व उसके परिणामों के बारे में गंभीरता से अवगत करवाएं। ‘दूषित जल- असुरक्षित कल’ नाम से शुरू की गई इस मुहिम के तहत बुधवार शाम को फिर बैठक बुलाई गई है। इसके अगले दिन गुरुवार को भी इसी तरह की बैठक पंजाब में प्रस्तावित है तथा वहां भी दूषित जल के खिलाफ मुहिम चलाने वाले संगठन के साथ मिलकर पटियाला में पंजाब प्रदूषण बोर्ड को ज्ञापन दिया जाएगा। शुद्ध जल हर आदमी को मिले तथा दूषित जल के खिलाफ जनजागरण हो, यह सभी चाहते हैं लेकिन अतीत के कुछ कड़वे अनुभवों के कारण इस मुहिम के शुरू होने के साथ सवाल उठने भी शुरू हो गए हैं। क्योंकि दूषित पानी को लेकर पूर्व में भी बड़ी-बड़ी बात कहने वालों ने जिस नाटकीय अंदाज में इस गंभीर मामले का पटाक्षेप किया, वह बेहद अफसोजनक रहा। लोग आज तक समझ नहीं पाए कि वो अभियान शुरू क्यों और किसलिए हुआ था और उसके अगुवाई करने वाले फिर यकायक शांत क्यों हो गए? चर्चा यह भी है कि जब राजस्थान में भाजपा और पंजाब में भाजपा-अकाली दल की सरकारी थी तब इस मामले में चुप्पी क्यों साधी गई? एक सवाल यह भी है कि कहीं यह निकाय चुनाव की तैयारी तो नहीं? खैर, सवाल उठते रहेंगे। उठने भी चाहिए। लेकिन इस तरह के गंभीर मसले में सियासत तो कतई नहीं होनी चाहिए। और हां, इसको व्यक्तिगत लाभ या दलगत लाभ-हानि के चश्मे से भी देखना नहीं चाहिए। 
बहरहाल, मुहिम अच्छी है। देर सवेर किसी को तो पहल करनी ही होगी । आमजन के स्वास्थ्य से जुड़ी यह मुहिम स्वागत योग्य है। उम्मीद करनी चाहिए यह मुहिम पूर्व के आंदोलनों से अलग होगी और बिना किसी राजनीति के मुकाम तक पहुंचेगी। और अगर यह मुहिम भी पूर्व के अनुभवों से आगे नहीं बढ़ी तो कोई बड़ी बात नहीं जनजागरणों की एेसी मुहिमों से जन की सहभागिता ही गायब हो जाए?
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगागर संस्करण में 11 जून 19 के अंक में प्रकाशित।

मनमर्जी की ‘लूट’

टिप्पणी
करीब तीन माह पहले की बात है। पड़ोसी जिले बीकानेर के जिला कलक्टर ने देर रात तक शराब की दुकानें खुलने की शिकायत पर शराब ठेकों का निरीक्षण किया था। इस दौरान उन्हें शहर में एक जगह शराब की दुकान खुली मिली। उन्होंने वहां से निर्धारित कीमत से ’यादा राशि चुकाकर शराब खरीदी। बाद में उन्होंने आबकारी अधिकारी को मौके पर बुलाया। इसी मामले में बाद में एक थानाधिकारी पर भी गाज गिरी। खैर, बीकानेर जैसे सूरतेहाल ही श्रीगंगानगर के भी हैं। यहां भी शराब की दुकानें देर रात तक खुलती हैं तथा निर्धारित कीमत से ’यादा राशि वसूल कर शराब बेची जा रही है, लेकिन यहां जिला प्रशासन ने इस मामले में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। आबकारी व पुलिस विभाग दोनों एक दूसरे के क्षेत्राधिकार का मामला बताकर हमेशा कार्रवाई से बचते रहे हैं। हकीकत यही है कि शराब ठेके देर रात तक खुले रहते हैं। भले ही शटर नीचे गिरा हो लेकिन उसके बगल में बनाई गई मोरी (छेद) से काम बेधडक़ बदस्तूर चलता रहता है। दूसरी मनमर्जी यह है कि निर्धारित कीमत से ’यादा कीमत पर बिक्री हो रही है। मनमर्जी की कीमत वसूलने के