Friday, December 25, 2015

बयानों के बवंडर कब तक

 मेरी टिप्पणी

तो क्या यह मान लेना चाहिए कि आश्वासनों की रेवडिय़ां अब कारगर नहीं रही। या इस बात पर यकीन कर लिया जाए कि कार्यकर्ताओं को दिलासा देने के सारे रास्ते अवरूद्ध हो गए हैं। लगता तो यही है, कि जनता को संतुष्ट करने वाले तरकश के सारे तीर इस्तेमाल कर लिए गए हैं, तभी तो बीकानेर जिले के प्रभारी मंत्री ने खुद की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए ब्रह्मास्त्र रूपी बड़े बयान का रास्ता इख्तियार किया और उनको कहना पड़ा कि 'अगर काम नहीं हुए तो वे इस्तीफा दे देंगे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी भी है कि प्रभारी मंत्री को इस तरह का बयान देने की नौबत आखिरकार आई ही क्यों? क्या कार्यकर्ता अब इससे कम पर संतुष्ट नहीं हो रहे या परम्परागत जवाब सुन सुृन कर उनके कान पक गए और वो अब कुछ नया सुनना चाहते हैं। खैर, कारण जो भी हो लेकिन प्रभारी मंत्री के बयान ने एक नई बहस को जन्म जरूर दे दिया है। कुछ इसी तरह का बड़ा बयान करीब पौने दो साल पहले बीकानेर में सरकार आपके द्वार अभियान के दौरान प्रदेश के चिकित्सा मंत्री ने भी दिया था। उन्होंने पीबीएम अस्पताल का निरीक्षण करते समय व्यवस्थाओं में सुधार के लिए अस्पताल में सर्जरी की जरूरत बताई थी। पीबीएम की व्यवस्था कितनी सुधरी? वहां आज के हालात किस तरह के हैं? मंत्री के बयानानुसार सर्जरी की दिशा में कितना काम हुआ? इन सब सवालों के बारे में शहर का हर प्रबुद्ध एवं जागरूक शख्स जानता है।
वैसे भी बीकानेर शहर के हालात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। प्रदेश सरकार के दो साल तथा स्थानीय निगम का एक साल होने के बाद भी शहर व जिले में कोई उल्लेखनीय काम दिखाई नहीं देता। इसके बावजूद प्रभारी मंत्री अस्सी फीसदी काम होने का दावा करते हैं। अगर वाकई उनके दावों में दम है तो फिर शेष बीस प्रतिशत के लिए जनता के बीच जाने की मजबूरी क्यों आन पड़ी? और अगर वो सही हैं तो फिर उनके ही दावों की हवा उनकी पार्टी के लोग ही क्यों निकाल रहे हैं?
खैर, प्रभारी मंत्री सरकार के दो साल पूर्ण होने के बाद जिले के आला अधिकारियों के साथ विधानसभा क्षेत्रों में जाने तथा आमजन के अभाव अभियोग सुनने की बात कहते हैं। जनप्रतिनिधि को जनता के बीच जाना भी चाहिए, ताकि वास्तविकता का पता लग सके। जिले के साथ-साथ लगे हाथ उनको बीकानेर शहर का भ्रमण भी कर लेना चाहिए। बिलकुल अपने हिसाब से एकदम औचक निरीक्षण की तर्ज पर शहर में घूमना चाहिए ताकि वो अपनी आंखों से वह सब देख सके जो अधिकारी उनको दिखाना नहीं चाहते। प्रभारी मंत्री रात को अंधेरे में डूबे शहर का हाल भी जान लें तो उनको हकीकत पता लगेगी कि वास्तव में कितना काम हुआ है। यह सब इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि समूचे शहर की समस्याओं से वाकिफ हुए बिना, उनको महसूस या देखे बिना तो इसी तरह के दावे किए जाते रहेंगे।
बहरहाल, बीकानेर की बदहाली बयानों से दूर नहीं होगी। बयानों की बारिश से भी अब भला नहीं होने वाला। बयानों के बवंडर में जनता को भरमाना किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। दो साल पूर्ण होने के मौके पर बेहतर है बीकानेर को बेनजीर बनाने के ठोस एवं कारगर प्रयास हों। बचकाने एवं बेचारगी भरे बयानों से जनता वैसे ही आजिज आ चुकी है। उसकी सहनशीलता एवं धैर्य की परीक्षा लेने से अब बचना चाहिए। सरकार को अब ऐसा कुछ करना चाहिए कि आमजन को महसूस हो कि वाकई 'अच्छे दिन' चल रहे हैं।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 09 दिसम्बर 15 के अंक में प्रकाशित

अब बातें नहीं, काम हो

 टिप्पणी

शहर की सरकार ने दौड़ते-हांफते आखिरकार एक साल का समय पूरा कर ही लिया। सियासी उठापटक एवं विरोध प्रदर्शनों के बीच बीते साल में निगम के हिस्से में उपलब्धि कम विवाद ज्यादा आए। शहर के हालात के मद्देनजर कार्यकाल को लेकर किए जा रहे दावे, प्रतिदावे एवं सर्वे कुछ मायने नहीं रखते, क्योंकि बीमार, खस्ताहाल एवं विकास की बाट जोह रहे शहर की सूरत में रत्ती भर का भी बदलाव किसी भी स्तर पर नजर नहीं आता है। विशेष एवं बड़ी उपलब्धि के नाम पर पूर्ववर्ती बोर्ड की कथित अव्यवस्थाओं को सुधार कर व्यवस्था को पटरी पर लाने की बात भी गले नहीं उतरती। रोडलाइट का काम देखने वाली एजेंसी जरूर बदली है लेकिन शहर की राहें कितनी जगमग है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जिन गली एवं मोहल्लों में साल भर पहले अंधेरा पसरा था, वहां आज भी अंधेरा ही है। आवारा पशुओं की समस्या यथावत है। समाधान के लिए जो बातें साल भर पहले कही गई, वैसी ही अब की जा रही है। अंतर इतना है कि पहले जमीन देखने की बात कही गई और अब कांजी हाउस की। सीवरेज लाइन बदलने की बात साल भर पहले भी कही गई और अब भी की जा रही है। मतलब आवारा पशुओं व सीवरेज पर सिवाय बयानबाजी के कोई काम नहीं हुआ। अब आगामी प्राथमिकताओं में शहर में सिटी बस चलाने एवं ऐलीवेटेड रोड बनाने की बात सामने आ रही है, लेकिन मौजूदा हालात एवं निगम के कामकाज करने के अंदाज से यह काम करवाना बड़ी चुनौती है। चुनौतीपूर्ण इसलिए भी है कि छिटपुट समस्याएं मसलन, सफाई व्यवस्था, नालियों की सफाई, टूटे चै बर आदि ठीक करवाने में ही अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
शहर में अतिक्रमण एवं अवैध कब्जों को लेकर निगम प्रशासन कभी गंभीर नजर नहीं आया। कभी-कभार रस्मी तौर पर की गई कार्रवाई भी विवादों की भेंट चढ़ गई। फड़बाजार का उदाहरण सामने है। रिहायशी मकानों में व्यवसायिक गतिविधियां संचालन होने की शिकायतों पर लगाम नहीं लगी। निगम की आय बढ़ाने के गंभीरता से प्रयास नहीं हुए। पार्किंग व्यवस्था बदहाल है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दो-दो साल से खुदी हुई सड़कों की सुध तक नहीं ली जा रही है। निगम में कमेटियों का गठन भी काफी विल ब से हुआ। जैसे-तैसे हुआ भी तो 16 में से मात्र तीन कमेटियों की बैठकें हो पाई हैं। शहर में खर्च की गई राशि भी ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। काम भी नाली, सीसी ब्लॉक जैसे ही हुए हैं। जनहित से जुड़ी समस्याओं को लेकर विपक्ष ने साल भर महापौर एवं अधिकारियों को खरी- खोटी सुनाने तथा प्रदर्शन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उनके विरोध भी को भी दरकिनार कर दिया गया।
बहरहाल, बोर्ड के गठन के समय महापौर ने जनता के बीच सक्रिय रहकर जनता के साथ मिलकर काम करने की जो बात कही थी, वह एक साल बाद भी पूरी होती नजर नहीं आ रही। समन्वय एवं सहयोग का अभाव हर जगह दिखाई दिया। विपक्ष ही नहीं सत्ता दल के लोग भी अंदरखाने शह-मात का खेल खेलते नजर आए। विकास व सकारात्मक राजनीति के बजाय सस्ती वाहवाही लूटने के प्रयास ज्यादा हुए। अब उ मीद की जानी चाहिए कि शहर हित में पक्ष-विपक्ष दोनों सहयोग करेंगे, ताकि बीमार शहर की हालात में सुधार हो। अभी भी काफी समय शेष है। बस काम करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। जनहित को दरकिनार कर अगर निगम इसी तरह सियासी अखाड़ा बना रहा तो फिर विकास की बात करना बेमानी है। विकास कार्यों को हमेशा राजनीतिक चश्मे से देखने की आदत छोडऩी होगी, यही शहर के हित में है और जनता के भी।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 28 नवम्बर 15 के अंक में प्रकाशित

दिलवाले

रिश्ता दिल का दिलवाले ही तोड़ जाते हैं,
नाता गमों से दिल का जोड़ जाते हैं।
खुद पर भरोसा करने का हुनर सीख लो दोस्तो,
सहारे कितने भी सच्चे हो साथ छोड़ ही जाते हैं।
करते हैं जो जिंदगी भर साथ निभाने का वादा,
मतलब निकलने पर अकेले ही दौड़ जाते हैं।
कितना यकीनं करें कोई उस माझी पर 'माही'
सफीने का रुख जो तूफानों की ओर मोड़ जाते हैं।

नमन बूढ़ी मां


दादी मां आज ही के दिन हमको छोड़कर गई थी। एक साल बीत गया। सांस-सांस में समाई बूढीमां को याद करके आंख न जाने कितनी ही बार नम हुई है। पापाजी तो इस हादसे से अभी तब उबर नहीं पाए हैं। जब भी अकेले होते हैं, तो मां को याद करके रोने लगते हैं। कितनी ही बार मैंने खुद को संभालते हुए उनको भी दिलासा दिया है। लेकिन अपनों के जाने का दुख भला कभी कम होता है। मैं खुद ही एक दिन आफिस में इतना भावुक हो गया कि आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगे। चाह कर भी खुद रोक नहीं पाया। अविरल धारा बहती रही। कई बार तो महसूस होता है कि बूढ़ी मां यहीं है हमारे आस पास। अभी दीपावली पर गांव गया तो पता नहीं क्यों यही लगता रहा कि बूढी मां अपने कमरे में ही सोई हुई है और अभी अंदर से आवाज लगाएगी। वैसे दादी मां के बिना घर में पहली दिवाली थी। हर बार दीपावली पर बूढी मां के नेतृत्व में ही पूजन होता था। खैर, इस सच्चाई को दिल कभी मानेगा भी नहीं। अब भी आंसू बह निकले हैं। पहली पुण्यतिथि पर बड़े भाईसाहब केशरसिंह जी ने श्रद्धांजलि स्वरूप कवितांजलि भेजी है।
हरपल रहती यादों में, संबल साथ सहारा हो,
ना भूले, ना भूलेंगे, मां तुम तो प्यार हमारा हो।
स्वाभिमान, स्नेह, नेकी का पथ हरदम ही दिखलाया,
नमन आपको प्यारी मां, जीने का पाठ पढ़ाया।
चांद सितारों की संगत से नेकी की राह दिखाना,
सुख-दुख हो या ऊंच-नीच धीरज का पाठ पढ़ाना।
प्यारी बूढी मां को दिल की गहराइयों से पहली पुण्यतिथि पर...
नमन बूढी मां, आपको भावभीनी श्रद्धांजलि मां।

आदमी,

आदमी, आदमी से इतना डरता क्यों है
वफा की बात किसी से करता क्यों है
जरा सी भी उमंग नहीं है अगर मन में,
तो फिर घर से बाहर निकलता क्यों है।
सपने तो वो रोज ही देखता है चांद के
माचिस पकडऩे में मगर झिझकता क्यों है।
प्यार की राह पर चलने की देते हैं नसीहतें,
जमाने को फिर यह अखरता क्यों है।
गलत ही सुना है पत्थर दिल होते हैं लोग
तन्हाई में फिर रह-रह के वो मचलता क्यों है।
बड़ा ही पाक है 'माही' रुहों का दोस्ताना,
रिश्ता ये फिर टूट के बिखरता क्यों है

