Friday, March 29, 2013

बिल, बयान और बवाल-5


बस यूं ही

बचपन से लेकर जवानी की दहलीज पर कदम रखने तक अपुन ने आंखों
को  केन्द्र मानकर लिखे गए बहुत से गीतों को बार-बार सुना है। क्यों एवं कैसे सुना इसमें आप दिमाग मत लगाना। अपुन को भारतीय संगीत से प्रेम है और सभी तरह के गीत सुने हुए हैं बस। फिल्म देखने का शौक तो बचपन में ही लग गया था, लिहाजा उन फिल्मों के गीत जुबान पर चढऩे लाजिमी थे। आलम यह था कि घर में नीम के पेड़ की सबसे ऊंची शाखा पर जाकर अपुन बैठ जाते और फिर जैसा भी बनता जोर-जोर से गाने लगते। उस वक्त जो भी गाना सुनते बस गुनगुनाने लगते। उम्र रही होगी यही कोई सात-आठ साल। एक दिन तो एक परिजन ने टोक ही दिया था। अपुन अपनी मस्ती में गाए जा रहे थे 'मोहब्बत बड़े काम की चीज है..' अब परिजन ने पलट के पूछ लिया बेटा यह मोहब्बत क्या होती है और यह किस तरह काम की चीज है। सच कह रहा हूं, यकीन कीजिए अपुन को अर्थ मालूम नहीं था, लिहाजा बगलें झांकने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। अब भी वह वाकया याद आता है तो सच में हंसी थमने का नाम नहीं लेती है। खैर, रेडियो तो घर में पैदा होने से पहले ही आ गया था लेकिन टेपरिकार्डर उस वक्त आया जब अपुन ने दसवीं पास की ही थी। बस ऑडियो कैसेट खरीदने का ऐसा चस्का लगा कि 1992 से लेकर 2000 के बीच में जो भी फिल्म प्रदर्शित होती अपुन कैसेट खरीद लाते। देखते-देखते में घर में साढ़े पांच सौ के करीब ऑडियो कैसेट एकत्रित हो गए। खूब गीत सुने। दिन भर यही एकसूत्री कार्यक्रम चलता और गीत सुनते-सुनते ही नींद आ जाती। पढ़ाई के दौरान भी गीत बजते रहते। शौक तो अब भी है लेकिन वक्त नहीं है। घर में अलमारी में रखे वो साढे पांच सौ कैसेट्स धूल फांक रहे हैं। वैसे जमाना हाइटेक हो गया आजकल मोबाइल जितना चाहो गीत डाउनलोड कर लो लेकिन अड़चन वही वक्त की आती है।
खैर, लम्बी चौड़ी भूमिका बांधने का आशय यही था कि गीत से अपुन को जबरदस्त लगाव है और कोई गीत किसी वजह से अप्रासंगिक हो जाए तो अपुन को नागवार गुजरता है। आंखों को लेकर काफी कुछ लिख चुका हूं फिर भी लगता है कुछ छूट रहा है। बस यही सोच कर आगे से आगे लिखता जा रहा हूं। बचपन में सुना यह गीत 'भूल-भुलैय्या सैंया अंखियां तेरी, रस्ता भूल गई मैं, ओ घर जाऊं कैसे...। ' क्या अब मौजूं रह पाएगा, क्योंकि अब रास्ता भूलने का झंझट ही नहीं रहेगा। ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। चूंकि आंखों को आईना भी कहा गया है। याद आया इस पर एक गीत है 'ये आंखें हैं आईना मेरी जिंदगी का...।' आईने में जिस तरह अक्स उभरते रहते हैं वैसे ही अपनी स्मृतियों में जिंदा आंखों पर लिखें गीत एक-एक कर याद आ रहे हैं। 'तू कुछ कहे ना मैं कुछ कहूं आ बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं..।' कितने प्यारे बोल हैं इस गीत के। ना कुछ कहने की ना सुनने की बस और बस केवल देखने की हसरत है। लेकिन यह हसरत अब घूरने या ताकने की श्रेणी में गिनी जाएगी। 