Wednesday, January 15, 2014

बदलाव की बयार


टिप्पणी..

यकीनन यह बदलाव की बयार है। अपने हक के लिए उठ खड़े होने की। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की। यह एक शुरुआत है, अपनी बात बुलंद करने की, बुराई के खिलाफ बिगुल बजाने की। वाकई यह एक नई सुबह है, आधी दुनिया के जागने की, होश संभालने की। सचमुच यह एक सुखद पहल है, पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से उबर कर शर्म-शंका का पर्दा उतारने की, घर की दहलीज को लांघकर समाज को नई दिशा देने की। वास्तव में यह नजीर है, एक नए युग से कदमताल करने की। एक छोटी सी, लेकिन कारगर पहल है सोए हुए प्रशासन को जगाने की, उसे हरकत में लाने की। बदलाव का बीड़ा उठाने वाली ये महिलाएं बालोद एवं दुर्ग जिले के छोटे-छोटे गांवों की हैं। इन महिलाओं को इस बात का अहसास भली-भांति हो चुका था कि पुलिस-प्रशासन का मुंह ताकने या उनके यहां बार-बार गुहार लगाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला, क्योंकि ऐसा वे एक बार नहीं बार-बार कर चुकीं, लेकिन सुधार नहीं हुआ और न ही भविष्य में होने की कोई गुंजाइश दिखाई दे रही थी। आखिरकार उन्होंने ऐसा साहसिक एवं ऐतिहासिक कदम उठाया, जो पुलिस एवं प्रशासन को आइना दिखाता है। उनकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है। ग्रामीण महिलाओं की यह पहल समाज को सीख देती है। कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर में घुसपैठ कर चुकी शराब के खिलाफ महिलाओं का आंदोलन इसलिए भी अनूठा है, क्योंकि उन्होंने न केवल थानाप्रभारी से लेकर कलेक्ट्रेट का घेराव तक किया बल्कि खुद ही शराब जब्त करके व्यवस्था पर करारा तमाचा भी जड़ दिया। महिलाओं ने साबित कर दिया है कि अगर ठान लिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। एकजुटता से समस्या का सामना किया जाए, उसके खिलाफ आवाज उठाई जाए तो सफलता सुनिश्चित है।
भिलाई से सटे ढौर गांव से अवैध शराब के खिलाफ उठी आवाज अब मुखर हो रही है। रानीतराई के असोगा गांव के बाद बालोद जिले में तो महिलाओं ने कमाल ही कर दिखाया। महिलाओं की छोटी सी मुहिम अब मिसाल बन रही है। निसंदेह इस बदलाव के कालांतर में सुखद परिणाम आएंगे। वैसे भी आधी दुनिया की चुप्पी के चलते ही इस समस्या ने बड़े पैमाने पर पैर पसारे। अब जाग रही हैं तो यकीनन परिणाम प्रेरणादायी एवं सकारात्मक ही होंगे। जरूरत है कि यह उत्साह और जज्बा इसी तरह बना रहे।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-33 

 
खिड़की से हवा के थपेड़ों से हल्की सर्दी का अहसास होने लगा था। पसीने से गीली बनियान अभी सूखी नहीं थी। इस कारण भी सर्दी कुछ ज्यादा लग रही थी। मैंने तत्काल खिड़की गिराई और पुरी व उसके आसपास के क्षेत्रों के प्रसिद्ध स्थानों के बारे में पढऩे लगा। तीन दिन और दो रात पुरी में बिताने के बाद भी काफी कुछ देखने से छूट गया था। पुस्तक पढ़ी तो पता चला। पुरी में भगवान जगन्नाथ के मुख्य मंदिर के अलावा छोटे-बड़े सैकड़ों मंदिर हैं। इनमें एक लोकनाथ का मंदिर है जो पुरी में सबसे प्राचीन है। जिसमें शंकर भगवान श्री लोकनाथ जी के नाम से पूजित है। यह मंदिर श्री मंदिर से तीन किमी दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में है। हर साल शिव चतुर्दशी को यहां बड़ा मेला लगता है। कहा जाता है कि दशरथ सुत रामच्रद जी ने लंका जाते समय यहां शिव की पूजा की थी। पुरी के मंदिरों की फेहरिस्त वास्तव में बेहद लम्बी है
खैर, ज्यादा मलाल तो भुवनेश्वर के मंदिर ना देख पाने का था। यहां चार-पांच ऐतिहासिक मंदिर हैं तथा नंदन कानन चिडिय़ा घर है। मैं इन सबके के बारे में पढ़ ही रहा था कि पढ़ते-पढते कब आंख लगी पता ही नहीं चला। सुबह देखा तो हम छत्तीसगढ़ की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। बस अब इंतजार था तो बेसब्री से घर पहुंचने का..। आखिरकार ट्रेन भिलाई पहुंची और हम ऑटो करके घर पहुंचे थे। घर आते ही और कुछ नहीं सूझ रहा था सिवाय सोने के। स्मृति में मंदिर, सागर, कोर्णाक, चंद्रभागा की यादें रह-रहकर ताजा हो रही थीं।
बहरहाल, हमारा आनन-फानन में तय हुआ पुरी जाने का कार्यक्रम इतना यादगार एवं ऐतिहासिक होगा सोचा नहीं था। अब तो आलम यह है कि दुबारा कब वक्त मिले और फिर से जाने का कार्यक्रम बनाएं। वाकई पुरी दर्शनीय जगह है। वक्त मिले तो एक बार यहां पर जाकर आना चाहिए। बस थोड़ी सी अक्ल एवं समझदारी से काम लेंगे तो आपको ज्यादा रुपए खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। सावधानी और सतर्कता बरतने की भी जरूरत है। वैसे पुरी के दो मिजाज हैं। आधुनिक एवं परम्परावादी। यहां दोनों ही तरह के लोग हैं। आप किनसे प्रभावित हैं और वहां जाकर क्या करते हैं, यह आपके सोच पर निर्भर है। वैसे मैंने शुरू में भी कहा था कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ खाने से आती है। हमको भी अक्ल आ चुकी है। पुरी के बारे में काफी कुछ जान गया हूं। माहौल, व्यवस्था और लोगों के बारे में। वहां जाने वालों को बता सकता हूं कि आपको क्या करना है क्या नहीं। खैर, अति व्यस्तता के बावजूद देखो ना, प्रभु के आशीर्वाद से पुरी पर काफी कुछ लिख दिया है। अपने लेखन में मैंने भगवान के अस्तित्व पर या उनकी सत्ता पर किंचित मात्र भी अंगुली नहीं उठाई, जो लिखा वह केवल वहां की व्यवस्था पर है। प्रभु जग के नाथ हैं और रहेंगे लेकिन वहां बिचौलियों के कारण वे जग के ना होकर पैसों के नाथ हो गए हैं। अगर ऐसा कहना गलत है तो मैं एक बार फिर प्रभु के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमाप्रार्थी हूं। इसी के साथ एक बार फिर मेरे साथ मिलकर जयकारा लगाइए.. बोलिए.. जग के नाथ की... जय, प्रभु जगन्नाथ की जय। ..................इति।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-32 

 
वहीं स्टेशन पर एक गट्टे पर पसर गया। हल्की से झपकी लगी। काफी देर तक हम वहां बैठे रहे। इस बीच कैमरे से पुराने फोटो भी देखते रहे। आखिर चार बजे हम वहां से खड़े होकर लैगेज रूम आए, वहां से सामान लिया और स्टेशन पर ही रुक गए। डिसप्ले बोर्ड पर अभी यह नहीं बताया जा रहा था कि ट्रेन कौनसे प्लेटफार्म पर आएगी। शाम के भोजन के लिए चर्चा के बाद तय हुआ कि यहीं से पैक करवा लेते हैं। रास्ते में ट्रेन में ही भोजन कर लेंगे। इसके बाद गोपाल जी के दोनों बच्चे, उनकी धर्मपत्नी एवं मेरी धर्मपत्नी चारों जने रेलवे की केन्टीन की तरफ चल गए। पीछे मैं दोनों बच्चे एवं गोपाल जी रुक गए। उनको गए हुए करीब आधा घंटा हो गया था। इस बीच प्लेटफार्म नम्बर एवं ट्रेन के नाम की उद्घोषणा हो गई। डिसप्ले बोर्ड पर जानकारी आने लगी थी। घड़ी में 4.40 हो गए थे। ट्रेन छूटने में मात्र 25 मिनट शेष रहे थे लेकिन भोजन लेने गए लोगों का कोई अता-पता नहीं था। गोपाल जी ने कहा, बन्ना जी मैं उनको कैन्टीन की तरफ देखकर आता हूं। वो केन्टीन में गए और थोड़ी देर बाद वहीं से हाथ हिलाया तो मैं भी सोच में डूब गया कि अचानक यह लोग कहां चले गए। गोपाल जी तत्काल स्टेशन से बाहर दौड़े, इधर-उधर नजर मारने के बाद बदहवाश से मेरे पास आए बोले बन्ना जी, पता नहीं कहां चली गई, कहीं पर भी दिखाई नहीं दी। इसके बाद गोपाल जी दो तीन बार केन्टीन तक होकर आए लेकिन कुछ जानकारी नहीं मिल रही थी। मैंने गोपाल जी से कहा कि आज तो ट्रेन छूटना तय है। मात्र 15-20 मिनट की मुश्किल से शेष बचे थे। इसके बाद मैंने गोपाल जी को बच्चों के पास खड़ा किया और केन्टीन के तरफ दौड़ पड़ा। मैंने केन्टीन का कोना-कोना छान मारा लेकिन, वहां कोई हो तो दिखाई दे। इसके बाद मैं केन्टीन से गोपाल जी तरफ हाथ हिलाता हुआ निराश कदमों से आ ही रहा था कि मेरे को चारों लोग स्टेशन परिसर में अंदर प्रवेश करते हुए दिखाई दिए। इसके बाद मैं गुस्से में पूरी आवाज के साथ चिल्लाया। कहने लगा क्या मतलब है, यहां ट्रेन छूटनी वाली है और आप लोगों को परवाह ही नहीं है। इसके बाद गोपाल जी ने भी जोरदार आवाज में डांट लगाई, वे बेहद आग बबूला थे। सचमुच उनका इतना रौद्र रूप पहली बार देखा।
यकीन मानिए, स्टेशन पर उस वक्त सन्नाटा पसरा था। ट्रेन व प्लेटफार्म की घोषणा होने के कारण उससे संबंधित यात्री वहां से रवाना हो गए थे। बाकी बचे यात्री सुस्ता रहे थे। हमारा वार्तालाप सुनकर वे चौंक गए। सब हमको कौतुहल से देख रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म का क्लाइमेक्स सीन फिल्माया जा रहा है। वाकई यह हमारी पुरी यात्रा का क्लाइमेक्स ही था। इधर दोनों की धर्मपत्नियां बिलकुल निरूतर थी। तत्काल सबने सामान उठाया और दौड़ पड़े ट्रेन की तरफ, हांफते-हांफते । यहां सुस्ताने का मतलब किसी खतरे से खाली नहीं था। तेज चलने एवं भारी सामान होने के कारण पसीने से लथपथ हो चुका था। ट्रेन में सामान रखा, उस वक्त घड़ी पांच बजकर पांच मिनट दिखा रही थी। थोड़ी ही देर में ट्रेन में चलने लगी। हमने प्रभु जगन्नाथ का जोरदार जयकारा लगाया और अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए। ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी।... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-31