व्यवस्था पर सवाल

 मेरी टिप्पणी 

जरूरी नहीं है कि यह खबर सुनकर चिकित्सा विभाग चौंक ही पड़े या अपनी चूक को दुरुस्त करने के लिए चेत भी जाए, क्योंकि आंकड़ों का अंकगणित तो अक्सर उसकी कार्यकुशलता को सही ही ठहराता आया है। खबर यह है कि बीकानेर जिला कलक्टर डेंगू से पीडि़त हैं, हालांकि चिकित्सा विभाग के लिए यह साधारण व सामान्य सी बात हो सकती है। चिकित्सा जगत में यह सर्वविदित है कि मर्ज कैसा भी हो वह कभी पद व प्रतिष्ठा देखकर किसी को घेरता या ब शता नहीं है, वह किसी को भी हो सकता है। हां, आमजन में जिला कलक्टर का मर्ज न केवल चर्चा बल्कि चिंता का विषय जरूर बना हुआ है। वैसे आमजन की चिंता लाजिमी है। यह चिंता व्यवस्था पर सवाल उठाती है। यह चिंता दावा करने वालों को कठघरे में खड़ा करती है। यह चिंता बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए किए जाने वाले प्रयासों की पोल खोलती है। यह चिंता सरकारी इलाज की हकीकत को बयां करती है। यह चिंता सरकारी तंत्र के भरोसे को तोड़ती है। क्योंकि यह चिंता गलत नहीं है। इस चिंता के साथ-साथ आमजन के जेहन में सहज सा सवाल ाी है कि जब जिला कलक्टर ही मच्छरों से अछूती नहीं तो फिर आमजन की बिसात ही क्या है। उनके कार्यालय एवं आवास तो शहर के साफ सुथरे इलाकों में से हैं फिर बुनियादी सुविधाओं को तरसते एवं गंदगी से बजबजाते उन मोहल्लों का तो भगवान ही मालिक है। और हां, जब कलक्टर के मर्ज का रिकॉर्ड ही सरकारी पन्न्नों में दर्ज नहीं है तो इस विसंगति को समझा जा सकता है। कोई बड़ी बात नहीं है कि विभाग इस मर्ज को बाहर से संक्रमित बताकर अपना पल्ला भी झाड़ ले।
लब्बोलुआब यह है कि शहर के मौजूदा हालात चिंताजनक हैं। साफ-सफाई संतोषजनक नहीं है। गंदे पानी का जमाव कई जगह है। सीवरेज का गंदा पानी सडक़ों पर बहता है। आवारा पशुओं का मल-मूत्र सडक़ों पर पड़ा वातावरण को दूषित करता है। यह भी उन कारणों में शामिल हैं, जो मच्छरों को पनपाने या बीमारी फैलाने के वाहक बनते हैं, लेकिन इन कारणों पर प्रभावी अंकुश के लिए जि मेदारों की तरफ से कोई कारगर पहल नहीं की जाती। अक्सर यही होता आया है कि किसी क्षेत्र में बीमारी की सूचना आने के बाद ही सबंधित विभाग हरकत में आता है, वरना सब भगवान भरोसे ही चलता रहता है। विभाग को यह इंतजार करने की प्रवृति त्यागनी होगी। आग लगने पर कुआं खोदने की मानसिकता बदलनी होगी। बदलते मौसम के हिसाब से उपाय पहले ही कर लिए जाने चाहिए। अब जब समूचा शहर मच्छरों की जद में है तो फोगिंग सभी जगह पर क्यों नहीं करवाई जाती।
बहरहाल, चिकित्सा विभाग की भूमिका से तो ऐसे लगता है कि उसकी एकसूत्री दिलचस्पी आंकड़े कम दिखाने की लगती है। जितने कम आंकड़े होंगे उतनी ही उसकी कार्यकुशलता बेहतर मानी जाएगी। यही प्रमुख कारण है तभी तो वास्तविकता एवं विभाग के आंकड़ों में विरोधाभास है। आंकड़ों के इस खेल में हकीकत का पता कर पाना मुश्किल है। एेसे में मर्ज की गंभीरता भी खत्म हो जाती है और उसको हल्के में ले लिया जाता है। यह बात दीगर है कि विभाग के आंकड़े कम बताने से बीमारी के फैलने या न फैलने पर कोई असर नहीं पड़ता है। हकीकत यही है कि आज भी शहर में डेंगू के कई मरीज हैं, जो चिकित्सा विभाग की नजरों से ‘ओझल’ हैं। इसलिए विभाग को पहले ईमानदारी से सच स्वीकारना चाहिए, भले ही आकंड़ों का अंकगणित गड़बड़ा जाए। वैसे भी इलाज तो बाद की बात है।

 राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 11 नवम्बर 15 (दीपावली) के अंक में प्रकाशित

जिज्ञासा


बस यूं ही
बच्चों के स्कूल में वार्षिकोत्सव 31 व एक को है। पहले दिन छोटे वाले का तो दूसरे दिन बड़े का। दोनों वार्षिकोत्सव में भाग ले रहे हैं, लिहाजा उनके लिए बाजार से ड्रेस किराये पर लेने गया था। ड्रेस लेकर लौट रहा था। होटल ढोला मारू के आगे से निकले तो छोटे बेटे एकलव्य ने पूछा यह क्या है। मैंने बताया कि होटल का नाम है। तो कहने लगा कि ढोला मारू भी कोई नाम होता है क्या। मैंने टालने वाले अंदाज में बताया कि ढोला मारु पति-पत्नी थे। वह बोला, तो वो इतने प्रसिद्ध कैसे हो गए जिनके नाम पर होटल का नाम पडा। मैं सोच में डूब गया कि क्या जवाब दूं। तभी उसने अगला सवाल दागा पापा मेरी क्लास में एक लड़का है वह अपने नाम के आगे मारू लगाता है, वह कौन है। मैंने कहा यह मारू तो सरनेम है। और वह मारू नाम था। वह फिर बोला पापा किसी का नाम मारू हो और वह सरनेम मारू लगाए तो मारू-मारू हो जाएगा ना। मैं उसकी बातों पर हंसने लगा, लेकिन मन ही मन उसके सवालों एवं जानने की इच्छा पर सोच रहा था। वाकई बच्चे कितने जिज्ञासु होते हैं।

...तो नहीं बिगड़ते हालात

 टिप्पणी

तारीख की नजरों ने वो मंजर भी देखे हैं,
जब लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई।
यकीनन बीकानेर जिले के अमन पंसद लोग अब उस घड़ी को कोस रहे होंगे, जब श्रीडूंगरगढ़ कस्बे में जरा सी बात बड़े विवाद की वजह बन गई। किसी ने कल्पना तक भी नहीं की होगी कि डीजे बजने जैसी मामूली बात से शुरू हुआ विवाद बाद में इतना बड़ा होकर आगजनी और पथराव तक पहुंच जाएगा। आखिर ऐसा क्या था, जिसने साथ-साथ उठने-बैठने वालों को एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलने पर मजबूर कर दिया। मजहब किसी का भी हो वह तो इसांनियत का पाठ ही पढ़ाता है। नेकी की राह दिखाता है। वह तो कभी बैर नहीं सिखाता, फिर क्यों लोग एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गए। बीकानेर जिले के वाशिंदों की शांतिप्रियता एवं सहनशीलता की तोअक्सर नजीरें दी जाती रही हैं, फिर वे इतने उग्र क्यों व कैसे हो गए। इंसानियत व भाईचारे की तो यहां कदम-कदम पर मिसालें मिलती हैं। मानवता के प्रति सेवाभाव यहां का संस्कार है फिर क्यों लोगों का खून इतना उबाल मार गया। इस तरह के सवाल
बहुत से हैं, जो लंबे समय तक लोगों को सालते रहेंगे, कचोटते रहेंगे। 
वैसे इस घटनाक्रम की कल को जांच भी होगी। बात बिगडऩे के कारण भी सामने आएंगे। किसकी भूमिका कैसी रही शायद यह भी बताया जाए, लेकिन यह घटनाक्रम श्रीडूंगरगढ़ के इतिहास के साथ काले अध्याय के रूप में जरूर चस्पा हो गया। कस्बे के नाम के साथ यह भयावह व दर्दनाक मामला एक दस्तावेज की तरह जुड़ गया है, जो चाहते हुए भी कभी अलग नहीं हो पाएगा। जिले के सद्भाव पर जो वज्रपात हुआ है, उसकी भी भरपाई शायद ही हो पाए।
इधर पुलिस व प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। वह इसलिए क्योंकि इस मामले को सुलझाने में जितनी गंभीरता व सतर्कता पुलिस व प्रशासन ने बाद में दिखाई, उतनी समय रहते पहले बरत ली जाती तो शायद हालात इतने विकट नहीं होते। विवाद के तुरंत बाद अगर समझाइश के प्रयास शुरू होते तो इसको नियंत्रित करना काफी कुछ संभव था। शुरू में मामले को हल्के में लिया गया और देर रात जब पुलिस जाब्ता पहुंचा तब तक मामला उग्र होकर नियंत्रण
से बाहर हो गया था। सुबह भी जो मुस्तैदी पथराव व आगजनी के बाद दिखाई गई वैसा पहले कर लिया जाता तो स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं होती। पुलिस व प्रशासन द्वारा अतिरिक्त सतर्कता न बरतने, मामले की गंभीरता को न समझने तथा संवदेनशील मसले को हल्के में लेना भी विवाद बढ़ाने में प्रमुख कारक रहे। 
इन सब के बावजूद बीकानेर का सा प्रदायिक सदभाव गजब है, जिसको मिसाल के रूप में देखा जाता है। एक-दूसरे के दुख-दर्द में शामिल होना। त्योहारों व पर्वों में समान रूप से सहभागिता करना यहां की पुरातन परंपरा रही है। सेवा शिविर तो सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां मजहब तक गौण हो जाता है और सिर्फ भाईचारा ही भाईचारा दिखाई देता है।खैर, जो हुआ उसकी भरपाई तो अब किसी भी कीमत पर संभव नहीं हैलेकिन इस बात का संकल्प जरूर लिया जा सकता है कि ऐसा भविष्य में फिर ना हो। एेसे में जरूरत है कि सदभाव , अमन चैन एवं गंगा-जमुनी संस्कृति की अनुकरणीय परंपरा को न केवल बनाया रखा जाए अपितु इसको और अधिक प्रगाढ़ और मजबूत करने का प्रयास भी कियाजाए। वैसे भी सदभाव का रिश्ता विश्वास नामक धागे से बंधा होता है। इसलिए विश्वास के इस धागे को अफवाह एव दुष्प्रचार जैसे दुश्मनों से बचाना सबकी प्राथमिकताओं में शामिल होना चाहिए। बीकानेरवासियों की अपणायत देखते हुए यह संभव भी है। इधर, पुलिस व प्रशासन को भी इस प्रकार के घटनाक्रम से सबक लेना चाहिए एवं समय रहते चेत जाना चाहिए।
 राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 25 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित 

शर्म इनको मगर आती नहीं


 टिप्पणी

बीकानेर में जनहित के बड़े काम तय समय सीमा में पूरे होने की
तो कल्पना ही क्या की जाए, जब अच्छी खासी मशक्कत एवं पसीना बहाने के
बाद भी छोटे-छोटे काम ही नहीं होते। सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते फरियादियों की चप्पलें भले ही घिस जाएं, लेकिन
अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। उनके पत्थर दिल
को जरा सा भी तरस नहीं आता। कहने को पीडि़तों के प्रार्थना पत्र
जरूर रख लिए जाते हैं, पर कार्रवाई के नाम पर कोई हरकत
दिखाई नहीं देती। शहर में जनहित से जुड़े कामों को दरकिनार
करने वाले अधिकारियों की न केवल लम्बी फेहरिस्त है बल्कि
उनकी कार्यप्रणाली के भी कई किस्से व उदाहरण हैं। शहर भर
में उधड़ी सड़कें, उफान मारते सीवर, बंद पड़ी रोडलाइटें और
बेतरतीब यातायात व्यवस्था कुछ जीते-जागते नमूने हैं। पुलिस लाइन से रोशनीघर चौराहे तक की सड़क भी कुछ ऐसे ही अधिकारियों की उदासीनता, लापरवाही एवं अकर्मण्यता की जीती जागती नजीर है। दो साल से यह सड़क खुदी हुई है। लोग गड्ढों में धक्के खा रहे हैं, धूल फांक रहे हैं। वाहन चालक हिचकोले खाते हुए गुजर रहे हैं। इतना लम्बा समय बीतने तथा लोगों को हो
रही असुविधा को नजरअंदाज कर सभी जि मेदार चुप्पी साधे बैठे
हैं। ऐसी समस्याओं को लेकर पता नहीं क्यों सब के सब आंखों पर
पट्टी बांधकर 'धृतराष्ट्र' होने का धर्म निभा रहे हैं। वैसे,इस मामले में पीडि़त एवं प्रभावित जिला कलक्टर तक गुहार लगा चुके हैं, लेकिन समस्या यथावत है।
सड़क अब इस हाल में भी नहीं रह गई है कि उसकी मरम्मत की जा
सके। अब इसे नए सिरे से ही बनाना होगा। सार्वजनिक निर्माण का भी
यही कहना है कि सड़क नई बनानी पड़ेगी। बड़ा सवाल है कि यह
बनेगी कैसे? दरअसल, पहले सीवरेज लाइन तथा बाद में पेयजल पाइप
लाइन डालने से यह सड़क पूरी तरह टूट गई। पर्याप्त बजट न होने
के कारण यह सड़क फुटबाल बनी हुई है। जलदाय विनभाग तो अपने
हिस्से की राशि जमा भी करवा चुका है, लेकिन निगम इस मामले में
उतनी राशि नहीं दे रहा है जिससे सड़क बन सके। बस इसीलिए मामला
अटका हुआ है। लेकिन अंतत: फैसला तो निगम को ही करना है।
निगम के इस ना-नुकर के 'खेल' में जनभावनाओं के साथ सरासर
खुलेआम खिलवाड़ हो रहा है।
यही हाल सीवरेज समस्या से परेशान शहर के हैं। बात ज्यादा बढ़ जाने पर
फौरी निर्देश तथा कार्रवाई कर मामला निपटाने की कोशिश की जाती
है, लेकिन मूल समस्या सतह के नीचे पहले से भी ज्यादा विकराल हो खदबदाती
रहती है। नए ठेकेदार के आने के बाद भी शहर की रोडलाइट समस्या भी
हल नहीं हो पाई है। गाहे-बगाहे ठेकेदार को भुगतान कर समस्या हल होने
की खोखली कोशिशों तक ही मामला सीमित है। कहने की जरूरत नहीं है
विकास कार्यों को लेकर मौजूदा निगम प्रशासन एवं उसके मुखिया
की भूमिका कैसी है। आलम यह है कि बुनियादी सुविधाओं जैसे
काम भी सहजता के साथ नहीं हो रहे हैं। तभी तो जनहित से जुड़ी
समस्याओं को लेकर, न केवल आमजन बल्कि पार्षदों को भी शिकायत
रहती है कि उनकी बातों पर गौर नहीं होता है। निगम से
लेकर विधानसभा और फिर लोकसभा तक एक ही दल की सरकार
होने के बावजूद समस्याओं का समाधान न होना जनप्रतिनिधियों को
कठघरे में खड़ा करता है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि काम नहीं हो रहे हैं। एक छोटी सी सड़क को जो दो साल में भी ठीक नहीं करवा सके उनसे
और बड़े की क्या उम्मीद की जा सकती है। देर बहुत हो चुकी है। जिम्मेदारों को
अब पहल करते हुए जो भी रुकावट या बाधा है, उसका निस्तारण
कर तत्काल जनहित में निर्णय लेना चाहिए। वैसे भी दो साल तक धैर्य
रखना सामान्य बात नहीं है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 16 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित

वक्त नहीं बदलता...


