Friday, December 25, 2015

खुश रहना मेरे यार

स्मृति शेष
वह सामान्य सी कद काठी का नवयुवक, बेहद शर्मीला, डरता-सकुचाता सा मेरे पास आया और धीरे से बोला महेन्द्र जी आप ही हैं? मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया तो उसने हाथ जोड़ दिए। कहने लगा कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूं। संपादक जी ने मेरे को आपके पास भेजा है। युवक के चेहरे पर आए भावों को मैं भांप चुका था। मैंने उसे नजदीक बिठाया और परिचय पूछा। पत्रकारिता जगत में वह अलवर के लिए बिलकुल नया चेहरा था। न तो वह किसी को जानता था और ना ही कोई उसको। उसने खुद को मूलत: हरियाणा में रेवाड़ी के पास शायद बेवळ गांव का रहने वाला बताया। और कहा कि पिताजी दौसा में कॉलेज में पढ़ाते थे, इसलिए परिवार वहीं शिफ्ट हो गया था। बाद में पिताजी की मृत्यु हो गई लेकिन मां दौसा ही रहती है। पत्रकारिता के बारे में हालांकि उसे ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन उसकी जिज्ञासा एवं उत्सुकता के चलते मैंने उसको अपना शागिर्द बनाना तय कर लिया। पता नहीं क्यों मेरे को उससे सहानुभूति सी हो गई थी। हिन्दी उसकी सामान्य ही थी। कम्प्यूटर का ज्ञान भी नहीं था, फिर भी मैंने संपादकजी को आश्वस्त किया कि युवक में संभावनाएं छिपी हैं, मौका दिया जा सकता है। और मैंने मौका दे दिया। यहां तक कि मैंने चार खबरें खुद लिखकर उसके नाम से लगाई ताकि वह जल्द ही स्थायी रोजगार का भागीदार बन जाए लेकिन उसका मन बीच-बीच में उचाट हो जाता था। मेरे को भी कई बार लगा कि कहीं संपादकजी को आश्वस्त करके कोई आफत तो मोल नहीं ले ली।
यह घटनाक्रम करीब साढ़े ग्यारह साल पहले का है। आज दोपहर को तत्कालीन संपादक श्री आशीष जी व्यास का फोन आया था तो मैं चौंक गया। फोन रिसीव किया तो उन्होंने पूछा शेखावत, देवेन्द्र यादव की कोई खबर है क्या? मैंने कहा, सर दो साल से मैं उसके सम्पर्क में नहीं हूं, क्यों क्या हुआ सर। वो बोले उसकी गोवा में मृत्यु होने की खबर सुनी है। यह सब सुनकर मैं अवाक रह गया, विश्वास ही नहीं हुआ। मेरी आंखों के सामने यादव से परिचय का वो पहला वाकया घूम गया। सचमुच देवेन्द्र के साथ मेरी कई यादें जुड़ी हैं। वह कॅरियर को लेकर कभी एकदम गंभीर हो जाता तो कभी कभी बिलकुल बेफिक्र। मैंने उसको कई बार समझाया। मैंने उसका कॅरियर बनाने में किस तरह मदद की यह राज ही था और राज ही रहेगा। मैं उल्लेख करना भी उचित नहीं मानता। वह बिलकुल मेरे छोटे भाई की तरह था। न जाने कितनी ही बार मैंने उसको उसकी नादानियों पर माफ किया। लेकिन उसने भी पता नहीं नादानी करने की ही ठान रखी थी। आखिरी बार 2009 में अलवर गया तब मिला था। वह मेरे को लेने रोडवेज बस स्टैण्ड आया था। अपने घर लेकर गया। खाना खिलाया। देवेन्द्र का प्यारा सा बेटा आर्यन अपनी मस्ती में डूबा था। देवेन्द्र से फोन पर व फेसबुक पर अक्सर बातें होती थीं। उसे शेरो-शायरी का बहुत शौक था। फेसबुक पर अक्सर शेर ही पोस्ट करता था। छत्तीसगढ़ गया तब भी वह खूब मैसेज करता था। एक दिन रात को वह बहस करने लगा। मैं उसका व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित था। मैं वाकई चिंता में डूब गया कि आखिर देवेन्द्र को हुआ क्या है। मैंने उसको एहसास करवाने के लिए जानबूझकर दूरी बना ली थी। करीब छह माह बाद फिर उसने फोन किया। कहने लगा भाईसाहब, माफ कर दो। मैंने आपसे ठीक से बात नहीं की। मैं गलत संगत में चला गया था। अब मैं फिर से नई शुरुआत कर रहा हूं। आप कृपया माफ कर दो। मैंने कहा देवेन्द्र तुम मेरे लिए वैसे ही हो जैसे पहले थे। इसके बाद फिर बातें होने लगी। करीब दो साल पहले फिर उसका नाटकीय बर्ताव देखकर मैंने तय कर लिया कि इस बार बात नहीं करूंगा। हमारा अनबोलापन करीब दो साल से चल रहा था। मेरे को क्या पता था कि इस बार वह अपने भाईसाहब से अपने किए की माफी नहीं मांगेगा। नाराज ही चला जाएगा। सचमुच देवेन्द्र तुम रूला गए भाई। और हां मैं तुमसे नाराज नहीं हूं। ना तब था और ना अब। मैं यह सोचकर चुप था कि शायद तुम ठीक से काम करो। आज अलवर के साथी तुम्हारे इस तरह जाने से बेहद गमजदा हैं। मैंने देवेन्द्र की फेसबुक प्रोफाइल देखी। आखिरी पोस्ट दस सितम्बर की थी। एक शेर लिखा था.. इतनी सी बात समन्दर को खल गई, कागज की नाव मुझ पर कैसे चल गई। विधि का विधान देखिए सचमुच देवेन्द्र आज तुम्हारे साथ समन्दर का नाम भी जुड़ा है। तुम हमेशा याद आओगे भाई।

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