Saturday, March 10, 2018

हम दूध के जले हैं साहिब, शंका तो करेंगे ही

बस यूं ही
समाज के युवाओं की दशा व दिशा को लेकर कौन चिंतित नहीं होगा भला। होना भी चाहिए। आखिर कोई तो इस काम का बीड़ा उठाए। समाज का उत्थान करने तथा उसका हित करने के नाम पर वैसे तो कई संगठन बने हैं। कुछ असमय दम तोड़ गए तो कुछ चल भी रहे हैं। समाज का हित व उत्थान कैसा व कितना हुआ यह सबके सामने हैं। उन सामाजिक संगठनों ने किस तरह का काम किया? उनका मकसद क्या था? क्या वे इसमें सफल हुए या नहीं? इस तरह के हालात में क्या और संगठनों की जरूरत है? जैसे ज्वलंत सवालों पर चर्चा से पहले एक महत्वपूर्ण बात का जिक्र जरूरी है। दो रोज पहले ही समाज के कुछ चुनिंदा व जागरूक लोग, जिनमें अधिकतर सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं। कुछ मीडिया जगत के साथी भी थे। इन लोगों ने अपने-अपने विचार साझा किए। वक्ताओं ने विशेषकर समाज के युवाओं की भूमिका पर चिंता जाहिर करते हुए इसमें सुधार कैसे हो इस पर गहरा मंथन किया। सामूहिक चर्चा के बाद इस प्रकार के कार्यक्रम प्रदेश भर में करने का निर्णय किया गया। इन बैठकों के माध्यम से युवाओं को कॅरियर मार्गदर्शन के लिए सेमिनार व स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने का तय हुआ। इसके अलावा सरकारी स्किल डवलमेंट जैसे रोजगारोन्मुखी अवसरों की तरफ मोडऩे की बात भी कही गई। इन सबके अलावा सबसे बड़ी वह समझाइश होगी, जो इस मुहिम का मुख्य मकसद है। वह समझाइश है गैर जरूरी मुद्दों पर समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वालों को रोकना। इसी के साथ एक बात यह भी आई कि गलत को गलत कहने की जो आदत छूट गई है, उसको बदला जाए और हर गलत बात का कठोरता से प्रतिवाद किया जाए।
वैसे यह सब काम जितने कहने में आसान है, उतने हकीकत में है नहीं। बहुत मुश्किल व चुनौतीपूर्ण काम है यह। 
खैर, यह तो हुई नई मुहिम की बात। वैसे समाज के युवाओं के लिए कॅरियर मार्गदर्शन संबंधी सेमिनार पूर्व में होती रही हैं अभी भी कई जगह चल रही हैं। ऐसे में और सेमिनार होना निसंदेह फायदेमंद ही होगा, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। स्वरोजगार व कुरीति उन्मूलन की बातें तो तीस साल से लगातार सुन रहा हूं। हमेशा मुद्दा वही रहा लेकिन समय-समय पर मंच व कहने वाले बदलते गए। इन सब के बीच मुझे एक सवाल लगातार परेशान किए हुए है। वह सवाल है कि समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वाले वो कौन लोग हैं? क्या वो कोई विदेशी ताकतें हैं या किसी दूसरे समाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं?  