अक्सर कहते सुना है लोगों से,
वक्त सदा एक सा नहीं रहता।
वक्त बदलता रहता है,
नित नए रंग में ढलता है।
लेकिन मैं इस बात से,
कतई इतेफाक नहीं रखता,
वक्त भला कभी बदला है?
वह तो सदा एकसा ही रहता है,
बदलती है हमारी सोच,
बदलता है हमारा व्यवहार,
बदलती है हमारी दिनचर्या,
बदलता है हमारा मिजाज,
बदलती है हमारी रूचियां,
बदलता है हमारा शौक,
हम चुपके से बदलते हैं,
अंदर ही अंदर बदलते हैं,
वक्त का करके बहाना,
सच में हम ही बदल जाते हैं।
वक्त तो जैसा कल था
वैसा ही आज है
और कल भी वैसा ही रहेगा
क्योंकि वक्त नहीं बदलता
हम ही बदल जाते हैं।
----सोमवार रात 11.48 बजे

दिन-रात धमाके ही धमाके

मेरे संस्मरण-12

खैर, युद्ध के दौरान वैसे कई तरह के अनुभव हुए, जो जेहन में सदा के लिए अमिट हो गए। वैसे युद्ध के मैदान में साक्षात मौत को सामने देखकर भला कौन होगा, जिसकी धडक़न ना बढ़े और फिर हमारा युद्ध तो ऐसा हो गया था कि न तो हम दिन में ठीक से खाना खा पाते और ना ही रात को। नींद की बात ही क्या कहूं कभी-कभी तो झपकी के भी लाले पड़ जाते थे। खुला आसमान ही ओढऩा था कि और धरती बिछौना थी। भूखे-प्यासे व उनींदी आंखों से ही लगे रहे। बस एक ही धुन सवार थी, दुश्मन को नाकों चने चबवा देने हैं। वैसे युद्ध के दौरान हमारा भोजन भी बड़ा ही स्पेशल अंदाज में होता था। चलते-चलते व खड़े-खड़े ही कुछ हाथ लग गया तो खा लिया, वरना ठीक से बैठने तक की फुरसत नहीं थी। समय पर भोजन न करने तथा भरपूर मात्रा में करने के कारण सामान्य दिनों में सेना के लिए जितने राशन की खपत प्रतिदिन होती थी। वह उससे भी आधी होने लगी। राशन बचने लगा था। खराब ना हो जाए, इसके लिए पटियाला भिजवा दिया था। बांटने के लिए । इधर, दिनभर हम हमला करते और रात को पाकिस्तानी, इसलिए युद्ध के लिए अलावा और कुछ करने की फुरसत भी नहीं थी। चौबीसों घ्ंाटे बस धमाके ही धमाके ही दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे। दिन में गोलों की चमक वैसी दिखाई नहीं देती, जैसी रात को दिखती है। रात को एक साथ कई गोले छूटने पर ऐसा लगता था मानो आसमान में आग लगी है। आसमान में गोले जाते हुए साफ दिखाई देते हैं। ज्यादा दूरी का गोला किसी टूटते तारे जैसा नजारा पेश करता था। जहां तक मेरी जानकारी है विभाजन के दौरान 19 हैवी रेजीमेंट पाकिस्तान के हिस्से में चली गई थी जबकि भारत के पास मीडियम रेजीमेंट थी। हैवी रेजीमेंट की मारक क्षमता ज्यादा थी। हैवी गन को हम उस वक्त कडक़ बिजली के नाम से भी पुकारते थे। यह गोला इतनी तेज आवाज करता था कि जैसे कानों के पर्दे फट पड़ेंगे। हम खुले आसमान के नीचे गोलों को गिरना देखते थे। गनीमत रही कि कोई गोला एकदम से ऊपर नहीं आया। चकमता एवं आग उगलता अंगारा जब सामने से आता तो सिवाय आंखें करने के और कोई चारा नहीं था। धमाका तो इतना तेज होता था कि जैसे भूंकप का हल्का झटका महसूस हुआ हो। यह गोला चार बार आवाज करता था। तोप से निकलते हुए जोरदार धमाका होता। इसके बाद लक्ष्य तक पहुंचने तक यह इसकी आवाज इतनी कर्कश होती मानों दर्जनों हाथी एक साथ चिंघाड़ उठे हों। धरती पर फटते वक्त भी यह दो बार आवाज करता था। उस वक्त इन्फेंट्री के जवानों के पास स्टेशनगन, एलएमजी होती थी तो अफसरों के पास पिस्तौल रहती थी। चूंकि मैं तो तोपखाने में था, लेकिन मेरा काम आगे का ही था। आम्र्ड और इन्फेट्री के साथ तोपखाने का अफसर जाता था। मैं अफसर के साथ ही अटैच था। हम लोग ओपी पर जाते और वहां की परिस्थितियों को देखकर ही पीछे तोपखाने को मैसेज करते थे। कब आगे बढना है, कब पीछे हटना है, कहां फायर करना है, कहां गोला गिरवाना है आदि की जानकारी वायरलैस के माध्यम से ही तोपखाने को दी जाती थी।

वाकई सर्जरी की जरूरत

 टिप्पणी 

पीबीएम अस्पताल में सोमवार एक रोगी बच्चे के परिजनों एवं चिकित्सक में कहासुनी से शुरू हुआ विवाद धक्की-मुक्की एवं मारपीट में बदल गया। मामला तब और बढ़ गया जब दोनों ही पक्षों के समर्थक पहुंच गए और मोर्चा संभाल लिया। अस्पताल परिसर किसी अखाड़े में तब्दील नजर आया। इससे पहले रविवार को एक टैक्नीशियन द्वारा जांच रिपोर्ट जल्दी देने की एवज में पैसे मांगने का मामला भी सामने आया था। 
वैसे, संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल पीबीएम किसी न किसी तरह चर्चा में रहता ही आया है। इन दो दिन के घटनाक्रमों के चलते करीब डेढ़ साल पहले पीबीएम के निरीक्षण के दौरान दिया गया स्वास्थ्य मंत्री का बयान फिर प्रासंगिक हो गया। उन्होंने तब कहा था, पीबीएम बीमार है और यहां सर्जरी की जरूरत है। इस साल जून में भी स्वास्थ्य मंत्री फिर पीबीएम आकर गए लेकिन हालात कमोबेश वैसे ही रहे। उनका बयान केवल बयान ही साबित हुआ। बीच-बीच में पीबीएम के बेपटरी ढांचे को ढर्रे पर लाने के लिए विभिन्न संगठनों ने प्रयास भी किए। दवाब में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ, लेकिन अव्यवस्थाओं ने फिर पैर पसार लिए।
यह सही है कि रिक्त पद एवं घोषणाओं पर काम राज्य सरकार के स्तर पर होना है लेकिन सवाल उठता है कि निहायत ही स्थानीय स्तर की व्यवस्थाओं में सुधार के लिए भी क्या राज्य सरकार से उ मीद की जानी चाहिए? इस तरह के हंगामे-मारपीट, चोरी के मामले, बेपटरी पार्किंग व्यवस्था, बदहाल सफाई, दवा केन्द्रों पर दवा की किल्लत व मरीजों की कतार, अवांछित लोगों का अस्पताल में प्रवेश, चिकित्सकों के समय पर न पहुंचने की शिकायतें रोजमर्रा का काम है।
वैसे, इतिहास गवाह है और कई उदाहरण भी हैं। पीबीएम में कमोबेश हर प्रकरण के बाद जांच कमेटी तो जरूर बैठ जाती है, लेकिन जांच में क्या आया यह कागजों में ही दफन हो जाता है। पता ही नहीं चलता कौन दोषी था और किसको क्लीन चिट मिली। प्रबंधन के लुंज-पुंज फैसलों के कारण ही तो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है। वैसे भी जंग खा चुकी व्यवस्थाओं में सुधार तथा लंबे समय से जड़े जमाए बैठी अव्यवस्थाओं का उन्मूलन करने का साहस स्थानीय प्रबंधन में तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
बहरहाल, सोमवार का घटनाक्रम किसी भी लिहाज उचित नहीं है। यह अशोभनीय हरकत है और निंदनीय भी। इस हंगामे से भर्ती मरीजों की हुई असुविधा की भरपाई संभव नहीं है, लेकिन सबक जरूर लिया जा सकता है।
प्रबंधन की भूमिका को देखते हुए तथा लगातार हो रहे इस प्रकार के मामलों से लगता नहीं है स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा फैसला होगा। सरकार को अब इस मामले की गंभीरता को समझना चाहिए। किसी घोषणा को क्रियान्वित करने में डेढ़ साल का समय बहुत होता है। वाकई अब पीबीएम को लेकर कठोर कदम उठाने तथा कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है। सरकार को तत्काल पीबीएम की सर्जरी करने की शुरुआत कर देनी चाहिए। ज्यादा इंतजार न तो सरकार के हित में है और न पीबीएम जाने वालों के और न ही पीबीएम में बैठकर इलाज करने वालों के।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 6 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित

... तो हो जाती बगावत

मेरे संस्मरण-11

दिन में हम लोग इच्छोगिल नहर के पास तक ही कैम्प करके रहते लेकिन रात में बैकफुट पर होना पड़ता। भारतीय सेना दिन में हमला करती जबकि पाक सेना रात को। रात होते ही हम अंधे के जैसे हो जाते थे। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ऐसे में जानबूझकर वहीं डटे रहना वैसे भी उचित नहीं था। रात को युद्ध करने की जो तकनीक पाक सेना के पास थी, भारतीय सेना के पास नहीं थी। पाक सैनिकों के पास विशेष तरह के कैमरे एवं दूरबीन थे जो रात को भी स्पष्ट देख सकते थे, इसी कारण वे रात को हम पर बढ़त बनाने में सफल हो जाते थे, लेकिन रात की कमी की भरपाई हम लोग दिन में दुगुने उत्साह एवं जोश के साथ कर देते थे। तीन-चार दिन इस तरह की क्रम चलता रहा। इस कारण किसी भी पक्ष को कुछ विशेष सफलता हासिल नहीं हो रही थी। हालांकि सैनिक दोनों तरफ से हताहत हो रहे थे। इसी दौरान एक घटना हुई। इन्फेंट्री की गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने अफसरों का आदेश मानने से इनकार कर दिया। अफसर इन जवानों को बार-बार आगे भेजने का आदेश दे रहे थे कि जबकि जवानों का कहना था कि आगे माइंस (मैन फील्ड) बिछी हुई है। पहले रास्ता तो साफ करवाओ। जानबूझकर जान गंवाने से कोई मतलब नहीं है। जब पता है कि यहां खतरा है, तो फिर आगे कैसे जाएं। लेकिन जवानों की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया। जवानों ने यह भी कहा कि वे आदेश मानने को तैयार हैं, बशर्ते अफसर उनके साथ चले ताकि हकीकत उनके भी समझ में आ जाए। लेकिन उनके साथ में जाने को भी कोई तैयार नहीं था। ऐसे में उनका गुस्सा और अधिक बढ़ गया। नतीजतन, जवानों ने बंदूकें कंधे पर रखी और वापस मुड़ गए।गोरखा रेजीमेंट के जवानों के इस निर्णय से हड़कम्प मच गया। यकायक आए इस संकट से कैसे निबटा जाए, इस दिशा में चर्चा होने लगी। बड़े-बड़े सीनियर अधिकारी बैठे। चर्चा हमने भी सुनी कि पहले यह तय हुआ कि फर्ज से मुंह मोडऩे वाले को शूट कर दिया जाए। बाद में इस पहलू पर भी विचार किया गया कि ऐसा करने से सेना के जवानों में गलत संदेश जाएगा। सैनिक बगावत कर सकते हैं। आखिरकार सर्वमान्य रास्ता समझाइश का निकाला गया। वरिष्ठ अफसरों की मौजूदगी में जवानों को रोका गया। बड़े ही धैर्य के साथ उनकी बात को सुना गया। वरिष्ठों के समझ में आ गया था कि जवान गलत नहीं कह रहे हैं। आखिरकार पता होने के बावजूद जानबूझकर जान गंवाने से कुछ हासिल नहीं होगा। मौके की नजाकत समझते हुए वरिष्ठ अफसरों ने जवानों को मनोबल बढ़ाया। जवानों को कहा गया कि गोरखा बहुत बहादुर और वफादार होते हैं। यह कौम लड़ाका होती है। इनकी वीरता की चर्चे समूचे देश में हैं। गोरखा कभी युद्ध में पीठ दिखा ही नहीं सकते। इनकी बहादुरी को देखते हुए ही तो अंग्रेज इनको अपने साथ इंग्लैण्ड लेकर गए थे। इस प्रकार के वार्तालाप से गोरखा जवान बेहद प्रभावित हुए और फिर से मोर्च पर आ गए। उनकी माइंस की बात पर गंभीरता से विचार किया गया। 

और हम चल पड़े...

