Friday, December 25, 2015

मेरी बात


सेना के प्रति श्रद्धा और सम्मान बचपन से ही रहा है, अब भी है। इसका प्रमुख व एकमात्र कारण परिवार के कई सदस्यों का भारतीय सेना से जुडाव ही रहा है। बचपन में पापा से कहानियों की जगह सुने गए युद्ध के संस्मरणों ने न केवल देशभक्ति की भावना को पुष्ट किया बल्कि वीरता व अनुशासन का पाठ सीखने में भी सहायक साबित हुए। साथ ही यह भी जाना कि स्वाभिमान व खुददारी के साथ की गई कठोर मेहनत को कैसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। वाकई पापा के कार्यकाल की यह कड़वी हकीकत रही है कि उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों एवं स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। सेवानिवृत्ति के समय साथियों की सलाह को पापाजी ने बड़ी ही साफगोई के साथ मानने से इनकार कर दिया था। सलाह थी कि अधिकारियों से कुछ आग्रह कर लिया जाए तो शायद वो पसीज जाएं और एक पद का प्रमोशन मिल जाए जबकि पापा इस बात पर जोर देते रहे कि जब सब कुछ ईमानदारी के साथ किया है। समूचा कार्यकाल अधिकारियों के सामने है तो फिर एक पद के लिए गिड़गिड़ाना कैसा? और सचमुच पापा ने किसी तरह का आग्रह या निवेदन नहीं किया। यही कारण रहा कि 23 साल दो माह सेना की सेवा करने तथा दो युद्धों में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद उनके हिस्से हवलदार जैसा पद ही आया। लेकिन पापा को इस बात का कभी कोई मलाल नहीं रहा। उन्होंने इस पद को भी बड़ी शिद्दत व गर्व के साथ जीया है। खैर, पापाजी के सेना से जुड़े संस्मरणों को शब्द देने का मानस तो बहुत पहले ही बना चुका था। बीच में कई बार प्रयास भी किए लेकिन अमलीजामा पहनाने में नाकाम रहा। चूंकि अब भारत-पाक के बीच 1965 में हुए युद्ध को पचास साल हो गए हैं। समूचे देश में युद्ध में हासिल की गई इस जीत का जश्न मनाया जा रहा है तो फिर इससे मुफीद मौका मेरे को और लगा भी नहीं। हो सकता है संस्मरणों के उतार-चढ़ाव पाठकीय नजर में अलंकारिक या अतिश्योक्तिपूर्ण लगे लेकिन यकीनन यह एक पूर्व सैनिक के द्वारा कहा गया सच एवं एक पत्रकार के द्वारा सुना गया सच का दस्तावेज ही होगा। भाव उनके होंगे और उनको शब्द देने का काम मेरा होगा। हालांकि पापा ने शुरुआत में यह कह भी दिया कि सच से उनके सम्पर्क में रहे तत्कालीन कुछ अधिकारियों की कथित वीरता बेनकाब भी हो सकती है और कुछ कड़वी हकीकत भी सामने आ सकती है। मेरे इस भरोसे के साथ कि आप तो जो हुआ है केवल वह बताते रहें, वो तैयार हो गए। एक बात और। मुझे ऐसा लगता है कि सेना में भर्ती होने के घटनाक्रम के बिना युद्ध के संस्मरण अधूरे से लगेंगे, लिहाजा शुरुआत भर्ती के समय के हालात और माहौल से करना ही उचित रहेगा। प्रयास यही है कि जैसा वो मेरे को बता रहे हैं, उसको प्रथम पुरुष की शैली में लिखूं। संस्मरणों की यह कड़ी नियमित रूप से सोशल मीडिया पर भी साझा करता रहूंगा। निसंदेह आपके सुझाव/ सलाह मेरे को और अधिक बेहतर करने या लिखने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। ____ धन्यवाद।

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