आखिर वो भी तो समाज हितैषी बनकर ही अस्तित्व में आए थे। उनको समाज से इतना स्नेह मिला कि वो इतने बड़े हो गए कि बाद में टुकड़े-टुकड़े हो गए। एक ही नाम पर चार संगठन संचालित हो रहे हैं प्रदेश में और सब के अलग-अलग मुखिया हैं। इन मुखियाओं ने खुद का कद बड़ा करने के लिए खूब शक्ति प्रदर्शन किए। एक दूसरे को नीचा दिखाने में भी किसी ने कसर नहीं छोड़ी। समझदार व जागरूक लोग तब चुप्पी साधकर यह सब होते देख रहे थे। एक गैंगस्टर व फिल्म के बहाने तो शक्ति प्रदर्शन चरम तक पहुंच गया। मेरी नजर में दोनों ही मसले न्यायसंगत न तब थे न अब है। विशेष रूप से विरोध करने का तरीका तो कतई लोकतांत्रिक नहीं था। इतना कुछ होने के बावजूद इनका नाम समाज के समर्थन के बलबूते ही चमका। समझदार व शिक्षित लोगों तक को भी इनके समर्थन में गरियाते देखा। कई तो आज भी गरिया रहे हैं। इसमें कोई दोराय नहीं समाज हमेशा भावनाओं में बहा है। तत्काल विश्वास करने की आदत हमेशा भारी पड़ती रही है। और समय-समय पर समाज ने इसकी कीमत भी चुकाई है।
बड़ी विडम्बना यह भी है कि समाज की जाजम से राजनीति शुरू करने वाले जब मुकाम पा गए तो फिर समाज को भूल गए। तब वह सर्वसमाज के नेता बन गए। इसीलिए इस तरह के सामाजिक प्रकल्पों में राजनीति न घुसे तो ही अच्छा है। किसी राजनीतिक दल से जुड़ा व्यक्ति या राजनीति में भाग्य आजमाने वाला इन सामाजिक प्रकल्पों से जुड़ता है तो अतीत के जख्म हरे होने लगते हैं। आशंका बलवती होने लगती है। दूध का जला का आदमी छाछ फूंक-फूंक कर पीता है।  जल्दी से यकीन होता भी नहीं है।
बहरहाल, यह मुहिम अच्छी पहल है। बशर्ते यह बिना किसी स्वार्थ, हित व राजनीति के संचालित हो। कोई प्रभाव या दवाब इस पर कारगर न हो। भगवान न करे अगर यहां भी राजनीति घुसी तो फिर फूंकने के लिए छाछ भी नहीं बचेगी। कहा भी कहा गया है विष दे विश्वास न दे अर्थात विश्वासघात करने से अच्छा है जहर ही दे दिया जाए। सही को सही कहना भी भी आदत है और मैंने भी उसी परिपाटी का निर्वहन  किया है।

इक बंजारा गाए-22

नमकीन के पैकेट
सट्टे की दुकानों पर पिछले दिनों छिटपुट कार्रवाई करने के बाद खाकी इन दिनों खामोश है। इतना समय बीतने के बाद इस कारोबार से जुड़े लोग फिर उसी अंदाज में लौट आए हैं। हां इस बार कुछ अलग तरह की तैयारी जरूर करके आए हैं। कहने का आशय यह है कि पहले इन सट्टे की दुकानों पर एक टेबिल-कुर्सी के अलावा कोई सामान नहीं होता था। ऐसे में इस तरह की दुकानें जल्द ही शक के दायरे में आ जाती थी। बताते हैं कि किसी खाकी के व्यक्ति ने इन्हें एक सुझाव दिया है, जिससे दुकानें सट्टे की न लगकर हकीकत की दुकानें लगें। अब इन सट्टे की दुकानों पर नमकीन व चिप्स के पैकेट टंगे हुए दिखाई दे जाएंगे। यह अलग बात यह है कि इन पैकेट को न तो कोई खरीदता है और न ही यह लोग उसको बेचते हैं। बस जनता में इस बात का वहम बना रहे कि वाकई यह किसी गैरकानूनी काम की नहीं वरन हकीकत की दुकान है। फिलहाल यह आइडिया लगभग सभी ने सट्टे के दुकानदारों ने कॉपी कर रखा है।
विवाद के मायने
राजनीति के कई रंग होते हैं। शतरंज की बिसात की तरह इसमें भी शह और मात का खेल चलता रहता है। बात चाहे दो दलों की हो या फिर एक ही दल की लेकिन सभी की आपस में बने यह जरूरी नहीं होता है। हाल ही विवादों में रहे एक दल के धरने का पटाक्षेप तो किसी तरह से हो गया। विवाद का निबटारा जरूरी भी हो गया था, क्योंकि पार्टी के मुखिया का पड़ोसी जिले में दौरा था। ऐसे में पार्टी के अंदरूनी विवाद की खबर मुखिया की भौंहें तन सकती थी, लिहाजा किसी न किसी तरह से दोनों पक्षों को राजी कर लिया गया। क्योंकि जिस तरह अपने-अपने नेताओं के समर्थन में समाज के लोग लामबंद हो रहे थे, उससे पार्टी की चिंता बढ़ाना स्वाभाविक भी था। खैर, ताजा मामला है कि छोटी सी बात पर शुरू हुआ यह विवाद निबटा जरूर है लेकिन अब इसका श्रेय लेने का खेल शुरू हो गया है। हालांकि इस श्रेय का जनता में कोई लाभ मिलने से रहा, लेकिन पार्टी में जरूर पीठ थपथपाई जा सकती है। फिर भी श्रेय की जंग जारी है।
मुहरों का मिलना
श्रीगंगानगर के जिला कलक्ट्रेट में करीब दो माह पूर्व न्याय शाखा से मुहरें गायब होना काफी चर्चा में रहा था। जिस अंदाज में यह मुहरें गायब हुई थीं, उससे यह तो जाहिर हो गया था कि जरूर यह अंदरूनी लड़ाई है और इस काम को किसी विभाग के आदमी ने ही अंजाम दिया है। मामला पुलिस तक पहुंचा। जांच भी शुरू हुई। इसके बाद मामला एक तरह से ठंडा पड़ गया। मंगलवार को इस मामले में अचानक से मोड़ आया जब डेढ़ दर्जन मुहरों में से करीब दस मुहरें स्टोर में मिल गई। मुहरें गायब होने के बाद जिस अंदाज में मिली हैं, उससे शक की सुई और भी गहरा गई है। मुहरों को देखकर प्रतीत भी होता है कि इनको यहां फेंका गया है। खैर, अब चोर का पकड़ा जाना ज्यादा जरूरी हो गया है। उसने न केवल मौका देखकर इन मुहरों को इधर-उधर किया बल्कि मौका पाकर यहां फेंक भी गया। देखने की बात है कि पुलिस चोर तक कब पहुंचती है या पहुंच ही नहीं पाती है।
गाड़ी का गम
अपनी जेब से अगर एक रुपया भी कहीं गिर जाए तो एकबार तो उसका भी गम होता है लेकिन बात जब लाखों की हो तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ ऐसा ही हाल शहर में एक ब्लड बैंक चलाने वाले महाशय के साथ हो गया। लाखों रुपए की इनकी लग्जरी गाड़ी कोई धोखे से ले गया। मामला पुलिस तक पहुंचा है और पुलिस जांच में जुटी है। लोग बताते हैं कि किसी समय में ये महाशय एक छोटी सी प्राइवेट लैब पर नौकरी करते थे। वहां से पता नहीं कौनसे गुर सीखकर यह लाखों तक पहुंच गए। इसलिए गाड़ी जाने का दर्द तो होगा ही। वैसे जानकार बताते हैं कि खून के धंधे में भी मुनाफा कम नहीं होता है। शिविरों के माध्यम से आने वाले खून का लेखा जोखा कौन लेता है? ब्लड बैंक के खून के बदले खून भी लिया जाता है और पैसा भी। खैर, यह तो हुई जानकारों की बात, बहरहाल, गाड़ी वाले महाशय जी जरूर चिंता में डूबे हैं। बस किसी तरह से उनकी गाड़ी का पता लग जाए।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 8 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित

हुसैनीवाला के कारण चर्चा में आया आसफवाला

भौगोलिक बदलाव के कारण पाक के पास आया फाजिल्का
श्रीगंगानगर. फाजिल्का जिले का आसफवाला गांव भारत-पाक के बीच 1971 में हुए युद्ध मेंं शहीद सैनिकों के याद में बने स्मारक स्थल के लिए ना जाता है। लेकिन एक सवाल यहां आने वालों के मन में जरूर कौंधता है कि शहीद स्मारक आसफवाला में ही क्यों बना? इस सवाल का जवाब आसफवाला स्मारक के संबंध में प्रकाशित एक ब्रॉशर में मिलता है। ब्रॉशर में दी गई जानकारी के अनुसार देश के विभाजन के समय क्रांतिकारी भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव का हुसैनीवाला स्थित समाधि स्थल पाकिस्तान क्षेत्र में रह गया था। भारतवासियों की हुसैनीवाला को भारतीय क्षेत्र में जोडऩे की प्रबल इच्छा बन रही। इसी के दृष्टिगत 20वीं सदी के छठे दशक में भारत-पाक की सरकारों के बीच क्षेत्रीय हस्तांतरण के लिए स्वर्णसिंह-शेख समझौता हुआ। इस समझौते के तहत हुसैनीवाला क्षेत्र तो फिरोजपुर के साथ मिला दिया गया लेकिन इसके बदले में फाजिल्का के निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्र व सुलेमानकी हैड पाकिस्तान को दे दिए गए। इस भौगोलिक बदलाव के कारण अंतरराष्ट्रीय सीमा फाजिल्का के बिलकुल पास आ गई। इतना ही नहीं फाजिल्का सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्र तीन ओर से पाकिस्तान से घिर गए। इसका सैन्य दृष्टिकोण से पाकिस्तान को फायदा हुआ। पाकिस्तान ने 1965 व 1971 के युद्ध के दौरान इस क्षेत्र पर कब्जा करने दुस्साहस किया। लेकिन भारतीय सैनिकों के साहस के आगे उसकी एक नहीं चली। लेकिन इस भीषण युद्ध में काफी सैनिक शहीद हुए। इसी कारण आसफवाला में यह युद्ध स्मारक है। जानकार युद्ध में इतने शहीद होने के पीछे भौगोलिक बदलाव को बड़ा कारण मानते हैं। ब्रॉशर में तो यहां तक कहा गया है कि हुसैनीवाला का स्मारक लेने की एवज में देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ा और कालांतर में आसफवाला में एक ओर स्मारक का निर्माण हुआ तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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पत्रिका डॉट कॉम पर 07 मार्च 18 को प्रकाशित 

शहीदों की याद में यहां हर साल लगता है मेला

मैराथन दौड़ होती है प्रमुख आकर्षण का केन्द्र
श्रीगंगानगर. शहीदों की मजार पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा। कविता की पंक्तियां आसफवाला में बन युद्ध स्मारक तथा वहां पर हर साल लगने वाले शहीदी मेले पर सटीक बैठती है। भारत-पाक के बीच 1971 में हुए युद्ध में फाजिल्का सेक्टर में शहीद सैनिकों की याद में बनाए गए इस स्मारक का अनावरण 1972 में हुआ था। तब से हर साल यहां वीर सैनिकों की याद में शहीदी मेला तथा विजय दिवस कार्यक्रम जोश व उत्साह के साथ मनाया जाता है। चार दशक से अधिक समय से यहां देशभक्ति से ओतप्रोत तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। खास बात यह है कि फाजिल्का के जिला बनने क बाद स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवसों पर राजकीय कार्यक्रमों में ध्वजारोहण करने के लिए आने वाले पहले आसफवाला के स्मारक पर आकर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। इसके बाद ही सकरकारी कार्यक्रमों में शामिल होते हैं। शहीदी मेले तथा विजय दिवस पर यहां वरिष्ठ राजनेता, सैन्य अधिकारी, वरिष्ठ उच्च प्रशासिनक अधिकारी, सैनिक, गणमान्य लोग, शहीदों के परिजन तथा बड़ी संख्या में आम जन आते हैं। पिछले कुछ साल से वार्षिक विजल दिवस पर विद्यार्थियों की मैराथन दौड़ यहां खास आकर्षण और प्रेरणा का स्त्रोत बन चुकी है।
स्मारक परिसर में में निर्मित कम्युनिटी सेंटर में भारतीय सेना के अमोघ डिवीजन तथा शहीदों की समाधि कमेटी ने सीमावर्ती ग्रामीण लड़कियों के लिए एक कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर भी स्थापित किया है। इसका शुभारंभ 25 जुलाई 2012 को किया गया था। यह कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर ग्रामीण लड़कियेां के लिए उपयोगी साबित हो रही है। इसमें लड़कियों को कम्प्यूटर की मौलिक शिक्षा तथा ज्ञान नि:शुल्क दिया जा रहा है। पांच एकड़ के इस युद्ध स्मारक में प्राइमरी स्कूल व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी संचालित हो रहा है। खास बात तो यह है कि स्मारक प्रांगण में हरे-भरे पेड़ों तथा आकर्षक फूलों वाले सुंदर मैदान हैं। शहीद दृगपाल सिंह स्मृति पार्क में दर्शनीय स्थल हैं। विजय दिवस व शहीदी मेले से संबंधित कार्यक्रम इसी पार्क में होते हैं।

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पत्रिका डॉट कॉम पर 06 मार्च 18 को प्रकाशित 