 मेरे संस्मरण-10

वायरलैस से संदेश था कि बोर्डर पर हालात तनावपूर्ण है, जल्दी से समान पैक करके तत्काल मूव करो। शाम तक खेमकरण सेक्टर के पास तरणताल पहुंचना है। बस फिर क्या था। रात को ही हमने सामान गाडिय़ों में लादा और भोर होने से पहले से रवाना हो गए। हम बड़ी तेजी से गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे। दोपहर तक हम जालंधर पहुंच गए थे। वहां पहुंचते ही आर्मी पुलिस ने हमको रोक दिया। कहने लगे देखो टैंकों से सड़क उखड़ रही है, दिखाई नहीं देता क्या। हमने कहा रुकना नहीं है, आदेश मिला हुआ है। हम किसी मालवाहक ट्रक का इंतजार नहीं कर सकते। हमको हर हाल में शाम तक निर्धारित स्थान पर पहुंचने का आदेश मिला है। आखिरकार एक सीनियर अधिकारी ने हमको आश्वस्त किया कि आपको मालवाहक मिल जाएगा, थोड़ा इंतजार करो।
इसके बाद हमारी फस्र्ट फील्ड रेजीमेंट के जवान व अफसर वहीं रुक गए। थोड़ी देर सुस्ताए। चाय पी और भोजन किया। तब तक मालवाहक आ चुके थे। तय हुआ कि रात को रवाना होकर खेमकरण से पहले हमको पोजीशन लेनी है। बताया गया कि यहीं से लड़ाई शुरू होगी। हमने गाड़ी लगा दी थी और टैंकों ने मोर्चा संभाल लिया। लेकिन अफसरों की नजर में यह सही पोजीशन नहीं थी। फिर कहा गया कि कुछ और आगे चलो। हम बिलकुल खेमकरण के पास पहुंच चुके थे। रात के करीब 9.30 बजे पाकिस्तान ने हमला कर दिया था। धमाके हमारे से कुछ ही दूरी पर ही थे लेकिन उनकी आवाज साफ सुनाई दे रही थी। इतने में सीमावर्ती इलाकों के ग्रामीण बड़ी संख्या में बदहवाश दौड़ते हुए हमारी तरफ आ रहे थे। मवेशियों के झुंड रंभाते हुए भाग रहे थे।
हर तरफ शोर ही शोर था। चीखने-चिल्लाने की आवाजें, महिलाओं एवं बच्चों का रुदन वाकई विचलित करने वाला था। इधर सामने से पाकिस्तानी सेना आगे बढ़ती आ रही थी। हमने अभी घुटने भर तक का गड्ढ़ा (मोर्चा) खोदा था। गोले आकर आजू-बाजू गिरने लगे। हम मोर्चे में मुंह छिपाए बैठे थे। जैसे ही बम फटता, मोर्च में बैठ जाते फिर थोड़ा सिर उठाते। रात भर यही ऊठक-बैठक का क्रम चलता रहा। हमारी पास रात को देखने का या हमले का जवाब देने का विकल्प नहीं था, सिवाय खुद को किसी तरह बचाने का। सुबह करीब पांच बजे पूरी डिवीजन को एक साथ पीछे हटने का आदेश मिला। इस कारण भगदड़ मच गई। इसको ऑर्डर आफ मार्च कहा जाता है। दरअसल, ऐसे समय में पूरी डिवीजन को एक साथ मूव करने को नहीं कहा जाता। हालांकि पीस में बारी-बारी से पीछे हटती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसी भगदड़ के चलते पाक को बढ़त बनाने का मौका मिल गया और वह खेमकरण तक आ गया। इसी बढ़त को बाद में पाक के कब्जे के रूप में प्रचारित किया गया, हालांकि पाक का यह बढ़त केवल एक दिन के लिए ही थी। दिन होते ही हमने पलटवार किया और पाकिस्तान को इच्छोगिल नहर तक खदेड़ दिया। हम रात वाले स्थान से भी आगे थे लेकिन कहा गया अब इस नहर से आगे नहीं जाना है। 

खुशी मिली इतनी..

मेरे संस्मरण-9

धर्मपत्नी के साथ मैं भी दो माह की छुट्टी लेकर आया था। शादी के दस साल बाद एवं लंबे इलाज के परिणामस्वरूप आखिर वह घड़़ी भी आई जिसका न केवल मेरे को बल्कि सभी परिजनों को बेसब्री से इंतजार था। धर्मपत्नी तीन दिन तक प्रसव पीड़ा से परेशान होती रही। कभी ऊंट पर दाई को लेकर आए तो कभी डाक्टर को। उत्सुकता के साथ जेहन में तरह-तरह के भाव भी आ रहे थे। आखिरकार ऊपर वाले की मेहरबानी से सब कुछ सही ही हुआ। धर्मपत्नी ने सुबह सात बजे के करीब एक बालक को जन्म दिया ।
30 अगस्त 1964 का दिन मेरे लिए वाकई ऐतिहासिक एवं बहुत अधिक खुशी देने वाला था। परिवार में भी खुशियों का दिन था। मां व कंवरजी की खुशी छिपाए नहीं छिप नहीं रही थी। धर्मपत्नी भी कोख आबाद होने की खुशी में प्रफुल्लित थी। मैंने बाकायदा जन्म की तारीख एवं समय का उल्लेख उसी वक्त अपनी डायरी में भी किया। विधि का विधान देखिए, बालक का जन्म हुआ, उस दिन संयोग से जन्माष्टमी थी। ग्रामीण क्षेत्र में आज भी जन्माष्टमी को केसरिया के नाम से जाना जाता है। बाकायदा खेजड़ी के पेड़ के नीचे धोक लगती है। दरसअल, केसरिया शब्द केशव से ही बना है और शायद अपभ्रंश हो गया। जन्माष्टमी के दिन बालक पैदा हुआ, इसलिए नाम रखा गया केशर। बालक होने की खुशी में खांड का चूरमा बनाया गया था, जो महिलाओं में काफी चर्चा का विषय बना। उस दौर में गुड़ का चूरमा ही बनता था। खैर, सीमित साधन और एक आम कृषक परिवार में उस दौर में किसी बड़े एवं तामझाम वाले आयोजन की कल्पना भी नहीं जा सकती थी। वैसे मौजूदा दौर की तरह कोइ प्रचलन भी नहीं था। केशर के जन्म से जुड़ी एक बात जरूर है जिसका उल्लेख करना जरूरी है। धर्मपत्नी ने कई मंदिर देवरे धोके। कई जगह मन्नत मांगी। लेकिन जिसने सर्वाधिक प्रभावित किया वह था, सत्यनारायण का व्रत। प्रत्येक पूर्णमासी को हम दोनों सामूहिक रूप से यह व्रत करते। व्रत बाद में कब आदत में बदला पता ही नहीं चला। पुत्र प्राप्ति के बाद यह हम दोनों पति-पत्नी यह व्रत करते रहे।
पुत्र रत्न की प्राप्ति में दो माह का समय कब बीता पता ही नहीं चला। आखिर मेरी छुट्टियां खत्म हुई और अमृतसर के लिए रवाना हो गया। दो माह के घर के माहौल से बिलकुल उलट मैं वापस फौज के रंग में रंग गया था। वो ही परेड पीटी का दौर। आखिर सितम्बर 1965 की वह घड़ी भी आ गई जब देश पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। पड़ोसी मुल्क पाक के हुकमरान हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बेहद सीधा व सरल आदमी समझ बैठे थे। उन्होंने रणनीति भी इसी हिसाब से तय की थी। पाक को उस दौरान अमरीका से लिए गए आधुनिक टैंकों का भी गुरुर था। इसी दौरान हम लोग युद्ध अभ्यास के सिलसिले में होशियारपुर के लिए रवाना हुए थे। हम रात को तम्बू लगाकर सोने की तैयारी में ही थे कि पटियाला से वायरलैस से आ गया।

खुश रहना मेरे यार

स्मृति शेष
वह सामान्य सी कद काठी का नवयुवक, बेहद शर्मीला, डरता-सकुचाता सा मेरे पास आया और धीरे से बोला महेन्द्र जी आप ही हैं? मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया तो उसने हाथ जोड़ दिए। कहने लगा कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूं। संपादक जी ने मेरे को आपके पास भेजा है। युवक के चेहरे पर आए भावों को मैं भांप चुका था। मैंने उसे नजदीक बिठाया और परिचय पूछा। पत्रकारिता जगत में वह अलवर के लिए बिलकुल नया चेहरा था। न तो वह किसी को जानता था और ना ही कोई उसको। उसने खुद को मूलत: हरियाणा में रेवाड़ी के पास शायद बेवळ गांव का रहने वाला बताया। और कहा कि पिताजी दौसा में कॉलेज में पढ़ाते थे, इसलिए परिवार वहीं शिफ्ट हो गया था। बाद में पिताजी की मृत्यु हो गई लेकिन मां दौसा ही रहती है। पत्रकारिता के बारे में हालांकि उसे ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन उसकी जिज्ञासा एवं उत्सुकता के चलते मैंने उसको अपना शागिर्द बनाना तय कर लिया। पता नहीं क्यों मेरे को उससे सहानुभूति सी हो गई थी। हिन्दी उसकी सामान्य ही थी। कम्प्यूटर का ज्ञान भी नहीं था, फिर भी मैंने संपादकजी को आश्वस्त किया कि युवक में संभावनाएं छिपी हैं, मौका दिया जा सकता है। और मैंने मौका दे दिया। यहां तक कि मैंने चार खबरें खुद लिखकर उसके नाम से लगाई ताकि वह जल्द ही स्थायी रोजगार का भागीदार बन जाए लेकिन उसका मन बीच-बीच में उचाट हो जाता था। मेरे को भी कई बार लगा कि कहीं संपादकजी को आश्वस्त करके कोई आफत तो मोल नहीं ले ली।
यह घटनाक्रम करीब साढ़े ग्यारह साल पहले का है। आज दोपहर को तत्कालीन संपादक श्री आशीष जी व्यास का फोन आया था तो मैं चौंक गया। फोन रिसीव किया तो उन्होंने पूछा शेखावत, देवेन्द्र यादव की कोई खबर है क्या? मैंने कहा, सर दो साल से मैं उसके सम्पर्क में नहीं हूं, क्यों क्या हुआ सर। वो बोले उसकी गोवा में मृत्यु होने की खबर सुनी है। यह सब सुनकर मैं अवाक रह गया, विश्वास ही नहीं हुआ। मेरी आंखों के सामने यादव से परिचय का वो पहला वाकया घूम गया। सचमुच देवेन्द्र के साथ मेरी कई यादें जुड़ी हैं। वह कॅरियर को लेकर कभी एकदम गंभीर हो जाता तो कभी कभी बिलकुल बेफिक्र। मैंने उसको कई बार समझाया। मैंने उसका कॅरियर बनाने में किस तरह मदद की यह राज ही था और राज ही रहेगा। मैं उल्लेख करना भी उचित नहीं मानता। वह बिलकुल मेरे छोटे भाई की तरह था। न जाने कितनी ही बार मैंने उसको उसकी नादानियों पर माफ किया। लेकिन उसने भी पता नहीं नादानी करने की ही ठान रखी थी। आखिरी बार 2009 में अलवर गया तब मिला था। वह मेरे को लेने रोडवेज बस स्टैण्ड आया था। अपने घर लेकर गया। खाना खिलाया। देवेन्द्र का प्यारा सा बेटा आर्यन अपनी मस्ती में डूबा था। देवेन्द्र से फोन पर व फेसबुक पर अक्सर बातें होती थीं। उसे शेरो-शायरी का बहुत शौक था। फेसबुक पर अक्सर शेर ही पोस्ट करता था। छत्तीसगढ़ गया तब भी वह खूब मैसेज करता था। एक दिन रात को वह बहस करने लगा। मैं उसका व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित था। मैं वाकई चिंता में डूब गया कि आखिर देवेन्द्र को हुआ क्या है। मैंने उसको एहसास करवाने के लिए जानबूझकर दूरी बना ली थी। करीब छह माह बाद फिर उसने फोन किया। कहने लगा भाईसाहब, माफ कर दो। मैंने आपसे ठीक से बात नहीं की। मैं गलत संगत में चला गया था। अब मैं फिर से नई शुरुआत कर रहा हूं। आप कृपया माफ कर दो। मैंने कहा देवेन्द्र तुम मेरे लिए वैसे ही हो जैसे पहले थे। इसके बाद फिर बातें होने लगी। करीब दो साल पहले फिर उसका नाटकीय बर्ताव देखकर मैंने तय कर लिया कि इस बार बात नहीं करूंगा। हमारा अनबोलापन करीब दो साल से चल रहा था। मेरे को क्या पता था कि इस बार वह अपने भाईसाहब से अपने किए की माफी नहीं मांगेगा। नाराज ही चला जाएगा। सचमुच देवेन्द्र तुम रूला गए भाई। और हां मैं तुमसे नाराज नहीं हूं। ना तब था और ना अब। मैं यह सोचकर चुप था कि शायद तुम ठीक से काम करो। आज अलवर के साथी तुम्हारे इस तरह जाने से बेहद गमजदा हैं। मैंने देवेन्द्र की फेसबुक प्रोफाइल देखी। आखिरी पोस्ट दस सितम्बर की थी। एक शेर लिखा था.. इतनी सी बात समन्दर को खल गई, कागज की नाव मुझ पर कैसे चल गई। विधि का विधान देखिए सचमुच देवेन्द्र आज तुम्हारे साथ समन्दर का नाम भी जुड़ा है। तुम हमेशा याद आओगे भाई।

फिल्मों का शौक


मेरे संस्मरण-8

सामान्य दिनों में भी एक सैनिक की दिनचर्या बड़ी व्यस्त रहती थी। सुबह की शुरुआत पीटी परेड से होती। इसके बाद मेन्टीनेंस परेड होती थी। इसमें उपकरणों एवं हथियारों की सफाई की जाती थी। इसके बाद ग्रेड पास करने के लिए कक्षाएं लगती थीं। शाम को फिर गेम होते थे। चूंकि मैं भर्ती के दौरान सातवीं में ही था। सेना में जाने के बाद मैंने इंडियन आर्मी फस्र्ट क्लास हिन्दी में उत्तीर्ण की। यह सिविल के दसवीं के समकक्ष मानी जाती थी। इसके बाद मैंने 1956 में एजुकेशन कोर्स भी कर लिया था। इस कोर्स को करने वाले सेना में कम पढ़े लिखे जवानों को पढ़ाने का काम करते थे। मैंने 1956 से 64 तक पढ़ाने का काम किया। इस कारण मैं लगभग दिनभर व्यस्त ही रहता था। शाम को रोल काल होता था। चैक किया जाता था कि कौन उपस्थित है और कौन नहीं। इसी दौरान चार दिन में एक दिन फिल्म देखने का मौका मिलता था। यह राजकपूर, दिलीप कुमार, अशोक कुमार, सुरैया, नरगिस आदि का दौर था। फिल्म दिखाने के लिए गाड़ी आती थी। शाम को पर्दा लगा दिया जाता था। हम लोग रात का भोजन करने के उपरांत फिल्म देखते थे। जेसीओज एवं जवानों के लिए यह सस्ता व आसानी से सुलभ होने वाला मनोरंजन था। हम सभी जमीन पर बैठकर फिल्म देखते थे। बैठने तिरपाल बिछा दिया जाता था। फैमिली क्वार्टर में जो साथी सपरिवार रहते थे, वे परिवार के साथ फिल्में देखते थे। महिलाओं के लिए अलग से कुर्सी लगा दी जाती थी। सचमुच खुले आसमान के नीचे बैठने का आंनद ही कुछ और था। बिलकुल नैसर्गिक वातावरण में मनोरंजन। अफसरों के लिए फिल्म देखने की व्यवस्था अलग होती थी। शायद ही उन्होंने कभी हमारे साथ फिल्म देखी होगी। हालांकि बाहर शहर में भी सिनेमाघर लेकिन वहां जाने की फुरसत किसको थी। रविवार को थोड़ा बहुत वक्त मिलता था लेकिन मैं कभी बाहर नहीं गया। बाहर भी घूमना होता तो सिटी तक कभी नहीं गए। झांसी के सदर बाजार तक ही घूम कर आ जाते लेकिन सिनेमाघर नहीं गया। वैसे चार दिन में एक बार फिल्म देखना भी काफी था। लेकिन यह निशुल्क नहीं था। वेतन से फिल्म देखने की राशि काट ली जाती थी। यह फिल्मों की संख्या पर निर्धारित होता था। मेरे पहले बारह आने तथा बाद में एक रुपया कटने लगा था। इस वक्त राजकपूर की फिल्में ज्यादा चर्चा में थी। आवारा, 420, आग आदि फिल्मों की याद तो आज भी ताजा है।
बबीना रहते ही 1962 में चीन के साथ युद्ध शुरू हो गया था। हमको आदेश मिला कि तत्काल तैयार हो जाओ। हमारा सारा सामान व गाडिय़ां इत्यादि बस रवानगी की तैयारी में ही थे कि सीजफायर हो गया। हमको मोर्च पर जाने की जरूरत नहीं पड़ी। आखिरकार 1964 में हमारी यूनिट अमृतसर आ गई। गोवा ऑपरेशन एवं चीन की लड़ाई के बाद धर्मपत्नी फिर मेरे साथ आ गई थी। उसका इलाज करवाना था। अमृतसर में वो मेरे साथ ही थी। कुछ दिन वो मेरे साथ रही। पेट से होने के कारण उसको मैंने गांव छोड़ दिया था।

