Monday, July 29, 2013

दो पीढिय़ों का संगम... भाग मिल्खा भाग


बस यूं ही








 
प्रदर्शित होने के 17 दिन बाद रविवार को जब परिवार सहित भाग मिल्खा भाग फिल्म देखने गया तो वहां हाउस फुल देखकर विश्वास यकीन में बदल गया कि फिल्म के चर्चे यूं ही नहीं है। वैसे फिल्म देखने की उत्सुकता तो रिलीज होने से पहले ही थी लेकिन समय आज ही मिला। इस बीच फिल्म की सफलता की कहानी कई जगह समीक्षा के रूप में पढ़ चुका था। यकीन मानिए जैसे-जैसे फिल्म के बारे में पढ़ता गया, तो इसके प्रति मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। आज जब फिल्म देखकर लौटा तो पछतावा, इस बात का जरूर था कि क्यों इतनी शानदार फिल्म को देखने में इतना विलम्ब किया गया। सबसे अलग एवं चौंकाने वाली बात जो आजकल अमूमन नई फिल्म में दिखाई नहीं देती है, वह यह कि बुजुर्गों की दिलचस्पी नई फिल्मों में कम ही रहती हैं। लेकिन भाग मिल्खा भाग में मैंने कई बुजुर्ग दम्पती ऐसे भी देखे जो अपने बेटों-बहुओं का हाथ पकड़कर सिनेमाघर पहुंचे थे। फिल्म के प्रति बुजुर्गों के लगाव का सबसे प्रमुख कारण भी शायद अपने अतीत को याद करना ही रहा होगा। नई एवं पुरानी पीढ़ी को एक जगह करने का श्रेय बहुत ही कम फिल्मों को मिल पाता है। एक धावक की जीवनी को जिस अंदाज में फिल्माया गया है और बीच-बीच में जिस प्रकार कॉमेडी का समावेश किया गया है वह जरूरी भी था, क्योंकि सिर्फ दौड़ ही दिखाने के लिए दर्शकों को तीन घंटे तक बांधे रखना भी तो मुश्किल काम है।
वैसे पखवाड़े भर बाद फिल्म के बारे में लिखना बेमानी सा ही है, क्योंकि अब तक तो सब कुछ सबके सामने आ ही चुका है लेकिन फिल्म से मैं प्रभावित यूं ही नहीं हुआ। मेरे लिए आज भी भारतीय सेना एवं खेल दोनों का स्थान सबसे अहम है। और संयोग से फिल्म भी इन दोनों ही विषयों पर केन्द्रित है। पापाजी सेना में रहे हैं और इसके बाद बड़े भाई साहब भी। मैंने भी सेना में जाने के प्रयास किए लेकिन बदकिस्मती से वे सिरे नहीं चढ़ पाए। मुझे सेना में न जाने का मलाल आज भी है। यह बात अलग है कि देश सेवा एवं देश प्रेम के अपने जोश, जज्बे एवं जुनून को मैं पत्रकारिता के माध्यम से पूरा करने में बड़ी शिद्दत के साथ जुटा हुआ हूं। दूसरा स्थान खेल का इसलिए मानता हूं क्योंकि बचपन में दौड़ मेरा भी पसंदीदा खेल रहा है। कहा भी कहा गया है कि संस्कार घर से ही मिलते हैं। पापाजी सेना में रहे हैं और अपने समय के श्रेष्ठ धावक भी। सौ मीटर की दौड़ पापाजी 11.2 सेकण्ड में पूरी करते थे। पापाजी के जीते कप एवं मैडल घर रखे हैं जो आगे बढऩे की प्रेरणा देते हैं। संयोग देखिए पापाजी भी मिल्खासिंह के समय ही दौड़ा करते थे। वे 1952 में भर्ती हुए और जल्द ही दौड़ में अपना काम कमाया। जिस तरह मिल्खासिंह की राह में उनके प्रतिद्वंद्वियों (साथियों) ने मुश्किलें पैदा की लेकिन मिल्खा ने इनको चुनौती के रूप में लिया लेकिन पापाजी ने इनको चुनौती के रूप में लेने की बजाय स्वाभिमान से जोड़ दिया। फिल्म देखने की बाद घर आने पर सबसे पहले फोन पर पापाजी से ही बात की। उनको बताया कि आपसे बचपन में सुनी मिल्खासिंह की कहानी को आज फिल्म के रूप में देखकर आ रहा हूं। वे बेहद खुश हुए यह सुनकर। इसके बाद बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो देर तक चलता रहा। मैने जिज्ञासावश पूछ लिया तो पापाजी ने बताया कि जब मैं प्रशिक्षण पूर्ण करने के बाद जालधंर में रेजीमेंट में गया तो वहां के पुराने धावकों ने अपने आप को स्पर्धाओं से अलग कर लिया था। लेकिन अफसरों ने पापाजी से यह कहते हुए कि तुम सौ मीटर बाधा दौड़ भी पूरी कर लोगे. इसलिए सौ मीटर किसी दूसरे के लिए छोड़ दो। बस सीनियरों के इस फैसले को पापाजी ने चुनौती के रूप में नहीं लिया। हो सकता है उनका फैसला सही हो। उन्होंने बताया कि अभ्यास तो सौ मीटर का ही था। बाधा दौड़ में तो कभी हिस्सा ही नहीं लिया। उसकी शुरुआत तो जीरो से करनी थी जबकि सौ मीटर में काफी महारत हासिल हो चुकी थी। दौड़ की श्रेणी बदलने के बाद पापाजी ने खुद को दौड़ की प्रतिस्पर्धाओं से अलग कर लिया। यह अलग बात है कि वे 1969 तक सौ मीटर का अभ्यास लगातार करते रहे।
खैर, यह सब बताने का उद्देश्य यही था कि सेना और खेल में मेरी रुचि होने के कारण फिल्म के प्रति दिलचस्पी और भी बढ़ गई। वैसे भी मैं संवेदनशील शख्स हूं, लिहाजा फिल्म के दौरान चार बार आंखें नम हुई। एक बार तो आलम यह हो गया कि रुमाल निकालना ही पड़ा। वो चार दृश्य फिल्म को और भी ऊंचाइयों तक पहुंचा देते हैं। सबसे पहले आंख नम भाई-बहन के मिलन को देखकर हुई। शरणार्थियों के शिविर में जैसे ही घोषणा होती है तो मिल्खा, बहन से मिलने के लिए दौड़ पड़ते हैं..। बड़ा ही भावपूर्ण दृश्य है। भाई-बहन का प्रेम देख भावुक हो गया। दूसरा उस वक्त भावुक हुआ जब मिल्खा मैडल जीतकर लौटते हैं और वह अपने पहले कोच के चरण-स्पर्श कर मैडल उनके गले में पहना देते हैं। यकीनन यह खुशी के आंसू थे लेकिन गुरु के प्रति निष्ठा रखने की साक्षात अनुभूृति रखने का यह कितना बड़ा उदाहरण था। शायद यह आंसू इसलिए भी आए कि क्योंकि गुरुओं के प्रति मेरी निष्ठा भी तो कमोबेश ऐसी ही है। तीसरे दृश्य में तो मैं रो ही पड़ा था। यकीन मानिए आंसू ही बहने लग गए थे। प्रतियोगिता में भाग लेने मिल्खा जब पाकिस्तान जाते हैं तो अपने गांव जाना भी नहीं भूलते। वैसे मिल्खा पर उनका अतीत उनके वर्तमान पर ताउम्र हावी रहता है और यह अतीत का ही कमाल है कि मिल्खा ने नाम कमाया तो उसी की वजह से और वे पदक जीतने से वंचित भी रहे तो उसके पीछे भी उनका अतीत ही था। अपने पैतृक घर जाने के बाद जब उनको अतीत याद आता है और लाशों के ढेर में जब वे मां को पुकारते हैं तब सचमुच बेहद ही मर्मान्तक दृश्य पैदा हो जाता है। फिल्मांकन भी ऐसा है कि पत्थर भी पिघल जाए। चौथी बार आंसू तब आए जब मिल्खा अपने बचपन के साथी के घर जाते हैं और उससे गले मिलते हैं। सचमुच यह दृश्य भी तो कालजयी बन पड़ा है।
अगर देखा जाए और कुछ सीख ली जाए तो फिल्म मैनेजमेंट के लिहाज से भी बेहतर है। यह प्रोत्साहित करती है और आगे बढऩे का हौसला प्रदान करती है। निरुत्साहित मिल्खा को जब उनके कोच प्रोत्साहित करते हैं और कहते हैं कि एक स्पोट्र्समैन में जज्बात, अनुशासन एवं तपस्या होना जरूरी है। सही में यह बात एक धावक पर ही नहीं, असली जिंदगी में भी लागू होती है। किसी भी क्षेत्र में मुकाम पाने के लिए इन तीनों चीजों का समावेश होना बेहद जरूरी है। वैसे