Wednesday, January 15, 2014

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-31

 
धर्मपत्नी मेरे को कुछ असहज एवं असामान्य सी दिखाई दी। पास आने पर मैंने वजह पूछी तो वह थोड़ी घबराई हुई सी थी। थोड़ा सामान्य होने के बाद कहने लगी... मेरे तो वहम हो गया..। उसने मेरे से हाथ से वह सामग्री वापस ले ली। मैंने कहा पूरी कहानी बताओ, तो कहने लगी कि मंदिर के अंदर एक पण्डे ने हाथ में कुछ सामग्री रखते हुए कहा था कि यह तेरे सुहाग से संबंधित है, तेरा सुहाग बना रहे, ला कुछ दक्षिणा दे दे। धर्मपत्नी ने बताया कि जब उसने पण्डे को दस रुपए देने चाहे तो वह नाराज हो गया और कहने लगा कि दस से बात नहीं बनेगी। धर्मपत्नी जब दस से आगे नहीं बढ़ी तो उसने हाथ में रखी सामग्री वापस ले ली। मैंने धर्मपत्नी को धीरज बंधाया और कहा कि यह सब तुम जैसे धर्मभीरू लोगों को डराकर, भयभीत करके राशि ऐंठने का बहाना है। तुम मस्त रहो, किसी प्रकार की चिंता मत करो। इसके बाद गोपाल जी के बड़े वाले सुपुत्र ने बताया कि अंकल मंदिर में एक पुजारी प्रसाद बांट रहा था। उसने प्रसाद यह सोचकर ले लिया कि किसी ने प्रसाद चढ़ाया है, इसलिए शेष प्रसाद वितरित किया जा रहा है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं था। बालक ने जैसे ही प्रसाद के लिए हाथ आगे बढ़ाया पुजारी ने प्रसाद का पैकेट हाथ पर रखते हुए उससे पैसे मांग लिए। बालक झट से समझ गया और पैकेट वापस पुजारी को थमा दिया। यहां से निकलने के बाद हमने दो और मंदिर देखे। ऑटो वाला दिलीप कहने लगा.. साहब बहुत देर हो रही है, थोड़ा जल्दी करो.। वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल रहा था। बातचीत में वह कुछ खुला तो बिलकुल दार्शनिक वाले अंदाज में कहने लगा, ऊपर वाला देखता है, तभी तो आपसे ज्यादा किराया नहीं लिया है। दूसरे ऑटो वाले आपसे तीन सौ या चार सौ रुपए ले लेते, लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा। दिलीप कह रहा था कि उसने अपनी माता का मुंह नहीं देखा, वह जन्म देते ही भगवान को प्यारी हो गई। इसलिए वह वाजिब किराया ही लेता है। आखिरी मंदिर में हम पहुंचे तो वहां से बंगाल की खाड़ी पास ही थी। एक बार फिर हम समुद्र की तरफ दौड़ पड़े। कुछ विदेशी सनबॉथ में व्यस्त थे। हम भी वहां कुछ देर खड़े रहे। कुछ फोटो खींचे। ऑटो वाले को जल्दी थी, इसलिए समुद्र को प्रणाम कर हम वहां से रवाना हुए। ऑटो वाले ने हमको रेलवे स्टेशन छोड़ दिया।
रेलवे स्टेशन परिसर में एक बोर्ड लगा है। उस पर एक तरफ हिन्दी में तो दूसरी तरफ उडिय़ा में लिखा गया है। उस पर लिखा था कि 1939 में गांधी जी पुरी से 29 किमी दूर देलांग आए थे। लेकिन उन्होंने जगन्नाथ मंदिर के दर्शन नहीं किए, क्योंकि यहां हरिजनों का प्रवेश वर्जित था। इतना ही नहीं गांधी जी ने कस्तूरबा गांधी और महादेव देसाई को मंदिर में दर्शन करने पर फटकार भी लगाई थी। मैं सोच में डूबा था कि आखिर यह ऐसी क्या उपलब्धि है, जिसको स्टेशन के सामने टांग कर रखा गया है। खैर, इसके लिए मैंने स्टेशन पर मंदिर कमेटी की और से स्थापित बुक स्टॉल से दो किताबें भी खरीदी लेकिन मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई। उस वक्त दो बजे थे और ट्रेन शाम 5.10 की थी। हम सभी लोग पहले तो बाहर चाय पीकर आए इसके बाद स्टेशन पर आकर बैठ गए। थकान से बदन दोहरा हो रहा था।.... जारी है।

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