काश ! आप बीकानेर भी घूम लेते

 टिप्पणी 

बीकानेर के कुछ हिस्सों में मानो दिवाली जल्दी आ गई है। गजब की साफ-सफाई और आकर्षक जगमग रोशनी। बीकानेर में ऐसा तब-तब होता है, जब-जब कोई वीआईपी आता है। पिछले साल जून में मुख्यमंत्री लवाजमे के साथ आई थी तो शहर के कई हिस्सों का चमत्कारिक रूप से कायापलट हो गया था। इसके बाद अप्रेल में तीन दिवसीय दौरे पर राज्यपाल आए तो कुछ स्थानों के दिन फिर फिरे। राज्यपाल अब फिर बीकानेर में हैं। जहां-जहां उनका कार्यक्रम है, उन स्थानों को शानदार सजाया गया है। कहीं कोर-कसर नहीं छोड़ी गई है। वैसे, राज्यपाल का कार्यक्रम सर्किट हाउस से वेटरनरी विवि परिसर तक सीमित है, लेकिन दौरे के आखिरी दिन वे नाल ग्राम पंचायत के अधीन आने वाले छोटे से गांव डाइयां का भी भ्रमण करेंगे। मुश्किल से सौ घरों की आबादी वाले इस गांव की सूरत भी राज्यपाल के आगमन के चलते बदल गई है। स्कूल मैदान की सफाई हो गई है। कंटीली झांडिय़ां हटा दी गई हैं। स्कूल भवन में रैंप बनकर तैयार हो गया है। महामहिम क्या देखेंगे और ग्रामीणों से किस अंदाज में रूबरू होंगे, यह अलग विषय है, लेकिन इतिहास गवाह है कि अतिथि अक्सर वो ही देखते हैं, जो आयोजक-मेजबान दिखाते हैं या पहले से जो तय होता है। वैसे भी पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों में किसी तरह की गड़बड़ी केआसार कम ही होते हैं। इसीलिए सब कुछ चाक-चौबंद मिलना लगभग तय है। खैर, वीआईपी आगमन के दौरान जिस अंदाज में काम होते हैं और हकीकत पर पर्दा डाला जाता है, वह आयोजकों- प्रशासन से भी छिपा हुआ नहीं है। अखरने वाली बात तो यह है कि जानकारी में होने के बावजूद समस्याओं की अनदेखी की जाती है। लम्बे समय तक उनका समाधान नहीं होता है। बीकानेर में रेल फाटकों पर रोज कई बार लगने वाले जाम नासूर बन चुके हैं। सफाई व्यवस्था ढर्रे पर नहीं है। सीवरेज का पानी आए दिन सड़कों पर बह पर्यावरण प्रदूषित करता है। आवारा पशुओं की दखल समूचे शहर में है। बेतरतीब यातायात, मनमर्जी की पार्किंग, रास्तों पर फैले अतिक्रमण के तो शहरवासी जैसे आदी हो गए हैं। विद्युत तंत्र इतना कमजोर है कि कब बिजली गुल हो जाए विभाग को भी नहीं पता। कई रास्ते अंधेरे में डूबे हैं। रोडलाइट का कोई धणी-धोरी नहीं है। गजनेर ओवरब्रिज की रोडलाइट के समाधान के तो उपाय खोजने ही शायद बंद कर दिए गए हैं। बीकानेर में इस तरह की बुनियादी समस्याएं लम्बे समय से मुंह बाए खड़ी हैं। इनके स्थायी समाधान का कोई रास्ता नहीं खोजा जाता। जनहित से जुड़े मुद्दों में इस तरह का व्यवहार समझ से परे है। खैर, इतना कुछ होने के बावजूद बेहद संतोषी एवं शांत प्रवृत्ति के बीकानेरी उम्मीद जरूर जिंदा रखते हैं। उनके मौन में कई तरह के आग्रह और सवाल छिपे होते हैं। जब भी कोई वीआईपी बीकानेर आता है तो उनकी आशा बलवती हो उठती है। अब राज्यपाल आए हैं तो दिल के किसी कोने में दबी उनकी उम्मीद फिर जवां हो उठी है। जो कहना चाहती है कि आप डाइयां ही क्यों घूम रहे हैं? कुछ देर के लिए बीकानेर भी घूम लीजिए। क्या पता आपके एक पगफेरे से ही शहर की किस्मत संवर जाए। बिलकुल निष्क्रिय बना प्रशासनिक अमला कुछ हरकत में आ जाए। इस बहाने आपकी आंखें भी वो सब देख लेंगी जो आयोजक- मेजबान आपको दिखाना नहीं चाहते। आखिर ले देकर यह उम्मीद ही तो है जो किसी वीआईपी के आने से जागती है। काश! शहरवासियों की उम्मीदों पर किसी का तो ध्यान जाता और उनकी उम्मीदों को पंख लगते।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 16 सितम्बर 15 के अंक में प्रकाशित 

वो आमों का बगीचा


मेरे संस्मरण-7

यह बात 1961 की है। उसी समय भारत ने गोवा से पुर्तगालियों का खदडऩे का अभियान शुरू किया था। हालांकि यह ऑपरेशन ज्यादा दिन नहीं चला था। जल्द ही भारतीय जवानों ने पुर्तगालियों को गोवा, दमन एवं दीव से खदेड़ दिया था। फिर भी इस बात की आशंका थी कि पाकिस्तान ऐसे हालात में भारत पर हमला कर सकता था। इसलिए हमको बॉर्डर पर जाने के लिए तैयार रहने को कह दिया गया था। ऐसे में मैंने घर पर पत्र लिखा कि मैं कभी भी बार्डर पर जा सकता हूं। मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि गांव आकर धर्मपत्नी को छोड़ सकूं। ऐसा करो आप गांव से किसी को भिजवा दो। मेरा पत्र मिलने के बाद गांव से मिश्रूराम को भेजा गया। उसके साथ धर्मपत्नी को गांव भिजवा दिया गया। आखिरकार वो घड़ी भी आ गई जब हमको पंजाब इलाके में जाने का आदेश मिला। हमारी रेजीमेंट फस्र्ट फील्ड रेजीमेंट एसपी (सेल्फ प्रीपेयर्ड) तत्काल पंजाब के लिए रवाना हो गई। पंजाब पहुंचने के बाद हमने अमृतसर-जालंधर के बीच अपना डेरा जमाया। संयोग से यहां आमों का बगीचा था। आम खाने के लिए हम सब लालायित रहते थे। जैसे ही पेड़ से कोई आम गिरता हम उस और लपकते। करीब पन्द्रह दिन हम यहां रहे। खूब आम खाए। लेकिन पेड़ पर चढ़कर या तोड़ कर एक भी नहीं खाया, जो पककर नीचे गिरा उसी को उठाया। इन पन्द्रह दिनों के बीच एक रोचक वाकया जरूर हुआ। हम जहां कैंप किए हुए थे, वहां पर एक सरदारजी अपनी गाड़ी में आए। शक्ल सूरत एवं पहनावे से सिविल में अधिकारी प्रतीत होते थे। बड़े गुस्से में थे। आते ही कहने लगे कि यह फसलों को बर्बाद करने का अधिकार आपको किसने दिया है? मैं आपके खिलाफ रिपोर्ट करूंगा। हमारे मेजर साहब ने कहा कि हम तो देश की रक्षा के लिए हैं ना कि फसल बर्बाद करने। हमारा मकसद आपकी फसलें नष्ट करना है भी नहीं। लेकिन सरदारजी कानून के कुछ ज्यादा ही जानकार लगे। कहने लगे आपको इस फसल को हर्जाना देना पड़ेगा। आपने बिना अनुमति के यह सब किया है। सरदारजी को समझाने के प्रयास जब विफल हो गए तो फिर उनको उनके ही अंदाज में जवाब देने की तैयारी कर ली गई। मेजर साहब ने इशारा किया। इसके बाद दो गाडिय़ां उनके पास पहुंच गई। उन्होंने सरदारजी से कहा अब बताते हैं आपको कैसे होता है नुकसान? यह कहकर उन्होंने गाडिय़ों को खेत में घूमाने के लिए कह दिया। दोनों गाडिय़ों ने अभी खेत में दो ही चक्कर लगाए थे कि सरदारजी ने हाथ जोड़ दिए। बोले ओ परहा अब बस करो। मैं किसी को रिपोर्ट नहीं करता। मेरे को पता नहीं था। मेरी गलती हो गई मेरे को ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। आप तो जितनी मर्जी करे उतने आम खाओ लेकिन फसल को बख्श दो। सरदारजी की हालात पर मेजर साहब को तरस आ गया। उन्होंने गाड़ी रुकवा दी। इसके बाद सरदारजी कभी नहीं आए। ऑपरेशन गोवा सफल रहा, इधर पाकिस्तान की तरफ से कोई मूवमेंट नजर नहीं आया तो हमको वापस लौटने को कहा गया। हमारी रेजीमेंट वापस लौट आई। इस बार हम झांसी की बजाय बबीना आ गए थे। पन्द्रह दिन का यह पंजाब प्रवास अनूठा रहने के कारण हमेशा जेहन में रहता है। 

लेकिन सपना टूट गया

मेरे संस्मरण-6

सीनियर का आदेश आखिर कैसे टालता। बुझे मन से दौडऩे को तैयार हुआ। बामुश्किल तीस मीटर ही दौड़ा होऊंगा कि अचानक पैर कुछ डिगा और जांघ में तेज दर्द शुरू हो गया। मैं वहीं मैदान पर गिर गया। दर्द के मारे मैं कराहने लगा था। साथियों ने आकर संभाला। पैर भी मसला लेकिन कोई असर नहीं हुआ। थोड़ी ही देर बाद जांघ में सूजन आ गईं थी। मांसपेशी खिंचाव था या मांस फटा था मैं समझ नहीं पा रहा था। आखिरकार डाक्टर के पास गया। बंगाली डाक्टर था। मेरे मर्ज की गंभीरता समझे बिना ही उसने कहा कि नस चढ़ गई है गरम पानी से सिकाव व तेल की मालिश करो। मैंने लगातार तीन दिन तेल की मालिश की और पानी से सिकाव भी किया लेकिन कोई आराम नहीं मिला। इस अंतराल में मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। आखिरकार फिर डाक्टर के पास गया तो उसने मुझे सात दिन का इलाज बताया। कहा कि बिजली की हिट जांघ पर लगवाओ। सात दिन तक यह भी किया, दर्द कुछ कम हुआ लेकिन पूरी तरह से मुक्ति नहीं मिली। इधर इस वजह से मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। सावधान-विश्राम करने में भी जब पैर हिलाता तो बेहद दर्द होता था। कई दिनों तक दर्द सहता रहा। इस दौरान मेरा दौड़ का अभ्यास बिलकुल ठप सा हो गया था। दौड़ न पाने का मलाल तो बहुत था लेकिन क्या करता। मन में ख्याल आया कि क्यों न गांव चला जाए। वहां कुछ दिन फुर्सत में रहूंगा तो शायद कुछ राहत मिल जाए। यह सोच कर मैंने दो माह की छुट्टी ले ली। छुट्टी मंजूर हो गई और मैं गांव आ गया। गांव आया तो परिवार में शादी थी। उस वक्त गांव में बिजली नहीं आई थी। पानी कुंए से खींचकर निकालना पड़ता था। शादी के लिए पानी की व्यवस्था करनी थी। हम लोग कुंए से पानी निकालने चल पड़े। मैं रस्सी खींच रहा था कि अचानक जांघ से चटकने की सी आवाज आई। थोडा दर्द भी हुआ लेकिन उससे बाद स्थायी दर्द से मुक्ति मिल गई। यह अलग बात है कि जांघ में तीन जगह गड्ढ़े जैसे स्पॉट पड़ गए थे। दो माह की छुट्टी पूरी करने के उपरांत मैं झांसी पहुंचा। तब तक मैं मन ही मन तय कर चुका था कि अब आगे नहीं दौडऩा है। इसकी पीछे दो वजह थी। एक तो माहौल तथा दूसरा चोट से फिर से उभर जाने का डर था। इस प्रकार मुझे अपना प्रिय खेल से ना चाहते हुए थी छोडऩा पड़ा। कई शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन मैं फिर नहीं दौड़ा। झांसी में रहते हुए मेरे को काफी समय हो गया था। बिलकुल शांत इलाका। इस दौरान गांव भी जाता रहता। आखिर 1960 के बाद धर्मपत्नी को मैं अपने साथ झांसी ले आया। यह सब घरवालों के कहने पर ही किया था। आज की तरह उस दौर में पत्नी या पति ही नहीं चलती थी। मां व कंवरजी ने जो कह दिया वो लोहे की लकीर के समान होता है। उनकी रजामंदी होने पर ही मैं धर्मपत्नी को साथ लेकर आया। हम दोनों ने कुछ समय ही कुछ समय ही गुजारा था कि एक और चुनौती आ खड़ी हुई।

लेकिन सपना टूट गया

मेरे संस्मरण-5

जालंधर आने के बाद मुझे बचपन में देखे गए सपने को पूरा करने का मौका मिला। मैं बहुत खुश था। यह अलग बात है कि सपना मुकाम पर पहुंचने से पहले टूटा भी। मुझे बचपन से ही दौडऩे का बेहद शौक था। गांव में मैं दौड़ में सबको पछाड़ देता था। स्कूली प्रतियोगिता में अव्वल आने पर मिली दवात व कलम को तो मैंने कई दिनों तक सहेज कर रखा था। इनाम को देखता तो मन में नई ऊर्जा का संचार होता था। सेना में पीटी परेड के सिलसिले में दौडऩा तो वैसे रोज ही होता था लेकिन सौ एवं दो सौ मीटर की दौड़ मेरी पसंदीदा रही। जल्द ही बैटरी में मेरी गिनती श्रेष्ठ धावकों में होनी लगी थी। कई पुराने धावकों ने अब दौडऩा बंद कर दिया था। सौ मीटर में मेरा समय 11.2 से 11.5 सैकिण्ड के बीच ही रहता था। बैटरी की तरफ से मेरा चयन हो गया था। इंन्फेंट्री में कंपनी, आर्टी में बैटरी व आर्मड में स्क्वार्डन होता है। बैटरी का प्रतिनिधितित्व करते हुए मैंने कई इनाम भी जीते। उस दौर में जीते मैडल एवं कप आज भी घर ही अलमारी में सजे हुए हैं। दरअसल, यकायक सबकी नजरों में आना या चढऩा भी खतरनाक होता है, क्योंकि मन ही मन कुछ पुराने धावक मेरे से चिढऩे लगे थे। हालांकि खुले तौर पर ऐसा कुछ नहीं हुआ लेकिन हाव भाव से जाहिर हो ही जाता है। साल भर का समय भी नहीं निकला होगा कि जालंधर से तबादला झांसी हो गया। झांसी में रहते ही मेरी शादी हो गई थी। यह बात 1954 की है। हरियाणा के बापौड़ा में बारात गई थी। भिवानी-तोशाम रोड पर पहला ही गांव है बापौड़ा है। इस गांव ने भी सेना एवं वायुसेना को कई अफसर दिए हैं। शादी के बाद मैं झांसी लौट आया था। साथियों के साथ शादी का जश्न मनाया। खैर, दौड़ में मेरे से ईष्र्या करने वाले यहां भी कम नहीं थे। अब मेरे को दौड़ से दूर करने के बहाने खोजे जाने लगे। उस वक्त ब्रिगे्रेड में दौडऩे की तैयारी चल रही थी। मेरे को कहा गया है कि आप सौ एवं दो सौ मीटर तो आसानी से दौड़ लेेते हो क्यों ना आप सौ मीटर बाधा दौड़ की तैयारी करो। दरअसल, यह उल्लू बनाने की कोशिश थी ताकि सौ एवं दो सौ मीटर में मेरे स्थान पर किसी दूसरे को दौड़ाया जा सके। सचमुच मेरे को बहुत पीड़ा हुई लेकिन मैं अपनी बात किसको कहता। मैंने कहा भी कि जब मेरा अभ्यास ही नहीं है तो फिर मैं कैसे दौडूंगा लेकिन किसी ने नहीं सुनी। कहा दो दिन अभ्यास कर लो। दरअसल, यह सारी कवायद लैंसनायक भंवरसिंह के लिए थी। वह सीएमपी से आया था। भूरजट हरियाणा का रहने वाला भंवरसिंह कहता था कि वह वॉलीबाल, बास्केटबाल में बहुत अच्छा खेलता है। इसके अलावा सौ एवं दो सौ मीटर का धावक भी है। सूबेदार भूरसिंह उसको यह कहकर मेरे पास लाए कि यह खेल में रहेगा तो लैंसनायक बना रहेगा। इसलिए इसका खेलना जरूरी है। ट्रायल के नाम पर सूबेदार मुझे एवं भंवरसिंह को मैदान पर ले गए। बारिश की वजह से समूचा मैदान गीला था कई जगह पानी भरा हुआ था। मैंने मना भी किया कि साहब मैदान गीला है नहीं दौड़ा जाएगा लेकिन सूबेदार अपने जिद पर अड़े रहे। 

वो ऐतिहासिक सफर


मेरे संस्मरण-4 

आखिरकार इंतजार के बाद झांसी रेलवे स्टेशन पर हमारी गाड़ी आ गई। नाम था पंजाब मेल। फिरोजपुर से मुंबई के बीच चलती थी। जीवन में पहली बार बड़ा सा इंजन देखा था। बड़े-बड़े टायर। उसको देखकर मैंने दांतों दले अंगुली दबा ली थी। गाड़ी में काफी भीड़ थी। मैं और नेमीचंद बारी-बारी से सभी डिब्बों तक गए लेकिन कहीं भी जगह दिखाई नहीं दी। आखिर में एक डिब्बे में चढऩे लगे तो अंदर बैठे फौजियों ने झिड़क दिया। बोले यह फौजियों का डिब्बा है। इसमें हम ही बैठ सकते हैं। आप दूसरी जगह जाओ। कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक डिब्बे में जबरन चढ़ गए। नेमीचंद बोला, सीट नहीं मिली तो कोई बात नहीं अपन यह डंडा पकड़ ही चलते हैं जबकि हमको यह भी नहीं पता था कि झांसी से नासिक की दूरी कितनी है। हम डिब्बे में खड़े थे। अचानक टीटीई आया। उसने पूछा कहां जाना है। हमने परिचय दिया तो वो हमको फौजियो वाले डिब्बे में ले गया और कहने लगा अरे यह आपके ही साथी हैं। नए-नए भर्ती होकर आए हैं। इनको बैठने के लिए जगह दो। फौजी बोले बिना ड्रेस हमको कैसे पता चलता। खैर, टीटीई की मेहरबानी से हमको जगह मिल गई थी। रात भर का सफर था। सुबह हमारी गाड़ी नासिक पहुंच चुकी थी। घर से चले हुए हमको तीन दिन और तीन रात हो चुके थे। जीवन में पहली बार इतना लम्बा सफर तय किया। यह न केवल यादगार बन गया बल्कि ऐतिहासिक भी रहा। तीन दिन की सफर की थकान हावी हो चली थी लेकिन आगे क्या होगा इस उत्सुकता मैं अपनी थकान को भूल चूका था। नासिक रेलवे स्टेशन पर मैं और नेमीचंद उतरे तो वहां सेना के जवान घूम रहे थे। वहां सेना की गाडिय़ा खड़ी थी। फौजियों का हम दोनों से आमना-सामना तो उन्होंने पूछा भर्ती होकर आए हो? हमने स्वीकृति में सिर हिलाया तो हमें गाड़ी में बैठने को कहा गया। आखिर सबसे पहले हमको लंगर ले जाकर भोजन कराया गया। इसके बाद तंगावेलू नामक नायब सूबेदार (उस वक्त जमादार कहा जाता था) से मेरी मुलाकात हुई। वो मेरे को लाइन इंचार्ज नायक प्रहलादसिंह के पास लेकर गए। प्रहलादसिंह राजस्थान के ही जयपुर जिले के रहने वाले थे। चारपाई एवं बिस्तर दे दिए गए और कहा जाकर लाइन में आराम करो। दो दिन के बाद मेरे को आफिस ले जाया। वहां मेरे से भर्ती के कागजात मांगे गए। मैंने मना कर दिया तो कहा गया, कोइ बात नहीं, दुबारा बन जाएंगे। इस प्रकार फौज की भर्ती से बचने का मेरा आखिरी प्रयास भी सिरे नहीं चढ़ और मैं भारतीय सेना का हिस्सा बन गया। दो साल यहीं ब्यॉयज में रहा। सुबह शारीरिक अभ्यास करना होता। स्क्वॉड बनने के बाद परेड शुरू हो गई। दो साल पूर्ण होने के बाद जवान बन गया था। रंगरूट का अभ्यास किया। यह करीब छह माह का था। नासिक में कुल तीन साल रहा। इस बीच मैं दो बार गांव छुट्टी पर आया। नासिक के बाद पहली पोस्टिंग पंजाब के जालंधर आई थी। यहां एक नया क्षेत्र मेरा इंतजार कर रहा था। 

वो ऐतिहासिक सफर

मेरे संस्मरण-3

रात भर का सफर करने के बाद मैं और नेमीचंद आगरा के राजा की मंडी स्टेशन पर पहुंच गए। यहां से हमको नासिक के लिए ट्रेन पकडऩी थी। हम दोनों रेलवे स्टेशन पर नासिक की ट्रेन की तलाश में भटकते रहे लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। दरसअल, नासिक वाली ट्रेन आगरा छावनी से मिलनी थी लेकिन न तो हमको उसको जानकारी थी और ना ही किसी ने बताया। हमने स्टेशन पर कई लोगों से पूछा लेकिन कोई बताने को तैयार ही नहीं था। हम दोनों मन मसोस कर रहे गए। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। दोपहर हो चुकी थी। आखिर नेमीचंद ने स्टेशन पर खड़ी गाड़ी की तरफ इशारा किया और कहा कि चलो इसमें बैठ जाते हैं, यह कहीं तो जाएगी ही। और हम उस गाड़ी में बैठ गए। पता चला यह तो कानपुर जा रही है। हम रवाना हो चुके थे। मन में यही उम्मीद थी कि चलो कोई कानपुर में तो बताएगा। रात आठ बजे हम कानपुर पहुंच गए। शाम हो गई थी। हम प्लेटफार्म पर ही एक बैंच पर सो गए। रात 11.30 बजे टीटीई आया और बोला, कौन हो आप लोग। हमने परिचय दिया। उसने पूछा कहां जाना है। हमने नासिक जवाब दिया तो कहने लगा है पता भी है क्या नासिक कहां है और कौनसी रेल जाएगी। हमने असहमति में सिर हिलाते हुए कहा पता नहीं जो मिल जाएगी उसी में बैठ जाएंगे। टीटीई हमारा जवाब सुनकर हंसा। उसने कहा कि यहां रात को आपको कोई सोने नहीं देगा। पूछताछ के नाम पर आपको जगाया जा सकता है। ऐसा करो यह जो रेल खड़ी है, उसी में वापस चढ़ जाओ। यह यहां से यार्ड में जाकर खड़ी हो जाएगी। रात भर वहीं खड़ी रहेगी। ऐसा करो आप इसमें सो जाओ। आपको रात भर कोई परेशान नहीं करेगा। टीटीई हमको भला आदमी लगा। हम दोनों रेल के एक डिब्बे में चढ़ गए। खिड़की बंद कर ली और दरवाजों पर अंदर से कुंडी लगा ली। सुबह ट्रेन वापस स्टेशन आई। घर से रवाना हुए तीसरा दिन हो चुका था। मैं और नेमीचंद नहाने के लिए पास के ही नल पर चले गए। इतने में एक व्यक्ति हमारे पास आया और पूछा कहां के रहने वाले हो और कहां जा रहे हो। हमने उसके सवाल का जवाब दे दिया तो कहने लगा, अरे कहां फौज में भर्ती हो गए। जिंदगी भर परेशान हो जाओगे। ऐसा करो आप देानों मेरे साथ आ जाओ। मैं आपको बढिय़ा नौकरी दिलवा दूंगा। लेकिन हम दोनों ने उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह कई देर तक उसने हमको बरगलाने की कोशिश करने के बाद बड़बड़ाता वहां से चला गया। नहाने के बाद हम गाड़ी के पास आ गए। बताया कि यहां से आपको झांसी जाना है, वहां से आपको नासिक जाने वाली रेल मिल जाएगी। मैं और नेमीचंद गाड़ी में बैठ गए। डिब्बे लगभग खाली ही थे। हम दोनों सीट पर लेट गए। दोपहर बाद हम दोनों झांसी पहुंच गए थे। अब तक सफर छोटी रेल लाइन पर ही किया था। झांसी में रेलवे लाइन भी बड़ी थी। यहां से हमको मुंबई जाने वाले ट्रेन पकडऩी थी। 

ऐसे हुआ भर्ती


मेरे संस्मरण-2

यह अलग बात है कि गुमानसिंह भी बाद में भर्ती हुए। खैर, मेरा नम्बर आया तो धड़कन कुछ तेज हो गई लेकिन किस्मत यहां करवट बदल रही थी। शारीरिक नाप तौल एवं जांच के बाद मेरा चयन कर लिया गया। इसके बाद पता लिखवाने को कहा गया तो मैंने मना कर दिया। कहा कि मेरे साथ गांव के दो बंदे ही जब भर्ती नहीं हुए तो फिर मैं क्या करूंगा। मेरी बात सुनकर सैन्य अधिकारी मुस्कुराए और अचानक चेहरे के भाव बदलते हुए बोले अब कुछ नहीं हो सकता है। मैंने दुबारा आग्रह किया तो कड़क होते हुए बोले ज्यादा नखरे नहीं चुपचाप नाम लिखा दे वरना पुलिस पकड़ लेगी और नासिक (महाराष्ट्र ) ले जाकर छोड़ेगी। मैं डर गया और चुपचाप पता लिखवा दिया। इसके बाद मेरा नासिक का रेल का पास और अन्य कागजात बन गए। पास और कागजात मेरे को देते हुए कहा गया कि कल सुबह आ जाना। आपको जयपुर जाना है। खैर, मैं शाम को घर लौटा और मां व कंवरजी (पिताजी ) को जब यह खबर सुनाई तो दोनों रोने लगे। कहने अभी यह बच्चा है। इसके नौकरी के दिन थोड़े ही हैं। कहां जाएगा इस उम्र में। मैं परिवार में सबसे छोटा था। घर में हड़कंप मच गया था। चर्चा इसी बात को लेकर थी कि आखिर किस तरह भर्ती को निरस्त करवाया जाए। अचानक काकोसा बाघ सिंह को बुलाया गया। वे कुछ समय सेना में रह चुके थे। उनको कहा कि कल झुंझुनूं भर्ती दफ्तर जाकर इन्द्र का (मेरा) नाम कटवा कर आओ। काकोसा ने हां भर थी लेकिन मां एवं कवंरजी की आंखों में उस रात नींद नहीं थी। मैं भी ऊहापोह वाली स्थिति में था। किसी तरह रात बीती। सुबह थैले में कपड़े आदि रख कर हम दोनों झुंझुनूं पहुंचे। भर्ती दफ्तर पहुंचते ही काकोसा ने कप्तान को सेल्यूट मारी और पास जाकर बोले साब, यह अभी टाबर है। भूल से भर्ती में आ गया। इसका बाप अंधा है और मां बूढ़ी है। घर पर मवेशी भी बहुत हैं। यह फौज में चला गया तो मां-बाप की सेवा कौन करेगा? कौन मवेशियों को संभालेगा? ऐसा करो साहब आप इस टाबर का नाम काट दो। कप्तान मथुरासिंह (संभवत: यही नाम था) काकोसा की बात सुन फिर मुस्कुराए। बोले, अब कुछ नहीं हो सकता है। इसके भर्ती संबंधी कागजात बन गए हैं। भर्ती नहीं होना है तो कोई बात नहीं लेकिन एक बार नासिक तो जाना ही पड़ेगा। अच्छा है इस बहाने नासिक घूम आएगा, आपका कौन सा किराया लग रहा है। कप्तान साहब की बात सुनकर काकोसा के पास कहने को कुछ नहीं बचा था। वो मेरे सिर पर हाथ रखकर गांव के लिए रवाना हो गए। मेरे साथ पातुसरी गांव का एक लड़का भर्ती हुआ था। नाम था नेमीचंद। हम दोनों झुंझुनूं से जयपुर के लिए रवाना हो गए। शाम होते-होते हम जयपुर पहुंच गए। आगरा के लिए हमारी ट्रेन रात बारह बजे थी। हम दोनों स्टेशन पर एक ही बैंच पर लेट गए। इस बीच मैंने झुंझुनूं कार्यालय से बनाकर दिए गए कागजात को स्टेशन पर इस उम्मीद के साथ फेंक दिया कि जब कागजात ही नहीं होंगे तो यकीनन भर्ती नहीं करेंगे। रात बजे हमारी गाड़ी आ गई और हम आगरा के लिए रवाना हो गए।

ऐसे हुआ भर्ती....


मेरे संस्मरण-1

यह सन 1950 की बात है। उस वक्त मेरी उम्र 14 साल की थी। मैं पास के गांव किशोरपुरा की स्कूल में कक्षा सात का छात्र था। उस वक्त सातवीं को ही मिडल कहा जाता था। उस समय यातायात के साधन तो कल्पना में भी नहीं थे। गांव से किशोरपुरा पैदल की आना-जाना करते थे। गांव के और भी कई छात्र किशोरपुरा जाते थे। गांव में उस वक्त स्कूल नहीं था। हमारे मास्टरजी पातुसरी गांव के थे। नाम शायद बहादुर राम या सिंह ही था। छात्रों में उनका बड़ा खौफ था। उनके पीटने का तरीका भी बड़ा अलग तरह का था। वो पीठ पर मुक्के मारते थे। उस वक्त पुस्तकें आज की तरह आसानी से दुकानों पर उपलब्ध नहीं होती थी। सभी छात्रों से पैसे एकत्रित कर लिए जाते और एक अध्यापक जयपुर जाकर पुस्तके लेकर आता था। हमने पैसे जमा करवा दिए थे लेकिन पुस्तकें नहीं आई थीं। इसी बीच जन्माष्टमी व गोगानवमी पर स्कूल में दो दिन के अवकाश की घोषणा हो गई। मास्टरजी ने अवकाश के दौरान कुछ पाठ याद करने के लिए बोल दिया। अब धर्मसंकट यही था कि बिना पुस्तक के पाठ को कैसे याद किया जाए। उनकी मार की कल्पना कर मन में डर बैठ गया था। इसी अधेड़बून में डूबा था। दूसरे दिन पड़ोस के गांव सोलाना में गोगा जी का मेला लगा था। मैं भी वहां चला गया। मेले के दौरान दो लोग मुनादी कर रहे थे कि झुंझुनूं में सेना की भर्ती है, जिसको भी भर्ती में भाग लेना वह झुंझुनूं पहुंचे। भर्ती दो श्रेणियों में थी। ब्यॉयज और जवानों की। हाथ में लाठियां लिए यह लोग तेज आवाज में सबको भर्ती की सूचना दे रहे थे। उस वक्त सूचना प्रसारित करने का और कोई साधन भी तो नहीं था। मन में ख्याल आया कि क्यों ना भर्ती देखी जाए। मास्टरजी की मार से तो बच जाऊंगा। बस फिर क्या था दूसरे दिन झुंझुनूं के लिए रवाना हो गया। मां से झूठ बोला कि झुंझुनूं से पुस्तक खरीदने जा रहा हूं। इसके बाद पैदल ही पास के रेलवे स्टेशन रतनशहर पहुंचा। इस्लामपुर और माखर मैंने पहली बार ही देखे थे। स्टेशन पर गांव के सुमेरसिंह एवं गुमानसिंह मिल गए। मैं दोनों को देखकर चौंक गया। वे दोनों भी भर्ती के सिलसिले में ही आए थे। उन्होंने मेरे से पूछा तो मैंने फिर वही किताब का बहाना बना दिया। इसके बाद रेल से हम तीनों झुंझुनूं पहुंचे। उतरते ही दोनों साथियों ने भर्ती में चलने की कहकर जैसे मेरे मन की बात पूरी कर दी। मैं उनके साथ चला तो गया लेकिन बचपन में पैर टूटने की बात याद आ गई। खेत जाते वक्त ऊंट से गिरा और बाद में ऊंट की लात से मेरा पैर टूट गया था। हालांकि बाद में इलाज से ठीक तो गया लेकिन मन में यही डर था कि पैर टूटा होने के कारण मेरे को अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। मन ही मन मैं रुंआसा हो गया था। मेरे से पहले सुमेरसिंह की बारी आई। अध्यापक के डंडे की चोट की वजह से उनकी एक अंगुली टेढी थी। उनको कहा गया कि इलाज करवाकर आओ। यह अलग बात है कि वो बाद में सेना में ही भर्ती हुए। इसके बाद गुमानसिंह को भी आंखों का रंग लाल होने के कारण अयोग्य घोषित कर दिया गया। अब मेरी बारी थी।

मेरी बात


सेना के प्रति श्रद्धा और सम्मान बचपन से ही रहा है, अब भी है। इसका प्रमुख व एकमात्र कारण परिवार के कई सदस्यों का भारतीय सेना से जुडाव ही रहा है। बचपन में पापा से कहानियों की जगह सुने गए युद्ध के संस्मरणों ने न केवल देशभक्ति की भावना को पुष्ट किया बल्कि वीरता व अनुशासन का पाठ सीखने में भी सहायक साबित हुए। साथ ही यह भी जाना कि स्वाभिमान व खुददारी के साथ की गई कठोर मेहनत को कैसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। वाकई पापा के कार्यकाल की यह कड़वी हकीकत रही है कि उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों एवं स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। सेवानिवृत्ति के समय साथियों की सलाह को पापाजी ने बड़ी ही साफगोई के साथ मानने से इनकार कर दिया था। सलाह थी कि अधिकारियों से कुछ आग्रह कर लिया जाए तो शायद वो पसीज जाएं और एक पद का प्रमोशन मिल जाए जबकि पापा इस बात पर जोर देते रहे कि जब सब कुछ ईमानदारी के साथ किया है। समूचा कार्यकाल अधिकारियों के सामने है तो फिर एक पद के लिए गिड़गिड़ाना कैसा? और सचमुच पापा ने किसी तरह का आग्रह या निवेदन नहीं किया। यही कारण रहा कि 23 साल दो माह सेना की सेवा करने तथा दो युद्धों में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद उनके हिस्से हवलदार जैसा पद ही आया। लेकिन पापा को इस बात का कभी कोई मलाल नहीं रहा। उन्होंने इस पद को भी बड़ी शिद्दत व गर्व के साथ जीया है। खैर, पापाजी के सेना से जुड़े संस्मरणों को शब्द देने का मानस तो बहुत पहले ही बना चुका था। बीच में कई बार प्रयास भी किए लेकिन अमलीजामा पहनाने में नाकाम रहा। चूंकि अब भारत-पाक के बीच 1965 में हुए युद्ध को पचास साल हो गए हैं। समूचे देश में युद्ध में हासिल की गई इस जीत का जश्न मनाया जा रहा है तो फिर इससे मुफीद मौका मेरे को और लगा भी नहीं। हो सकता है संस्मरणों के उतार-चढ़ाव पाठकीय नजर में अलंकारिक या अतिश्योक्तिपूर्ण लगे लेकिन यकीनन यह एक पूर्व सैनिक के द्वारा कहा गया सच एवं एक पत्रकार के द्वारा सुना गया सच का दस्तावेज ही होगा। भाव उनके होंगे और उनको शब्द देने का काम मेरा होगा। हालांकि पापा ने शुरुआत में यह कह भी दिया कि सच से उनके सम्पर्क में रहे तत्कालीन कुछ अधिकारियों की कथित वीरता बेनकाब भी हो सकती है और कुछ कड़वी हकीकत भी सामने आ सकती है। मेरे इस भरोसे के साथ कि आप तो जो हुआ है केवल वह बताते रहें, वो तैयार हो गए। एक बात और। मुझे ऐसा लगता है कि सेना में भर्ती होने के घटनाक्रम के बिना युद्ध के संस्मरण अधूरे से लगेंगे, लिहाजा शुरुआत भर्ती के समय के हालात और माहौल से करना ही उचित रहेगा। प्रयास यही है कि जैसा वो मेरे को बता रहे हैं, उसको प्रथम पुरुष की शैली में लिखूं। संस्मरणों की यह कड़ी नियमित रूप से सोशल मीडिया पर भी साझा करता रहूंगा। निसंदेह आपके सुझाव/ सलाह मेरे को और अधिक बेहतर करने या लिखने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। ____ धन्यवाद।

न तुम जीते न हम हारे


टिप्पणी 

अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि मेडिकल छात्रा की हादसे में मौत के बाद उपजा आक्रोश और उसके बाद चले घटनाक्रम का पटाक्षेप इस तरह नाटकीय अंदाज में होना पहले से ही तय था। यह स्वीकारने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि जो कुछ जायज/ नायायज हुआ उसमें दोनों ही पक्षों की कहीं न कहीं ज्यादा या कम भागीदारी रही है। तभी तो समझौते की बुनियाद रखने में किसी तरह की कोई किन्तु-परन्तु नहीं हुई। थोड़ी सी मान-मनोव्वल और ना नुकर के बाद अंततोगत्वा सहमति की इबारत तैयार हो गई। ना छात्र कानून हाथ में लेते और ना पुलिस बिना चेतावनी दिए लाठीवार करती तो शायद इस तरह के समझौते के आसार कम ही बनते। गलती के रूप में सामने आई दोनों ही पक्षों की कमजोर कड़ी ने इस सुलह में प्रमुख एवं कारगर भूमिका निभाई। खैर, जिस तरह के हालात पैदा कर दिए गए उसका सबसे मुफीद रास्ता इस सुलह के अलावा और कोई था भी नहीं। रेजीडेंट की चेतावनी अगर धरातल पर उतरती तो हालात और भी विकट हो जाते।
वैसे विरोध के तरीके और भी कई हो सकते हैं लेकिन रेजीडेंट को सबसे कारगर एवं जल्दी मांग मनवाने का शोर्टकट व सबसे बड़ा हथियार अक्सर हड़ताल ही नजर आता है। यह तो गनीमत रही कि बात हड़ताल तक नहीं पहुंची। अगर बात बढ़ती तो फिर पुलिस व मेडिकल छात्रों की इस लड़ाई की गाज आम जनता पर ही गिरना तय था। समझौते को लेकर भले ही दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करंे या उसके अर्थ निकालें लेकिन इसका बड़ा फायदा आम जन को ही मिला है। हां, इतना जरूर है कि इस समूचे घटनाक्रम और समझौते ने आम जन के जेहन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं जो कई दिनों तक सालते रहेंगे। मसलन, सहानुभूति की लहर पर सवार होकर जिस न्याय की उम्मीद की जा रही थी क्या वास्तव में वह न्याय उस छात्रा को मिला? जिन मांगों को लेकर आंदोलन किया क्या वे मुकाम तक पहुंची? क्या छात्रों के शरीर पर बने जख्मों के लिए यह समझौता कोई राहत या मलहम का काम कर पाएगा? शांतिभंग के आरोप में मेडिकल छात्रों के साथ गिरफ्तार किए बाकी छात्र कौन थे तथा उनको किस किए की सजा मिली, क्या इसका खुलासा कभी हो पाएगा? जो तोडफ़ोड़ हुई क्या इस समझौते से उसकी भरपाई हो पाएगी? दोनों पक्ष में किसी एक की भूमिका भी अगर सही होती तो क्या समझौते की राह इतनी जल्दी आसान हो पाती?
बहरहाल, उक्त सवाल भले ही अनुत्तरित रहे लेकिन इसमें किस पक्ष को कितनी राहत मिली यह तय करना भी मुश्किल है। हां, इतना जरूर है कि अगर जीत है तो भी दोनों पक्षों की है और हार भी है तो भी दोनों की। बिलकुल तुम्हारी भी जय-जय, हमारी जय-जय, ना तुम जीते ना हम हारे की तर्ज पर। उम्मीद की जानी चाहिए दोनों ही पक्ष इस घटनाक्रम से सबक जरूर लेंगे। एक नजीर के रूप में इसको आत्मसात करेंगे। क्योंकि जोर आजमाइश एवं शक्ति प्रदर्शन के रूप में तब्दील होते-होते बचा यह मामला अगर और आगे तक जाता है तो निंसदेह दोनों ही पक्षों की छवि को नुकसान जरूर पहुंचाता।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 29 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित 

