Wednesday, January 15, 2014

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-11

 
'हे प्रभु, इन मध्यस्थों को तो वर्तमान स्थिति ही मुफीद लगती है। क्यों कि दुनिया में पता नहीं कितने ही लोग हैं, जो कई तरीकों से आपके नाम से कमा के खा रहे हैं। और आप का आशीर्वाद सभी पर रहता है। कौन सही तरीके से कमा रहा है या गलत यह अलग बात है लेकिन आपसे कुछ छिपा हुआ नहीं है। आपके यहां देर हो सकती है अंधेर नहीं। आप सभी को उनके किए की सजा जरूर देते हो लेकिन आप की लाठी में आवाज नहीं होती है प्रभु। आपका न्याय खामोश होता है। लेकिन यहां तो अति हो गई है प्रभु। दर्शन कराने के लिए भी मोल भाव होने लगा है। एक व्यवसाय सा बन गया है प्रभु। अब भला कौन होगा जो व्यवस्था में सुधार करके अपने व्यवसाय को प्रभावित करना चाहेगा.। इसलिए जिम्मेदारी आप पर ही है प्रभु। अपने भक्तों को होने वाली इस असुविधा से मुक्ति आप ही दिला सकते हो। आपके दर्शन सभी को आसानी से हो.. इसके लिए व्यवस्था बनाना तो जरूरी है लेकिन ऐसी व्यवस्था किस काम की जो कदम-कदम पर कीमत वसूलती है। हां एक बात और.. जो बचपन से सुनता आया हूं.. यही कि भगवान तो भाव के भूखे हैं, जो सच्चे मन से जो याद कर लेते हैं भगवान तो उसी के है। वैसे आप को कलयुग का भगवान कहा जाता है, इसलिए आपके मध्यस्थों द्वारा धर्म के नाम पर डराना, धमकाना या चमकाना आदि होना तो स्वाभाविक है। कलयुग जो है। लेकिन हे प्रभु आप इंसाफ तो कर सकते हो.। भक्त और आपके बीच कई तरह की अजीबोगरीब एवं हास्यास्पद औपचारिकताओं की जरूरत ही क्या है प्रभु। आप तो जग के दाता हैं, पालनहार हैं। गुस्ताखी माफ हो प्रभु, यह सब करके मैं एक तरह से सूरज को दीपक दिखाने की एक अदनी सी कोशिश कर रहा हूं। क्या करूं प्रभु आदत से मजबूर हूं। और फिर अपनी पीड़ा आपको न कहूं तो किससे कहूं..। और किसी से उम्मीद भी तो नहीं है..। अच्छा या बुरा जो भी करना है, सब आपके ही हाथ है। हम तो कठपुतली मात्र हैं प्रभु। इस जग रूपी मंच पर आदमी रूपी कठपुतलियां, आपके इशारों से ही तो चलती हैं, संचालित होती हैं। सभी की डोर आपके हाथ में है प्रभु। हकीकत कड़वी होती है लेकिन आप तो सर्वज्ञ हो सब जानते हो..।
मैं नादान हूं. प्रभु। आपसे केवल करबद्ध निवेदन ही कर सकता हूं और कह सकता हूं कि आपने सभी को समान बनाया है लेकिन दोष हमारा ही है, जो हमने यह व्यवस्था बना ली है। भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारे पास इतना भी समय नहीं है कि हम आपकी भक्ति में समय लगाएं। सब फटाफट करना चाहते हैं। और इसी फटाफट की संस्कृति ने दो वर्ग खड़े कर दिए हैं। एक आम और दूसरा खास। जो खास है वह पहुंच और पैसे के दम पर आपके दरबार में जहां चाहे आ जा सकता है। समय की भी कोई पालना नहीं है। उस पर किसी तरह की कोई पाबंदी या नियम लागू नहीं होता, लेकिन जो आम हैं उनके लिए तो सारे नियम है। कदम-कदम पर कई तरह की शर्तों की पालन करना पड़ता है। '.... जारी है।

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