Thursday, November 28, 2013

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(3)

बस यूं ही

बस में जैसे ही रेडियो ऑन किया तो उसमें नेटवर्क गायब हो गया। वह खिलौना बन गया था। उसका एंटीना निकालकर खिड़की से बाहर भी किया लेकिन सिवाय सरसराहट के कुछ सुनाई नहीं दिया। किसी ने सुझाव किया कि बस के अंदर रेडिया नहीं चलेगा छत पर बैठ जाओ। फिर क्या था रेडियो लेकर बस की छत पर बैठ गया। बारात चूरू जिले के हडिय़ाल गांव गई थी। बारात के पहुंचने तक श्रीलंका की पारी पूरी हो गई थी। बारात नाश्ता करती तब तक भारत की पारी शुरू हो चुकी थी। इसके बाद ढुकाव (तोरण) का वक्त हो गया। बाराती बैंडबाजी की धुन पर मगन होकर अपनी मस्ती में नाचने लगे थे। इधर, मैं कान के रेडियो लगाए सबसे पीछे चल रहा था। सचिन उस विश्व में अच्छा खेल रहे थे। उनसे सेमीफाइनल भी वैसी उम्मीद थी। और वो उम्मीद के हिसाब से खेले भी। सचिन ने इस मैच में 88 गेंदों पर 65 रन बनाए थे। सचिन के आउट होते ही भारतीय पारी अप्रत्याशित रूप से ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। महज 22 रन के अंतराल में सात विकेट गिर गए। कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जड़ेजा तो बिना कोई रन बनाए ही पवेलियन लौट गए थे। थोड़ी देर पहले 98 रन पर एक विकेट का स्कोरकार्ड अब बदल कर आठ विकेट पर 120 रन हो गया था। विनोद कांबली नाबाद थे दस रन पर। 35वां ओवर फेंका जा रहा था। क्रिकेट के प्रति मैं बेहद सकारात्मक एवं आशान्वित रहता हूं। इतने प्रतिकूल हालात के बावजूद मैं विनोद कांबली से चमत्कार के उम्मीद लगाए बैठा था कि शायद वह कुछ जौहर दिखा दे। अचानक दर्शकों का पारा गरम हो गया और वे मैदान में बोतल आदि फेंकने लगे। स्टेडियम में एक जगह तो आग भी लगा दी गई। कोलकाता के ईडन गार्डन में हाहाकार मचा था। भारतीय टीम के पोचे प्रदर्शन के चलते दर्शक बेहद गुस्से में थे। तनावपूर्ण हालात देखते हुए मैच रोक दिया गया। उम्मीद की किरण अब भी जिंदा थी कि शायद मैच शुरू हो और कांबली कुछ कर के दिखा दे। बारात ढुकाव पर पहुंच चुकी थी। दूल्हा तोरण मारने चला गया और बाराती बगल में लगे टैंट में भोजन के लिए बढऩे लगे। सांसें ऊपर नीचे हो रही थी.. पता नहीं क्या होगा..। अचानक घोषणा हुई। मैच रैफरी ने श्रीलंका को विजयी घोषित कर दिया। मैं बिलकुल आवाक था। मेरे लिए यह झटका बेहद असहनीय था। मैं बिना भोजन किए रेडियो को बंद कर चुपचाप निराश कदमों से जहां बारात रुकी थी उस तरफ दौड़ पड़ा। आंखों में आंसू थे और सिर मारे दर्द के फट रहा था। वहां पहुंचा तो गांव के दो तीन बुजुर्ग बैठे थे। उन्होंने मेरे को देखकर टोका, अरे जल्दी कैसे आ गया.. भोजन हो गया क्या.. मैंने लगभग सुबकते हुए ही सिर हिलाकर हामी भर दी। सर्दी का मौसम था..। मैंने रजाई उठाई और बिलकुल उदास, निराश एवं हताश होकर अपना मुंह उसमें छिपा लिया। सचमुच उस मैच के बाद मेरे को सामान्य होने में करीब सप्ताह भर का समय लग गया था।
अब भी भारत की हार पर मन दुखी तो होता है लेकिन वैसा नहीं जैसा 1996 में हुआ था। बीच-बीच में सट्टेबाजी एवं मैच फिक्सिंग को लेकर क्रिकेट की काफी छिछालेदर हुई लेकिन मेरा क्रिकेट से मोह भंग नही हुआ। वैसे भी क्रिकेट को लेकर सभी के अपने-अपने तर्क है। आलोचक, समालोचक, समर्थक सभी तरह के व्यक्ति मिलेंगे। लेकिन जब 1985-86 में जब क्रिकेट खेलना सीखा तब से लेकर आज के माहौल को देखता हूं तो आमूलचूल एवं क्रांतिकारी बदलाव आया है, लोगों की सोच में। गांव में उस वक्त प्रतियोगिता के लिए जाते तो मुश्किल से 11 खिलाड़ी भी नहीं हो पाते थे। मान-मनौव्वल करके किसी तरह 11 का आंकड़ा बनाते थे। और आज गांव का हाल ये है कि छह से सात टीम तो गांव में बन जाएंगी। सौ से ज्यादा खेलने वाले हो गए। और इधर जो बुजुर्ग क्रिकेट को लेकर उस वक्त हम पर ताने कसते थे। कहते थे, क्रिकेट महंगा गेम है.. इसने परम्परागत खेलों की लील लिया.. इसको कोई भविष्य नहीं है, आज उनको भी क्रिकेट के रंग में रंगा देखता हूं तो हंसी आती है। माना क्रिकेट में प्रतिस्पर्धा बेहद कड़ी है। लेकिन मनोरंजन तो मनोरंजन है। भले ही कोई कपड़े की गेंद बनाकर कपड़े धोने की थापी का बल्ला कर खेले या लेदर गेंद से। बहरहाल, मैं तो जैसा कि बता ही चुका हूं, समय मिलता है तो क्रिकेट खेलने से खुद को रोक नहीं पाता..। अपने बच्चों के साथ भी..। हार पर आंसू बहाने की आदत पर तो किसी हद तक काबू पा लिया लेकिन खेलने पर शायद ही काबू पा सकूं... दिल तो बच्चा है जी..।

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