अक्षम्य लापरवाही

 टिप्पणी 

इन दिनों बीकानेर के जागरूक एवं सेवाभावियों के जेहन में कुछ सहज एवं स्वाभाविक सवाल जरूर उठ रहे होंगे। मसलन, देश के लिए हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग करने वाले क्या किसी क्षेत्र विशेष के होते हैं? क्या उनको किसी धर्म या सम्प्रदाय से जोड़ा जा सकता है? या उनके सम्मान में किसी तरह का भेदभाव किया जा सकता है? यकीनन इन तीनों सवालों का एक ही जवाब, नहीं ही होगा लेकिन बीकानेर के संदर्भ में देखें तो इन सवालों के मायने बदल जाते हैं। स्वाधीनता दिवस पर जब प्रशासनिक अधिकारियों के दफ्तर जगमगा रहे थे तो दो शहीद स्मारक अंधेरे में डूबे थे। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है कि शहर के प्रमुख मार्गों पर स्थित इन शहीद स्मारकों पर किसी अधिकारी या अन्य की नजर नहीं पड़ी होगी। हद तो तब हो गई जब अधिकारी जिम्मेदारी एक दूसरे पर डाल कर खुद को पाक दामन साबित करने लगे। मामला बढ़ा तो न केवल कुछ उत्साही युवा आगे आए बल्कि पूर्व सैनिकों ने पहल करते हुए प्रशासन को आईना दिखाने का काम किया। आखिरकार प्रशासनिक अमला हरकत में जरूर आया लेकिन अभी भी एक शहीद स्मारक पर अंधेरा पसरा हुआ है। संभाग एवं जिले भर की प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करने वाले अधिकारी जब सप्ताह भर बीतने के बाद व्यवस्था में कोई सुधार नहीं करवा पाते हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं। प्रशासनिक उदासीनता का दंश झेल रहा यह मामला अधिकारियों की कार्यप्रणाली को कठघरे में खड़ा तो करता ही है, वतन पर प्राण न्यौछावर करने वालों के प्रति इस तरह के रूखे एवं सौतेले व्यवहार को उजागर भी करता है। शहीदों को नजरअंदाज करने वाले जिले के जिम्मेदार अधिकारी क्या उस मां का दर्द समझ पाएंगे, जिसने अपने लख्तेजिगर को सीमा पर देशसेवा के लिए हंसते-हसंते भेज दिया। क्या वे उस पिता की पीड़ा भांप पाएंगे, जिसने बुढ़ापे की लाठी से बड़ा काम देश सेवा को समझा। क्या वे उस वीरांगना की विरह वेदना जान पाएंगे, जिसने देश के खुशहाल भविष्य के लिए अपने वर्तमान से समझौता कर लिया। क्या वे उस बहन की मनोस्थिति समझेंगे, जिसने भाई से खुद की सुरक्षा के संकल्प लेने की बजाय देश की सुरक्षा को जरूरी समझा। क्या वे उन बच्चों की हसरतों को समझ पाएंगे, जिनके सिर से पिता का साया उठ गया। इतना ख्याल अगर इन अधिकारियों को होता तो शायद वे इस तरह की लापरवाही नहीं करते और ना ही जिम्मेदारी एक दूसरे पर मंढऩे का उपक्रम करते। देश सेवा को सर्वोपरि समझने वालों के प्रति ऐसा रवैया न केवल अफसोसजनक बल्कि शर्मनाक भी है।
बहरहाल, ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए नए सिरे से सोचने की जरूरत है। सरहदी जिला होने के नाते वैसे भी सेना व शहीदों के प्रति सम्मान तथा विश्वास बेहद जरूरी है। यह न केवल अधिकारियों बल्कि आम लोगों को भी समझना होगा कि अपने घर-परिवार से दूर सीमा पर तैनात जवान दिन रात चौकसी इसीलिए करते हैं ताकि हम चैन से सो सकें। ऐसे में उनके मान-सम्मान को बनाए रखना हमारा फर्ज है। उम्मीद की जानी चाहिए जो अव्यवस्थाएं शहीद स्मारकों के इर्द-गिर्द हैं वह तत्काल दूर होंगी तथा इस प्रकार की अक्षम्य लापरवाही भविष्य में फिर कभी नहीं होगी। शहीदों के योगदान को याद कर उससे प्रेरणा लेना ही तो उनको सच्ची श्रद्धांजलि है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 22 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित 

मजबूरी

मेरी 11वीं कहानी

वह बहुत अच्छा लिखता था। इतना अच्छा कि कइयों को उसकी लेखनी से रस्क होने लगा था। लेकिन उसके समक्ष सबसे बड़ा संकट यही था कि उसको कोई प्लेटफार्म नहीं मिल रहा था। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होता था लेकिन उसके बदले मिलने वाला मानदेय ऊंट के मुंह में जीरे के समान था। उससे गृहस्थी की गाड़ी चलना बड़ा मुश्किल काम था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। बचपन का दोस्त एक दिन अचानक बाजार में मिल गया। दुआ-सलाम होने के बाद जब परेशानी बयां की तो मित्र ने मुस्कुराते हुए कहा, काम तो मिल जाएगा लेकिन नींव का पत्थर बनना पड़ेगा। नींव का पत्थर मतलब? उसने जिज्ञासावश पूछ लिया तो मित्र कहने लगा, कुछ नहीं, बस लिखोगे तुम लेकिन नाम दूसरे का होगा। इतना सुनते ही उसकों पैरों के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी। यही तो एकमात्र थाती थी उसकी और पहचान भी। अचानक आंखों के सामने जवान होती बहनों एवं परिवार की जिम्मेदारियों का अक्स घूमने लगा। मजबूरी के आगे सब सपने चकनाचूर हो गए थे। मित्र की सलाह पर उसने तत्काल हां कर दी। तब से वह गुमनामी के भंवर में लिखने लगा और दूसरे लोग उसके लेखन पर अपना लेबल लगाकर बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो गए। बदले में मिलने वाले मानदेय से अब उसकी गृहस्थी की गाडी भी ठीक ठाक चलने लगी थी।

पुरस्कार मिला

दरअसल, दोपहर बाद करीब पौने चार बजे जब ऑफिस आया था उस वक्त पता नहीं था आज कोई मैच भी है। वह तो प्रसार विभाग के साथी चंद्रशेखर तिवाड़ी ने आने के बाद बताया कि राजस्थान पत्रिका स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में आज हॉकर्स यूनियन एवं विज्ञापन एजेंसी व प्रबंधन की टीमों के बीच क्रिकेट मैत्री मैच प्रस्तावित है। आपका आना अति जरूरी है। कुछ जरूरी काम निबटाने के बाद मैं सार्दुल स्पोट्र्स स्कूल पहुंचा। मैच शुरू हो चुका था। हॉकर्स यूनियन की टीम बल्लेबाजी जबकि विज्ञापन एजेंसी व प्रबंधन की टीम क्षेत्ररक्षण कर रही थी। थोड़ी देर दर्शक दीर्घा में बैठा। अचानक कुछ हॉकर्स साथियों ने बड़ी जिद की कि आपको तो हमारे साथ खेलना ही पड़ेगा। आखिरकार उनके आग्रह को स्वीकार करते हुए मैदान में उतरा। जिस टीम में शामिल किया गया वह क्षेत्ररक्षण में जुटी थी। लिहाजा मैं भी अपने पसंदीदा स्थान फारवर्ड शार्ट लेग पर जाकर तैनात हो गया। तीन ओवर गेंदबाजी भी की। विकेट एक ही मिला लेकिन सबसे किफायती रही लेकिन बाकी गेंदबाजों ने हाथ खोल कर रन दिए। एक-एक ओवर में तीस-तीस रन तक लुटा दिए। गेंदबाजी के बाद में कुछ वक्त विकेटों की पीछे कीपर की भूमिका भी निभाई। मैच की जब एक पारी पूरी हुई तो हॉकर्स यूनियन का स्कोर सोलह ओवर में डेढ़ सौ के पार था। उम्मीद थी कि जीत जाएंगे लेकिन हॉकर्स यूनियन के प्रतिदिन खेलने वाले युवाओं ने शानदार गेंदबाजी की। जिसके चलते हमारी टीम के बल्लेबाज कुछ खास कमाल नहीं कर सके। लगभग पूरी टीम आया राम गयाराम की तर्ज पर वापस लौट गई। हमारी टीम 16 ओवर में मात्र 70 रन ही बना पाई। इसमें 36 रनों का योगदान मेरा भी था। काफी दिनों के बाद खेलने से बदन थकान से दोहरा हो गया था। पुरस्कार चूंकि विजेता और उपविजेता दोनों को मिले थे लिहाजा अपुन का नंबर भी आ गया। शाखा प्रबंधक श्री राकेश जी गांधी एवं सार्दुल स्पोट्र्स स्कूल के खेल प्रभारी श्री रणजीताराम जी बिश्नोई के हाथों पुरस्कार भी मिला।

जय हिन्द

भारतीय सेना में शामिल होने की हसरत शुरू से रही है। बचपन में पिताजी से कहानियां नहीं बल्कि 1965 व 1971 के युद्धों का वर्णन ही सुनता था। यही कारण रहा कि पिताजी के संस्मरणों ने अनुशासन, देश प्रेम और देशभक्ति के संस्कारों को और अधिक पुष्ट किया। सेना में शामिल होने के लिए कुल जमा दो प्रयास किए लेकिन काम नहीं बना। भले ही सेना में चयन नहीं हुआ लेकिन आज भी सेना के किस्से, सेना की बहादुरी, सेना का जोश तो रोम-रोम में समाया है। तभी तो भारतीय सेना का किसी भी तरह का कोई कार्यक्रम होता है तो खुद को रोक नहीं पाता। पता नहीं क्यों सेना का हर जवान मेरे को अपना सा लगता है। उनके बीच जाकर जो अनुभूति होती है उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। मंगलवार को भारतीय सेना की बीकानेर में दो दिवसीय युद्ध उपकरणों की प्रदर्शनी शुरू हुई। प्रदर्शनी का मकसद प्रमुख रूप से युवाओं को भारतीय सेना के गौरव से अवगत कराना और उनको सेना में जाने के लिए प्रेरित करना ही है। टैंक, तोप, राइफल, मोटार्र, वायरलैस सेट, राडार आदि को करीब से देखा, हालांकि इन सबके नाम पिताजी से कई बार सुन चुका। खैर, प्रदर्शनी देखना मेरे लिए यादगार रहा। सैनिकों से बात कर और उनसे उपकरणों के संबंध में जानकारी हासिल कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मां भारती के सपूतों को मेरा शत-शत सलाम। जिनकी बदौलत हमारी सीमाएं महफूज हैं। 

सूरत क्यों नहीं बदल रही?

टिप्पणी 

लगता है बीकानेर की समस्याएं भी मौसम की तरह हो गई हैं। बदलते मौसम के साथ बदल जाती हैं। मतलब बदलवा दी जाती हैं या थोप दी जाती हैं। भले ही समस्या का हल ना हो या फिर समस्या के निराकरण का कोई उचित आश्वासन भी नहीं मिला हो। हालात ऐसे हैं कि किसी प्रमुख समस्या का मसला यकायक ही गौण हो जाता है तो अकस्मात ही कोई नया मुद्दा मुखर हो उठता है। यह बात दीगर है कि कुछ समस्याएं परिस्थितिजन्य होती हैं, कुछ व्यवस्थागत तो कुछ स्थायी। लेकिन इससे उन लोगों को कोई सरोकार नहीं है जो जनहित का मुद्दा प्रचारित कर सिर्फ खुद का चेहरा चमकाने की जुगत में रहते हैं। कई उदाहरण तो ऐसे भी सामने आए जिनमें एकसूत्री मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही रहा, भले ही सूरत ना बदले। समस्या के समाधान की बजाय चर्चा में बने रहने के तरीके खोजने पर ध्यान ज्यादा दिया गया। यह आरोप इसलिए क्योंकि ईमानदारी से समस्याओं के लिए संगठित रूप से कोई आवाज उठती तो क्या बीकानेर के हालात ऐसे होते? क्या कोई मसला मुकाम तक पहुंचने से पहले ही खत्म हो जाता? और जब समस्या इतनी गंभीर है व जन-जन से जुड़ी है तो फिर प्रदर्शनों से आम जन दूर क्यों हैं? शायद इसलिए कि आम लोगों को इन प्रदर्शनों की हकीकत तथा इनके पर्दे के पीछे का सच समझ में आ गया है? इस तरह के सवाल बीकानेर में बहुत से हैं।
वैसे, शहर में समस्याओं की फेहरिस्त लम्बी है। फर्श से लेकर अर्श तक की समस्याएं। हर तरह की समस्याएं। आम से लेकर खास तक की। सड़क, बिजली, पानी से लेकर यातायात व हवाई सेवा तक की। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की। सीवरेज से लेकर डे्रनेज तक की। रेल फाटकों से लेकर अतिक्रमण व अवैध कब्जों तक की। बिजली चोरी से लेकर कमीशनखोरी तक की। अनियमितता से लेकर भ्रष्टाचार तक की। आवारा पशुओं से लेेकर गंदगी तक की। और भी न जाने कितनी ही समस्याएं। अनगिनत समस्याओं का अंबार लगा है यहां। दरअसल, इतनी समस्याएं हैं कि कथित समाधान करवाने वालों को विकल्प चुनने में कभी कोई दिक्कत नहीं होती। कभी यह तो कभी वो की तर्ज पर प्रदर्शनों की रूपरेखा तय होती रहती है। मौके की नजाकत देखते हुए सबसे प्रासंगिक मसले को न केवल हाथ में लिया जाता है अपितु भुनाया भी जाता है और फिर चुपके से दरकिनार भी कर दिया जाता है। विडम्बना देखिए, एक ही मसले पर सबका अलग-अलग दृष्टिकोण होता है और समाधान के तरीके भी दीगर। तभी तो ध्यान समस्या के समाधान की बजाय खुद को जन हितैषी बताने की कवायद पर ज्यादा रहता है।
बहरहाल, समस्याओं के समाधान के लिए लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन होते रहने चाहिए। इन आंदोलनों एवं प्रदर्शनों के माध्यम से ही तो शासन-प्रशासन का ध्यान समस्या की तरफ जाता है और उनको कार्रवाई करने पर मजबूर करता है, लेकिन चिंता की बात तो यह है कि सब कुछ जानने के बाद भी आंखें मूंद ली जाती हैं या कार्रवाई नहीं होती। शायद इसलिए कि बीकानेर का नेतृत्व कमजोर है? या जो विपक्ष में होता है वह यहां प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाता? या फिर यहां के प्रदर्शनकारी शहर के बड़े मर्ज की नब्ज टटोलने में प्रभावी नहीं है? और सबसे बड़ा कारण लोगों की जरूरत से ज्यादा सहनशीलता।
खैर, अब भी अगर एकजुटता के साथ समस्या के समाधान के लिए आखिरी तक लडऩे की आदत नहीं अपनाई गई तो शायद ही शासन-प्रशासन के कानों पर जूं रेंगेंगी। इसलिए इस बात पर गंभीरता से विचार कर उसको आदत में लाने की जरूरत है अन्यथा हालात और भी भयावह होंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 05 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित