Tuesday, April 10, 2012

आओ जांच-जांच खेलें


टिप्पणी

क्योंकि इसमें कुछ जमा-खर्च नहीं लगता है। क्योंकि यह तात्कालिक संकट पर पार पाने की सबसे अचूक एवं रामबाण औषधि है। क्योंकि यह विवाद को शांत करने का सबसे आसान तरीका भी है। क्योंकि इसमें सारा खेल हाजिरजवाबी और वाकपटुता का है। क्योंकि इसकी आड़ का कोई तोड़ भी नहीं है। जी हां, इस कारगर हथियार का नाम जांच है। तभी तो सांच को आंच नहीं जैसे जुमले के मायने भी अब बदलने लगे हैं। विशेषकर छत्तीसगढ़ में तो यह गुमनामी के भंवर में खोकर बेमानी सा हो गया है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि अगर उक्त जुमले को 'जांच को आंच नहीं' कर दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। छत्तीसगढ़ में जांच का खेल जमकर खेला जा रहा है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां जांच की धमक या दखल ना हो। हर जगह जांच के ही चर्चे हैं। मामला चाहे जनप्रतिनिधियों से वाबस्ता हो या फिर किसी विभाग या अधिकारी से, जांच से कोई अछूता नहीं है। आलम यह है कि नीचे से लेकर ऊपर तक जांच ही जांच है। क्योंकि जब तक जांच है, तब तक आंच नहीं। नेताओं और नौकरशाहों के लिए तो जांच किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं है। जांच के आगे सब फेल हैं। जांच की इस वैतरणी में ऐसा जादू है कि इसके सहारे कई आरोपी गंगोत्री तर गए।
बिलासपुर जिले में मरवाही का हरित क्रांति घोटाला सबके सामने आ चुका है, लेकिन इसमें दोषी पर कार्रवाई के बजाय जांच दर जांच ही चल रही है। कार्रवाई के नाम पर सब के पास एक ही रटारटाया जवाब है कि जांच जारी है। दो-तीन माह से जांच का खेल चल रहा है। भले ही जांच की आड़ में आरोपित व्यक्ति अपने बचाव के रास्ते खोज ले। कमोबेश कुछ इसी तरह का मामला सिम्स के डीन का है। डीन के फर्जी अनुभव प्रमाण पत्रों का मामला साफ हो चुका है। सूचना के अधिकार में मिली जानकारी में भी यह बात साबित हो चुकी है लेकिन न सिर्फ सरकार, बल्कि स्वास्थ्य मंत्री जिंदा मक्खी निगलने जैसा उपक्रम कर रहे हैं। सच को झुठलाने व दबाने के प्रयास हो रहे हैं। जांच जारी है, जांच जारी है, कहकर न केवल वे सच्चाई पर पर्दा डाल रहे हैं, अपितु मामले को बेवजह लम्बा भी खींचा जा रहा है। इस प्रकार का हीला-हवाला आरोपियों को अभयदान देने से कम नहीं है। क्या भरोसा, इस समयावधि में आरोपित लोग खुद पर लगे आरोपों का किसी जुगाड़ से कोई हल खोज लें। ऐसे हालात में सवाल मौजूं है कि जब सब कुछ साफ दिखता है कि तो फिर क्यों जांच का पेंच फंसा दिया जाता है। जांच-जांच की रट सुनते-सुनते लोगों के कान पक चुके हैं, लेकिन सरकार और नुमाइंदों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। वैसे भी, देखा जाए तो सिम्स डीन और हरित क्रांति घोटाला तो बानगी भर है। ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लम्बी है, जो जांच के दायरे में सिमटे-सिमटे ही अतीत का हिस्सा बनने की कगार पर है।
बहरहाल, घोटालों-घपलों और भ्रष्टाचार से पीड़ित लोगों के हिस्से सिर्फ जांच ही आती है। शातिर और चालक लोग जांच की आड़ में बच निकलते हैं। सोचिए, एसपी राहुल शर्मा की मौत के मामले में ही जब २८ दिन बाद जांच के नाम पर हलचल शुरू होती है, तब आम आदमी की बिसात ही क्या है। शायद ही ऐसे अवसर आए हों, जब जांच से जुड़े कागजात सार्वजनिक किए गए हों। जाहिर  है कि जब जांच करने या करवाने वालों की नीयत में ही खोट हो, तो भला वे जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किस मुंह से करेंगे। जांच की घोषणा करने वाले ही जांच करवाएं तो जांच का परिणाम क्या होगा? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। समय रहते अगर जांच रिपोर्ट न आए तो फिर ऐसी जांच का फायदा ही क्या? जांच की प्रासंगिकता व उपयोगिता तभी है, जब समय रहते, दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।

साभार - पत्रिका बिलासपुर के 10 अप्रैल 12 के अंक में  प्रकाशित।