 
धर्मपत्नी मेरे को कुछ असहज एवं असामान्य सी दिखाई दी। पास आने पर मैंने वजह पूछी तो वह थोड़ी घबराई हुई सी थी। थोड़ा सामान्य होने के बाद कहने लगी... मेरे तो वहम हो गया..। उसने मेरे से हाथ से वह सामग्री वापस ले ली। मैंने कहा पूरी कहानी बताओ, तो कहने लगी कि मंदिर के अंदर एक पण्डे ने हाथ में कुछ सामग्री रखते हुए कहा था कि यह तेरे सुहाग से संबंधित है, तेरा सुहाग बना रहे, ला कुछ दक्षिणा दे दे। धर्मपत्नी ने बताया कि जब उसने पण्डे को दस रुपए देने चाहे तो वह नाराज हो गया और कहने लगा कि दस से बात नहीं बनेगी। धर्मपत्नी जब दस से आगे नहीं बढ़ी तो उसने हाथ में रखी सामग्री वापस ले ली। मैंने धर्मपत्नी को धीरज बंधाया और कहा कि यह सब तुम जैसे धर्मभीरू लोगों को डराकर, भयभीत करके राशि ऐंठने का बहाना है। तुम मस्त रहो, किसी प्रकार की चिंता मत करो। इसके बाद गोपाल जी के बड़े वाले सुपुत्र ने बताया कि अंकल मंदिर में एक पुजारी प्रसाद बांट रहा था। उसने प्रसाद यह सोचकर ले लिया कि किसी ने प्रसाद चढ़ाया है, इसलिए शेष प्रसाद वितरित किया जा रहा है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं था। बालक ने जैसे ही प्रसाद के लिए हाथ आगे बढ़ाया पुजारी ने प्रसाद का पैकेट हाथ पर रखते हुए उससे पैसे मांग लिए। बालक झट से समझ गया और पैकेट वापस पुजारी को थमा दिया। यहां से निकलने के बाद हमने दो और मंदिर देखे। ऑटो वाला दिलीप कहने लगा.. साहब बहुत देर हो रही है, थोड़ा जल्दी करो.। वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल रहा था। बातचीत में वह कुछ खुला तो बिलकुल दार्शनिक वाले अंदाज में कहने लगा, ऊपर वाला देखता है, तभी तो आपसे ज्यादा किराया नहीं लिया है। दूसरे ऑटो वाले आपसे तीन सौ या चार सौ रुपए ले लेते, लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा। दिलीप कह रहा था कि उसने अपनी माता का मुंह नहीं देखा, वह जन्म देते ही भगवान को प्यारी हो गई। इसलिए वह वाजिब किराया ही लेता है। आखिरी मंदिर में हम पहुंचे तो वहां से बंगाल की खाड़ी पास ही थी। एक बार फिर हम समुद्र की तरफ दौड़ पड़े। कुछ विदेशी सनबॉथ में व्यस्त थे। हम भी वहां कुछ देर खड़े रहे। कुछ फोटो खींचे। ऑटो वाले को जल्दी थी, इसलिए समुद्र को प्रणाम कर हम वहां से रवाना हुए। ऑटो वाले ने हमको रेलवे स्टेशन छोड़ दिया।
रेलवे स्टेशन परिसर में एक बोर्ड लगा है। उस पर एक तरफ हिन्दी में तो दूसरी तरफ उडिय़ा में लिखा गया है। उस पर लिखा था कि 1939 में गांधी जी पुरी से 29 किमी दूर देलांग आए थे। लेकिन उन्होंने जगन्नाथ मंदिर के दर्शन नहीं किए, क्योंकि यहां हरिजनों का प्रवेश वर्जित था। इतना ही नहीं गांधी जी ने कस्तूरबा गांधी और महादेव देसाई को मंदिर में दर्शन करने पर फटकार भी लगाई थी। मैं सोच में डूबा था कि आखिर यह ऐसी क्या उपलब्धि है, जिसको स्टेशन के सामने टांग कर रखा गया है। खैर, इसके लिए मैंने स्टेशन पर मंदिर कमेटी की और से स्थापित बुक स्टॉल से दो किताबें भी खरीदी लेकिन मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई। उस वक्त दो बजे थे और ट्रेन शाम 5.10 की थी। हम सभी लोग पहले तो बाहर चाय पीकर आए इसके बाद स्टेशन पर आकर बैठ गए। थकान से बदन दोहरा हो रहा था।.... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-30

 
वहीं मंदिर परिसर में एक वृद्ध महिला दिखाई दी, जो बर्तन को धोने में व्यस्त थी। आश्वर्य की बात यह थी कि सारे बर्तन पत्थरों के बने हुए थे।
इसके बाद ऑटो वाला, जिसका नाम दिलीप था, हमको गुंडिचा मंदिर ले गया.. । गुंडिचा मंदिर का दूसरा नाम जनकपुर भी है। यह श्री मंदिर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर उतर दिशा में है। मंदिर की लम्बाई 430 फीट है और चौड़ाई 320 फीट है। राजा इन्द्रद्युम्न की रानी गुंडिचा के नाम पर इस मंदिर का नाम गुंडिचा रखा गया है। श्री जगन्नाथ महाप्रभु की रथ यात्रा से बाहुड़ा यात्रा (वापसी यात्रा) तक श्री मंदिर को छोड़कर यहां आकर रहते हैं। वैसे इस मंदिर को महावेदी भी कहा जाता है। यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि यहां राजा इन्द्रद्युम्न ने वेदी बनाकर अश्वमेध यज्ञ किया था। यहां पांच सौ वर्षों तक आहुति देने के कारण इसे यज्ञ मंडप भी कहते हैं। विग्रहों का मूल जन्म स्थान होने के कारण इसे जनकपुरी या जन्मस्थान भी कहते हैं। बताते हैं कि इस जगह को जनकपुरी इसीलिए भी कहते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में राजा जनक ने हल जोतते समय सीता माता को प्राप्त किया था। इसके अलावा इसको नृसिंहक्षेत्र व आड़पमंदिर आदि भी कहा जाता है।
खैर, यहां भी टिकट कटाने के बाद ही अंदर जाने दिया जाता है। हमने चार टिकट खरीदी थी। काउंटर पर टिकट चैक करने वाला युवक अड़ गया, बोला बच्चों का भी टिकट लगता है। मैंने एवं गोपाल जी ने उससे बहस न करते बच्चों एवं धर्मपत्नियों को अंदर भेज दिया। फिर मन में ख्याल आने लगे कि दर्शन के लिए भी टिकट, मंदिर ना हुआ कोई सर्कस या फिल्म हो गई। खैर, अचानक मेरे को शरारत सूझी। मैंने गोपाल जी से कहा कि सामने यह जो बोर्ड टंगा है, इसकी एक फोटो ले लो। गोपाल जी ने जैसे ही क्लिक किया, वह युवक दौड़ कर हमारे पास आया, बोला यहा फोटो खींचना मना है। वैसे टिकट लेकर अंदर जाने वालों को कोई पूछ ही नहीं रहा था लेकिन हमसे वह चिढ़ा हुआ था, लिहाजा फोटो खींचने से मना कर रहा था। बोर्ड पर चार भाषाओं, हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला एवं उडिय़ा में दिशा- निर्देश लिखे थे। हिन्दी में लिखा था कि अंदर क्यामेरा ले जाना मना है लेकिन अंग्रेजी में इसका कहीं पर कोई उल्लेख नहीं था। हमारी बहस इसी बात को लेकर थी..। बहस बढ़ी तो दो युवक और आ गए। वो तीन और हम दो। मैंने उन दोनों से कहा कि आपको बीच में बोलने की जरूरत नहीं है, हमारी बात आपसे नहीं है। तो बोले.. हम सब स्टाफ सदस्य हैं। हमने कहा कि जब कैमरे के संबंध में कुछ लिखा ही नहीं है तो लोग क्यों बेवजह मामले को तूल दे रहे हो। इतने में एक युवक बोला, आपको उडिय़ा आता है क्या? मैंने असहमति में सिर हिलाया तो वह खुशी से उछल पड़ा और कहने लगा. आपको उडिय़ा नहीं आता है और हमको हिन्दी। हमारी उडिय़ा में लिखा है कि कैमरा ले जाना मना है। इस पर मैंने युवक से अंग्रेजी भाषा की तरफ ध्यान दिलाया तो कहने लगा कि हमको और किसी भाषा से मतलब नहीं है। हमको उडिय़ा आता है बस। हमारी युवकों के साथ बहसबाजी जारी थे कि इसी दौरान धर्मपत्नी एवं बच्चे बाहर आते दिखाई दिए। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-29

 
इस तालाब को उत्कल नरेश भानुदेव जी के मंत्री नरेन्द्र देव ने खुदवाया था। हर साल वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) से लेकर 21 दिन तक इस तालाब पर जगन्नाथ जी का चंदन यात्रा (जल विहार) उत्सव मनाया जाता है।
खैर, ऑटो वाले ने कहा कि जूते-चप्पल व सामान यहीं छोड़ जाओ और आप लोग दर्शन कर आओ। अजनबी आदमी पर यकायक भरोसा नहीं हुआ। तत्काल कैमरा निकाला और ऑटो के नम्बर प्लेट सहित फोटो खींच लिया। इसके बाद हम लोगों तालाब की तरफ बढ़े।
यह बहुत बड़ा तालाब है। लेकिन बदहाल है। पानी का भी लम्बे समय से जमाव होने के कारण उस पर काई जम चुकी है। तालाब के प्रवेश द्वार के बाहर भी एक तरफ कचरे का ढेर लगा था। पानी के अंदर टूटी-फूटी नाव खड़ी थी। पानी के बीचोबीच मंदिर बना हुआ है। वहां तक पहुंचने के लिए पुलनुमा बनाया हुआ है। हम सीढिय़ों से तालाब में उतरे। सीढियां उतरने के बाद सामने एक काउंटर था, जिस पर टिकट मिल रही थी। हम सीधे ही आगे बढ़े तो एक युवक चिल्लाया टिकट ले लो, टिकट, खैर टिकट लेने के बाद हम आगे बढ़े। युवक से पूछा काहे का मंदिर है, तो वह बोला बुआजी का। मैंने जिज्ञावश पूछा यह बुआजी कौन है तो युवक बोला, बुआजी को नहीं जानते.. अरे भैया, कुंती मैया का मंदिर है। वैसे मंदिर ज्यादा बड़ा नहीं है। अंदर घुसे तो वहां मौजूद पुजारी पूछ बैठे.. पूजन करोगे या प्रसाद लोगे। हम ने दर्शन किए और बाहर निकले तो वहीं बगल में दो छोटे-छोटे मंदिर और दिखाई दिए..। एक पर लड्डू गोपाल मंदिर लिखा था जबकि एक अन्य मंदिर था। मैं दर्शन करके टिकट चैक करने वाले युवक के पास आया और नाम पूछा तो उसने अपना नाम जगन्नाथ बताया। मैंने उससे मजाक में कहा कि पुरी में इतने मंदिर हैं.. ऐसे में यहां शायद ही कोई बेरोजगार होगा। भगवान के नाम पर कितने को रोजगार मिला हुआ है यहां। वह युवक मेरा बातें सुनकर मुस्कुराने लगा। पास से गुजर रहे एक सज्जन ने हमारा वार्तालाप सुन लिया.. बोले, पुरी के पण्डे आपको दूसरी जगह काम करते दिखाई नहीं देंगे.. क्योंकि प्रभु की कृपा से उनको पुरी में ही रोजगार मिला हुआ है।
यहां से हमको ऑटोवाला एक आश्रम की तरफ ले गया। उस पर लिखा था क्षीमंदिर। बेहद की शांत वातावरण था। मंदिर की शीतल छांव में थोड़ी देर बैठकर हम लोगों ने आराम किया। वहीं एक युगल बैठा था। दुनिया से बेखबर भविष्य की सपने बुनने में। मंदिर के शांत माहौल को बच्चों की मस्ती ने भंग कर रही थी। मंदिर में साफ शब्दों में लिखा था, यहां फोटो खींचना मना है। मंदिर के आगे ही एक पार्क था। काफी पेड़-पौधे लगे थे। यहां का नैसर्गिंक माहौल इतना अच्छा लगा कि बस यहीं पर सो जाए लेकिन अभी यात्रा जारी थी। यहां से सामने ही दूसरे मंदिर में गए। वहां समाधि बनी थी। यहां भी फोटोग्राफी वर्जित थी। बच्चों का शोर सुनकर एक वृद्ध संत अंदर से निकले और बच्चों को चुप रहने की नसीहत देने लगे। । दरअसल, उनको इस बात का अंदेशा था कि बच्चे कहीं अपनी मस्ती में समाधि स्थल तक ना चले जाएं। खैर, हमने समाधि के दर्शन किए। . ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-28

 
सुबह के 11 बजे का समय होगा लेकिन मंदिर की कहीं परछाई दिखाई नहीं दी, तो जेहन में वह आठ आश्चर्य वाली याद फिर जिंदा हो गई। मंदिर के शिखर पर लगी ध्वजा भी उसी दिशा में उड़ रही थी, जैसी पहले दिन देखी थी। शिखर पर लगे चक्र को भी बड़ी तल्लीनता, गंभीरता एवं गौर के साथ देखा.. वाकई उसको किधर से भी देखो वह सीधा ही दिखता है। वैसे मंदिर बहुत ही भव्य एवं विशाल है। श्री मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में गंग वंश के प्रतापी राजा अनंगभीम देव के द्वारा हुआ था। लभग 800 साल पुराना यह मंदिर कलिंग स्थापत्य कला और शिल्पकला का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर के पत्थरों पर की गई नक्काशी का तो कहना ही क्या..। इसकी ऊंचाई 214 फीट और इसका आकार पंचरथ जैसे है। इस मंदिर के चारों तरफ दीवारें हैं, जिसे मेघनाद प्राचीर कहते हैं। इसकी लम्बाई 660 फीट और ऊंचाई 20 फीट है। मंदिर के चार भाग हैं, विमान, जगमोहन, नाट्यमण्डप और भोगमण्डप। श्रीमंदिर में मुख्यत: तीन विग्रह हैं। बाएं से श्री बलभद्र जी, बीच में सुभद्रा मैया और दाहिनी ओर श्री जगन्नाथ जी। ये विग्रह नीम की लकड़ी के बने हैं। स्थानीय भाषा में लकड़ी को दारु कहते हैं। जिस साल मलमास या दो आषाद आते हैं, उसी साल नवकलेवर होता है। नवकलेवर का मतलब नए विग्रह बनाने से है। यह नवकलेवर 12 साल में अंतराल में होता है। वैसे पुरी की रथयात्रा विश्वभर में प्रसिद्ध है। जगन्नाथ की सारी यात्राओं में से रथयात्रा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह यात्रा आषाढ शुक्ल द्वितीय तिथि पर होती है। जगन्नाथ जी, बड़े भाई बलभ्रद जी, बहन सुभद्रा देवी के साथ सुसज्जित तीन रथों में बैठकर यात्रा श्री गुडिंचा मंदिर को जाती हैं। जगन्नाथ जी के रथ को नंदिघोष, बलभद्र जी के रथ को तालध्वज और सुभद्रा जी के रथ देवदलन कहा जाता है।
इसके अलावा मंदिर की रसोई भी भारत में काफी चर्चित है। रसोई आकर्षण केन्द्र इसीलिए भी क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर प्रसाद तैयार होता है। इस महाप्रसाद को तैयार करने में पांच सौ रसोइयों एवं तीन सौ सहायकों को जुटना पड़ता है।
हम मंदिर से बाहर निकले तो तीन-चार विदेशियों की टोली भगवा कपड़े पहने..हरे रामा हरे कृष्णा गाने में मगन थी। कोई हारमोनियम बजा रहा था तो कोई ढोलक पर थाप लगा रहा था। यह लोग मंदिर के आगे के मुख्य मार्ग पर प्रभु की आराधना कर रहे थे। लगा ही नहीं कि ये कोई विदेशी हैं। हम काफी देर तक उनको देखते रहे। गोपाल जी ने उनकी एक फोटो भी खींच ली। इसके बाद हम एक नारियल वाले के यहां रुके। सबने पानी पीया और इसके बाद एक ऑटो वाले के पास पहुंचे। उससे हमने पुरी के प्रमुख मंदिर दिखाने की बात की तो उसने ऑटो किराया 250 रुपए मांगे। हम तैयार हो गए। क्योंकि हमारी ट्रेन शाम को थी। बाकी बचे समय का हम सदुपयोग करना चाहते थे। ऑटो में सवार होकर हम पुरी भ्रमण पर निकल पड़े। सबसे पहले ऑटो वाला हमको नरेन्द्र तालाब लेकर पहुंचा। इसको चंदन तालाब भी कहते हैं। इस तालाब की लम्बाई 873 फीट और चौड़ाई 834 फीट है। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-27

 
तभी तो सड़क पर जगह-जगह पान की पीक थूकी हुई थी। एक तरह सड़क लाल हो रखी थी। ऐसे में हमको कदम बचा-बचाकर रखने पड़ रहे थे। मंदिर के आगे पहुंचकर जूते जमा करवाए और पानी के बीच से होकर मंदिर में प्रवेश किया। मोबाइल इस बार पर्स में रखे लेकिन सुरक्षाकर्मी ने जांच के नाम पर पकड़ लिया। पहले बच्चों की जेब में डाल रहे थे। ऐसा कर लेते तो शायद कोई चैक नहीं करता है। खैर, दुकान पर फिर वापस आए और मोबाइल जमा करवाने के बाद प्रवेश किया। इस बार भी हम लोगों ने मंदिर के बायीं ओर से प्रवेश किया। मंदिर परिसर के अंदर मुख्य मंदिर के अलावा छोटे-छोटे कई मंदिर हैं और उन सब में पण्डे बैठे थे। इन छोटे मंदिरों के बाहर भी पण्डे मंडरा रहे थे। जिज्ञासावश कोई इन छोटे मंदिरों को देखने के लिए रुका तो झट से पण्डा दौड़ कर आपके पास आएगा, कहेगा दर्शन करो.. दर्शन करो..। हम तो सब को अनसुना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। एक पूरा चक्कर लगाने के बाद हम मंदिर के दाहिनी तरफ आए। लम्बी लाइन लगी थी। लोग इतने सट के खड़े थे कि तिल भी डालो तो नीचे नहीं गिरे। लाइन के लिए वर्गीकरण नहीं किया गया था। मतलब महिला, पुरुष, बच्चे-बुजुर्ग सभी एक लाइन में लगे थे। इनके लिए अलग लाइन के लिए व्यवस्था करे भी तो कौन? सभी निशुल्क प्रवेश वाले जो होते हैं। इसलिए भीड़ में धक्के खाने की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी। भीड़ को देखकर धर्मपत्नी का धैर्य जवाब दे गया था। बोली मैं तो बच्चों को लेकर बाहर ही बैठी हूं, आप दर्शन कर आओ। खैर, हम लाइन में लगे। करीब बीस मिनट तक धकमपेल चलती रही और हम आगे बढ़ते रहे। आखिरकार हम मंदिर में प्रवेश कर गए। मैं और गोपाल जी एक दूसरे को ऐसे देख रहे थे, मानों हमने कोई तीर मार लिया हो। अंदर फिर एक लाइन थी। जगन्नाथ प्रभु को थोड़ा और नजदीक से देखने की। हमको तो वहीं से दर्शन हो गए। वहां भी एक पण्डे ने आकर आग्रह किया। बोला, एकदम नजदीक से दर्शन करा दूंगा, केवल बीस रुपए लूंगा। हम चुप्प थे। हमारा मूड भांपकर वह मुंह बनाता हुआ वहां से चला गया। दर्शन कर हम वापस लौटे तो मंदिर के दीवार पर पान की पीक थूकी हुई दिखाई दी।
बहुत बुरा लगा यह देखकर. मन ही मन बुदबुदाया, हे प्रभु तेरे ये भक्त कितने नासमझ हैं, जो ऐसा करते हैं। हम बाहर निकले तो एक पण्डा मोबाइल पर बतियाता हुआ दिखाई दिया। मन में फिर वही भाव आया.। भक्तों में भेदभाव का। आम आदमी के लिए मोबाइल की अनुमति नहीं है, लेकिन पण्डे ऐसा कर सकते हैं। मन में फिर सवालों का सैलाब उडऩा स्वाभाविक था। मन ही मन कहने लगा, प्रभु यह सब करने के लिए आपने तो नहीं होगा। यह व्यवस्था, यह छूट का प्रावधान किसने बनाया। ऐसा करो, ऐसा मत करो.. ऐसा तो आप नहीं कह सकते प्रभु। सवालों का मेरे पास कोई हल नहीं था। वे अबूझ पहेली हैं। मेरी लिए नहीं, उन सबके लिए जिनको यह व्यवस्था अखरती है। वैसे मंदिर की शिल्पकला कमाल की है। ऐसे में कोणार्क मंदिर की याद फिर याद गई। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-26

 
मौसम वाकई सर्द था, ऐसे में मेरी हिम्मत पानी में घुसने की नहीं हो रही थी। वैसे मेरे को फोटोग्राफी करने में ही आनंद आ रहा था। सूर्योदय होने ही वाला था, लेकिन इससे पहले ही बीच पर चहल-पहल बढ़ गई थी। हल्की सी कंपकंपी छूटने लगी थी। कभी कैमरे को जेब में डालकर दोनों हाथों को परस्पर रगडऩे का उपक्रम करता तो कभी तेजी से चहलकदमी। वैसे इतनी भी सर्दी नहीं थी कि सहन नहीं की जाए चूंकि मैं पानी में नहीं था, नहीं तो सर्दी नहीं लगती। बच्चे मस्ती करने में मशगूल थे। बादलों के बीच सूर्यदेव हल्के से झांके तो मैंने नजारा कैमरे में कैद कर लिया। वाकई समुद्र के किनारे सूर्योदय का नजारा बड़ा ही मनोहारी होता है। बच्चे और खेलना चाह रहे थे लेकिन वक्त इजाजत नहीं दे रहा था। मैंने जोर से आवाज लगाई तो छोटा बेटा एकलव्य बाहर आया। बाहर आते ही वह कांपने लगा था। वैसे नहाते-नहाते उसके होठ नीले हो चुके थे लेकिन वह लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था और सर्दी को बर्दाश्त करते हुए नहा रहा था। खैर, बाहर आते ही उसको गर्म कपड़ा ओढ़ाया और एक कप चाय पिलाई तो वह थोड़ा सामान्य हुआ। इसके बाद एक-एक करके सब बाहर आ गए और तत्काल होटल की तरफ दौड़े। होटल में सभी ने बारी-बारी से स्नान किया। तैयार होकर नीचे आए। होटल वाले का हिसाब किया और इसके बाद राजू से रेलवे स्टेशन छोडऩे के लिए कहा। वैसे तय कर लिया गया था कि सामान रेलवे के लैगेज रूम में जमा करवाकर दिन भर पुरी के शेष रहे मंदिरों के दर्शन करेंगे। स्टेशन पहुंचे तो राजू ने कहा कि उसका एक किराया आ गया है, सामान जमा करवा दो और फोन कर देना, वह लौट आएगा। हमने स्टेशन के लैगेज रूम में सामान जमा करवाया। वहां बताया गया कि सभी सामान के ताला होना चाहिए, तभी सामान जमा होगा। मैं तत्काल स्टेशन से एक दुकान से छोटे तीन ताले खरीद लाया। इसके बाद सामान की तरफ से निश्चिंत होकर हम केन्टीन पहुंचे। भर पेट नाश्ता करने के बाद स्टेशन से बाहर निकले।
अब हमने राजू को फोन करने के बजाय वहीं स्टेशन के आगे खड़े ऑटो वाले से जगन्नाथ मंदिर के पास छोडऩे के लिए कहा। उसने किराया पचास रुपए बताया तो हम चौंक गए। हमें राजू की शराफत पर संदेह होने लगा था। भोली सी सूरत बनाकर करीब दिन तीन वह हमारे साथ रहा था और उसने जैसा किराया मांगा वह दिया.. उसके बातचीत के अंदाज पर। खैर, यहां सबक यही मिला कि किसी की सूरत या बातचीत से प्रभावित हुए बिना दो तीन जगह और मोलभाव करने में कोई हर्ज नहीं है। हमने उसी ऑटो से पुरी शहर के सभी मंदिर दिखाने का किराया पूछा तो उसने 450 रुपए बताए। हमने उससे ज्यादा मोलभाव नहीं किया और मंदिर आ गए। वास्तव में किसी जगह की हकीकत देखनी हो तो दिन में ही जाना चाहिए। मंदिर के बाहर तो जो चौड़ा मार्ग है, इस पर कतार से दीन-हीन व निशक्त भिखारी बैठे थे। यह आलम सड़क के दोनों तरफ था। पुरी के पण्डे ही नहीं आम लोग भी पान खाने के शौकीन कुछ ज्यादा ही हैं। .... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-25

 
राजू को कह दिया था कि किसी भोजन की दुकान के पास ऑटो को रोक दे। शहर के बीचोबीच राजू ने ऑटो रोक दिया। इसके बाद हमने भोजन पैक करवाया और होटल के लिए रवाना हो गए। होटल पहुंचने के बाद राजू को अगले दिन सुबह रेलवे स्टेशन छोडऩे की कहकर हम अपने कमरों की तरफ बढ़ गए।
जेहन में अब भी चिलका ही घूम रही थी। वैसे चिलका भारत की सबसे बड़ी एवं विश्व की दूसरी बड़ी झील है। यह 70 किलोमीटर लम्बी और 30 किलोमीटर चौड़ी है। यह कुल 11 सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है। दरअसल चिलका समुद्र का ही हिस्सा है लेकिन महानदी के द्वारा लाई मिट्टी के कारण यह समुद्र से अलग हो गई है। चिलका में अनेक छोटे-छोटे द्वीप हैं, जो बेहद खूबसूरत है। चिलका मछली पकडऩे का भी बड़ा केन्द्र है। यहां मछलियों की करीब 225 प्रजातियां पाई जाती हैं। सर्दी के मौसम में यहां विदेशी पक्षी लाखों की संख्या में प्रवास करने आते हैं। थोड़ी सी जानकारी जुटाई तो पता चला कि चिलका के तट पर मछुआरों के करीब 145 गांव हैं। इन गांवों में लगभग ढाई लाख मछुआरे निवासरत हैं। सूर्योदय होने के साथ ही यहां हजारों की संख्या में मछुआरे चिलका में प्रवेश करते हैं। वैसे चिलका में हर साल रिकार्डतोड़ मछली उत्पादन होता है। बताया गया है कि चिलका
झील छोटी-बड़ी करीब 52 नदियों का जल अपने में समेटे हुए हैं। खास बात यह है कि चिलका मीठे पानी की झील है। समुद्र की तरफ वाला पानी जरूर नमकीन है।
इधर, होटल में भोजन करने के बाद सोने का उपक्रम करने लगे, चूंकि क्रिसमिस का दिन था, इसलिए बड़ी संख्या में पहुंचे पर्यटक न केवल हो हल्ला कर रहे थे बल्कि पटाखों एवं आतिशबाजी का लुत्फ भी उठा रहे थे। देर रात पटाखों का शोरगुल होता रहा लेकिन हम लोग थकान से इतने चूर थे कि कब आंख लगी पता ही नहीं चला। होटल वाले को रात को ही बोल दिया था कि चेक आउट सुबह आठ की बजाय साढ़े नौ बजे तक करेंगे। बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुआ था। खैर, सुबह फिर जल्दी उठकर पहले तो सारे बिखरे सामान व कपड़ों को व्यवस्थित किया। सिर्फ जरूरत वाले कपड़े ही ऊपर रखे, बाकी सामान व्यवस्थित करके जमा दिया ताकि लौटने पर होटल जल्दी से खाली किया जा सके। सामान जमाने के बाद हम होटल से निकले। बच्चे तो जैसे इंतजार में ही थे। दौड़ते हुए समुद्र तक पहुंचे और घुस गए पानी में। बादलवाही होने एवं हल्की हवा चलने के कारण पिछले दो दिनों के मुकाबले इस दिन कुछ ज्यादा सर्दी थे, लेकिन बच्चों के हौसले के आगे वह हार गई थी। धर्मपत्नी भी तैयारी के साथ गई थी लिहाजा वह भी लहरों से अठखेलियां करने लगी, हालांकि वह ज्यादा अंदर तक नहीं गई। इधर गोपाल जी, आज पूरे रंग में थे। अपनी धर्मपत्नी के साथ वे करीब तीस-फीट अंदर तक चले गए थे। मैं बाहर खड़ा उनको कैमरे में कैद करने की कोशिश कर रहा था कि लेकिन दूरी ज्यादा थी, लिहाजा जूम करके फोटो खींचने पड़े। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-24

 
पछतावा था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता है। उस काजू वाले को पता नहीं क्या-क्या उपमाए दी जा रही थी। कुछ बोलकर तो कुछ अंदर ही अंदर। वैसे अंदर ही अंदर कोसने वाली उपमाएं ज्यादा थीं, क्योंकि मामला ही ऐसा ही था कि हर किसी के साथ साझा भी नहीं किया जा सकता था। बच्चे और हम सब काजू खा रहे थे। इस दौरान बीच-बीच में चेहरों पर आती मुस्कान से समझा जा सकता था कि इसमें वास्तविकता ना होकर बनावटीपन ज्यादा है। खैर, नाव एक अन्य द्वीप की तरफ तेजी से बढ़ी जा रही थी। सूरज अस्त होने की तैयारी में था। मैंने दो चार नाव में बैठे-बैठे ही खींचे। किसी ने बताया कि चिलका के द्वीपों पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का नजारा बड़ा मनोहारी व रमणीक होता है। नाविक ने नाव द्वीप के किनारे पर रोकते कहा कि चाय-पानी पी लीजिए.. यहां आधा घंटा रुकेंगे। हम नाव से उतरकर पास में बनी एक चाय की दुकान पर आए। बड़ों ने चाय पी तो बच्चों ने दूध के लिए स्वीकृति दी। आखिरकार उनको दूध दिलाया गया। चारों बच्चों ने दूध की बोतलों को चीयर्स वाले अंदाज में टकराया और लगे पीने। शायद बच्चों ने वहीं बगल में बैठे युवाओं के उस समूह को देख लिया था, जो बीयर पीने के साथ झींगा खा रहे थे। बताया गया कि चिलका में पाए जाने वाले झींगा बड़े स्वादिष्ट होते हैं। यह मैं दूसरे से सुनी हुई बता रहा हूं.. क्योंकि मैं शाहाकारी हूं, पिछले 14 साल से। खैर, चाय-पानी होने के बाद हम नाव की तरफ बढऩे लगे। सूरज लगभग अस्त हो चुका था। उसका रंग सुनहरे से अब सुर्ख गुलाबी हो चुका था। तट पर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। ऑटो वाला राजू वहीं खड़ा हमारा इंतजार कर रहा था। हम तेजी से ऑटो की तरफ बढ़े और तत्काल पुरी के लिए रवाना हो गए। वापसी में ग्रामीण क्षेत्रों में एक बात देखी.. बड़ी संख्या में लोग स्नान करने में व्यस्त थे। इनमें महिलाएं भी शामिल थी। शाम के समय स्नान को लेकर विचार आया शायद कृषक परिवार रहे होंगे...। दिन भर काम करने के बाद घर लौटे होंगे, इसलिए नहा रहे हैं। अपने तर्क से संतुष्ट न होकर फिर दुबारा सोचा शायद शाम को ग्रामीण क्षेत्रों में नहाने की कोई परम्परा होगी। लेकिन वास्तविक कारण क्या है नहीं जान पाया। वैसे छत्तीसगढ़ और ओडिशा में तालाबों पर महिलाओं एवं पुरुषों का सामूहिक स्नान आम बात है। इतना जरूर है कि महिलाओं एवं पुरुषों के लिए अलग-अलग स्थान तय हैं लेकिन नहाने व कपड़े धोने का काम तालाबों में ही होता है। तालाबों का यही पानी निस्तारी के लिए भी उपयोग किया जाता है। कहने का आशय है कि एक ही तालाब कई तरह की जरूरतों को पूरा कर देता है। चलते-चलते अंधेरा हो चुका था। वाहनों की रोशनी से आंखें चुंधिया रही थी। मेरी नजर किलोमीटर दर्शाने वाले पत्थरों पर लगी थी। हम जल्दी से जल्दी से पुरी पहुंचना चाह रहे थे। सुबह जल्दी निकले थे और दिन भर के सफर के कारण थककर हालत
खराब हो चली थी। आखिरकार रात के पौने नौ बजे हमने पुरी की सरहद में प्रवेश किया। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-23
 
झील में तैर रहे जरीकेन, कचरे आदि को मजाक में हम डॉलफिन कह कहकर आपस में एक दूसरे का मजा लेने में जुटे थे। आखिरकार हमारी नाव भी उन नावों के पास पहुंच गई। बताया गया कि यहां तो डॉलफिन शर्तिया दिखाई देगी। हम और सतर्क और एकाग्र होकर झील की तरफ आंखें फाडऩे लगे। अचानक पानी में थोड़ी सी हलचल हुई और डॉलफिन का मामूली सा हिस्सा नजर आया। हम सब चिल्लाए, दिख गई, वो रही। यह सब पलक झपकते ही हुआ। ऐसे में फोटो लेने की तो आप सोच ही नहीं सकते। हां वीडियो फिल्म बना रहे हैं तो जरूर कुछ हिस्सा दिख सकता है। हम फिर भी रुके रहे शायद डॉलफिन उछले लेकिन ऐसा नहीं हुआ। डॉलफिन की बेरुखी से यहां आने वाली की उम्मीद एवं उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। नाव वाले ने तीन चार गोल घेरे में चक्कर लगाए लेकिन बात नहीं बनी। बच्चों के चेहरों से उत्साह गायब हो गया। वे उदास, हताश व निराश हो चुके थे। दरअसल, यहां नौका विहार का आनंद वो लोग ही ले पाते हैं जो खाने-पीने का सारा कार्यक्रम नाव के अंदर ही करते हैं। मैंने बगल से गुजरती से कई नावों में यह नजारा देखा। कई तो ऐसे भी जो दुनिया से बेखबर होकर बेसुध सोए थे। कुछ लोगों के हाव-भाव एवं चेहरे यह चुगली कर रहे थे, कि जरूर वे, दूसरे पहलू या दूसरी दुनिया के सैर पर जाने का पूरा प्रबंध करके निकले हैं।
डॉलफिन की उम्मीदानुसार झलक ना पाकर सभी निराश थे। सूर्यदेव भी बड़ी तेजी के साथ छिपने को आतुर थे। अचानक खामोश टूटी और पछतावे से मिश्रित हंसी गूंजी। मैंने झील से ध्यान हटाकर देखा तो, गोपाल जी, एक काजू की थैली खोल रहे थे। कहने लगे, बन्ना जी, काफी देर हो गई कुछ टाइम पास ही कर लें। काजू देखकर मैं चौंका अरे.. आपने यह कब ले लिए..। कहने लगे जब हम कोर्णाक मंदिर से ऑटो की तरफ आ रहे थे तब आप आगे आ आए और हमने काजू खरीद लिए। मैंने सवालिया दृष्टि से धर्मपत्नी की तरफ देखा. शायद वह मेरा इशारा समझ गई थी। बिना कुछ कहे ही उसने सिर हिला दिया, जैसे उसने मेरी और मैंने उसकी भाषा समझ ली हो। अचानक एक साथ एक शब्द गूंजा.. धोखा.. मैंने कहा होना ही था। गोपाल जी, बोले बन्ना जी आज तो खरीददारी महंगी पड़ गई। काजू वाले ने धोखाधड़ी कर ली। अच्छे काजू दिखाकर खराब काजू दे दिए। उनका जवाब सुनकर मैं सिर्फ इतना ही कह पाया कि मैंने तो पहले ही मना किया था। खैर, काजू वाकई खराब थे। एक किलो के पैकेट में मुश्किल से कोई पावभर काजू ठीक होंगे, बाकी काले एवं छोटे-छोटे टुकड़ों में थे। हमारी धर्मपत्नी ने डेढ़ किलो ही लिए थे, लेकिन गोपाल जी ने तो बड़ी मात्रा में खरीद लिए थे। इसी चक्कर में खरीदे कि ओडिशा में काजू खूब होता है, इसलिए सस्ता मिलता है। इधर भिलाई में काजू पांच सौ रुपए प्रति किलो से ऊपर मिलता है लेकिन वहां उन्होंने इसको आधी कीमत पर खरीदा, नतीजा सबके सामने था। सब के मन में व लबों पर ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-22

 
वही प्रक्रिया दोहराई, लेकिन इस बार भी कुछ नहीं निकला। वह लगातार सीप के बारे में बताता जा रहा था। यही कि स्वाति नक्षत्र में बूंद जब सीप के अंदर जाती है तो वह मोती बन जाती है,लेकिन हर सीप में मोती मिलना संभव नहीं है। यह बहुत दुर्लभ चीज होती है। मोती दो तरह के होते हैं। एक चमकीला तो दूसरा काला। वह लगातार बोले ही जा रहा था, इस बीच उसका करतब भी जारी था। अचानक एक सीप को उसने तोड़ा और सीप के अंदर निकले गाढ़े पानी से मोती चमक उठा। उसने मोती दिखाया और इसके बाद नाव के लकड़ी के फट्टे पर रखकर एक दूसरा फट्टा उठाया और तीन-चार बार जोर से मारा। मोती का कुछ नहीं बिगड़ा, अलबत्ता लकड़ी के फट्टे पर निशान बन गया। वैसे फट्टे पर काफी निशान थे, जो यह बता रहे थे कि मोती का खेल यहां कई बार दिखाया जा चुका है। फट्टे से मोती उठाकर वह बोला.. जो मोती ओरिजनल होता है, वह टूटता नहीं है। यही उसकी पहचान होती है। इतना कुछ करने के बाद वह मुख्य मुद्दे पर आया.. कहने लगा कि बाहर शोरूम से यही मोती खरीदेंगे तो काफी महंगा पड़ेगा। यहां पर आपको काफी सस्ता पड़ जाएगा। दरअसल, पहले दो सीपों को तोड़कर उनको खाली दिखाना और इसके बाद यकायक एक सीप से मोती निकाल कर दिखा देना, उसकी कलाकारी थी। दिन में पांच-सात ग्राहक भी फंस गए तो मान लो उसने बड़ा मैदान मार लिया। करीब पन्द्रह मिनट के इस घटनाक्रम के बाद नाविक ने दुबारा जनेरटर स्टार्ट किया और नाव पूरी गति के साथ दौड़ा दी..।
इस बार हम डॉलफिन वाले क्षेत्र के लिए रवाना हुए थे। वैसे चिलका में विरल प्रजाति की इरावाड़ी डॉलफिन पाई जाती हैं। नाव तेजी से दौड़े जा रही थी। इतनी रफ्तार से कि हमारी नाव ने रास्ते में कई दूसरी नावों को ओवरटेक भी किया। करीब डेढ़ घंटे का सफर हो चुका था। हर तरफ पानी ही पानी और नाव ही नाव। सभी की उत्सुकता डॉलफिन देखने में ही थी। पुरी के होटलों में भी चिलका झील का प्रचार डॉलफिन के नाम से ही ज्यादा है। वैसे भी यहां आने वाले अधिकतर पर्यटक नौकाविहार करने कम बल्कि डॉलफिन देखने ज्यादा आते हैं। यह बात दीगर है कि डॉलफिन के लिए नौकाविहार करना पड़ता है। आखिर दूर हमको कुछ नाव पानी के बीच रुकी हुई दिखाई दी। बच्चे खुशी से चहक उठे। हम सब की टकटकी अब पानी पर ही लगी थी। पता नहीं कब कहां डॉलफिन दिखाई दे जाए। मेरे मन में अमिताभ बच्चन की अजूबा फिल्म की डॉलफिन की हल्की सी याद थी। मैं भी वैसी ही कल्पना लगाए बैठा था। वैसे चिलका झील की डॉलफिन कोई प्रशिक्षत नहीं है। यह उन डॉलफिन जैसे भी नहीं है, जैसी हम टीवी या फिल्मों में देखते हैं। यह डॉलफिन पालतू भी नहीं है, लिहाजा मानवीय दखल उसको पसंद नहीं है। वह न तो प्रशिक्षित डॉलफिन की तरह ऊपर उठती है और ना ही पास आती है। बच्चों को धैर्य जवाब दे रहा था कि लेकिन डॉलफिन का कहीं नामोनिशान तक नहीं था।...... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-21

 
उसके फूले हुए नथूने इस बात की गवाही दे रहे थे। होटल से हम सीधे नारियल वाले के पास पहुंचे और नारियल पानी पीया। मैंने भी यहां इस यात्रा में पहली बार नारियल लेकर पानी पीया था। इतने में राजू हमारे पास आया बोला.. साहब चलो कुछ रियायत करवा देता हूं। हमने कहा कि नहीं अब रियायत नहीं करवानी..ढाई बज गए हैं। लौटते-लौटते ही पांच बज जाएंगे, इसलिए आप तो ऐसा करो कि अब यहां से चलो, लेकिन राजू जिद पर अड़ा रहा। उस वक्त मैं यही सोच रहा था कि 1850 रुपए प्रत्येक परिवार के हैं और नियम भी है लेकिन काउंटर वाला हम सब को एक ही परिवार नहीं मान रहा। मुश्किल से दो घंटे के नौकाविहार के लिए 1850 रुपए देना मेरा दिल गवारा नहीं कर रहा था। अचानक गोपाल जी ने बताया कि बन्ना जी, 1850 तो हम सभी के हैं। खैर, मोलभाव अपने चरम पर था। काउंटर वाला नियमों का हवाला देकर तथा ठेकेदार के डर से मोलभाव से डर रहा था। आखिरकार राजू ने मध्यस्थता करते हुए अप्रत्याशित रूप से मामला 13 सौ रुपए में तय करवा दिया। हमने भी नौकाविहार के तय रूट में कुछ कटौती कर दी थी। दरअसल राजू का गांव भी चिलका झील के पास ही था। इसलिए वहां अधिकतर लोग उसकी जान-पहचान के थे। यहां से टिकट लेने के बाद हम नाव रवानगी वाले स्थान पर पहुंचे। वहां दो चरणों में टिकट को चैक करवाने के बाद हमको नाव का नम्बर दिया गया। संतुलन बनाए रखने के लिए नाव वाले ने अपने हिसाब से हमको बिठाया। जनरेटर में एक जरीकेन तेल डालने के बाद उसने उसे स्टार्ट किया। बच्चे रोमांच से चिल्ला रहे थे। धीरे-धीरे में हम उस जगह पहुंच गए जहां सिर्फ पानी ही पानी था। धरती का कहीं पर कोई छोर दिखाई नही दे रहा था। गोपाल जी ने तत्काल कैमरा निकाला और लगे क्लिक पर क्लिक करने। बीच-बीच में मैंने भी कुछ फोटोग्राफ्स खींचे। अचानक एक द्वीप दिखाई दिया..। मांझी ने नाव की दिशा उस तरफ मोड़ दी है और द्वीप के किनारे पर ले जाकर रोक दी। मैं जैसे ही नीचे उतरने के लिए आगे बढ़ा नाव वाले टोक दिया, बोला.. आप यहीं बैठिए.। सामने वाला नाव में ही आ जाएगा। इसके बाद एक व्यक्ति नाव में चढ़ा। उसके पास चाय के भगोने जैसा पात्र था, उसके ऊपर जाल लगा था। अंदर देखा तो लाल रंग का केकड़ा था। उसके छोटे-छोटे बच्चे भी थे। केकड़े को देख बच्चे बेहद उत्साहित हो रहे थे।
इसके बाद एक दूसरा युवक आया। पूछने लगा आप किस भाषा में जानने चाहेंगे। हमने जब हिन्दी के लिए अपनी सहमति दी तो वह टूटी-फूटी हिन्दी में हमको समझाने लगा। वह युवक सीप से भरा एक पात्र लेकर आया। वह हमको सीप से मोती निकालने की प्रक्रिया समझा रहा था। उसने भी पात्र हम सब के बीच में रखा और एक सीप उठाई, उसको तोड़ा तो अंदर से गाढ़ा पानी निकला। उसने सीप को दो भागों में विभक्त कर दिया लेकिन अंदर कुछ नहीं था। इसके बाद दूसरी सीप उठाई और फिर ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-20

 
बिलकुल ऊबड़-खाबड़ जगह। एक बार तो सोचा कि जब इतनी चर्चित जगह है तो सड़क इतनी खराब एवं गुमनाम सी क्यों है। सड़क भी सीधी नहीं थी बिलकुल सर्पिली हो गई टेढ़ी-मेढ़ी। अचानक पेड़ों से आच्छादित एक द्वीप आया। राजू ने ऑटो के ब्रेक लगाए..चिलका झील आ गई थी। दोपहर के दो बजने वाले थे। पहले सबसे पहले टिकट खिड़की की तरफ बढ़े। नौकाविहार का किराया पूछा। काउंटर पर बैठे शख्स ने तत्काल सूची निकालकर आगे कर दी। पूरे दिन नौका विहार करने के 3850 और चार घंटे के 1850 रुपए। हमारे पास न तो पूरा दिन था और ना ही चार घंटे, क्योंकि हम सूर्यास्त से पहले वापस पुरी पहुंचना चाह रहे थे। खैर, मारवाडिय़ों की तरफ हम भी मोलभाव करने लगे और काउंटर पर बैठे व्यक्ति से कहने लगे कि हमको तो सिर्फ दो घंटे ही नौका विहार करना है.. आप तो उसकी रेट बता दो, लेकिन उसने कह दिया कि यह आपकी मर्जी पर निर्भर नहीं है। किराया तो जितना है उतना ही लगेगा।
खैर, काउंटर वाले को पसीजता ना देख हमने तय किया कि पहले भोजन किया जाए। द्वीप पर आसपास नजर दौड़ाई लेकिन कहीं पर भी कोई उचित जगह दिखाई नहीं दी। आखिर हम लोग एक होटल की तरफ बढ़े और उसके बाहर लगी टेबल की तरफ बैठने ही वाले थे कि होटल वाला दौड़ता आया और बड़े से आदर-सत्कार से न केवल अंदर हॉल में ले गया बल्कि एक अलग से कमरे में हमको बैठा दिया। मैं गोपाल जी की तरफ देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। शायद वो मेरे मुस्कुराने की वजह का राज समझ गए थे, फिर भी पूछ बैठे, बन्ना जी.. क्या हो गया। मैंने कहा कि यह जो आदर सत्कार है ना उसके पीछे बड़ी उम्मीद छिपी हुई है, लेकिन जब उसकी उम्मीदों पर तुषारापात होगा तो उसके बाद का नजारा देखना..। जवाब सुनकर वो भी मुस्कुरा दिए।
हम ठीक से बैठे ही नहीं थी कि होटल वाला आ गया और बोला.. हां बताइए.. आप क्या लेंगे। हम एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। बड़े विचित्र हालात हो गए थे। आखिरकार उसको दो थाली लगाने के लिए कह दिया। दो का नाम सुनते ही उसके चेहरे के भाव बदल गए। उम्मीद की मुस्कुराहट अब गौण हो गई थी। उसकी भौंहे टेढ़ी हो चुकी थी। अपना गुस्सा जाहिर ना करता हुआ वह तमतमाकर बाहर निकल गया। थोड़ा इंतजार करवाने के बाद वह दो थाली ले आया, लेकिन न तो चम्मच लाया और ना ही पानी। हमको भी उसकी मनोस्थिति का अंदाजा हो गया था। हमने एक थाली ऑटो चालक राजू के पास भिजवा दी जबकि एक को सभी के बीच में रख लिया। जब उससे चम्मच और पानी के लिए गिलास मांगा तो वह फट पड़ा, बोला एक गिलास व एक चम्मच ही दूंगा। हमने कहा जो देना है वह दे तो सही। आखिरकार भोजन करने के बाद हम एक बार फिर उसके काउंटर पर गए और उसे समझाया कि यह आपकी व्यवहार कुशलता नहीं है। इस तरह का व्यवहार करने से ग्राहक जुड़ते नहीं बल्कि बिदकते हैं। वह अब भी गुस्से में था। .... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-19

 
इसके बाद हम चिलका झील के लिए रवाना हो गए। रास्ते में कई गांव आए। हाल ही बस्तर जाकर आया था। वैसे भी ओडिशा और छत्तीसगढ़ पड़ोसी राज्य हैं, इसलिए दोनों की संस्कृति और पहनावे में समानता होना स्भाविक भी है। पुरुष केवल धोती (लूंगी) ही पहने हुए थे। अर्धनग्न। महिलाएं भी यहां अकेली साड़ी ही पहनती हैं, लेकिन उनका पहनावा इस प्रकार का होता है कि पूरा शरीर ढक जाता है। सबसे खास बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाएं पर साइकिलों घूमती हैं। शायद स्कूलों में बालिकाओं को साइकिल देने वाली योजना का कमाल है। बहुतायत में मकान कच्चे ही दिखाई दे रहे थे। रास्ते में एक दुकान दिखाई दी तो हमने ऑटो सड़क के बगल में रुकवाकर दोपहर का भोजन पैक करवा लिया। तय किया इसको चिलका पहुंचने के बाद ही ग्रहण किया जाएगा। इस रास्ते पर वाहनों की चहल-पहल ज्यादा थी। यह कोणार्क मार्ग के तरह सूना-सूना नहीं था।
बड़े वाहनों की आवाजाही भी खूब थी। ऑटो में 50 किलोमीटर की दूरी के सफर में बच्चों को परेशान होना लाजिमी था। बार-बार पूछ बैठते अब कितनी दूर और है, और हम उनको सिवाय यह कहने कि बस आने ही वाला है, दिलासा देते रहे। ऑटो अपनी रफ्तार से दौड़ा जा रहा था। अचानक सड़क के दोनों तरफ खेतों में पानी ही पानी दिखाई देने लगा। बीच-बीच में कहीं जमीन दिखाई दे रही थी। अचानक राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के रावतसर कस्बे व श्रीगंगानगर जिले के श्रीबिजयनगर की तस्वीर जेहन में आई। इन दोनों स्थानों को मैंने प्रत्यक्ष एवं कई बार देखा है। यहां का जलस्तर इतना ऊपर हो गया है कि पानी जमीन से भी ऊपर आ गया है। इसको वहां की स्थानीय भाषा में सेम कहते हैं। यह पानी इतना खराब व दूषित होता है कि पेड़ों पौधों का दुश्मन होता है। इस पानी की जद में आने से अधिकतर पेड़ सूख जाते हैं। आदमी भी अगर भूल से इसका सेवन कर ले तो हैपटाइटिस बी होने की आशंका रहती है। मैंने सोचा हो न हो यह सेम जैसी ही कोई समस्या है, लेकिन थोड़ा सा आगे चलने पर मैंने देखा कि पानी में कई हरे-भरे पेड़ खड़े हैं। खेतों में मछलियों के एक-दूसरे के खेत में जाने से रोकने के लिए जाल लगाए गए हैं। यह देखकर यकीन हुआ कि यह पानी दूषित नहीं हो सकता। होता तो पेड़ सुरक्षित नहीं बचते।
इतना ही मैंने यहां की भैंसों में एक अजीब ही तरह की खासियत देखी। ऐसी बात जो राजस्थान, हरियाणा या पंजाब में नहीं देखी। यहां की भैंस पानी के अंदर मुंह डालकर अंदर उगी वनस्पति खा रही थी। ठीक सूअर की तर्ज पर। मैं हतप्रभ था। सोच रहा था कि किस प्रकार प्रकृति के हिसाब जानवर भी अपने आप को ढाल लेते हैं। हालांकि भैंस पानी में ज्यादा देर तक मुंह नहीं रख पा रही थी लेकिन जितनी भी देर वे ऐसा कर रही थी हमारे लिए बिलकुल नया एवं अनोखा था। हम चिलका की तरफ बढ़े जा रहे थे। अचानक राजू ने मुख्य सड़क को छोड़कर एक टूटी-फूटी सड़क पर ऑटो को दौड़ा दिया। ...जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-18

 
चूंकि मैंने उनसे वापसी में कुछ दिलाने का वादा किया था, इसलिए सभी को एक-एक आईसक्रीम खिला दी। मैंने इसलिए नहीं खाई क्योंकि गले में संक्रमण था। अचानक बच्चों का ध्यान आइसक्रीम के रैपर पर गया, उस पर एक खरीदने पर एक मुफ्त लिखा था। गोपाल जी ने आइसक्रीम वाले का ध्यान दिलाया तो उसने आवाज देकर अपने दूसरे साथी को बुलाया। वह आते ही कहने लगा साब, यह स्कीम तो काफी पहले थी, अब बंद हो गई। हमने कहा कि स्कीम तो बंद हो गई, लेकिन आप आइसक्रीम तो स्कीम वाली ही बेच रहे हो। हमारे कहने का उस पर कोई असर नहीं हुआ। हम धीरे-धीरे ऑटो की तरफ लौटने लगे। मेरी हमेशा से ही तेज चलने की आदत रही है लेकिन बच्चे एवं धर्मपत्नी आराम से चहलकदमी और दुकान पर मोल-भाव करते हुए चल रहे थे। थकान से बदन दोहरा हो रहा था। सबसे बड़ा कारण तो रात को देर से सोना और सुबह उठना ही था। नींद जब तक पर्याप्त ना ले लूं.. कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। दोनों बच्चे व धर्मपत्नी के साथ गोपाल जी, उनकी धर्मपत्नी व बच्चे थे, लिहाजा मैं निश्चिंत था और तेजी से ऑटो तक पहुंचकर कुछ देर सुस्ता लेना चाहता था। ऑटो के पास पहुंचकर मैं करीब आधे घंटे तक खड़ा रहा लेकिन यह लोग पता नहीं कहां व्यस्त हो गए थे। आखिरकार, मैं बगल में ही एक चाय की दुकान पर गया। बिना वजह बैठने पर चायवाला टोक ना दे, इसलिए लगे हाथ उसको एक चाय का ऑर्डर भी दे दिया था। चाय खत्म ही होने वाली थी कि बड़ा बेटा योगराज आता दिखाई दिया। इसके बाद सभी एक लोग एक-एक करके आते गए। इसके बाद हम लोग ऑटो में सवार हुए। अगला पड़ाव चिलका झील था। कोणार्क से चिलका का सीधा रास्ता नहीं है वापस पुरी होकर ही जाना पड़ता है। ऐसे में हमारे को करीब 80-85 किलोमीटर की यात्रा करनी थी। अलसुबह अंधेरे की वजह से जो देख नहीं पाए थे वह अब स्पष्ट दिखाई दे रहा था। सड़क और समुद्र के बीच कई जगह टेंट लगे थे। पार्टियां एवं पिकनिक मनाने के लिए इधर आने वाले पूरे साजो-सामान के साथ ही आते हैं। खाने, पकाने के सामान के साथ। यही वजह है कि डिपोस्जल गिलास, थाली एवं पोलिथीन की थैलियां यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी थी। बड़ा अजीब सा लगा यह सब देखकर.। इसके लिए दोषी कोई एक-दो लोग नहीं बल्कि वे सभी हैं जो ऐसा करते हैं। आखिरकार लोगों ने शांत, सौम्य एवं शुद्ध जगह को भी प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रकृति से जमकर खिलवाड़ वाकई बहुत अखरा लेकिन सिवाय मन मसोसने के कोई चारा भी नहीं था। मैं प्राकृतिक नजारों को निहारने में इतना खोया था कि पुरी कब आ गया पता ही नहीं चला। जिस रास्ते से ऑटो वाले ने निकालने का प्रयास किया वहां जाम लगा था। समय यही कोई दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे। कुछ देर के लिए हम एक साइबर कैफे पर रुके। रेल के तत्काल कोटे से टिकट बुक कराने के लिए..। संयोग से अगले दिन के टिकट बुक हो गए थे। .. जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-17


वाकई पत्थरों की नक्काशी को शब्दों में बांधना बड़ा मुश्किल काम है। मंदिर को मध्यकाल के स्थापत्य की अद्वितीय वास्तुकला का केन्द्र माना जाता है। दुनिया भर में विख्यात इस सूर्य मंदिर का नक्शा एक रथ को केन्द्र में रखकर बनाया गया है। मंदिर के पत्थरों पर कई तरह की मिथुन मुद्राएं बनाई गई हैं। इसके अलावा युगल रति दृश्य भी उकेरे गए हैं। पत्थरों की नक्काशी में कला पक्ष का भी खासा ध्यान रखा गया है। यहां की दीवारों पर कई नर्तकियों एवं वाद्यवादकों को दिखाया गया है। मनुष्य जाति के अलावा हाथियों, वनस्पतियों, प्राकृतिक दृश्यों व जीव जंतुओं आदि को भी सुंदर तरीके से उकेरा गया है। इसके अलावा कोणार्क मंदिर का नाट्यमंडप भी अपने आप में अनूठा है। इस नृत्य मंडप में नृत्य करते हुए फोटो खिंचवाना हर नृतक/नृतकी का सपना रहता है। वैसे कोणार्क सूर्य उपासना का प्रधान पीठहै। पुरी से यहां पर समुद्र के किनारे होकर जाना पड़ता है। यहां से पुरी करीब 36 किमी है तो कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण उत्कल नरेश लांगुला नरसिंह देव ने कियाथा। 12 सौ शिल्पियों की कड़ी मेहनत से 12 साल के राजस्व खर्च से इस मंदिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ था। कोणार्क मंदिर में तीन आकृति के सूर्यदेवता है। मंदिर के दक्षिण की ओर सूर्य देवता को उदित सूर्य देव जिसकी ऊंचाई 8.3 फीट, पश्चिम की ओर को मध्यान्ह सूर्यजिसकी ऊंचाई 9.6 फीट और उत्तर की ओर सूर्य देव को अस्त सूर्य करते हैं। इसकी ऊंचाई 3.49 मीटर है। कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण एक रथ समान सूर्यदेव के लिए बनाया गया है। इसमें 24 पहिये (चक्र) हैं। हर पहिये में आठ आरा हैं और इनका व्यास 9.9 फीट है। सभी पहिये उत्कृट शिल्प कला से भरपूर हैं। मंदिर के दक्षिण की ओर अलंकार से भूषित दो भडकिला योद्धा घोड़े हैं। हर घोड़े की लम्बाई 10 फीट और चौड़ाई सात फीट है। इन घोड़ों को ओडिशा सरकार ने अपनी सरकारी मोहर के रूप में भी स्वीकार किया है। मंदिर की पूर्व दिशा में दो ऐश्वर्यपूर्ण सिंहों ने दो हाथियों को दबा रहा है। यह मुख्यद्वार है। इसकी लम्बाई 8.4 फीट, चौड़ाई 4.9 फीट, ऊंचाई 9.2 फीट और वजन 27.48 टन है। गौर करने लायक बात यह है कि यह कलाकृतियां एक पत्थर से बनाई गई है। बताया जाता है कि मंदिर में प्रयुक्त कोणार्क में नहीं मिलते, इनको बाहर से मंगवाया गया था। मंदिर की मूर्तियां लेहराइट, क्लोराइट व खोण्डोलाइट नामक पत्थरों से बनाई गई है। खैर, हम घूम फिर कर मुख्य मंदिर के सामने खड़े थे, तभी एक फोटोग्राफर फिर से आया और कहने लगा कि वह आपके कैमरे से मात्र पांच रुपए में फोटो खींच लेगा। दरअसल वह एंगल बनाने के नाम पर ही पैसे ले रहा था। हमारे कैमरे से हमारे फोटो खींचे और पैसे भी ले लिए। मंदिर की बगल में नवग्रह मंदिर बनाया गया है लेकिन मेरे को वह मंदिर प्राचीन नहीं लगा लिहाजा उसमें जाना उचित नहीं समझा। नवग्रह मंदिर के ठीक सामने एक आईसक्रीम वाला बच्चों को दिखाई दे दिया.। बस बच्चे तो लगे फिर मचलने... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-16

 
खिलौनों को देख कर बच्चों को मचलना स्वाभाविक था, लेकिन समझाने पर वे मान गए। लेकिन धर्मपत्नी, गोपाल जी एवं उनकी धर्मपत्नी एक काजू की दुकान पर रुक गए। ओडिशा में काजू उपेक्षाकृत सस्ता है। बस इसी सस्ते की मानसिकता ने उनको मोलभाव करने पर मजबूर कर दिया। दाल भात में मूसलचंद बनते हुए मैंने धर्मपत्नी को टोक दिया.. कि मैं काजू खाता ही नहीं हूं तो फिर क्यों ख्वामखाह ही खरीददारी की जा रही है, लेकिन वो मानने को तैयार ही नहीं.. बोली.. आप नहीं खाते तो क्या बच्चे तो खाते हैं। जवाब सुनकर मैं निरूतर था। अचानक सभी को पता नहीं क्या सूझी और सब बिना खरीददारी किए हुए आगे बढ़ गए। मैं मन ही मन अपनी पीठ थपथपा रहा था कि आखिर मेरे टोकने का असर हो गया। करीब आधा किलोमीटर दूर ही उतार दिया था ऑटो वाले, क्योंकि भीड़ भाड़ न हो इस लिहाज से पार्किंग की व्यवस्था वहीं कर दी गई थी। आगे बढ़े तो एक फोटोग्राफर बहुत सारी फाइल फोटो लिए हमारे साथ हो लिया.. और फोटो खिंचवाने का आग्रह करने लगा। हम उसको मना करते रहे लेकिन वह पीछा छोडऩे को तैयार ही नहीं। आखिरकार टिकट खिड़की आ गई। वहां से टिकट लेने के बाद हम आगे बढ़ गए।
जबरदस्त जन सैलाब उमड़ा हुआ था। भीड़ ज्यादा होने की प्रमुख वजह शीतकालीन अवकाश और साल का अंतिम सप्ताह भी था। अधिकतर लोग तो नए साल का जश्न मनाने के मकसद से ही पहुंचे थे। लाइन में लगकर हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। पत्थरों पर गजब की नक्काशी। विशालयकाय पत्थरों को उकेरी गई कलाकृतियों को देख मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। तय नहीं कर पा रहा था कि क्या देखूं और क्या छोडूं। अंदर घुसते ही बच्चों का फोटो सेशन शुरू हो गया था। वह फोटोग्राफर अब भी हमारे साथ ही था। आखिरकार साथी गोपाल शर्मा ने उसको कह दिया। इसके बाद उसने बच्चों से कई तरह के एंगल बनवाए फिर ग्रुप फोटो भी खींचे। वैसे कोणार्क के फोटोग्राफरों का एक एंगल सर्वाधिक लोकप्रिय है। चाहे छोटे हों या बड़े,वे एक स्थान विशेष से हाथ की मुद्रा इस प्रकार से बनवाते हैं, जिससे आभास होता है कि मंदिर की शिखर को आपने अपने हाथ से पकड़ रखा है। दोनों बच्चों ने भी उसी अंदाज में फोटो खिंचवाया। इसके बाद बाकी सभी को नीचे छोड़ मैं मंदिर की सीढिय़ों से ऊपर चढ़ गया। चारों तरफ घूमकर बारिकी से हर जगह का अवलोकन किया। वैसे मंदिर बहुत ही भव्य एवं विशाल है लेकिन इसको बाहर से ही घूमकर देखा जाता है। अंदर जाने का रास्ता मुझे तो कोई दिखाई नहीं दिया। एक तरफ जीर्णोद्धार काम भी चल रहा था। उस तरफ पर्यटकों का जाना प्रतिबंधित था। सूर्य मंदिर के चारों तरफ हरियाली खूब है जो एक बड़े पार्क का आभास देती है और थके मांदे पर्यटकों को सुस्ताने के लिए सुकून भी। वैसे मंदिर शिल्प कला का बेजोड़ नमूना है। कोणार्क मंदिर में पत्थरों पर अद्भुत नक्काशी के बारे में रविन्द्रनाथ टेगौर ने भी कहा है कि कोणार्क में पत्थरों की भाषा मनुष्यों की भाषा से श्रेष्ठतर है। ... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-15

 
और कीमत केवल पांच रुपए कैसे..? चाय वाला बोला साहब.. मैं इसके आपसे सात या आठ रुपए भी वसूल सकता हूं लेकिन अगर ऐसा किया तो आप चाय की मात्रा में कटौती कर देंगे। मतलब छह की आठ में करवा लेंगे या दो की पांच में। पांच रुपए वाजिब कीमत है, इसलिए परिवार के सभी सदस्य कटौती न करवाकर पूरी चाय ही पीना चाहते हैं। वाकई चाय वाले का दर्शन भी गजब का था। उसकी इस शैली में हम खासे प्रभावित हुए। पकोड़े वगैरह भी उसी से पैक करवा लिए। झोपड़ी में बाकायदा बिजली वाला इनडेक्स चूल्हा भी लगाकर रखा था उसने। पकोड़े बनाने का काम स्टोव पर और चाय आदि को गरम करने में चूल्हे की मदद ली जा रही थी। करीब नौ बजने को आए थे। सूर्यदेव बादलों के बीच चुपके से झांके। अनायास ही नजर आसमान की तरफ गई और मोबाइल से नजारा कैद किया। चाय पीने के बाद बच्चे एक बार फिर बीच की तरफ दौडऩे लगे। बड़ी मुश्किल से उनको डांट-डपट कर ऑटो तक लाया। इस बीच तय हुआ कि सभी लोग नारियल का पानी पीएंगे। नारियल वालों की समझ भी गजब की होती है। वे नारियल देखकर ही बता देते हैं कि किस में केवल पानी है। किसमें मलाई में है और किस में अंदर से पकना शुरू हो गया है। हम में से किसी ने मलाई वाला नारियल लिया तो किसी ने केवल पानी वाला। सुबह-सुबह नारियल पानी पीने की मेरी इच्छा नहीं हुई, इसलिए मैंने पीने वालों को देखकर ही संतोष कर लिया।
इसके बाद हम लोग कोणार्क मंदिर की तरफ बढ़ गए। चंद्रभागा से कोणार्क मंदिर की दूरी यही कोई दो या तीन किलोमीटर ही होगी। सपाट एवं चिकनी सड़क के दोनों तरफ नारियल के पेड़ तथा वहां छाई हरितिमा एक अलग ही प्रकार की सुकून दे रही थी। कुछ लोग तो चंद्रभागा से कोणार्क तक पैदल ही चले जा रहे थे। नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर मैं बेहद रोमांचित था। आखिर प्रकृति प्रेमी जो ठहरा। बचपन में खूब पेड़ लगाए हैं। आस पड़ोस एवं जान-पहचान वाले भी पौधारोपण के लिए मेरे को ही बुलाते थे। कहते थे आपके हाथ से लगा पौधा जलता नहीं है, जल्दी पनप जाता है। यकीन मानिए प्रकृति की गोद में अलग प्रकार की आनंद की अनुभूति होती है।
राजू ने फिर ऑटो के ब्रेक लगाए..। बोला.. सर, कोणार्क आ गया है। आगे ऑटो नहीं जाएगा। यहां से आपको पैदल ही जाना पड़ेगा। हम उतर कर सूर्य मंदिर की तरफ बढऩे लगे। बचपन से जिस मंदिर की ख्याति किताबों में पढ़ी, आज उसको साक्षात देखने का अवसर जो मिला था। मन बेहद रोमांचित था। बस जल्द से जल्द हम मंदिर तक पहुंचना चाह रहे थे। मंदिर जाने वाले रास्ते पर कई तरह की दुकानें सजी थी। छोटे से लेकर बड़ों तक का हर सामान था। किसी दुकान पर तो नाना प्रकार की टोपियों व हैट आदि रखे थे। चश्मों की भी कई दुकानें सजी थी। इसके अलावा बच्चों के खिलौने, कोर्णाक मंदिर की मूर्तियां, बैग, सौन्दर्य प्रसाधन संबंधित साजोसामान तो कमोबेश हर दुकान पर उपलब्ध था। ... जारी है।

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पुरी से लौटकर-14

 
मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की आदमकद प्रतिमा के ठीक के सामने रुककर बोला.. लीजिए.. चंद्रभागा आ गया है। आप सूर्योदय का नजारा देखिए..। करीब साढ़े पांच बजे थे, उस वक्त। ऑटो से उतर कर हम जैसे ही समुद्र की तरफ बढ़े तो वहां अपार जन सैलाब देखकर आश्चर्य हुआ। सब समुद्र के उस पार टकटकी लगाए पौ फटने का इंतजार कर रहे थे। अलसुबह का मौसम था और समुद्र से आती हवा से सर्दी का आभास हो रहा था। हालांकि अधिकतर लोग गर्म कपड़ों से लकदक थे। फिर भी कुछ उत्साही लोग सर्दी को दरकिनार कर लहरों के साथ अठखेलियां करने में जुटे थे। बच्चों का तो अलग ही संसार था। रंगीन रोशनी वाली गेंद को हवा में उछालकर उसको पकडऩे के खेल में दर्जनों बच्चों लगे थे। इसके अलावा वॉलीबाल भी खेला जा रहा था। घड़ी की सुईयां तेजी से आगे बढ़ रही थी लेकिन सूर्यदेव के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। थोड़ा सा उजास हुआ तो यकीन हो गया था कि सूर्योदय हो चुका है। बादलवाही के कारण हम लोग इस प्राकृतिक नजारें को नहीं देख पाए। बहुत निराशा थी लेकिन प्रकृति तो अपनी मर्जी से ही चलती है। उस पर किसी का जोर नहीं चलता। जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, समुद्र में नहाने वालों की संख्या में भी इजाफा हो रहा था। हम किनारे पर खड़े अपलक पूर्व दिशा को ही देखे जा रहे थे, लेकिन सूरज ने तो जैसे कोई कसम ही खाली थी, दर्शन ना देने की। दरअसल, चद्रभागा कोणार्क के पास एक छोटी नदी है, जो समुद्र में समाहित हो जाती है। माघ सप्तमी को यहां मेला लगता है। उस दौरान लाखों श्रद्धालु नदी में डूबकी लगाते हैं और इसके बाद सूर्य की आराधना करते हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इस नदी में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शम्बा ने स्नान किया था। इससे उनको कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई थी। इसके बाद उन्होंने 12 साल तक यहां भगवान शिव की पूजा की। मान्यता है कि चंद्रभागा नदी में स्नान करने से रोगों एवं पापों से छुटकारा मिलता है।
इधर, बच्चे हमारी मनोदशा से बेखबर अपनी ही दुनिया में मस्त थे। समुद्र के किनारे पर एक ऊंचा सा टीला था। बस उसके ऊपर चढऩा और उतरना उनके लिए खेल बन गया था। वे मस्ती में मशगूल थे और हम चहलकदमी करते हुए एक चाय की दुकान पर आ गए। नारियल के पेड़ों की टहनियों से तैयार करके झोपड़ी बनाई थी। हम सब उस झोपड़ी में जिसको जहां जगह मिली बैठ गए। समुद्री हवा के विपरीत कई देर खड़े रहने के कारण वैसे भी शरीर में हल्की सी सिहरन थी, जैसे ही गरमा गरम चाय की पहली चुस्की हलक से नीचे उतरी राहत सी मिली। वाकई जोरदार चाय बनाई थी उसने। चाय की कीमत सुनकर तो यकीन ही नही हुआ कि इतनी टेस्टी चाय और कीमत केवल पांच रुपए। अचानक फ्लेश बैक में चला गया.. रेल की चाय याद आ गई। ठण्डी सी, एकदम बेस्वाद चाय और कीमत कहीं सात तो कहीं आठ रुपए। चिल्लर नहीं तो पूरे दस लगने का अंदेशा भी रहता है। हल्का से झटका देकर वर्तमान में लौटा। साथी गोपाल शर्मा पूछ ही बैठे.. इतनी जोरदार चाय....जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-13

 
बाहर प्रवेश द्वार पर हम उस वक्त तक आने-जाने वालों को देखते रहे जब तक गोपाल जी बाहर नहीं आए। उनके बाहर आने के बाद हमने अपने जूते वगैरह वापस लिए। रात के करीब साढ़े नौ बजे का वक्त हो चुका था। अब हमको किसी भोजनालय की तलाश थी। वैसे पुरी में जगह-जगह भोजनालय खुले हुए हैं। यह सब हमने मंदिर जाते वक्त ही देख लिए थे। दो-तीन जगह तो मारवाड़ी भोजनालय लिखा था। उनके आगे कोष्ठक में (बासा) लिखा था। बासा का मतलब ठहरने की व्यवस्था से ही है। बासा शब्द वैसे राजस्थानी या मारवाडिय़ों के लिए नया नहीं है। मैं भी बचपन से सुनता आया हूं। खैर, जाते वक्त ही तय कर चुके थे कि भोजन मारवाड़ी भोजनालय में ही करना है। आखिर हम लक्ष्मी मारवाड़ी भोजनालय पहुंचे। वहां जाकर पूछा तो पता चला कि इसके संचालक श्री मघाराम उपाध्याय बीकानेर के हैं। उन्होंने बताया कि आदमी नहीं होने के कारण ठहरने वाला काम बंद कर रखा है। सिर्फ भोजनालय का काम ही है। उपाध्याय जी वैसे बिलकुल ठेठ राजस्थानी में ही बात कर रहे थे। अंदर भोजनालय फुल था। हमको कुछ इंतजार करना पड़ा। वहां भोजन करने वाले लगभग लोग राजस्थान से ही थे। उनके हाव-भाव, बोली एवं पहनावे से यह सब परिलक्षित भी हो रहा था।
भोजन करने के बाद बाजार में बच्चों ने जहां खिलौने खरीदने में दिलचस्पी दिखाई वहीं धर्मपत्नी भी कुछ कम नहीं थी। कहीं से चूडिय़ां खरीदी तो कहीं से पर्स। लम्बा चौड़ा बाजार सजा था, जिसमें बच्चों को ललचाने के कई विकल्प मौजूद थे। बच्चे ही क्या बड़े भी खरीददारी से खुद को रोक नहीं पा रहे थे। लेकिन मैं सिर्फ दर्शक की भूमिका में ही था। आखिरकार ऑटो वाले राजू को फिर फोन किया। हमने उसको एक सरनेम भी दे दिया था। इसलिए उसको राजू की बजाय राजू पुरी ही कहकर पुकार रहे थे। होटल आते-आते साढ़े दस बज चुके थे। सुबह जल्दी उठने का फैसला ही हम पहले की कर चुके थे। सूर्योदय का नजारा जो देखना था। आखिर ऑटो वाले को अलसुबह साढ़े चार बजे का समय दे दिया गया। सूर्योदय वाला स्थान पुरी से करीब 35 किमी की दूरी पर है और उसका नाम है चंद्रभागा। मोबाइल पर अलार्म भरकर हम सो गए। अलसुबह उठे। हालांकि भरपूर नींद ले पाने के कारण आंखें उनींदी थी, लेकिन देखने की चाह में नींद से समझौता कर लिया। करीब साढ़े चार बजे हम ऑटो में बैठ कर चंद्रभागा की तरफ चल पड़े। सूनसान सड़क थी। लेकिन एकदम समतल। पूरी रफ्तार के साथ ऑटो चंद्रभागा की तरफ बढ़ा जा रहा था। चंद्रभागा से पहुंचने से पहले थोड़ा सा उजाला हुआ तो देखा कि हम तो समुद्र के साथ-साथ ही आगे बढ़ रहे हैं। चंद्रभागा जाने वाली सड़क बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर ही बनी है। सघन वन है। जगह-जगह नसीहत भरे बोर्ड टंगे थे,जिन पर लिखा था कि वन क्षेत्र है, कृपया गाड़ी धीरे चलाएं। आखिरकार राजू ने ऑटो को ब्रेक लगाए और ओडिशा के पूर्व .... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-12

 
मैं विचारों के भंवर में इस कदर खोया हुआ था कि धर्मपत्नी दर्शन करके कब पास आकर खड़ी हो गई पता ही नहीं चला। उसने कहा 'कहां खोए हुए हो..चलना नहीं है क्या..?' उसकी आवाज से मैं चौंका..और खुद का सामान्य दिखाने का प्रयास करते हुए कहा, नहीं.. नहीं..ऐसा कुछ नहीं है, बस भीड़ में तुमको ही देख रहा था। इसके बाद हम तत्काल मंदिर परिसर से बाहर आए और रास्ते में धर्मपत्नी ने फिर टोका.. आपने तिलक नहीं लगवाया क्या? मैंने ना की मुद्रा में सिर हिलाया तो बगल में बैठे एक पण्डे के यहां से अंगुली पर चंदन/सिंदूर मिश्रित घोल लगाकर ले आई और चलते-चलते ही मेरे ललाट पर तिलक कर दिया। हम मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे। बाहर साथी गोपाल जी हमारा इंतजार कर रहे थे। उन्होंने अपने मोबाइल हमको थमाए और परिवार सहित वो दर्शन करने मंदिर में प्रवेश कर गए। बाहर खड़े-खड़े फिर कई तरह के विचार फिर उमडऩे लगे। पुरी आने से पहले पढ़े पुरी से संबंधित उन आठ आश्चर्यों की पुष्टि करने की जिज्ञासा प्रबल हो गई। इन आठ आश्चर्यों का विवरण इस प्रकार से है..।
1. मंदिर के शिखर पर लगा ध्वज हमेशा हवा के विपरीत लहराता है।
2. पुरी में किसी भी जगह से मंदिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सामने लगा हुआ ही दिखाई देगा।
3. सामान्य दिन के समय हवा समुद्र से जमीन के तरफ आती है और शाम को इसके विपरीत लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है।
5. मंदिर के मुख्य गुबंद की छाया दिन में अदृश्य रहती है.. दिखाई नहीं देती है.चाहे सूर्योदय हो या सूर्यास्त। मंदिर के गुम्बद की परछाई दिखाई नहीं देती।
6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक मात्रा भी व्यर्थ नहीं जाती है। चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों तक खिला सकते हैं।
7. मंदिर में रसोई (प्रसाद) पकाने के लिए सात बर्तन एक दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं। लकड़ी से रसोई से बनाई जाती है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले शीर्ष बर्तन में सामग्री पकती है। फिर क्रम से एक के बाद एक नीचे तक पकती जाती है।
8. मंदिर के सिंहद्वार में प्रवेश पहला कदम प्रवेश करने पर (मंदिर के अंदर से) आप सागर निर्मित किसी भी प्रकार की ध्वनि नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर )एक कदम ही रखें तो आप इसको सुन सकते हैं। इसको शाम के वक्त स्पष्ट सुना जा सकता है।
खैर, हम शाम के वक्त मंदिर में गए थे, इस कारण इन आश्चर्यों की ठीक से पुष्टि नहीं कर पाए। रसोई एवं प्रसाद बनने का तरीका भी नहीं देख पाए..। दर्शन करने के उतावलेपन में न तो हवा का रुख पता चला और ना ही समुद्र की आवाज अंदर या बाहर से सुनाई दी। ... जारी है।

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पुरी से लौटकर-11

 
'हे प्रभु, इन मध्यस्थों को तो वर्तमान स्थिति ही मुफीद लगती है। क्यों कि दुनिया में पता नहीं कितने ही लोग हैं, जो कई तरीकों से आपके नाम से कमा के खा रहे हैं। और आप का आशीर्वाद सभी पर रहता है। कौन सही तरीके से कमा रहा है या गलत यह अलग बात है लेकिन आपसे कुछ छिपा हुआ नहीं है। आपके यहां देर हो सकती है अंधेर नहीं। आप सभी को उनके किए की सजा जरूर देते हो लेकिन आप की लाठी में आवाज नहीं होती है प्रभु। आपका न्याय खामोश होता है। लेकिन यहां तो अति हो गई है प्रभु। दर्शन कराने के लिए भी मोल भाव होने लगा है। एक व्यवसाय सा बन गया है प्रभु। अब भला कौन होगा जो व्यवस्था में सुधार करके अपने व्यवसाय को प्रभावित करना चाहेगा.। इसलिए जिम्मेदारी आप पर ही है प्रभु। अपने भक्तों को होने वाली इस असुविधा से मुक्ति आप ही दिला सकते हो। आपके दर्शन सभी को आसानी से हो.. इसके लिए व्यवस्था बनाना तो जरूरी है लेकिन ऐसी व्यवस्था किस काम की जो कदम-कदम पर कीमत वसूलती है। हां एक बात और.. जो बचपन से सुनता आया हूं.. यही कि भगवान तो भाव के भूखे हैं, जो सच्चे मन से जो याद कर लेते हैं भगवान तो उसी के है। वैसे आप को कलयुग का भगवान कहा जाता है, इसलिए आपके मध्यस्थों द्वारा धर्म के नाम पर डराना, धमकाना या चमकाना आदि होना तो स्वाभाविक है। कलयुग जो है। लेकिन हे प्रभु आप इंसाफ तो कर सकते हो.। भक्त और आपके बीच कई तरह की अजीबोगरीब एवं हास्यास्पद औपचारिकताओं की जरूरत ही क्या है प्रभु। आप तो जग के दाता हैं, पालनहार हैं। गुस्ताखी माफ हो प्रभु, यह सब करके मैं एक तरह से सूरज को दीपक दिखाने की एक अदनी सी कोशिश कर रहा हूं। क्या करूं प्रभु आदत से मजबूर हूं। और फिर अपनी पीड़ा आपको न कहूं तो किससे कहूं..। और किसी से उम्मीद भी तो नहीं है..। अच्छा या बुरा जो भी करना है, सब आपके ही हाथ है। हम तो कठपुतली मात्र हैं प्रभु। इस जग रूपी मंच पर आदमी रूपी कठपुतलियां, आपके इशारों से ही तो चलती हैं, संचालित होती हैं। सभी की डोर आपके हाथ में है प्रभु। हकीकत कड़वी होती है लेकिन आप तो सर्वज्ञ हो सब जानते हो..।
मैं नादान हूं. प्रभु। आपसे केवल करबद्ध निवेदन ही कर सकता हूं और कह सकता हूं कि आपने सभी को समान बनाया है लेकिन दोष हमारा ही है, जो हमने यह व्यवस्था बना ली है। भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारे पास इतना भी समय नहीं है कि हम आपकी भक्ति में समय लगाएं। सब फटाफट करना चाहते हैं। और इसी फटाफट की संस्कृति ने दो वर्ग खड़े कर दिए हैं। एक आम और दूसरा खास। जो खास है वह पहुंच और पैसे के दम पर आपके दरबार में जहां चाहे आ जा सकता है। समय की भी कोई पालना नहीं है। उस पर किसी तरह की कोई पाबंदी या नियम लागू नहीं होता, लेकिन जो आम हैं उनके लिए तो सारे नियम है। कदम-कदम पर कई तरह की शर्तों की पालन करना पड़ता है। '.... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-10

 
धर्मपत्नी के सामने भी यही धर्मसंकट था, भीड़ की वजह से वह भी स्पष्ट देख नहीं पा रही थी। मैंने आग्रह किया कि बच्चों की तर्ज पर दर्शन करा दूं लेकिन वह शर्म शंका के वशीभूत होकर तैयार नहीं हुई। आखिरकार वह खुद ही अवरोधक के पास पहुंच गई। वहां खड़े पण्डे ने उसके सिर पर चार बार छड़ी को लगाया। इतना ही नहीं माथे पर तिलक भी लगाया। मैं हैरान था, पण्डे ने यह सब निशुल्क कर दिया। शायद महिलाओं को रियायत देते हैं। मैं वहीं बगल में खड़ा था। दोनों बच्चों को लिए..। अचानक सोचने लगा.. और पता नहीं क्या-क्या ख्याल जेहन में आने लगे।
सोचने लगा 'हे जगन्नाथ, हे दीनानाथ। तेरी माया भी अजब है प्रभु। तू दुखियों के दुख हरता है। मन्नतें पूरी करता हैं। हे प्रभु सुना है तू भक्तों में भेदभाव नहीं करता। तेरे दर पर सभी समान हैं। चाहे राजा हो रंक, तुम्हारी नजर में सब बराबर हैं। फिर यह दूरी क्यों प्रभु। और इस दूरी को पाटने का माध्यम पैसे क्यों प्रभु? जब सारी कायनात ही तुम्हारी है प्रभु तो आपको पैसे का क्या काम? और हां, भक्तों और आपके बीच में यह मध्यस्थ क्यों प्रभु? जिनके पास पैसे हैं, उनके लिए तो कोई नियम कायदा नहीं है.. ये नाइंसाफी क्यों प्रभु? सामान्य आदमी क्यों लाइन में लगे? क्यों धक्के खाए? क्यों पण्डों के कोप का भाजन बने? क्या यह नियम आपने बनाया है प्रभु? अगर ऐसा है तो फिर यह तो भेदभाव ही हुआ ना। इन मध्यस्थों ने, बिचालियों ने, ठेकेदारों ने भक्तों और आपके बीच एक दीवार खड़ी कर दी है। पैसों की दीवार। जो जितनी ज्यादा बोली लगाएगा, मतलब ज्यादा पैसे खर्च करेगा, उसको आपका सानिध्य और अधिक मिल जाएगा। और कोई गरीब बेचारा, जो दूर से आपके दर्शनों की हसरत लेकर आता है। उसको क्या मिलता है प्रभु, आप सब जानते हो। आप अन्तर्यामी है। बेचारा न जाने कितनी ही जगह अपमानित होता है। आपके यह बिचौलिए उनको हिकारत से देखते हैं। बात-बात पर डांटना तो आम बात है। आप के दर पर यह सब हो रहा है। और एकदम सीधे और सरल आदमी को तो यह आपके बिचौलिये पता नहीं क्या-क्या डर दिखाते हैं। धर्म के नाम..पर, अनिष्ट के नाम पर। और मरता क्या ना करता..। बेचारा, जेब खाली करके ही जाता है। हे प्रभु? यह कैसा खेल है। यह सब आपके दरबार में होता है.. आपकी आंखों के सामने होता है। हे प्रभु कुछ तो तरस खाओ। कुछ तो रहम करो अपने भक्तों पर। कुछ तो नजरें इनायत करो। हे प्रभु मैं भी दर्शनों की हसरत लिए सपरिवार आपके दर पर हाजिर हुआ लेकिन यहां की इस अजीब प्रकार की व्यवस्था ने आपको जगन्नाथ नहीं.. 'पैसों' का नाथ बना दिया है। माफ करना प्रभु मैं छोटे मुंह से बड़ी बात कर रहा हूं.. क्या करूं..अपनी बात कहने से खुद को रोक नहीं पाया. हे प्रभु, आप तो बड़े हैं और बड़ों का काम तो माफ करना है। हे प्रभु मुझ नादान को भी माफ कर देना लेकिन, यहां की व्यवस्था एवं माहौल से मैं बेहद व्यथित हूं। मैं भी यही सोच रहा हूं कि इसमें अब सुधार कैसे होगा? '..जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-9

 
प्रसाद भी लेना पड़ता है, वरना आप की मर्जी। मैं काउंटर से जैसे ही मुड़ा वह खतरनाक पण्डा ठीक मेरे पीछे ही खड़ा था। संयोग से उसी वक्त कोई दूसरा श्रद्धालु आ गया था, पण्डा उससे बातचीत में मशगूल था और मैं चुपके से उससे नजर बचाकर काउंटरनुमा उस गुमटी से बाहर आ गया। हम आगे बढ़े लगभग हर दरवाजे पर नो इंट्री का बोर्ड टंगे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि मंदिर में प्रवेश किधर से करना है। फिर भी हम लोग बढ़ते रहे। एक दरवाजे पर कुछ चहल-पहल ज्यादा दिखी। पास गए तो देखा श्रद्धालु लाइन में लगकर उस दरवाजे तक आ रहे हैं। हम भी लाइन में लगकर दरवाजे तक पहुंचे। इतने में एक पण्डा आया..बोला आपका टोकन कहां है। मैंने पूछा वो क्या होता है तो बोला.. इधर से मंदिर में प्रवेश करने पर टोकन लेना पड़ता है। आप जहां से लाइन में लगे थे, वहीं पर एक काउंटर है। वहां आपको टोकन मिलेगा। निराश कदमों से वापस काउंटर की तरफ लौटे लेकिन वह भी बंद था। वहां भी एक पण्डा खड़ा था। उससे पूछा तो बोला.. काउंटर अब बंद हो चुका है। एक घंटे बाद दुबारा खुलेगा। उसका जवाब सुनकर मैं हैरान हो गया। मन में यकायक ख्याल आया कि एक घंटे क्या करेंगे। बाहर गोपाल जी भी इंतजार कर रहे हैं,क्यों ना बाहर ही चला जाए। मैं इसी उधेड़बुन में डूबा था।
आखिरकार मन ही मन फैसला किया कि एक घंटा बहुत ज्यादा होता है, इसलिए बाहर जाकर फिर से अंदर आ जाएंगे। मंदिर के पीछे से घूमकर हम दांयी भाग की तरफ बढ़े तो बड़ी संख्या में श्रद्धालु करबद्ध आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठे हुए दिखाई दिए। ऊपर देखा तो मंदिर के शिखर पर ध्वज बदलने की तैयारी चल रही थी। ऐसे में फिर से प्रगतिशील किसानों की बात याद आ गई। उन्होंने भी ध्वज बदलने की प्रक्रिया को देखने के लिए कहा था। हम भी रुक गए और वह नजारा देखने लगे। वाकई अद्भुत एवं अलौकिक नजारा था। मंदिर बहुत ही भव्य एवं विशाल है। चूंकि हम मंदिर के बिलकुल बगल में ही थे, इसलिए ऊपर देखने में मुंह को बिलकुल नब्बे डिग्री पर करना पड़ रहा था। फिर भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। क्योंकि मन में पहले दर्शन करने की उत्सुकता थी। हम ऊपर देखते हुए ही आगे बढ़ रहे थे। अचानक फिर एक दरवाजा दिखाई दिया। उस पर किसी तरह का कोई बोर्ड नहीं लगा था। ना ही वहां कोई पण्डा दिखाई दिया। हम चुपके से उसके अंदर घुस गए। अंदर जाकर देखा तो वहां भी लम्बी लाइन लगी थी। अंदर भी जगह-जगह अवरोधक लगाए पण्डे खड़े थे। उनको देखकर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन मन को मसोस कर रह गया। एक चौड़े से गलियारे में दूर तलक श्रद्धालु खड़े थे। यूं समझ लीजिए.. हम सबसे पीछे थे। करीब तीस फीट के दूरी पर थे हम। वहीं से ऐडिय़ां उचका कर दर्शन करने की कवायद में जुट गया। दो तीन बार ऐसा करने पर आखिरकार मेरे को दर्शन हो गए। इसके बाद दोनों बच्चों को गोद में लेकर ऊपर उठाकर दर्शन करवाए। ----जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-8


कमोबेश यही कहानी हिन्दी में लिखे निर्देश की थी। बानगी देखिए... 'जुता, चपल, बाहर की खाना, चमड़े की सामग्रियों, मादक द्रव्य, क्यामेरा, छत्री, मोबाइल फोन और विस्फोटक सामग्री इत्यादि श्री मंदिर के अंदर लेना मना है।' इस निर्देश से अर्थ का अनर्थ हो रहा था। कहने का आशय है कि उक्त सभी चीजें मंदिर के अंदर ले जाना मना है। लेकिन निर्देश के हिसाब से तो यह जाहिर हो रहा है कि उक्त चीजें आप बाहर से खरीद सकते हैं लेकिन मंदिर में लेने पर मनाही है। क्यामेरा का मतलब यहां कैमरे से है और छत्री से तात्पर्य छतरी/ छाता से है। अब बात मुख्य दरवाजे पर तैनात सुरक्षाकर्मियों की। यह लोग तलाशी लेने में केवल औपचारिकता ही बरतते हैं। हां, किसी के हाथ में मोबाइल दिखाई देता है तो रोक लेते हैं और कोई जेब में रखकर चला गया तो कोई पूछने वाला नहीं है। चूंकि फोन मेरे हाथ में था इसलिए सुरक्षाकर्मी को दिखाई दे गया। वह बोला, मोबाइल बाहर छोड़ दीजिए। ऐसे में धर्मसंकट खड़ा हो गया क्या किया जाए। साथ में गए गोपाल जी शर्मा ने रास्ता सुझाया बोले, आप लोग पहले दर्शन करके आ जाइए। हम बाद में चले जाएंगे। मेरा एवं धर्मपत्नी का फोन उनको देकर हमने मंदिर में प्रवेश किया। इस दौरान बहुत सी महिलाएं पर्स लटकाए हुए दिखाई दी तो कई महानुभव ऐसे भी थे जो बाकायदा बेल्ट लगाए हुए थे। लेकिन इनको कोई रोकने या टोकने वाला नहीं था। बेल्ट तो मैंने भी लगा रखा था लेकिन किसी ने कुछ कहा ही नहीं। अंदर प्रवेश करने के साथ सीढिय़ों पर चिपचिपाहट सी महसूस हो रही थी। मुख्य मंदिर तक पहुंचने तक आजू-बाजू में कई छोटे-छोटे मंदिर थे। कहीं कोई तिलक लगाकर आशीर्वाद दे रहा था तो कहीं कोई छड़ी हाथ में लिए खड़ा था। श्रद्धालु बड़े आराम से उनके सामने सिर झुका रहे थे। और वो छड़ी को सिर पर धीरे से छुआ भर देते जैसे आशीर्वाद दे रहे हों। लोग ऐसा करवाकर खुद को धन्य समझ रहे थे। चूंकि हम बिना किसी गाइड और पण्डे के अंदर पहुंचे थे, इस कारण हर तरफ के नजारे को किसी जिज्ञासु की तरह देख रहे थे और साथ में समझने का प्रयास भी कर रहे थे। हम मंदिर के बांयी तरफ से आगे बढ़ रहे थे कि पान चबाता हुआ हट्टा-कट्टा एक पण्डा हमारी तरफ लपका। आंखों में काजल और हल्की दाढ़ी में सचमुच वह खतरनाक किस्म का लग रहा था। मुंह में पान की पीक को अंदर रखे-रखे ही वह बड़बड़ाया। प्रसाद ले लो, प्रसाद। मंदिर में अगर आपको प्रसाद चढ़ाना है तो आप बाहर से लेकर नहीं जा सकते। मंदिर परिसर के अंदर ही आपको प्रसाद खरीदना पड़ता है। प्रसाद से पहले रसीद कटवानी पड़ती है। वह पण्डा हम को रसीद काटने वाले कक्ष तक लेकर चला गया। अंदर काउंटर पर बैठे शख्स को उसने इशारा किया तो उसने झट से एक प्रिण्टेड सूची मेरे सामने रख दी। प्रसाद की सूची और उसकी कीमत देखकर मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। अलग वैरायटी और सभी की उसी अनुपात में कीमत..। मैंने बिलकुल अनजान बनते हुए काउंटर वाले शख्स से पूछा.. प्रसाद लेना जरूरी है क्या? तो वह पलटकर बोला दर्शन करना है तो... जारी है।