Thursday, February 28, 2013

ये लिफ्ट ठीक करवा दीजिए!


टिप्पणी

श्रीमान, जिला कलक्टर, दुर्ग।
विडम्बना देखिए, जिले के लोग दूर-दूर से हर सप्ताह जनदर्शन में अपनी फरियाद इस उम्मीद से लेकर आपके पास आते हैं कि उसका निर्धारित समय अवधि में निराकरण होगा। उनके साथ न्याय होगा, उनको राहत मिलेगी। खैर, फरियादियों की समस्याओं का निराकरण कितना होता है, यह अलग विषय है लेकिन आपके कार्यालय परिसर में ही एक समस्या पिछले आठ माह से बनी हुई है। बार-बार आपके संज्ञान में लाने के बावजूद यह समस्या यथावत है। करीब तेरह लाख रुपए खर्च करके जिस उद्देश्य की पूर्ति तथा जिन लोगों की सुविधा के लिए यह लिफ्ट लगाई गई थी, उसमें न तो यह कारगर साबित हुई और ना ही संबंधित लोगों को इसका लाभ मिल पाया। लिफ्ट के अभाव में निशक्त, बुजुर्ग एवं असहाय लोग मशक्कत करते हुए किस प्रकार आपके कक्ष तक पहुंचते हैं, यह आपसे भी छिपा हुआ नहीं है। एक-एक सीढ़ी चढ़ते, गिरते-संभलते किसी तरह आपके कक्ष तक यह लोग पहुंच तो जाते हैं लेकिन सीढिय़ों का यह सफर उनके लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।
वैसे जिले के लोगों ने देखा है कि आप जिले के मुखिया होने के साथ-साथ संवदेनशील इंसान भी हैं और मातहतों की बातों पर विश्वास न करके आंखों देखी पर ज्यादा यकीन रखते हैं। तभी तो गाहे-बगाहे कार्यालय का काम छोड़कर आप किसी भी विभाग का निरीक्षण करने निकल जाते हैं। इससे इतना तो जाहिर हैं कि आप जमीन से जुड़े हुए हैं। सोचनीय विषय यह है कि जब आपके व्यक्तित्व के साथ यह खूबी और खासियत जुड़ी है तो फिर लिफ्ट को ठीक करने की दिशा में अब तक कोई पहल क्यों नहीं हो पाई। यह सही है कि लिफ्ट के मामले में आपने ,मातहतों को निर्देश भी जारी किए लेकिन उन्होंने इसको कितनी गंभीरता से लिया, सबसे बेहतर आप ही जानते हैं। अगर मातहत आंखों के सामने ही आपके आदेशों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो जिले की बात करना बेमानी है। इतना ही नहीं  पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग ने आठ माह के दौरान पीडब्ल्यूडी को छह पत्र लिख दिए हैं फिर भी समस्या जस की तस है।
बहरहाल, जनदर्शन का मतलब और मकसद लोगों को राहत पहुंचाना है तो लिफ्ट ठीक करना भी उसी दायरे में आता है। उसको ठीक करने से भी संबंधितों को राहत ही मिलेगी। और यदि जनदर्शन का मतलब कार्यालय बुलाकर सिर्फ जन का दर्शन ही करना है तो फिर कुछ कहना या ना कहना एक समान है और चिराग तले अंधेरा वाली कहावत से आप भी अछूते नहीं है। आप जिले के मुखिया हैं इसलिए आपसे उम्मीदें ज्यादा हैं। यकीन मानिए निशक्तोंं बुजुर्गों की समस्या का निराकरण भले हो या न हो लेकिन सीढिय़ों के कष्टदायी सफर से मुक्ति तो मिल ही जाएगी। अगर आपने यह करवा दिया तो ये लोग आपको दुआ देंगे। वैसे भी आपके लिए यह कोई बड़ा काम नहीं है।


साभार - पत्रिका भिलाई के 28  फरवरी 13 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, February 26, 2013

यह फेसबुक है मेरी जान...


बस यूं ही 

यह दुनिया बड़ी अजीब है। इस दुनिया में ना उम्र की सीमा है और ना ही समय का कोई बंधन। यहां दिन गुलजार हैं और रातें रंगीन व रोशन। नींद का तो यहां कोई नामलेवा भी नहीं है। यहां सच भी है लेकिन दिखावा और झूठ का बोलबाला भी कम नहीं है। यहां फर्जीवाड़े और फरेब का कॉकटेल है तो प्यार की सौंधी महक भी महसूस होती है। यहां मनोरंजन की चासनी में मोहब्बत का तड़का लगता है तो भक्ति एवं ज्ञान के प्रवचनों की गंगा भी प्रवाहित होती है। इसमें आधुनिकता का रंग तो पग-पग पर है लेकिन परम्परा से जुड़ाव भी दिखता है। यहां जोश, जुनून एवं जज्बा जगाया जाता है तो कड़वी हकीकत से रूबरू भी करवाया जाता है। आश्चर्य से भरी, कौतुहल जगाती, विस्मय पैदा करती तथा हकीकत के पास होते हुए भी हकीकत से दूर करती यह कोई तिलिस्मी नगरी ना होकर फेसबुक है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी में आए क्रांतिकारी बदलावों के चलते महानगर तो क्या, छोटे-छोटे कस्बों, गांवों एवं ढाणी तक के लोग इस मायानगरी से जुड़ रहे हैं। सहज एवं सरल विधि ही इस मायानगरी की सबसे बड़ी खूबी और खासियत है। फेसबुक की मायावी नगरी आत्मविश्वास तो जगाती ही है हिम्मत और हौसला भी देती है। भले ही फेसबुक को लेकर सभी के दीगर मत हों लेकिन विचारों को बेझिझक संप्रेषित करने का सबसे सशक्त माध्यम भी है।
हम भी करीब दो साल से इस मायावी नगरी में विचरण रहे हैं। महाकाल की नगरी उज्जैन में इंटरनेट पर बैठे-बैठे अकस्मात की इस दुनिया से जुडऩे का सौभाग्य मिल गया। जुड़ तो गए लेकिन शुरू-शुरू में तो अपुन को इसका ककहरा भी नहीं आता था। नियम-कायदों का तो बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। बस कम्प्यूटर बैठे और फिर धीरे-धीरे सीखते गए। आगे से आगे राह मिलती गई। अब भी पूर्णतया पारंगत तो नहीं हुए लेकिन खाते में अच्छा-खासा अनुभव जरूर जुड़ गया है। बस यह अनुभव ही लिखने का मजबूर कर गया। फेसबुक पर क्या देखा, जाना और सीखा, वह सब आपसे साझा करने को मन कर गया। खैर, फेसबुक के मामले में जो अनुभवी हैं, हो सकता है उनको यह लेख सामान्य सा लगे लेकिन फेसबुक की दुनिया में नवप्रवेशित लोगों को इससे फीडबैक जरूर मिलेगा, इसका दावा तो नहीं लेकिन यकीन जरूर है।
इस मायावी नगरी में प्रवेश करना आसान है लेकिन यहां के कुछ दस्तूर व उसूल भी हैं। अगर इन उसूलों एवं दस्तूरों का किसी ने पालन नहीं किया तो फिर वह अलग-थलग ही पड़ जाता है। मतलब लाइक एवं कमेंट। फेसबुक की दुनिया में प्रवेश करते समय पहले वास्ता इन दोनों से ही पड़ता है। आप किसी को नियमित लाइक करते रहे तो यकीन मानिए आपने कुछ लिखा तो यकीनन आपको भी लाइक मिलने लगेंगे। और अगर आप कमेंट तक आ गए तो फिर बदले में कमेंट मिलना भी लाजिमी है। यह क्रम नियमित रहना जरूरी है। बीच में एक बार टूटा तो फिर जोडऩे में या पटरी में लाने में वक्त लगता है। यह तो शुरुआती चरण है। अगर आप इतना सीख गए तो फिर तो अंदरुनी उठापटक को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यथा...फेसबुक का संसार बड़ा विचित्र है। इसके कई रंग हैं। यहां गलाकाट प्रतिस्पर्धा भी है। एक दौड़ सी लगी है। बिलकुल अंधी होड़ है। और दौड़ और होड़ से कई तरह के प्रेमियों का जन्म होता है, मसलन देश प्रेमी, कला प्रेमी, खेल प्रेमी, प्रकृति प्रेमी, और भी कई तरह के प्रेमी। प्रेमियों के ज्ञान की तो बस पूछिए ही मत।
यहां कोई धर्म कर्म की बात करेगा तो कोई किसी देवता या संत की फोटो को लाइक या शेयर करने पर शर्तिया कुछ अच्छा होने की गारंटी देगा। फेसबुक पर लोग ज्ञानी बन जाते हैं। निशुल्क ज्ञान बांटते हैं, प्रवचन देते हैं। न कुछ कटने का झंझट और ना कुछ सम्पादित होने का डर। जो बोला या लिखा सबके सामने। यहां मौलिकता कोई मायने नहीं रखती है। इसकी टोपी उसके सिर पर की तर्ज पर कट, कॉपी, पेस्ट का खेल एकदम बिंदास अंदाज में चलता है। कोई संस्मरण सुनाता है तो कोई यात्रा वृतांत। तभी तो फेसबुक ज्ञान, नसीहत, नीति एवं धर्म की राह पर चलने वाले अमूल्य विचारों का खजाना है। यह खजाना खत्म नहीं होता है। अनवरत चलता ही रहता है। आगे से आगे। कुछ शेयर करते हैं तो कुछ अलग से सेव करके अपने नाम से चलाते हैं लेकिन सिलसिला थमता नहीं है।
सेंतमेत में प्रचार करने का भी तो फेसबुक सबसे जोरदार जरिया है। विज्ञापन लगाने काम भी यहां बदस्तूर चल रहा है। कोई प्रचार कर रहा है अपने उत्पाद का तो कोई दुकान का। पुस्तकों का विमोचन भी अब तो फेसबुक पर होने लगा है। राजनीति का अखाड़ा भी है फेसबुक है। यहां केवल दिशा-निर्देश ही नहीं बल्कि वोट तक मांगे जा रहे हैं फेसबुक पर। प्रधानमंत्री तक का फैसला फेसबुक पर होने लगा है। रायशुमारी तक कर ली जाती है।
इतना ही नहीं जो जिस विधा में माहिर, वह उसके बारे में विशेषज्ञ की तरह पेश आता है। और जिसके पास फन नहीं है वह अपनी शानोशौकत दिखाने के लिए घर, वाहन आदि की फोटो तक को चस्पा कर रहा है। सचमुच कितनी कौतूहल भरी है यह फेसबुक की दुनिया। कोई दुनिया और अंतरिक्ष की रोचक जानकारी जुटाता है तो कोई फेसबुक पर मुशायरा करवा देता है। कोई कविताओं, शेर, शायरी व लघु कथाओं का मुरीद है तो किसी को किस्से, चुटकुले आदि लुभा रहे हैं। कोई अपनी रचनाएं, कोई फोटो तो कोई कार्टून लगा रहा है। सारी उधेड़बुन यही रहती है कि प्रतिस्पर्धा में खुद को बरकरार कैसे रखा जाए। कुछ विसंगतियों को पकडऩे का काम करते हैं तो कुछ वर्तमान एवं अतीत की गलतियों को जोड़कर पेश करते हैं। गाहे-बगाहे बहस का दौर तो चलता ही रहता है। कुछ फेसबुक पर लाइक एवं कमेंट की उम्मीद में सवाल छोड़ देते हैं तो कई बहस करते हैं। कुछ उन्मादी भावातिरेक में बह जाते हैं। बाहें चढ़ाते हैं। एक दूसरे को चुनौती देते हैं। वाकई ज्ञान का भंडार है फेसबुक। कहने को काफी कुछ है इसके बारे में। सामाजिक कुरीतियां भीं यहां दूर होती हैं तो परम्पराएं भी यहां पर सहेजी जा रही हैं। कोई बालिकाओं को बचाने की अपील कर रहा था तो कोई अपने दोस्तों को जन्मदिन की बधाई देने से भी नहीं चूकता। कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए गुड मार्निंग एवं गुड नाइट से ज्यादा कुछ नहीं है फेसबुक। वाकई फेसबुक कई तरह के सवालों का जवाब है तो कई जवाबों का सवाल भी है।
इतने गुण होने के बाद फेसबुक के साथ विरोधाभास जुड़ा है। शादी के लड्डू की तरह सभी लाइक व कमेंट की उम्मीद तो रखते हैं लेकिन टैग किसी को फूटी आंख भी नहीं सुहाता है। टैंग करने वाले फेसबुकियों से कुछ परेशान हैं तो कुछ आदतन शिकायताकर्ता। कोई टैग कर दे तो फिर आसमान सिर पर उठाते हैं। नैतिकता की दुहाई देते हैं।
पिछले माह फेसबुक के गुणगान करने वाली एक पोस्ट भी देखी। बंदे ने क्या जोरदार खाका खींचा। फेसबुक पर विचरण करने वालों का प्रकृत्ति के हिसाब से नामकरण भी कर दिया। करीब दर्जनों नाम लिखे थे। कुछ तो याद हैं अभी तक आप भी देखिए। फेसबुक मुर्गा- जो सबको गुड मोर्निंग कह कर जगाता है। फेसबुक सेलीब्रिटी- जो पांच हजार फ्रेंड की लिमिट को पूरा करता है, भले ही सभी मित्रों के बारे में सही जानकारी ना हो। फेसबुक बाबा- भगवान व धर्म से संबंधित पोस्ट ही लगाएंगे। फेसबुक चोर- दूसरों के स्टेटस एवं पोस्ट चोरी करके अपने नाम से अपने वॉल पर डालते हैं। फेसबुक देवदास-दर्दभरी कविताएं यां शायरी कहते हैं और अपने दुख दुनिया से साझा करते हैं। फेसबुक न्यूज रिपोर्टर- खबरों के बारे में जानकारी देते रहते हैं। फेसबुक टीकाकार- खुद कुछ नहीं लिखते लेकिन दूसरों की पोस्ट पर जाकर टिप्पणी करते रहते हैं। फेसबुक विदुषक-यह लोग खुद भले ही दुखी हों लेकिन कमेंट एवं पोस्ट से दूसरों को हंसाते रहते हैं। फेसबुक लाइकर- यह लोग कमेंट करने में कंजूसी बरतते हैं लेकिन चुपके से लाइक कर देते हैं। फेसबुक विचारक-यह लोग अपने विचार अपनी पोस्ट के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं। फेसबुक कवि और कवियित्री-इनको कविता के अलावा कुछ नहीं दिखता, बस अपनी कविताएं ही पोस्ट पर डालते हैं। फेसबुक टपोरी- यह फेसबुक पर छिछोरी हरकतें करते हैं और हलकट पोस्ट लगाते हैं। फेसबुक द्वेषी-इनको फेसबुक पर किसी की तारीफ करना अच्छा नहीं लगता है। बस लोगों से द्वेष करते हैं। फेसबुक चैटर- इनको फेसबुक पर चैटिंग के अलावा कुछ काम नहीं सूझता। फेसबुक लिंग परिवर्तक-यह फेक आईडी बनाते हैं। इसमें मेल, फीमेल बन जाता है और फीमेल, मेल। फेसबुक खिलाड़ी- यह दिन भर फेसबुक पर गेम खेलते रहते हैं। फेसबुक बंदर- जो कमेंट में कुछ नहीं बोलते, केवल हा, हा या ही, ही करते रहते हैं। फेसबुक भिखारी- ऐसे लोगों की फ्रेंड रिक्वेस्ट अक्सर ब्लॉक कर दी जाती है और यह लोग फ्रेंड बनने के लिए भीख मांगते रहते हैं। और सबसे आखिर में फेसबुक कलेक्टर, जो केवल ग्रुप या पेज ही ज्वाइन करते हैं।
बहरहाल, फेसबुक पर इतना लिखने के बाद भी ऐसा लग रहा है कि काफी कुछ छूट रहा है। यही तो फेसबुक की माया है। आजकल हर जगह इसी की धमक है और इसी के चर्चे हैं। इसके बिना सब बेनूर है, बैरंग है, बेमजा है और यह संस्कृति की संवाहक है। सचमुच कमाल की चीज है। जितना इससे दूर जाने को मन करता है उतना ही पास आते हैं। मायावी की माया है। इससे कोई अछूता नहीं है।

Monday, February 25, 2013

मूंछों का है जमाना


बस यूं ही 
 
वैसे तो मूंछों की शान में अनगिनत कशीदे पढ़े गए हैं। तभी तो मूंछों को आन, बान, शान और स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है। विशेषकर राजस्थान जैसे परम्परावादी राज्य में तो मूंछों को लेकर काफी कुछ कहा गया है। देखा जाए तो
मूंछें प्राचीनकाल से ही लोगों को लुभाती रही हैं और वर्तमान में भी इनकी प्रासंगिकता बरकरार है। मूंछों को लेकर कई किस्से, कहानियां, लोकोक्तियां एवं मुहावरे भी प्रचलन में है। मैं भी कई दिनों से मूंछों पर कुछ लिखने की सोच रहा था लेकिन न तो समय निकाल पाया और ना ही लिखने की कोई बड़ी वजह मिली। 
आज बैठे-बैठे अचानक ब्लॉग पढऩे का मन किया। सबसे पहले नजर श्री रतनसिंह जी भाईसाहब के ब्लॉग ज्ञान दर्पण में हाल में लिखी गई रचना ठाकुर साहब की अकड़ और मूंछ की मरोड़ का राज पढ़ा तो फिर मूंछों की याद आ गई। हालांकि मूंछों से वाबस्ता फिल्मी जुमला मूंछे हों तो नत्थूलाल जैसी तो बचपन में ही सुन लिया था, लेकिन तब यह बात समझ में नहीं आई थी कि आखिर नत्थूलाल की मूंछों में ऐसा क्या है। बाद में फिल्म में देखी तो जिज्ञासा शांत हुई। मूंछों संबंधी जिज्ञासा तो शांत हो गई लेकिन फिल्मों का चस्का ऐसा लगा कि एक तरह की लत ही लग गई । यह फिल्मों का ही असर था कि एक बार अपने भी तोते उड़ गए थे। तोते उडऩे का यह डायलॉग भी अजय देवगन की प्यार तो होना ही था, फिल्म में सुना था। सैलून में मूंछें सेट करवाते हुए नाई जब बातों-बातों में अजय देवगन की एक तरफ की मूंछ साफ कर देता है, और फिर डर के मारे वह जोर-जोर से चिल्लाता है, उस्ताद तोते उड़ गए, उस्ताद तोते उड़ गए। हकीकत जानने पर अजय देवगन ने थोड़ा गुस्सा होने के बाद दूसरी तरफ की मूंछ भी साफ करवा ली थी। 
खैर, तीन साल के लिए मैंने भी मूंछें साफ करवाई थी। कोई वजह पूछता तो अपने पास भी वही परम्परागत बहाना तैयार था। कह देते कि मूंछें सेट करते समय एक तरफ की कुछ ज्यादा छोटी हो गई। देखने में बुरी लग रही थी, इसलिए साफ ही कर दी। अधिकतर लोग तो इस तर्क से संतुष्ट हो जाते। कोई ज्यादा समझदार जब मानने को तैयार नहीं होता तो फिर उसे राजेश खन्ना की फिल्म का डायलॉग सुना देते और कह देते..अरे भई यह तो मर्दों की खेती है, जब चाहे उगा ली और जब चाहे काट ली, इसमें आपका क्या? वैसे चिकना बनने का यह बुखार कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही चढ़ा था और पत्रकारिता की एबीसीडी सीख कर जब मैदान में उतरे तो बाकायदा मूंछें साथ थी। मतलब तीन साल तक बिना मूंछों के रहने का अनुभव भी अपुन के साथ चस्पा हो गया। वैसे ईमानदारी की बात यह है कि अपनी गुडबुक में मूंछ वाले हीरो ही ज्यादा रहे हैं, मसलन, राजकपूर, अनिल कपूर, राकेश रोशन आदि, हालांकि अनिल कपूर भी एक बार लम्हे में बिना मूंछों के नजर आए। राकेश रोशन ने भी एक-दो फिल्मों में अपनी मूंछे कटवाईं। यह बात दीगर है कि फिल्मों में कथानक के अनुसार कई नायकों ने मूंछे रखी हैं, भले ही असली जिंदगी में उन्होंने मूंछों से परहेज किया हो। ऐसे नायकों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है। खैर, खलनायक तो अपवादस्वरूप ही किसी फिल्म में बिना मूंछों का नजर आया, वरना मूंछों के साथ दाढ़ी तो कई फिल्मों में खलनायक की पहचान बन गई।
खैर फिल्मी दुनिया से इतर भी मूंछों का महत्त्व रहा है। मूंछें चेहरे का रौब बढ़ा देती हैं। दुबारा मूंछे रखने के बाद मैं अपने कई मूंछ ना रखने वाले दोस्तों से मजाक-मजाक में पूछ बैठता कि बिना बात किए आपको किस आधार पर पहचाना जाए कि आप पुरुष हो। वैसे भी मौजूदा पहनावा एवं लाइफ स्टाइल ऐसे हैं कि पुरुष एवं महिलाओं में भेद तक करना मुश्किल हो रहा है। दोस्तों से संतोषजनक जवाब ना मिलने पर विजयी मुस्कान के साथ मैं कहता, मूंछों से ही इंसान की पहचान होती है। हो भी कैसे नहीं। मूंछों को लेकर दर्जनों मुहावरें हैं, जो अलग-अलग संदर्भों में प्रयुक्त किए जाते हैं। मुहावरों की बानगी देखिए...। मूंछ मरोडऩा, मूंछें फरकाना, मूंछों पर ताव देना। मूंछों को बल देना। मूंछें ऊंची होना। मूंछें नीची होना। मूंछ लम्बी होना। मूंछ का बाल।  मूंछ ही लड़ाई
मूंछ का सवाल आदि आदि। इन मुहावरों का भावार्थ देखा जाए तो मूंछों को इज्जत से जोड़कर देखा गया है। मूंछे ऊंची होना जहां सम्मान की बात है, वहीं मूंछें नीची होने का मतलब बेइज्जत होना है। इसी तरह मूंछों को ताव देने से आशय चुनौती देना है तो मूंछ का सवाल का अर्थ प्रतिष्ठा का सवाल है। इन मुहावरों से साफ होता है कि मूंछों की दर्जा काफी ऊंचा हैं और मूंछों के साथ इज्जत को जोड़कर देखा जाता रहा है।
खैर, मेरे विचारों से कोई यह ना समझ लें कि मैं मूंछ ना रखने वालों का विरोधी हूं, ऐसा नहीं है। बस बात की बात है और विषयवस्तु प्रासंगिक है, लिहाजा लिखने को मन कर गया। वैसे भी मैं तो पहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरे पास भी बिना मूंछ रहने का तीन साल का अनुभव है। फिर भी फिल्मी नायकों को देखकर या उन जैसा बनने की हसरत रखने वाले जरूर मूंछें साफ करवाने में विश्वास रखते हैं लेकिन पिछले दो 
तीन  सालों में फिल्मवालों का मूंछ प्रेम भी यकायक बढ़ गया है। हाल ही में आधा दर्जन से ज्यादा फिल्मी आई हैं, जिनमें नायक बाकायदा बड़ी-बड़ी मूंछों के साथ अवतरित हुए हैं। उदाहरण के लिए राउडी राठौड़ में अक्षय कुमार, दबंग व दबंग-2 में सलमान खान, बोल बच्चन में अजय देवगन, तलाश में आमिर खान,  मटरू की बिजली का मन डोला में इमरान खान,  जिला गाजियाबाद में संजय दत्त को देखा जा सकता है। राजस्थान के मंडावा में फिल्माई गई फिल्म पीके में भी संजय दत्त ने मूंछों में किरदार निभाया है। 
लब्बोलुआब यह है कि फिलहाल मूंछों का बोलबाला है और जमाना कहें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए। अपन तो मूंछ पहले से ही रखे हुए हैं, लिहाजा आजकल मूंछें छोटी या बड़ी रखने की वजह बताने में कोई दिक्कत नहीं है। कई बहाने मिल गए हैं। ना रखी थी तब भी और सामान्य से कुछ बड़ी कर ली तब भी। वैसे अपुन की मूंछें भी आजकल कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। यह जानकारी भी तब लगी जब कुछ परिचितों ने हाल की एक फोटो को फेसबुक पर देखकर चेहरे की बजाय मूंछों पर ही टिप्पणी कर दी। किसी ने साउथ का फिल्मी हीरो बता दिया तो किसी ने मूंछों को भारी बता दिया। किसी ने सिंघम तक कह दिया तो कोई बोला मूंछ मोटी कर ली। एक दोस्त ने तो यहां तक कह दिया कि मूंछ है तो सब कुछ है। फोटो पर आई इन टिप्पणियों से इतना तो तय है कि चेहरा देखते समय सर्वप्रथम ध्यान मूंछों पर ही जाता है। इसलिए एक बार मूंछ रखने का अनुभव भी तो लिया ही जा सकता है। और फिर बकौल राजेश खन्ना, यह तो मर्दों की खेती है। जमी तो रख ली, ना जमी तो साफ।