Monday, July 22, 2013

तार नहीं रहा...


बस यूं ही

कल शाम को एक सांध्य दैनिक के अंतिम पेज पर प्रकाशित एक व्यंग्य छाया चित्र देखकर खुद को मुस्कुराने से नहीं रोक पाया। उसका मजमून कुछ इस तरह से था..। मां, बापूजी का टेलीग्राम आया है........। तार नहीं रहा। सचमुच तार अब अतीत का हिस्सा बन गया है। करोड़ों रुपए के नुकसान को देखते हुए इस सेवा को बंद करना पड़ा। वैसे इस नुकसान की तरफ हम सब का ध्यान तभी गया,जब इस सेवा को बंद करना पड़ा। समाचार पत्रों की सुर्खियों में भी टेलीग्राम ही छाया था। यह भी संयोग ही था कि सभी ने टेलीग्राफ के उजले पक्ष पर ही फोकस कर आमजन की सहानुभूति बटारेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खैर, नफा-नुकसान आदि बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक जमाना वो भी था जब ग्रामीण क्षेत्रों में तार की छवि अच्छी नहीं मानी जाती थी। और इस कालखण्ड का साक्षी मैं भी रहा हूं। बचपन की स्मृतियां आज भी ताजा हैं। देहात में महिलाएं जब आपस झगड़ती थी और लड़ाई उग्र रूप धारण कर लेती तब महिलाएं एक दूसरे को गाली के रूप यह कहती थी 'भगवान करे, तेरे तार आए।' यहां तार आने का मतलब किसी अशुभ समाचार से ही होता था। सेना में जाने का शगल जिले के लोगों में आजादी के पहले से ही रहा है और अब भी है। ऐसे में कोई अनहोनी या बुरी खबर होती तब तार ही आता था। क्योंकि लगभग हर घर से कोई न कोई सेना में अवश्य होता था। बहरहाल, यह सब बताने का मकसद यही था कि तार की छवि कैसी थी। इतना ही नहीं किसी सैनिक को अगर घर बुलाना होता, कोई मांगलिक कार्य या शादी की बात होती तो उसको सेना से छुट्टी आसानी से नहीं मिलती थी। ऐसे में किसी परिजन के बीमार होने का बहाना बनाकर तार करवाया जाता था ताकि नियत समय पर छुट्टी मिल जाए। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि छात्र जीवन में दो बार तार करवाने का अवसर मुझे भी मिला है और दोनों ही बार मूल कारण न लिखकर कभी मां तो कभी पिताजी की बीमारी का उल्लेख करना पड़ा ताकि छुट्टी जल्दी मिल जाए।
अब बात एक ऐसे तार की जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। 1997 में बीए करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त हो गया। इसी चक्कर में लगातार दो साल एमए पूर्वाद्ध में फीस जमा करवाने के बाद भी परीक्षा नहीं दे पाया। एक बार आरपीएससी की पुलिस इंस्पेक्टर की भर्ती आ गई तो दूसरी बार सेना में एजुकेशन हवलदार की लिखित परीक्षा। किस्मत में शायद यह नौकरियां नहीं थी। परीक्षा में उत्तीर्ण तो हुआ लेकिन वरीयता सूची में न आने के कारण मेरा चयन नहीं हो पाया। सन 2000 में पंचायत चुनाव के दौरान गांव के एक साथी ने चुनाव लडऩे की इच्छा जताई। उस वक्त हम सब गांव के युवा एक नवयुवक मंडल के माध्यम से गांव में रचनात्मक कार्यों में जुटे हुए। थे। चुनाव मैदान में कूदने की बात पर मंडल के सभी सदस्य सहमत नहीं थी लेकिन बाद में किसी तरह से सभी मान गए। चूंकि मंडल में मेरे पास महासचिव की जिम्मेदारी थी, लिहाजा लिखने पढऩे के तमाम काम मैं ही सम्पादित करता था। ऐसे में मतदाताओं के नाम एक मार्मिक अपील करने का जिम्मा भी मेरे को ही दिया गया। मैंने अपील लिखी और उसके पम्पलेट मतदाताओं के बीच वितरित कर दिए गए। संयोग से उसी वक्त बड़े भाई साहब दिल्ली से गांव आए हुए थे। उन्होंने मेरा लिखा वह पम्पलेट देखा तो प्रभावित हुए और कहा कि तुम तो अच्छा लिखते हो। संयोग से उसी दिन के पेपर में एक पत्रकारिता संस्थान के बारे में लिखा था कि अगर आपकी आयु 25 साल से कम है। आप अविवाहित हैं और हिन्दी पर अच्छी पकड़ है तो आवेदन करें। भाईसाहब के कहने पर ही मैंने आधे अधूरे मन से इस संस्थान में अपना आवेदन भेज दिया।
आवेदन चयनित हो गया और जयपुर में लिखित परीक्षा के बाद साक्षात्कार हुआ। यहां भी सफलता हाथ लगी। इसके बाद पत्र आया कि आपको फाइनल साक्षात्कार के लिए भोपाल जाना है। 25 जुलाई 2000 को यह साक्षात्कार भोपाल में था। कुल 97 युवक-युवतियां साक्षात्कार के लिए पहुंचे थे। बारी-बारी से सबका नम्बर आया। कोई मुस्कुराते हुए बाहर आ रहा था तो कोई मुंह लटकाए हुए। आखिरकार मेरा भी नम्बर आया।
साक्षात्कार की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद 14 जनों को बताया गया कि आपका चयन हो गया है और एक अगस्त से आपकी कक्षाएं शुरू हो जाएंगी। चूंकि मेरे को किस तरह का कोई जवाब नहीं मिला था। वैसे जवाब न मिलना यह दर्शा रहा था कि मेरा चयन नहीं हुआ है। यकीन मानिए मैं रोया तो नहीं लेकिन बाकी कुछ नहीं बचा। बड़े ही उदास एवं निराश मन से मैं गांव लौटा। यकायक हुए घटनाक्रम से मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिरकार यह सब कैसे हो गया। गांव के साथियों ने दिलासा दी, फिर भी मैं सामान्य नहीं हो पाया। भोपाल से साक्षात्कार देकर लौटने के बाद 7 अगस्त को एक तार आया हुआ था। उसमें लिखा था कि आप का चयन पत्रकारिता संस्थान के लिए हो गया है आप प्रशिक्षण के लिए तत्काल भोपाल पहुंचें। मुझो यकीन नहीं हो रहा था कि किस्मत इस तरह से यू टर्न लेगी। इसके बाद 14 अगस्त को मैं भोपाल पहुंच गया और पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया। यकीन मानिए उस तार ने मुझे कितनी खुशी दी मैं ही जानता हूं। और आज पत्रकारिता में हूं तो काफी कुछ योगदान उस तार का भी है। इसलिए कह सकता हूं कि तार से जुड़े दोनों ही तरह के अनुभव मैंने देखे हैं लेकिन गांव में तार की जो छवि है उससे इतर छवि मेरे जेहन में है। भले ही तार व उससे जुड़ी जानकारी इतिहास बन गई हों लेकिन मैं इसे कभी भूल नहीं सकता, जिंदगी भर भी नहीं। यह मेरी मधुर स्मृतियों में ताउम्र जिंदा रहेगा।

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