'तुझे देखा तो यह जाना सनम...।' की जुर्रत कौन करेगा। वैसे अपुन ने तो शुरू से ही स्पष्ट कर दिया था कि आंखें हैं तो सब कुछ हैं। अपुन अपने बयान पर अभी कायम हैं लेकिन लोग फिर जाते हैं। अब देखो ना जो सलमान खान दबंग फिल्म में 'मेरे दिल का ले गए चैन, तेरे मस्त-मस्त दो चैन...' गाते हुए नजर आते हैं लेकिन अपनी दूसरी फिल्म दबंग-2 में नैनों को दगाबाज कहने से नहीं चूकते। 'कल मिले थे, भूल गए आज रे, तोरे नैना बड़े दगाबाज रे...।' अब नैन मस्त से दगाबाज कैसे एवं क्यों बने यह तो सलमान ही बता सकते हैं। इधर अजय देवगन भी तो आंखों को तीर कमान समझ बैठे। तभी तो बोल बच्चन में 'चलाओ ना नैणों से बाण रे..। ' गाते हुए नजर आते हैं।
वैसे गीतकारों की नजरों में आंखें कभी सागर, तो कभी मयखाना है। मयखाने से एक गीत का अंतरा याद आ गया। 'इक सिर्फ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं... कहने को तो दुनिया में मयखाने हजारों हैं...। ' अब पीने-पिलाने की बात कहां संभव होगी। वैसे हकीकत की शराब महंगी बहुत हो गई है। ऐसे में लोगों के पास यह विकल्प था लेकिन अब तो यह भी जाता रहेगा। 'छलके तेरी आंखों से शराब और ज्यादा...।' तथा 'आंखों में मस्ती शराब की..।' अब गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। ना ही आंखों से शराब छलकेगी और ना ही आंखों में शराब की मस्ती दिखाई देगी। किसी 'पियक्कड़ ' ने पीने की भूल की तो अंजाम के लिए भी तैयार रहे। कहने वालों ने तो यहां तक कह दिया कि 'ये हल्का-हल्का सुरुर है, सब तेरी नजर का कसूर, मुझे एक शराबी बना दिया रे मुझे जाम लबों से पिला दिया...।' लेकिन अब सुरुर पैदान करने के लिए दूसरा ठिकाना तलाशना ही बेहतर होगा।
बहरहाल, अभी तक तो आखें में सपने भी सजते रहे हैं और ख्वाब भी महकते रहे हैं। उदाहरण के लिए 'आंखों में हमने आपके सपने सजाए हैं..' , 'आपकी आंखों में कुछ महके हुए से ख्वाब हैं..।' तथा 'हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू...।' को सुना जा सकता है। कल्पना की ऐसी उड़ान क्या अब संभव है। जब देखना ही प्रतिबंधित हो जाएगा तब न सपने सजेंगे ना ही ख्वाब महकेंगे और ना ही महकती खुशबू का एहसास होगा। किसी ने गुस्ताखीवश या भूल से पूछ लिया कि 'आंखों में क्या जी..।' तो पलटवार करते हुए जवाब दिया जाएगा 'आंखों में कयामत के बादल..।' आंखों में कयामत के बादल साक्षात नजर आएंगे तो कोई आ बैल मुझे मार की कहावत क्यों चरितार्थ करेगा। इतना ही नहीं अब तो कोई यह कहकर कि 'तेरी आंख का जो इशारा ना होता.. तो बिस्मिल कभी दिल हमारा ना होता..। ' की दलील भी तो नहीं दे सकता...। क्योंकि आंखें, आंखों को देखेंगी ही नहीं तो बिस्मिल (घायल/ जख्मी) भला कहां से होंगी।                                                                                                                                                                                                                                    .... क्रमश:

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