यहां शहादत के किस्से जगाते हैं देशभक्ति का जज्बा

प्रेरक संग्रहालय में लगी हैं सभी शहीदों की तस्वीरें
श्रीगंगानगर. शहीदों की याद में आसफवाला बनाए गए युद्ध स्मारक (समाधि स्थल) के साथ-साथ और भी कई स्थान ऐसे हैं जो देशभक्ति का जज्बा जगाते हैं। युद्ध स्मारक में बना प्रेरक संग्रहालय इसका जीता जागता उदाहरण है। शहीदों की समाधि कमेटी का इस संग्रहालय को विकसित करने का सपना था। यह सपना था कि संग्रहालय को देखने वाले लोग शहीदों के बारे में जान सकें। उनकी शहादत के किस्से सुन सकें। कमेटी का यह सपना अब साकार होता दिखाई दे रहा है, क्योंकि संग्रहालय में जाने वालों को सारी जानकारी खुद-ब-खुद मिल जाती है। उनको किसी गाइड की जरूरत नहीं पड़ती। संग्रहालय में 1971 में भारत-पाक के बीच हुए युद्ध में फाजिल्का सेक्टर में शहीद होने वाले तमाम शहीदों के चित्र लगाए गए हैं। चित्रों के नीचे शहीदों से संबंधित विवरण भी दिया गया है। इतना ही नहीं युद्ध का विवरण तथा संग्रहालय से संबंधित जानकारी भी दीवारों पर चस्पा की गई। दुश्मन से युद्ध में जीते हुए टैंक, हथियार आदि के फोटो भी यहां लगे हैं। खास बात यह है कि यहां एक टेपरिकार्डर भी लगा रखा है जिस पर दिन भर शहादत के किस्से गूंजते हैं। यह किस्से यहां आने वालों के मन में देशभक्ति का जज्बा का जागते हैें। इस संग्रहालय की खास बात यह है कि यहां चार शहीदों की प्रतिमाएं भी लगी हैं। यहां आने वाले दर्शक इन प्रतिमाओं के समक्ष श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। चार प्रतिमाओं में दो 15 राजपूत रेजीमेंंट के जवानों की तथा 4 जाट रेजीमेंट के जवानों की है। 15 राजपूत रेजीमेंट के शहीद लांस नायक दृगपाल सिंह व मेजर ललित मोहन भाटिया तथा 4 जाट के मेजर नारायणसिंह व लांस हवलदार गंगाधर की प्रतिमा लगी हैं। दृगपाल को भारत सरकार की ओर से मरणोपरांत महावीर चक्र तथा भाटिया को वीर चक्र प्रदान किया गया था। इसी प्रकार मेजर नारायणसिंह व व गंगाधर को भी मरणोपंरात वीर चक्र प्रदान किया गया था। स्मारक स्थल पर बनाए गए स्मृति स्मारकों पर भी शहीदों के नामों का उल्लेख किया गया है। फाजिल्का सेक्टर में युद्ध में शामिल रेजीमेंट्स के अलग-अलग स्मृति स्मारक हैं, जिन पर सभी के नामों का विवरण दिया गया है। दर्शक इन पर भी श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

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पत्रिका डॉट कॉम पर 05 मार्च 18 को प्रकाशित 

जिम्मेदारी

लघुकथा
मैं सुबह आफिस के लिए घर से निकला ही था कि सामने सड़क पर कबाड़ के बोरों से भरे रिक्शे को गुजरते देखा। रिक्शे में बोरों के ऊपर दस-ग्यारह साल की मैले कुचेले व फटे कपड़ों में एक बालिका बैठी थी। रिक्शा चला रहे बालक का हाल भी कमोबेश बालिका जैसा ही था, हालांकि उम्र में वह उससे छोटा लग रहा था। वजन ज्यादा होने के कारण रिक्शे का संतुलन बिगड़ रहा था। वह सड़क पर लहराता हुआ चल रहा था। बालक बड़ी मुश्किल से खड़े हो होकर पैडल मार रहा था। उसकी हालात देखकर अनायास ही मेरे से निकला, अरे बेटे, तुमने तो सामान ज्यादा भर लिया। मेरी बात सुनकर बालक ने लंबी सांस छोड़ी और हल्का सा मुस्कुरा भर दिया, लेकिन रिक्शे पर बैठी वह बालिका बड़ी ही मासूमियत के साथ बोली, क्या करें अंकल मजबूरी है। उसका जवाब सुनकर मैं अवाक था। इतनी छोटी सी उम्र में उसने मजबूरी की परिभाषा समझ ली थी। जिम्मेदारी के बोझ ने उसका बचपन छिनकर असमय हीे समझदार जो बना दिया था।