फिल्म समापन से पूर्व मिल्खा सिंह का संदेश भी दिखाया जाता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि सफलता पाने के लिए विल पावर (दृढ़ इच्छा शक्ति), हार्ड वर्क (कठोर मेहनत ) एवं डेडीकेशन (समर्पण) जरूरी है। सच में अगर इन तीनों को ध्यान में रखते हुए कोई काम किया जाए तो तय मानिए कि सफलता निश्चित है। तभी तो फिल्म खत्म होने के बाद पीछे आ रहे दो जनों की बातचीत का उल्लेख कर रहा हूं। एक व्यक्ति दूसरे से कहता है.. सर... कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, फिल्म देखी तो चार्ज हो गया। काफी मोटीवेट हो गया हूं। सही बात है। भाग मिल्खा भाग यही तो संदेश देती है कि मुश्किल कुछ भी नहीं है अगर डटकर मुकाबला किया जाए।
गीत संगीत के मामले में तो कहना ही क्या.. हवन करेंगे.. गीत तो जन-जन की जुबान पर चढ़ चुका है। विशेषकर बच्चे तो इस गीत के मुरीद हैं। थियेटर में जब गाना शुरू हुआ तब गोद में बैठे एकलव्य का अंग प्रत्यंग इसके बोलो पर मचल रहा था। वैसे यह गीत जब भी टीवी पर आता है बच्चे इसके साथ संगत करना नहीं भूलते। बीयर पीने के बाद आस्टे्रलिया में विदेशी महिला के साथ गाया मिल्खा का गीत भी यादगार बन पड़ा है। संगीत का पक्ष भी फिल्म को मजबूती प्रदान करता है। फिल्म कलाकारों, संगीतकारों, निर्माता, निर्देशक आदि के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। और वैसे भी लिखने पढऩे वाले यह सब जानते ही हैं कि किसने किस जिम्मेदारी का निर्वहन बखूबी के साथ किया है।
आखिर में यही बात कि पूरे परिवार के साथ बिना किसी शर्म संकोच के देखने वाली फिल्में आजकल बनती ही कितनी हैं। यह बात दीगर है कि भाग मिल्खा भाग में भी मध्यान्तर के बाद विदेशी महिला के साथ मिल्खासिंह के जो अंतरंग संबंध में दिखाए गए हैं, वे कुछ अखरते जरूर हैं। इसके अलावा विभाजन के बाद भारत आए शरणार्थियों को तम्बुओं मेंं ठहराए जाने का फिल्मांकन बेहद विहंगम हैं। रात को तम्बू में मिल्खा का अपने बहन की गोद में सो जाना और इसके बाद पर्दे के पीछे बहन एवं जीजाजी के बीच अंतरंग संबंधों की आवाज दर्शकों को सुनाई देती है.. यह दृश्य भी पता नहीं क्या सोच कर जोड़ दिया गया। दोनों दृश्य अगर जरूरी ही थे, तो इनको दूसरे अंदाज में भी दिखाया जा सकता था। अगर यह दृश्य फिल्म में ना भी होते तो इससे मूल कथानक पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। खैर, यह फिल्म बनाने वालों का अपना नजरिया है,लेकिन मेरे हिसाब से वह जरूरी नहीं था। विदेशी महिला के साथ अंतरंग दृश्य पीछे बैठे एक उम्रदराज दर्शक को इतना अखरा कि वे सिनेमाघर में ही जोर से चिल्ला उठे....अरे इसको हटाओ...।
बहरहाल, फिल्म देखने के बाद जेहन में टिकट काउंटर पर बैठे उस व्यक्ति के बोल ही गूंज रहे थे... कि तीन घंटे की फिल्म है। बड़ी है। समय पर आना है। पूरी फिल्म में मिल्खा भागता ही रहता है। सचमुच मिल्खा भागता ही तो रहता है। कभी देश छोडऩे के लिए तो कभी देश की खातिर। आखिर का दृश्य भी यादगार है जब जवान (भारत ) का मिल्खा बचपन के (पाकिस्तान के ) मिल्खा के साथ दौड़ता है। यह दृश्य काफी कुछ कहता है। बहुत ही बड़ा संदेश छिपा है इस दृश्य के पीछे।

No comments:

Post a Comment