लिए ठेकेदारों ने बकायदा पूल बना लिया है। वैसे पूल बनने से पहले भी ’यादा राशि ली जा रही थी। पूल बनने के बाद राशि और बढ़ा दी गई है। आश्चर्य की बात नहीं, श्रीगंगानगर में सुरा शौकीनों को ड्राइ डे के दिन भी शराब आसानी से सुलभ हो जाती है। इतना ही नहीं शराब ठेकों पर रेट लिस्ट तो शायद ही देखने को मिले। और किसी ने दिखावे के लिए लगा भी रखी तो है तो उसकी पालना नहीं होती। यह हाल जिला मुख्यालय का है, जहां पुलिस व आबकारी विभाग के वरिष्ठ अधिकारी बैठते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में यह खेल बेखटके चलता है। वहां तो अवैध ब्रांचें तक खुलने की शिकायत मिली हैं। मतलब जहां ठेका स्वीकृत ही नहीं है, वहां भी ठेके चल रहे हैं। यह सारा खेल खुलेआम चल रहा है। पुलिस या आबकारी विभाग को इसकी जानकारी न हो, ऐसा हो नहीं सकता। ऐसे में सवाल उठते हैं कि इन पर कार्रवाई क्यों नहीं होती? या लक्ष्य पूर्ति करने के लिए आबकारी विभाग ने सबको खुली छूट दे रखी है?
या फिर यह मान लेना चाहिए कि मनमर्जी के इस खेल पर कोई अंकुश लगेगा ही नहीं और जिला प्रशासन, पुलिस व आबकारी विभाग के सारे के सारे अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से आंखें चुराकर यह तमाशा होने देंगे? इतना ही नहीं जांच का विषय यह भी है कि निर्धारित कीमत से ’यादा वसूले गए पैसे के भागीदार व साझीदार कौन-कौन हैं तथा यह पैसा कहां कहां तक व किस किस की जेब में जा रहा है?

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01जून 19 के अंक में प्रकाशित ।
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मेरी आंध्रा यात्रा-12

होटल के तमाम कर्मचारी हिन्दी कम समझ रहे थे। इस कारण उनसे समन्वय स्थापित करने में बड़ी दिक्कत हुई। एेसे में उनसे टूटी फूटी अंग्रेजी व गूंगे ही तरह इशारों मंे ही संवाद स्थापित किया। कमरे में अपना सामान जमाने के बाद मैं होटल से बाहर आया। पास ही चाय की दुकान पर गया। चाय पीने के बाद दस रुपए का नोट थमाया तो उसने तीन रुपए वापस कर दिए। वाकई सात रुपए में जोरदार घर जैसी चाय। मैं सोच रहा था सब जगह दस रुपए में मिलती है लेकिन विजयवाड़ा में सात रुपए। मैं अचंभित था। इसक बाद एक चालीस रुपए का बिस्कुट पॉकेट लिया और होटल चला गया। शाम गहरा चुकी थी। अब भोजनालय की तलाश शुरू की। आसपास कोई होटल न था। मैं उस ऑटो वाले को कोस रहा था। करीब एक किलोमीटर पैदल चलने के बाद मुझे एक होटल दिखाई दिया। अम्मा होटल नाम था। एक नवयुवक काउंटर पर बैठा था। हिन्दी बोल व समझ रहा था, इसलिए उससे थोड़ी चुनावी चर्चा की। भोजन किया और चला आया होटल। भोजन वो ही था दाल चावल वाला, लिहाजा होटल आकर बिस्कुट का पैकेट खोला। बिस्कुट खाए पानी पीया और सो गया। यह मेरा आंध्रप्रदेश में चौथा दिन था। अगले दिन ३१ मार्च को सुबह तैयार होकर होटल से बाहर आया। कोई ऑटो नहीं मिला तो पैदल ही चलता रहा। करीब तीन किलोमीटर पैदल चल लिया। पसीने से तरबतर था। रास्ते में एक चाय के खोखे पर रुका। पहले पानी पीया फिर एक कप चाय। मैंने दस का नोट थमाया तो उसने चार रुपए वापस कर दिए। मतलब यहां चाय छह रुपए की थी। स्वाद भी वैसा ही था, जैसी चाय पहले दिन शाम को पी थी। मुझे आश्चर्य हो रहा है था कि छह रुपए में एेसी चाय पिलाकर भी यह कमा रहा है जबकि रेलवे या अन्य शहर के लोग दस में गर्म पानी पिलाते है। दस रुपए की चाय वाले तो डिस्पोजल गिलास की साइज भी एेसी ढूंढकर लाते हैं, कि उसको ठीक से पकडऩा भी नहीं बनता। खैर, चाय पीने के बाद मैं एक बार फिर होटल आया। थोड़ी देर रुम में बैठकर पसीना सुखाया। इतने में रूम का दरवाया बजा, देखा तो एक बुजुर्ग महिला आई और सफाई करने लगी। इसके बाद वह टीप मांगने लगे। मैंने दस रुपए दिए और फिर निकल लिया। सड़क पर एक रिक्शा जाता दिखाई दिया। हाथ करके उसको रुकवाया और बस स्टैंड के लिए पूछा। बीस रुपए में उसने बस स्टैंड छोडऩा तय किया। रिक्शे में मछलियों से भरी पोटली रखी थी। चूंकि वो सीट के नीचे थी लेकिन मेरे दोनों पैर उस पोटली के दोनों तरफ थे। एेसे में मछलियों की तीखी गंध सीधे नाक से टकरा रही थी। इस गंध से मैं असहज हो चुका था। जैसे-तैसे बस स्टैंड आया। वहां सड़क किनारे तोते लिए असंख्य ज्योतिषी बैठे थे। तोते के माध्यम से पर्ची उठवा कर यह लोगों के भाग्य के बारे में बता रहे थे। थोड़ा सा रुकना के बाद में बस स्टैंड परिसर की ओर चल पड़ा। । इतना बड़ा व भव्य बस स्टैंड देखकर मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। एेसा मैंने पहली बार देखा। एक ही रुट के लिए दस काउंटर। मतलब आपको कहीं जाना है तो उस स्थान के लिए बसों के दस काउंटर। राजस्थान के कई बस स्टैंड पर तो कुल जमा ही दस काउंटर नहीं होते। यहां सौ से ऊपर काउंटर। और बैठने की शानदार व्यवस्था। बिलकुल हवाई अडडे की तर्ज पर। बड़े बड़े एलईडी लगे हुए। बस स्टैंड परिसर के ऊपर शॉपिंग की बहुत सारी दुकानें। पूरा स्टैंड सफाई से एकदम चकाचक। मुझे गुंटूर जाने वाले रुट का काउंटर देखना था। पूछते-पूछते वहां तक पहुंचा। उस जगह तब पांच बसें खड़ी। सब की सब गुंटूर के लिए। कोई एसी बस तो कोई नॉन एेसी। कोई प्राइवेट तो कोई आंध्रा रोडवेज की। मैं सबसे पहले कौनसी चलेगी का पूछकर एक बस में बैठ गया। गुंटूर की गिनती एशिया की सबसे बड़ी मिर्च मंडी के रूप में होती है। मैं यह देखने गया कि चुनावी गतिविधियों का मिर्च मंडी पर कैसा असर है। खैर, बस रवाना हो गई और शहर से बाहर आते ही हवा से बातें करने लगी। मैंने अनुभव किया आंध्र रोडवेज की बस राजस्थान व हरियाणा रोडवेज के मुकाबले तेज चलती हैं। विजयवाड़ा के किनारे कृष्णा नदी है। इस पर बहुत बड़ा पुल बना है। बस वाले मार्ग पर नदी में कहीं-कहीं ही पानी दिखाई दिया। बाकी नदी सूखी पड़ी थी। विजयवाड़ा से गुंटूर की दूरी करीब चालीस किलोमीटर है। घंटे भर बाद में गुंटूर बस स्टैंड पर उतरा। बारह सवा बारह का समय हो चुका था। तेज धूप व गर्मी से फिर पसीना पसीना हो गया था। बाहर आकर एक ऑटो वाले से मिर्च मंडी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि मंडी शहर से बाहर है। मैं ऑटो के माध्यम से मिर्च मंडी पहुंचा। गेट से जैसे ही अंदर प्रवेश किया, एकदम सन्नाटा पसरा था। जैसा सोचकर आया था, वैसा माहौल मिला नहीं। मंडी में इन दिनों ऑफ सीजन चल रहा है, इसलिए चहल-पहल कम थी, लेकिन दुकानें अधिकतर खुली हुई थी। कहीं सड़क पर मिर्च सुखाई हुई थी तो कहीं बोरों में भरी जा रही थी। मतमलब जो काम था वह मंडी की अंदर ही था। बाहर से आवक या जावक नहीं हो रही थी। वैसे यहां से मिर्च थोक के हिसाब से समूचे देश में जाती है। एक मिर्च मंडी तेलंगाना के खम्मम में भी है लेकिन गुंटूर की मिर्च मंडी उससे काफी बड़ी है। हवा में मिर्च के कण थे, लिहाजा मिर्च की गंध नथुनों से टकरा रही थी। आंखों से भी पानी बहने लगा। छीकें शुरू हो गई। यहां काम करने वाले मुंह पर कपड़ा बांधकर काम करते हैं, इसलिए मिर्च की गंध उनको परेशान भी नहीं करती। वैसे भी वो इस काम में अभ्यस्त हो चले हैं। मैं दुकानों पर घूमता रहा लेकिन मुझे वहा हिन्दी या टूटी फूटी अंग्रेजी वाला कोई नहीं मिला। इसकी बड़ी वजह यहां अधिकतर मजदूर लोगों का होना भी रहा, जो पल्लेदारी का काम करते हैं। एक दुकान पर श्रमिकों से थोड़ी से बातचीत कर मैं वापस पलटा। मंडी के बाहर धूप के बचने के लिए कुछ न था। दोपहर का एक बज चुका था। मैं धूप में ऑटो का इंतजार करने लगा। करीब दस ऑटो इस दौरान गुजरे, सभी को हाथ दिया लेकिन किसी ने नहीं रोका। मन ही मन सोचा आज तो बुरे फंसे लेकिन कोई चारा नहीं था। प्यास से गला सूख गया चुका था। करीब घंटे भर धूप में खड़ा रहा। रुमाल निकाल सिर पर रख लिया था। तभी एक ऑटो आया। हाथ दिया, तो रुका लेकिन अंदर ठसाठस भरा था। किसी तरह सिर नीचा करके अंदर घुस गया और उसी मुद्रा में करीब पांच किलोमीटर का सफर किया। वह बस स्टैंड नहीं गया। फिर दूसरा टैम्पो पकड़ा और बस स्टैंड आया। दुकान से पानी की बोतल लेकर गला तर किया। वैसे गुंटूर का बस स्टैंड भी विजयवाड़ा की तरह ही बड़ा सा व एकदम साफ सुथरा था। दो स्थानों के बस स्टैंड देखने के बाद मुझे यकीन हो गया था कि आंध्रप्रदेश में लगभग बस स्टैंड इसी तर्ज पर बने हैं। मैंने विजयवाड़ा की बस पकड़ी और स्टैंड आया। विजयवाड़ा स्टैंड से बाहर आया। ऑटो वाले ने चालीस रुपए मांगे। मैंने उसको होटल भी बता दिया था और खाने वाला रेस्टोरेंट भी लेकिन पता नहीं वो मेरी बात समझा नहीं या जानबूझकर नजरअंदाज कर गया। थोड़ा चलने के बाद एक रेस्टोरेंट के पास लोकर बोला सर, आपका रेस्टोरेंट आ गया। मैंने असहमति में सिर हिलाया और किसी से पूछने के लिए कहा। पूछने के बाद वह मुझे अम्मा होटल ले आया। मैंने सौ का नोट निकाला तो बोला बीस रुपए और दीजिए। मैं उसके मुंह की तरफ देख रहा था। चालीस की बात थी, और एक सौ बीस मांग रहा है। मैंने कहा जाते समय रिक्शा वाला बीस में लेकर गया तू एक सौ बीस काहे के मांग रहा है। कहने लगा इतना ही लगता है। इसके बाद उसने पास खड़े रिक्शा वाले को बुलाया और लोकल भाषा में बात करने के बाद बोला। आप पूछिए इनसे। यहां से बस स्टैंड का किराया एक सौ बीस रुपए है। मैं समझ नहीं पा रहा था। क्या किया जाए। मैंने सौ रुपए देकर पीछा छुड़ाया और खाना खाकर होटल चला आया।
क्रमश: