Monday, July 29, 2013

दो पीढिय़ों का संगम... भाग मिल्खा भाग


बस यूं ही








 
प्रदर्शित होने के 17 दिन बाद रविवार को जब परिवार सहित भाग मिल्खा भाग फिल्म देखने गया तो वहां हाउस फुल देखकर विश्वास यकीन में बदल गया कि फिल्म के चर्चे यूं ही नहीं है। वैसे फिल्म देखने की उत्सुकता तो रिलीज होने से पहले ही थी लेकिन समय आज ही मिला। इस बीच फिल्म की सफलता की कहानी कई जगह समीक्षा के रूप में पढ़ चुका था। यकीन मानिए जैसे-जैसे फिल्म के बारे में पढ़ता गया, तो इसके प्रति मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। आज जब फिल्म देखकर लौटा तो पछतावा, इस बात का जरूर था कि क्यों इतनी शानदार फिल्म को देखने में इतना विलम्ब किया गया। सबसे अलग एवं चौंकाने वाली बात जो आजकल अमूमन नई फिल्म में दिखाई नहीं देती है, वह यह कि बुजुर्गों की दिलचस्पी नई फिल्मों में कम ही रहती हैं। लेकिन भाग मिल्खा भाग में मैंने कई बुजुर्ग दम्पती ऐसे भी देखे जो अपने बेटों-बहुओं का हाथ पकड़कर सिनेमाघर पहुंचे थे। फिल्म के प्रति बुजुर्गों के लगाव का सबसे प्रमुख कारण भी शायद अपने अतीत को याद करना ही रहा होगा। नई एवं पुरानी पीढ़ी को एक जगह करने का श्रेय बहुत ही कम फिल्मों को मिल पाता है। एक धावक की जीवनी को जिस अंदाज में फिल्माया गया है और बीच-बीच में जिस प्रकार कॉमेडी का समावेश किया गया है वह जरूरी भी था, क्योंकि सिर्फ दौड़ ही दिखाने के लिए दर्शकों को तीन घंटे तक बांधे रखना भी तो मुश्किल काम है।
वैसे पखवाड़े भर बाद फिल्म के बारे में लिखना बेमानी सा ही है, क्योंकि अब तक तो सब कुछ सबके सामने आ ही चुका है लेकिन फिल्म से मैं प्रभावित यूं ही नहीं हुआ। मेरे लिए आज भी भारतीय सेना एवं खेल दोनों का स्थान सबसे अहम है। और संयोग से फिल्म भी इन दोनों ही विषयों पर केन्द्रित है। पापाजी सेना में रहे हैं और इसके बाद बड़े भाई साहब भी। मैंने भी सेना में जाने के प्रयास किए लेकिन बदकिस्मती से वे सिरे नहीं चढ़ पाए। मुझे सेना में न जाने का मलाल आज भी है। यह बात अलग है कि देश सेवा एवं देश प्रेम के अपने जोश, जज्बे एवं जुनून को मैं पत्रकारिता के माध्यम से पूरा करने में बड़ी शिद्दत के साथ जुटा हुआ हूं। दूसरा स्थान खेल का इसलिए मानता हूं क्योंकि बचपन में दौड़ मेरा भी पसंदीदा खेल रहा है। कहा भी कहा गया है कि संस्कार घर से ही मिलते हैं। पापाजी सेना में रहे हैं और अपने समय के श्रेष्ठ धावक भी। सौ मीटर की दौड़ पापाजी 11.2 सेकण्ड में पूरी करते थे। पापाजी के जीते कप एवं मैडल घर रखे हैं जो आगे बढऩे की प्रेरणा देते हैं। संयोग देखिए पापाजी भी मिल्खासिंह के समय ही दौड़ा करते थे। वे 1952 में भर्ती हुए और जल्द ही दौड़ में अपना काम कमाया। जिस तरह मिल्खासिंह की राह में उनके प्रतिद्वंद्वियों (साथियों) ने मुश्किलें पैदा की लेकिन मिल्खा ने इनको चुनौती के रूप में लिया लेकिन पापाजी ने इनको चुनौती के रूप में लेने की बजाय स्वाभिमान से जोड़ दिया। फिल्म देखने की बाद घर आने पर सबसे पहले फोन पर पापाजी से ही बात की। उनको बताया कि आपसे बचपन में सुनी मिल्खासिंह की कहानी को आज फिल्म के रूप में देखकर आ रहा हूं। वे बेहद खुश हुए यह सुनकर। इसके बाद बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो देर तक चलता रहा। मैने जिज्ञासावश पूछ लिया तो पापाजी ने बताया कि जब मैं प्रशिक्षण पूर्ण करने के बाद जालधंर में रेजीमेंट में गया तो वहां के पुराने धावकों ने अपने आप को स्पर्धाओं से अलग कर लिया था। लेकिन अफसरों ने पापाजी से यह कहते हुए कि तुम सौ मीटर बाधा दौड़ भी पूरी कर लोगे. इसलिए सौ मीटर किसी दूसरे के लिए छोड़ दो। बस सीनियरों के इस फैसले को पापाजी ने चुनौती के रूप में नहीं लिया। हो सकता है उनका फैसला सही हो। उन्होंने बताया कि अभ्यास तो सौ मीटर का ही था। बाधा दौड़ में तो कभी हिस्सा ही नहीं लिया। उसकी शुरुआत तो जीरो से करनी थी जबकि सौ मीटर में काफी महारत हासिल हो चुकी थी। दौड़ की श्रेणी बदलने के बाद पापाजी ने खुद को दौड़ की प्रतिस्पर्धाओं से अलग कर लिया। यह अलग बात है कि वे 1969 तक सौ मीटर का अभ्यास लगातार करते रहे।
खैर, यह सब बताने का उद्देश्य यही था कि सेना और खेल में मेरी रुचि होने के कारण फिल्म के प्रति दिलचस्पी और भी बढ़ गई। वैसे भी मैं संवेदनशील शख्स हूं, लिहाजा फिल्म के दौरान चार बार आंखें नम हुई। एक बार तो आलम यह हो गया कि रुमाल निकालना ही पड़ा। वो चार दृश्य फिल्म को और भी ऊंचाइयों तक पहुंचा देते हैं। सबसे पहले आंख नम भाई-बहन के मिलन को देखकर हुई। शरणार्थियों के शिविर में जैसे ही घोषणा होती है तो मिल्खा, बहन से मिलने के लिए दौड़ पड़ते हैं..। बड़ा ही भावपूर्ण दृश्य है। भाई-बहन का प्रेम देख भावुक हो गया। दूसरा उस वक्त भावुक हुआ जब मिल्खा मैडल जीतकर लौटते हैं और वह अपने पहले कोच के चरण-स्पर्श कर मैडल उनके गले में पहना देते हैं। यकीनन यह खुशी के आंसू थे लेकिन गुरु के प्रति निष्ठा रखने की साक्षात अनुभूृति रखने का यह कितना बड़ा उदाहरण था। शायद यह आंसू इसलिए भी आए कि क्योंकि गुरुओं के प्रति मेरी निष्ठा भी तो कमोबेश ऐसी ही है। तीसरे दृश्य में तो मैं रो ही पड़ा था। यकीन मानिए आंसू ही बहने लग गए थे। प्रतियोगिता में भाग लेने मिल्खा जब पाकिस्तान जाते हैं तो अपने गांव जाना भी नहीं भूलते। वैसे मिल्खा पर उनका अतीत उनके वर्तमान पर ताउम्र हावी रहता है और यह अतीत का ही कमाल है कि मिल्खा ने नाम कमाया तो उसी की वजह से और वे पदक जीतने से वंचित भी रहे तो उसके पीछे भी उनका अतीत ही था। अपने पैतृक घर जाने के बाद जब उनको अतीत याद आता है और लाशों के ढेर में जब वे मां को पुकारते हैं तब सचमुच बेहद ही मर्मान्तक दृश्य पैदा हो जाता है। फिल्मांकन भी ऐसा है कि पत्थर भी पिघल जाए। चौथी बार आंसू तब आए जब मिल्खा अपने बचपन के साथी के घर जाते हैं और उससे गले मिलते हैं। सचमुच यह दृश्य भी तो कालजयी बन पड़ा है।
अगर देखा जाए और कुछ सीख ली जाए तो फिल्म मैनेजमेंट के लिहाज से भी बेहतर है। यह प्रोत्साहित करती है और आगे बढऩे का हौसला प्रदान करती है। निरुत्साहित मिल्खा को जब उनके कोच प्रोत्साहित करते हैं और कहते हैं कि एक स्पोट्र्समैन में जज्बात, अनुशासन एवं तपस्या होना जरूरी है। सही में यह बात एक धावक पर ही नहीं, असली जिंदगी में भी लागू होती है। किसी भी क्षेत्र में मुकाम पाने के लिए इन तीनों चीजों का समावेश होना बेहद जरूरी है। वैसे फिल्म समापन से पूर्व मिल्खा सिंह का संदेश भी दिखाया जाता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि सफलता पाने के लिए विल पावर (दृढ़ इच्छा शक्ति), हार्ड वर्क (कठोर मेहनत ) एवं डेडीकेशन (समर्पण) जरूरी है। सच में अगर इन तीनों को ध्यान में रखते हुए कोई काम किया जाए तो तय मानिए कि सफलता निश्चित है। तभी तो फिल्म खत्म होने के बाद पीछे आ रहे दो जनों की बातचीत का उल्लेख कर रहा हूं। एक व्यक्ति दूसरे से कहता है.. सर... कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, फिल्म देखी तो चार्ज हो गया। काफी मोटीवेट हो गया हूं। सही बात है। भाग मिल्खा भाग यही तो संदेश देती है कि मुश्किल कुछ भी नहीं है अगर डटकर मुकाबला किया जाए।
गीत संगीत के मामले में तो कहना ही क्या.. हवन करेंगे.. गीत तो जन-जन की जुबान पर चढ़ चुका है। विशेषकर बच्चे तो इस गीत के मुरीद हैं। थियेटर में जब गाना शुरू हुआ तब गोद में बैठे एकलव्य का अंग प्रत्यंग इसके बोलो पर मचल रहा था। वैसे यह गीत जब भी टीवी पर आता है बच्चे इसके साथ संगत करना नहीं भूलते। बीयर पीने के बाद आस्टे्रलिया में विदेशी महिला के साथ गाया मिल्खा का गीत भी यादगार बन पड़ा है। संगीत का पक्ष भी फिल्म को मजबूती प्रदान करता है। फिल्म कलाकारों, संगीतकारों, निर्माता, निर्देशक आदि के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। और वैसे भी लिखने पढऩे वाले यह सब जानते ही हैं कि किसने किस जिम्मेदारी का निर्वहन बखूबी के साथ किया है।
आखिर में यही बात कि पूरे परिवार के साथ बिना किसी शर्म संकोच के देखने वाली फिल्में आजकल बनती ही कितनी हैं। यह बात दीगर है कि भाग मिल्खा भाग में भी मध्यान्तर के बाद विदेशी महिला के साथ मिल्खासिंह के जो अंतरंग संबंध में दिखाए गए हैं, वे कुछ अखरते जरूर हैं। इसके अलावा विभाजन के बाद भारत आए शरणार्थियों को तम्बुओं मेंं ठहराए जाने का फिल्मांकन बेहद विहंगम हैं। रात को तम्बू में मिल्खा का अपने बहन की गोद में सो जाना और इसके बाद पर्दे के पीछे बहन एवं जीजाजी के बीच अंतरंग संबंधों की आवाज दर्शकों को सुनाई देती है.. यह दृश्य भी पता नहीं क्या सोच कर जोड़ दिया गया। दोनों दृश्य अगर जरूरी ही थे, तो इनको दूसरे अंदाज में भी दिखाया जा सकता था। अगर यह दृश्य फिल्म में ना भी होते तो इससे मूल कथानक पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। खैर, यह फिल्म बनाने वालों का अपना नजरिया है,लेकिन मेरे हिसाब से वह जरूरी नहीं था। विदेशी महिला के साथ अंतरंग दृश्य पीछे बैठे एक उम्रदराज दर्शक को इतना अखरा कि वे सिनेमाघर में ही जोर से चिल्ला उठे....अरे इसको हटाओ...।
बहरहाल, फिल्म देखने के बाद जेहन में टिकट काउंटर पर बैठे उस व्यक्ति के बोल ही गूंज रहे थे... कि तीन घंटे की फिल्म है। बड़ी है। समय पर आना है। पूरी फिल्म में मिल्खा भागता ही रहता है। सचमुच मिल्खा भागता ही तो रहता है। कभी देश छोडऩे के लिए तो कभी देश की खातिर। आखिर का दृश्य भी यादगार है जब जवान (भारत ) का मिल्खा बचपन के (पाकिस्तान के ) मिल्खा के साथ दौड़ता है। यह दृश्य काफी कुछ कहता है। बहुत ही बड़ा संदेश छिपा है इस दृश्य के पीछे।

Monday, July 22, 2013

दिमाग का दही हो गया


बस यूं ही

 
पिछले पन्द्रह दिन से बच्चे दो ही गीत ज्यादा गुनगुना रहे हैं। कभी वो भाग मिल्खा भाग का 'हवन करेंगे...' के बोल पर नाच रहे हैं तो कभी ये जवानी है दिवानी का 'बदतमीज दिल माने न...' को बड़े ही जोश व शिद्दत के साथ गा रहे हैं। अचानक गीत के बोल सुनकर मैं चौंक गया.., पहला ही सवाल जेहन में आया, भला दिल बदतमीज कैसे हो सकता है। बस तभी से दिल में हलचल मच गई। विषय कुछ रोचक व अलग हटकर लगा लिहाजा तभी तय कर लिया कि क्यों ना दिल को बदतमीज करार देने वाले इस गीत पर दिल से लिखा जाए। वैसे जितना प्रयोग दिल के साथ पर्दे की दुनिया पर हुआ है उतना तो शायद हकीकत में भी नहीं हुआ। शायद की कोई फिल्म हो जिसमे दिल का जिक्र ना हो। या तो फिल्म के शीर्षक में ही दिल मिल जाएगा और वहां नहीं मिला तो फिर किसी न किसी गाने के मुखड़े या अंतरे में दिल का उल्लेख मिलना तय मानिए। तभी तो दिल से लगायत गीत हो या फिल्म, रुपहले पर्दे के सबसे पसंदीदा विषय रहे हैं। सात-आठ दशकों से दिल पर लगातार लिखना कोई आसान नहीं है। ऐसे में गुण-दोष की बात करना तो वैसे भी बेमानी है। फिर भी कभी सिर आंखों पर बैठाया जाना वाला दिल जब बदतमीज हो गया तो इस दिशा में सोचा जाना भी तो जरूरी है। यह बात दीगर है कि बदतमीज दिल से दिल लगाने वालों की संख्या भी कम नहीं हैं। खैर, सबसे पहले मैंने इस गीत को बोलो को गौर से सुना, आप भी देखिए...

'पान में पुदीना देखा,
नाक का नगीना देखा,
चिकनी चमेली देखी,
चिकना कमीना देखा,
चांद ने चीटर हो चीट किया तो,
सारे तारे बोले गिल्ली गिल्ली अख्खा.....'

'मेरी बात, तेरी बात,
ज्यादा बातें, बुरी बात,
आलू-भात, पूरी भात,
मेरे पीछे किसी ने
रिपीट किया तो साला,
मैंने तेरे मुंह पे मारा मुक्का....'

'इस पे भूत कोई चढ़ा है,
ठहरना जाने ना,
अब क्या बुरा क्या भला है,
फर्क पहचाने ना...
जिद पकड़ के खड़ा है,
कमबख्त छोडऩा जाने ना....'

'बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, माने ना...'
'ये जहान है सवाल है कमाल है जाने ना, जाने ना...'
'बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, बदतमीज दिल माने ना...'

'हवा में हवाना देखा,
ढीमका फलाना देखा,
सींग का सिंघाड़ा खाके,
शेर का गुर्राना देखा,
पूरी दुनिया का गोल-गोल चक्कर ले के
मैंने दुनिया को मारा धक्का...'

'बॉलीवुड, हॉलीवुड,
वैरी-वैरी, जॉली गुड...
राई के पहाड़ पर तीन फूटा लिलीपुट
मेरे पीछे किसने रिपीट किया तो साला
मैंने तेरे मुंह पर मारा मुक्का...'

'अय्याशी के वन वे से खुद को
मोडऩा जाने ना..
कंबल बेवजह यह शरम का
ओढऩा जाने ना....
जिद पकड़ के खड़ा 
कमबख्त का
छोडऩा जाने ना...'

'बदतमीज दिल बदतमीज दिल बदतमीज दिल माने ना...'

यकीन मानिए गीत के बोलों में क्या संदेश छिपा है अपने तो समझ से बाहर है। सोच-सोच के दिमाग का दही जरूर हो गया लेकिन गीत समझ में नहीं आया। हां एक बात समझ में जरूर आ गई कि दिल जब बदतमीज ही है तो फिर उससे तमीज की बातें करने की उम्मीद भी तो नहीं की जा सकती है। बदतमीज तो बदतमीजी से ही बात करेगा ना...। जरूरी थोड़े ही बदतमीजी की बातें सभी के समझ में आए। अपने भी नहीं आई....।

एक जैसी समानता...


बस यूं ही

 
राजस्थान के उदयपुर शहर में फिल्मी अभिनेत्री पूजा भट्ट और पुलिस अधीक्षक हरिप्रसाद शर्मा के बीच हुए घटनाक्रम को न केवल स्थानीय समाचार पत्रों में काफी तरजीह मिली बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मामले को खूब हवा दी गई। सभी जगह एक जैसी समानता दिखाई दी...। मतलब सभी का झुकाव पुलिस की बजाय फिल्म यूनिट की तरफ ज्यादा दिखाई दिया। वैसे भी कोई भी घटनाक्रम हो, अक्सर यह मान लिया जाता है कि पुलिस की भूमिका सही नहीं थी। इसकी एक प्रमुख वजह यह भी है कि आम आदमी की नजरों में पुलिस की छवि अच्छी नहीं है। लेकिन पुलिस अधीक्षक हरिप्रसाद शर्मा को लेकर जो आरोप सामने आए हैं, उसको लेकर मैं आश्चर्यचकित हूं। हरिप्रसाद शर्मा को मैंने करीब से देखा है। पांच साल पहले वे झुंझुनूं के पुलिस अधीक्षक हुआ करते थे। उस वक्त मैं भी झुंझुनूं में ही था। किसी बड़ी सभा, आंदोलन या धरना आदि में कवरेज के दौरान उनसे मुलाकात हो ही जाया करती थी। वैसे मेरा उनसे जो संबंध एक पत्रकार का एक पुलिस अधिकारी के साथ होता वैसा ही रहा है। मैंने उनमें बाकी पुलिस अधिकारियों से अलग जो चीज देखी वह यह थी कि वे कभी वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर अपने मातहतों को दिशा-निर्देश देने के बजाय मौके पर जाने पर विश्वास रखते थे। यही कारण था कि अल्प समय में ही उन्होंने जिले की जनता में जो छाप छोड़ी वैसी बहुत कम पुलिस अधिकारी छोड़ पाए थे। कितना भी बड़ा घटनाक्रम हो मैंने उनको कभी गुस्से में या तनाव में नहीं देखा। इससे ठीक उलट कई बार तनावपूर्ण हालात वाले स्थान पर जाकर उन्होंने माहौल को न केवल सामान्य कर दिया बल्कि गुस्से में नथुने फुलाने वालों को बाद में हंसी के ठहाके लगाते भी देखा। अपने मातहतों की बैठकों में भी उनका रोल अधिकारी की बजाय लीडर वाला ही रहा। उस दौरान के बड़े एवं चुनिंदा कार्यक्रमों में उनका बतौर अतिथि दिखाई देना भी यह दर्शाता था कि लोग उनको किस कदर पंसद करने लगे थे।
आज जब इस अधिकारी पर लगाए गए आरोप के बारे में पढ़ा तो यकीन नहीं हुआ। पांच साल पहले मिलनसार, हंसमुख और जीवट अधिकारी की छवि बनाने वाला शख्स पांच साल में इतना तो नहीं बदल सकता।

फेसबुक से कई नुकसान


बस यूं ही

 
आफिस से लौटकर बस कम्प्यूटर पर फेसबुक ऑन करने वाला ही था कि धर्मपत्नी एक समाचार पत्र का परिशिष्ठ उठा लाई और जोर-जोर से पढ़कर मेरे को सुनाने लगी, हालांकि धर्मपत्नी भी फेसबुक से जुड़ी हुई हैं फिर भी उसने बिना लाग लपेट के पढना शुरू किया। मैंने उसकी सारी बातों को गंभीरता से सुना और इसके बाद उस अखबार को ले लिया। सोचा आपसे भी साझा कर लूं। शीर्षक जैसा कि मैंने दे ही दिया है.. लिखा था फेसबुक से कई नुकसान। अब अंदर के लिखे पर जरा गौर फरमाएगा....।

आजकल फेसबुक का जमाना है.. सभी उम्र के लोग इसमें अपना कीमती वक्त बेकार करते नजर आते हैं। अगर आप भी फेसबुक पर अपना अकाउंट बनाए हुए हैं तो आप निश्चित रूप से नुकसान झेल रहे हैं। फेसबुक के नुकसान इस प्रकार हैं-
1. समय की बर्बादी- फेसबुक पर लॉगिंग करने के बाद आप यह भूल जाते हैं कि आपने फेसबुक पर लॉगिंग क्यों किया है और आप एक प्रोफाइल से दूसरे प्रोफाइल को देखने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि आपको पता ही नहीं चलता कि आपने कितना समय बर्बाद कर दिया।
2. नम्बर ऑफ लाइक्स की चिंता- अगर आपने फेसबुक पर अपना कोई फोटो अपलोड किया है तो आपके दिमाग में हमेशा यह घूमता रहता है कि कितने लोगों ने इसे लाइक किया या कमेंट किया। अगर आपके किसी फ्रेंड ने आपके द्वारा अपलोड किए गए फोटो को लाइक नहीं किया तो आप व्यर्थ में दुखी हो जाते हैं।
3. प्राइवेसी का खतरा- फेसबुक पर आपके द्वारा अपलोड किए गए फोटो को कोई भी डाउनलोड कर सकता है और उसका गलत इस्तेमाल कर सकता है।
4. जेल जाने की संभावना- फेसबुक पर यदि आपने कुछ ऐसे कमेंट किए जिससे सरकार की या अन्य किसी लोगों की भावना को ठेस पहुंचे तो वह आप पर केस कर सकता है ओर आपको जेल जाना पड़ सकता है।
5. बहुत सारे फे्रंड-फे्रंड रिक्वेस्ट के जरिए बहुत से अवांछित लोग आपके सम्पर्क में आ जाते हैं और अगर उनको फे्रंड नहीं बनाया तो वे लोग दुश्मन बन जाते हैं।
6. गंदे फोटो या लिंक- कभी भी वायरस के कारण गंदे फोटो या लिंक बिना आपके जानकारी के आपके सारे फे्रंड के पास पहुंच जाती है, जिससे आपको शर्मसार होना पड़ सकता है।
अगर आप इन सभी मुसीबतों से छुटकारा पाना चाहते हैं तो आज ही अपना फेसबुक अकाउंट बद करें और मन में शांति प्राप्त करें।
बहरहाल, धर्मपत्नी ने यह सब कम्पोज करते हुए भी देखा। जिज्ञासावश पूछ लिया कि ऐसा क्यों कर रहो? मैंने कहा कि तुमने मेरे को सुनाया मैं सब को सुना रहा हूं और क्या? वो निरूतर हो गई कुछ नहीं बोली। पास से उठकर चुपचाप टीवी के सामने जा बैठी।

तार नहीं रहा...


बस यूं ही

कल शाम को एक सांध्य दैनिक के अंतिम पेज पर प्रकाशित एक व्यंग्य छाया चित्र देखकर खुद को मुस्कुराने से नहीं रोक पाया। उसका मजमून कुछ इस तरह से था..। मां, बापूजी का टेलीग्राम आया है........। तार नहीं रहा। सचमुच तार अब अतीत का हिस्सा बन गया है। करोड़ों रुपए के नुकसान को देखते हुए इस सेवा को बंद करना पड़ा। वैसे इस नुकसान की तरफ हम सब का ध्यान तभी गया,जब इस सेवा को बंद करना पड़ा। समाचार पत्रों की सुर्खियों में भी टेलीग्राम ही छाया था। यह भी संयोग ही था कि सभी ने टेलीग्राफ के उजले पक्ष पर ही फोकस कर आमजन की सहानुभूति बटारेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खैर, नफा-नुकसान आदि बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक जमाना वो भी था जब ग्रामीण क्षेत्रों में तार की छवि अच्छी नहीं मानी जाती थी। और इस कालखण्ड का साक्षी मैं भी रहा हूं। बचपन की स्मृतियां आज भी ताजा हैं। देहात में महिलाएं जब आपस झगड़ती थी और लड़ाई उग्र रूप धारण कर लेती तब महिलाएं एक दूसरे को गाली के रूप यह कहती थी 'भगवान करे, तेरे तार आए।' यहां तार आने का मतलब किसी अशुभ समाचार से ही होता था। सेना में जाने का शगल जिले के लोगों में आजादी के पहले से ही रहा है और अब भी है। ऐसे में कोई अनहोनी या बुरी खबर होती तब तार ही आता था। क्योंकि लगभग हर घर से कोई न कोई सेना में अवश्य होता था। बहरहाल, यह सब बताने का मकसद यही था कि तार की छवि कैसी थी। इतना ही नहीं किसी सैनिक को अगर घर बुलाना होता, कोई मांगलिक कार्य या शादी की बात होती तो उसको सेना से छुट्टी आसानी से नहीं मिलती थी। ऐसे में किसी परिजन के बीमार होने का बहाना बनाकर तार करवाया जाता था ताकि नियत समय पर छुट्टी मिल जाए। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि छात्र जीवन में दो बार तार करवाने का अवसर मुझे भी मिला है और दोनों ही बार मूल कारण न लिखकर कभी मां तो कभी पिताजी की बीमारी का उल्लेख करना पड़ा ताकि छुट्टी जल्दी मिल जाए।
अब बात एक ऐसे तार की जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। 1997 में बीए करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त हो गया। इसी चक्कर में लगातार दो साल एमए पूर्वाद्ध में फीस जमा करवाने के बाद भी परीक्षा नहीं दे पाया। एक बार आरपीएससी की पुलिस इंस्पेक्टर की भर्ती आ गई तो दूसरी बार सेना में एजुकेशन हवलदार की लिखित परीक्षा। किस्मत में शायद यह नौकरियां नहीं थी। परीक्षा में उत्तीर्ण तो हुआ लेकिन वरीयता सूची में न आने के कारण मेरा चयन नहीं हो पाया। सन 2000 में पंचायत चुनाव के दौरान गांव के एक साथी ने चुनाव लडऩे की इच्छा जताई। उस वक्त हम सब गांव के युवा एक नवयुवक मंडल के माध्यम से गांव में रचनात्मक कार्यों में जुटे हुए। थे। चुनाव मैदान में कूदने की बात पर मंडल के सभी सदस्य सहमत नहीं थी लेकिन बाद में किसी तरह से सभी मान गए। चूंकि मंडल में मेरे पास महासचिव की जिम्मेदारी थी, लिहाजा लिखने पढऩे के तमाम काम मैं ही सम्पादित करता था। ऐसे में मतदाताओं के नाम एक मार्मिक अपील करने का जिम्मा भी मेरे को ही दिया गया। मैंने अपील लिखी और उसके पम्पलेट मतदाताओं के बीच वितरित कर दिए गए। संयोग से उसी वक्त बड़े भाई साहब दिल्ली से गांव आए हुए थे। उन्होंने मेरा लिखा वह पम्पलेट देखा तो प्रभावित हुए और कहा कि तुम तो अच्छा लिखते हो। संयोग से उसी दिन के पेपर में एक पत्रकारिता संस्थान के बारे में लिखा था कि अगर आपकी आयु 25 साल से कम है। आप अविवाहित हैं और हिन्दी पर अच्छी पकड़ है तो आवेदन करें। भाईसाहब के कहने पर ही मैंने आधे अधूरे मन से इस संस्थान में अपना आवेदन भेज दिया।
आवेदन चयनित हो गया और जयपुर में लिखित परीक्षा के बाद साक्षात्कार हुआ। यहां भी सफलता हाथ लगी। इसके बाद पत्र आया कि आपको फाइनल साक्षात्कार के लिए भोपाल जाना है। 25 जुलाई 2000 को यह साक्षात्कार भोपाल में था। कुल 97 युवक-युवतियां साक्षात्कार के लिए पहुंचे थे। बारी-बारी से सबका नम्बर आया। कोई मुस्कुराते हुए बाहर आ रहा था तो कोई मुंह लटकाए हुए। आखिरकार मेरा भी नम्बर आया।
साक्षात्कार की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद 14 जनों को बताया गया कि आपका चयन हो गया है और एक अगस्त से आपकी कक्षाएं शुरू हो जाएंगी। चूंकि मेरे को किस तरह का कोई जवाब नहीं मिला था। वैसे जवाब न मिलना यह दर्शा रहा था कि मेरा चयन नहीं हुआ है। यकीन मानिए मैं रोया तो नहीं लेकिन बाकी कुछ नहीं बचा। बड़े ही उदास एवं निराश मन से मैं गांव लौटा। यकायक हुए घटनाक्रम से मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिरकार यह सब कैसे हो गया। गांव के साथियों ने दिलासा दी, फिर भी मैं सामान्य नहीं हो पाया। भोपाल से साक्षात्कार देकर लौटने के बाद 7 अगस्त को एक तार आया हुआ था। उसमें लिखा था कि आप का चयन पत्रकारिता संस्थान के लिए हो गया है आप प्रशिक्षण के लिए तत्काल भोपाल पहुंचें। मुझो यकीन नहीं हो रहा था कि किस्मत इस तरह से यू टर्न लेगी। इसके बाद 14 अगस्त को मैं भोपाल पहुंच गया और पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया। यकीन मानिए उस तार ने मुझे कितनी खुशी दी मैं ही जानता हूं। और आज पत्रकारिता में हूं तो काफी कुछ योगदान उस तार का भी है। इसलिए कह सकता हूं कि तार से जुड़े दोनों ही तरह के अनुभव मैंने देखे हैं लेकिन गांव में तार की जो छवि है उससे इतर छवि मेरे जेहन में है। भले ही तार व उससे जुड़ी जानकारी इतिहास बन गई हों लेकिन मैं इसे कभी भूल नहीं सकता, जिंदगी भर भी नहीं। यह मेरी मधुर स्मृतियों में ताउम्र जिंदा रहेगा।

Monday, July 8, 2013

एक घंटे में फिल्म खत्म!


बस यूं ही
रविवार की वजह से आज सुबह देरी से ही उठा था। दस बजे के करीब साथी गोपाल जी शर्मा का फोन आया, बोले बन्ना जी, आज तो फुर्सत में हैं..। क्यों ना बच्चों को मैत्रीबाग घूमा दिया जाए। मैंने पलट कर जवाब दिया, बार-बार मैत्री बाग ही क्यों? अपन कई बार होकर आ गए वहां। क्यों ना कुछ नया किया जाए..। वे बोले, तो आप ही तय कीजिए क्या करना है। मैंने कहा कि शाम को फिल्म देखने चलते हैं। वैसे तो शहर में हालिया प्रदर्शित कई फिल्में लगी हैं लेकिन रांझणा की समीक्षा पढ़ी थी, कुछ जमी इसलिए तय किया गया कि वो फिल्म देखी जाए। शाम को छह से नौ वाले शॉ का समय तय कर दिया गया। टिकट के लिए मैंने ही हां कर दी। बोल दिया कि अपना परिचित है, उसको बोल देता हूं। वह एडवांस में टिकट ले लेगा ताकि कोई दिक्कत ना हो..। गोपाल जी से मोबाइल पर जैसे ही वार्तालाप खत्म हुआ मैंने तत्काल टिकटों के जुगाड़ की कवायद शुरू कर दी। स्टाफ के एक साथी से बोला तो उसका कहना था कि एडवांस की जरूरत नहीं है। सीटें खाली ही रहती हैं, आप जिस भी श्रेणी की टिकट लेंगे हाथोहाथ मिल जाएगा। मैंने फिर भी जोर देकर कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन रविवार है, हो सकता है टिकट के लिए मारामारी हो, इसलिए आप एक बार सिनेमाघर होकर आ ही जाना...।
भोजन करने के बाद जैसे ही लेटा तो आंख लग गई थी। दोपहर में उसका फोन आया। धर्मपत्नी ने मेरे को उठाना उचित नहीं समझा और फोन उसने ही स्वीकार किया। फोन टिकटों की जिम्मेदारी वाले साथी का ही था। जागने के बाद धर्मपत्नी ने बताया कि आपके स्टाफ वाले का फोन आया था। वो कह रहे थे कि टिकटों की एडवांस में बुकिंग नहीं होती है। वहीं मौके पर ही टिकट का जुगाड़ हो जाएगा। कोई दिक्कत नहीं होगी। शॉ का समय शाम साढे पांच बजे का रहेगा। मैं और अधिक आश्वस्त हो गया कि चलो टिकट की टेंशन तो खत्म हुई। घड़ी देखी तो पांच बज चुके थे। तत्काल गोपाल जी को फोन लगाया तो बोले... बन्ना जी आ जाओ, हम तो आपका ही इंतजार कर रहे हैं। मैं तत्काल तैयार हुआ और स्टाफ सदस्य से आग्रह किया कि आप बच्चों को अपनी कार से सिनेमाघर तक छोड़ दो। मैं और गोपाल जी मोटरसाइकिल पर चल पड़ेंगे। ऐसा ही हुआ। करीब सवा पांच बजे हम घर से रवाना हुए... इसके बाद गोपाल जी के घर पहुंचे। बच्चे कार में बैठकर निकल लिए जबकि मैं गोपाल जी की मोटरसाइकिल पर उनके पीछे बैठ गया। 
घर से मुश्किल से एक किलोमीटर की चले होंगे कि बूंदाबांदी का दौर शुरू हो गया। बादल भी इतने घने थे, जिनको देखकर लग रहा था कि बारिश हुई तो फिर जोरदार ही होगी। बूंदाबांदी के बीच हम चले जा रहे थे, क्योंकि साढ़े पांच हो चुके थे। सिनेमाघर अभी हमारी पहुंच से करीब दो किलोमीटर दूर था। बारिश तेज हुई तो हमने रुकना ही मुनासिब समझा और दुकान के बरामदे में खड़े हो गए। वहां और भी लोग खड़े थे। 
दस मिनट खड़े रहने के बाद जब बारिश खत्म नहीं हुई तब हमने बारिश में ही चलने का फैसला किया। लेकिन अब गोपाल जी की मोटरसाइकिल नखरे दिखाने लगी। स्पार्क प्लग में पानी जाने की वजह से वह बार-बार बंद हो रही थी। गोपाल जी बार-बार किक मार रहे थे लेकिन मोटरसाइकिल बंद होने से बाज नहीं आ रही थी। रास्ते में बारिश मूसलाधार में तब्दील हो गई। हम दोनों बारिश के पानी से सरोबार हो गए, फिर भी चले जा रहे थे। सिनेमाघर से हम अभी आधा किलोमीटर की दूरी पर थे कि मोटरसाइकिल ने इस बार बिलकुल जवाब दे दिया। गोपाल जी के लाख प्रयास के बाद भी वह स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी। थक हारकर हम दोनों फिर एक दुकान के बरामदे में खड़े हो गए। घड़ी छह बजाने को आतुर हो रही थी। हम दोनों अजीब धर्मसंकट में घिरे हुए थे। 
बच्चे व दोनों की धर्मपत्नियां सिनेमाघर पहुंच चुके थे, लेकिन हमारे बिना वो कैसे टिकट लेते और कैसे अंदर जाते, लिहाजा वे सभी लोग मूकदर्शक बने अंदर जाने वाले लोगों को देख रहे थे। समय की नजाकत देखते हुए गोपाल जी ने कहा, बन्ना जी फिर से कोशिश करते हैं। उन्होंने एक कपड़े से प्लग को साफ किया और किक मारी तो मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गई। जैसे ही बैठने लगा तो मोबाइल की घंटी बजी। अजनबी नम्बर से कोई फोन था। जैसा कि आदत है फोन किसी का भी अटेंड कर लेता हूं। फोन उठाया तो सामने से धर्मपत्नी बदहवाश वाले अंदाज में पूछ रही थी... कहां हो। मैंने सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वह कुछ सामान्य हुई। संयोग यह भी रहा कि फिल्म देखने की खुशी में दोनों ही अपने मोबाइल घर पर भूल गई थीं। खैर, जैसे-तैसे हम सिनेमाघर पहुंचे। मैं पार्किंग वाले स्थान से पहले ही उतर गया जबकि गोपाल जी मोटरसाइकिल को पार्किंग में खड़े करने चले गए। हमको देखकर सिनेमाघर के बाहर खड़े बच्चों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ गई। वे बूंदाबांदी के बीच भागते हुए मेरे पास आ गए। मैं गोपाल जी को साथ लेने के चक्कर में रुक गया। दोनों जब हम अपनी धर्मपत्नियों के पास पहुंचे तो उनके चेहरों पर शिकायत भरी हंसी तैर रही थी। दोनों बोली.. हाउसफुल है, आप तो टिकट आसानी से मिलने की बात कह रहे थे। 
इस सवाल के बाद सभी की निगाह मेरे चेहरे पर थी, कि मैं क्या जवाब देता हूं। मेरे को भी कुछ नहीं सूझ रहा था। तत्काल स्टाफ सदस्य को फोन लगाया। मैंने कहा, यार आप तो एडवांस में बुकिंग से मना कर रहे थे जबकि यहां तो सब कुछ फुल हो चुका है। आगे की सीट जरूर खाली हैं लेकिन वहां से फिल्म देखना तो न देखने के बराबर ही है। लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं था। बोला मैं जाकर आया लेकिर सिनेमाघर वालों ने एडवांस में टिकट नहीं दी, बोले कि हाथोहाथ टिकट मिल जाएगी। 
लेकिन मेरे तर्क से या मोबाइल से इस वार्तालाप से कोई संतुष्ट हुआ होगा, मेरे को नहीं लगता। इसी बीच सवा छह बज चुके थे। तय हुआ कि अब फिल्म तो देखने का सवाल ही नहीं उठता। कोई रास्ता या विकल्प ही नहीं है, इसीलिए अब घर चलने में ही भलाई है। एक बार फिर से स्टाफ सदस्य से आग्रह किया कि वो आएं ताकि बच्चों को गाड़ी से घर तक छोड़ दें। आखिरकार कार आ गई। बच्चे उसमें रवाना हो गए। मैं और गोपाल जी पार्किंग की तरफ बढ़े। मोटरसाइकिल लेकर हम बाहर निकल रहे थे तो पार्किंगवाले ने पूछ लिया क्या हुआ। हमने सारा घटनाक्रम बताया तो उसने कहा कि यहां एडवांस बुकिंग करवा लेनी चाहिए। हमने कहा कि आप एडवांस बुकिंग करते कहां हो... तो वह बोला, किसने कहां, यहां सब कुछ होता है, और आज तो संडे है। देख रहे हो ना कितनी गाडिय़ा खड़ी है। पार्किंग वाले से मुझे जवाब मिल चुका था। हम सभी लोग घर आए। धर्मपत्नी का आग्रह था कि सभी चाय पीकर जाएं। आखिर एक घंटे का घटनाक्रम इस प्रकार से बीता कि अपने पीछे कई यादें छोड़ गया। रांझणा भले ही ना देखी हो लेकिन उससे जुड़ा यह वाकया जरूर लम्बे समय तक याद रहेगा। और यह वाकया मेरे को रांझणा से कम नहीं लगा, भले ही एक घंटे में इसका द एंड हो गया हो।

Sunday, July 7, 2013

बालू जी से वार्तालाप



बस यूं ही

फेसबुक पर जरूरी नहीं कि मित्रता आग्रह किसी परिचित या जानकार का ही आए। अजनबी लोग भी आपकी प्रोफाइल देखकर ऐसा कर सकते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे पास किसी बालू जी का मित्रता आग्रह आया। चूंकि मैं उनको जानता नहीं था इसलिए उनकी प्रोफाइल को देखना लाजिमी था। मैंने उनकी प्रोफाइल देखी तो उन्होंने खुद को आल इंडिया रेडिया का अलाउंसर बता रखा था। रहने वाले जयपुर के। कल रात 12 बजे के करीब मेरे पास अचानक उनका मैसेज आया...। मैंने जवाब दिया तो फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा है। बातचीत भी एकदम रोचक अंदाज में हुई है। सोचा क्यों ना आप सभी से साझा कर ली जाए।
बालू जी- वाई डोन्ट यू एड मी.... एनी रीजन?
मैं-आप मेरे को जानते हो क्या?
बालू जी-नहीं, नहीं जानता, बट जानना चाहता हूं? क्या नहीं जान सकता? पहली बार किसी ने मेरी रिक्वेस्ट को ठुकराया है, दिल में चोट सी लगी है।
मैं- बोलो क्या जानना चाहते हो? सब बताऊंगा आपको। दिल पर चोट मत लगाओ।
बालू जी- आपने दी है। चोट देने के लिए दिल ही मिला?
मैं- मैं तो ऐसा नहीं करता। भला बिना जाने कैसे कर लेता।
बालू जी-जाने हुए को अपनाया तो क्या अपनाया..... अनजाने को अपना बनाना ही तो बात है।
मैं-हा, हा, हा, दार्शनिक लगते हो?
बालू जी-नहीं
मैं-तो
बालू जी-सिम्पल सा छोटा सा आदमी हूं। इनसान नहीं बन पाया।
मैं-मैं भी ऐसा ही हूं।
बालू जी-शायद थोड़ा सा बना था। एहसास हुआ जब आपने ठुकराया।
मैं-मैंने ठुकराया कब है। बस कन्फर्म ही नहीं किया है।
बालू जी-हम आपके हुए... नहीं आपने हमे अपना लिया.. आगे जो चाहो करो... सच... आपकी मर्जी चलेगी।
मैं- आपका सही नाम क्या है? और आप कहां के हो।
बालू जी- जयपुर का, नाम बालू ही है। शर्मा हूं।
मैं- जमा नहीं।
बालू जी- आप राजपूत हो ना... बामन राजपूत की जोड़ी सदियों से चली आ रही है।
मैं- आपने मेरे में ऐसा क्या देख लिया जो...
बालू जी-जमा नहीं तो आप कोई नाम दे दो, अच्छा सा। कुछ तो है।
मैं-फिर भी
बालू जी-ये दिल है... यही जाने क्यों कैसे किस पे आ जाता है। आपको एतराज तो नहीं कि मेरा दिल आप पे आया।
मैं- मतलब? दिल है या...
बालू जी- या?
मैं-आवारा, जयपुर में कहां रहते हो।
बालू जी- जी नहीं.. ये आवारा तो नहीं मगर ए हसीन जब देखा है तुझको इसे आवारगी आ गई
मैं- बट मैं वो नहीं जिस पर दिल आ जाए।
बालू जी- मतलब?
मैं-और मैं हसीन भी नहीं
बालू जी- इसकी कोई डेफिनेशन नहीं.. क्यों मेरी परीक्षा लिए जा रहे हो थोड़ा तो पिघलो ना।
मैं-मैं तो पूरा बर्फ हूं।
बालू जी- मेरे प्यार व लगाव की तपिश पिघला देगी इसे अगर अपनाओगे।
मैं-आल इंडिया रेडिया में हो क्या आप? क्या करते हो?
बालू जी-लिखा तो है। आदमी ही देखा शरीर की आँखों से देख रहे हो अभी।
मैं- मन की आंखों से भी देख लूंगा बट सच बोलो।
बालू जी-सच, छुपाने का क्या है, लिखा तो है प्रोफाइल में नाम काम सब।
मैं- बात जम नहीं रही। यह मूल नाम नहीं निक नेम सा लगता है।
बालू जी- बस मुझे बालू ही कहते हैं। कोई जासूस छोड़कर पूछ लो।
मैं- स्कूल नाम बताओ?
बालू जी-बालू ही हूं...इतनी परीक्षा ना लो.. ब्लॉक कर दो.. नफरत कर लो.. गाली दे दो.. मत करो प्यार.. कर दो वार
मैं- मैं ऐसा काम नहीं करता। आपने कौन सा गुनाह किया है जो ऐसा कर दूं। शायरी भी करते हो।
बालू जी-क्यों तड़पा रहे हो। इतनी इनक्वायरी कर रहे हो।
मैं-औरतों जैसी बात जो कर रहो
बालू जी-मैंने तो आपके बारे में कुछ नहीं पूछा.. कि कौन हो.. क्या करते हो.. कहां के हो, कहां रहते हो? औरत?????????
मैं- पूछ लो।
बालू जी-बता दो।
मैं- झुंझुनू का हूं।
बालू जी- क्या करते हो?
मैं- टाइम पास। लिखा है आप भी पढ़ लो।
बालू ली- नहीं बताना है तो मत बताओ। नहीं आप ही बताओ अपने मुंह से।
मैं- तो फिर क्या सोच कर रिक्वेस्ट भेजी?
बालू जी-शक्ल देख कर। प्रोफाइल में कुछ पता नहीं चला कि क्या करते हो।
मैं-तो फिर जाने दो, क्यों टाइम खराब कर रहो।
बालू जी-घमंड? ओके बाय। थैक्स फोर गिविंग मी सम टाइम। आई विल नोट बोदर यू एंड मोर डियर सर।
मैं- आस पास ही नहीं। मैंने कब कहा झेलने के लिए। ओके बाय।
इसके बाद बालू जी ऑफ लाइन हो गए। उनके प्रोफाइल में जो फोटो भी दिख रही थी, वह भी गायब हो गई। नीचे मैसेज में लिखा था कि शायद उन्होंने सेंटिंग बदल ली है। करीब आधा घंटे के इस वार्तालाप के बाद घड़ी रात के 12.38 बजा रही थी। और मैं कम्प्यूटर शट डाउन कर सोने चला गया।