पंजाब के सर्वश्रेष्ठ युद्ध स्मारकों में से है आसफवाला स्मारक

पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह ने किया था अनावरण 
श्रीगंगानगर. फाजिल्का जिले का आसफवाला वार मैमोरियल पंजाब के सर्वश्रेष्ठ 50 स्मारकों में शामिल है। इस स्मारक की शुरुआत छोटे से स्तर पर हुई लेकिन कालांतर में इसका विकास व विस्तार होता गया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में शहीद सैनिकों की सामूहिक अन्त्येष्टि के बाद फाजिल्का के लागों ने शहादत को चिर स्थायी बनाने के लिए यह स्मारक बनाने का निर्णय किया। इसके लिए वार मैमोरियल कमेटी का गठन किया गया। शुरुआत में 4 जाट रेजीमेंट के 82 जवानों की स्मृति में लगभग आधा एकड़ भूमि में शहीद के अंतिम संस्कार स्थल पर स्मारण निर्माण किया गया। इसमें क्षेत्रवासियों ने खूब सहयोग किया। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जो कि उस वक्त पंजाब के मुख्यमंत्री थे, ने इस स्मारक का 22 सितम्बर 1972 को अनावरण किया था। इसके बाद 1991 में स्मारक का दायरा विस्तृत करने का निर्णय किया गया। इसी के तहत 15 राजपूत व 3 असम रेजीमेंट के स्मृति स्तम्भ स्मारक परिसर में स्थापित किए गए। इसके बाद सीमा सुरक्षा बल तथा होमगार्ड के जवानों जिन्होंने इस युद्ध में शहादत दी थी कि स्मृति स्तंभ भी समाधि प्रांगण में बनाए गए। यही कारण रहा कि स्मारक अब पांच एकड़ भूमि के बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। आसफवाला स्मारक के विकास, सौंदर्यकरण तथा रखरखाव का कार्य शहीदों की समाधि कमेटी, भारतीय सेना व प्रशासन के संयुक्त प्रयास से हो रहा है। 2011 में यहां आए इनफैंटरी ब्रिगेड के तत्कालीन ब्रिगेडियर अरुल डेनिस ने इस स्मारक की प्रशंसा करते हुए कहा था कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण में आसफवाला का स्मारक श्रेष्ठ है। फिलहाल क्षेत्रवासियों की भावना है कि आसफवाला के स्मारक को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में मान्यता दी जाए।
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पत्रिका डॉट कॉम पर 03 मार्च 18 को प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-21

📌कमाल की एकजुटता
श्रीगंगानगर को अक्सर खामोश शहर कहा जाता है। यहां के लोग कभी विरोध जताने की पहल नहीं करते। इसी एकजुटता की कमी के कारण शहर बदहाल है। परंतु कोई मौका हो तो नेता कभी नहीं चूकते। शहर के जनप्रतिनिधियों का इस मामले में कोई जवाब नहीं है। वैचारिक मतभेद व अलग-अलग पार्टी होने के बावजूद उनकी आपस की समझ इतनी गजब की है वे जब चाहें एक जाजम पर बैठ जाते हैं। यह अलग बात है कि इस गजब की एकजुटता में फायदा जनता का न होकर जनप्रतिनिधियों का ही ज्यादा होता है। नगर परिषद तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां तो सर्वदलीय सरकार है। पक्ष-विपक्ष यहां सब एक हैं। इसी तरह एक युवक की मौत की संदिग्ध के बाद सभी दल एक साथ हो गए हैं। जनप्रतिनिधियों की इस एकजुटता पर लोग दबे स्वर में चुटकी लेने से भी नहंी चूक रहे। लोगों का कहना है कि काश बैठकों में लडऩे वाले तथा जनहित पर चुप्पी साधने वाले जनप्रतिनिधि इस तरह की एकजुटता कभी शहर के लिए भी दिखाएं तो कोई बात बने।
📌विशुद्ध राजनीति
मटका चौक स्कूल में प्रधानाचार्य व पीटीआई को एपीओ करने के बाद बुधवार को अचानक फिर से नया मोड़ आने से लगता है कि प्रकरण में कोई है, जो छात्राओं की आड़ लेकर पर्दे के पीछे खेल रहा है। छात्राओं का मोहरा बनाकर विभाग पर भरपूर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इससे यह तो जाहिर हो गया है कि इस मामले में राजनीति हो रही है और इस राजनीति की आड़ में भोली भाली छात्राओं को आगे किया जा रहा है। मार्च का माह वैसे भी महत्वपूर्ण होता है, लेकिन विवाद से नाता रखने वालों को इस बात की परवाह ही कहां है। गुरु का यह काम तो कतई नहीं होता है कि वह शिष्यों के भविष्य से खिलवाड़ करे। गुरु तो शिष्यों का भविष्य बनाता है न कि अपने हित के लिए उनको आगे करे। इस मामले में अभिभावकों को चुप्पी तोडऩी चाहिए। उनको तह तक जाना चाहिए कि आखिर छात्राओं के इस आक्रोश की वजह कोई दूसरी तो नहीं?
📌पैरवी की वजह
शहर के जनप्रतिनिधि अक्सर सस्ती लोकप्रियता के रास्ते खोजते रहते हैं। वह जायज है या नहीं, इससे उनको कोई सरोकार नहीं होता। बस किसी न किसी बहाने चर्चा में बने रहना चाहते हैं। अब शिव चौक से जिला अस्पताल के बीच सड़क सौन्दर्यीकरण का मामला ही देख लीजिए। यूआईटी इस छोटे से टुकड़े पर लाखों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन जिस उद्देश्य से कर रही है, वह अगर पूरा ही नहीं हो तो फिर इतना खर्चा करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। इस सड़क को न केवल चौड़ा करना प्रस्तावित है बल्कि जाली भी लगाई जानी है। जाली की बात से उन व्यापारियों की भौंहें तन गई हैं, जो बीच सड़क पर अतिक्रमण करके व्यापार कर रहे हैं। दबाव बनाने के लिए सभी व्यापारी एकजुट हुए और प्रस्तावित जाली लगाने का विरोध जताना शुरू किया। संकट में फंसे व्यापारियों की सहानुभूति बटोरने का इससे मुफीद मौका और होता भी क्या। लिहाजा शहर के एक नेताजी इनके समर्थन में कूद पड़े। देखना है अब ऊंट किस करवट बैठता है।
📌आश्वासनों की झड़ी
नेताओं के पास देने के लिए कुछ न कुछ होता ही है। भले ही वह आश्वासन ही क्यों न हो। छोटे से लेकर बड़े नेता सब अपनी हैसियत व योग्यता के हिसाब से आश्वासनों की रेवडिय़ा बांटते हैं। जो जनता को आश्वासन देकर प्रभावित कर ले वही पारंगत नेता माना जाता है। अब शहर में एक युवक की मौत के बाद हुई सभा में नेताओं ने जो-जो आश्वासन दिए उनका तो बस कहना ही क्या। ऐसे ही एक नेताजी जो सतारूढ़ पार्टी के हैं। इस बार विधानसभा चुनाव के लिए जीभ लपलपा रहे हैं। प्रेस नोट आदि भिजवाने के लिए दो चार चेले चपाटे भी पाल लिए हैं। इन नेताजी को आजकल जहां भी भीड़ दिखाई देती है, निसंकोच चले जाते हैं। भले ही उनकी पार्टी उस भीड़़ से दूरी ही बनाए। वैसे यह नेताजी कुछ खबरनवीसों के भी खास बने हुए हैं। तभी तो कल धानमंडी में मजदूरों की सभा के बाद इन नेताजी के प्रेस नोट जारी हो गए। समय के साथ नेताजी आश्वासन देना भी सीख गए हैं, जैसे कि उन्होंने कल दिए। गनीमत रही है चौतरफा दबाव से कार्रवाई हो गई और नेताजी की बात रह गई। वरना तो पोल खुलनी तय थी।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित..