Saturday, June 30, 2018

इक बंजारा गाए-35

 विफलता का ठीकरा
दस दिन का किसानों का आंदोलन खत्म तो हो गया है, लेकिन कई तरह की चर्चाओं को जन्म दे गया। वैसे तो आंदोलन के तौर-तरीकों से भी लग रहा था कि यह बिना किसी कार्ययोजना व नेतृत्व के हो रहा है। तभी तो आंदोलन के नाम पर कहीं पर समाज कंटक भी सक्रिय हुए। आमजन को बेवजह परेशान किया गया, जबरन तलाशी तक ली गई। इतना ही नहीं अपनों को उपकृत करने के चक्कर में आंदोलन करने वालों में फूट भी पड़ी। किसी ने अपने हाथ वापस खींचे तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला। नौबत यहां तक आ गई कि बीच में ही आंदोलन की रणनीति भी बदली गई। शहर के रास्तों पर नाके लगाकर बैठे लोग गांवों में लौट गए। खैर, अब आंदोलन को लेकर टीका-टिप्पणियों का दौर चल रहा है। अक्सर ऐसा होता आया है कि बात जब बिगड़ती है तो दोषी कई हो जाते हैं।
कमाल की कार्रवाई
श्रीगंगानगर के आबकारी विभाग की तो बात ही निराली है। यह कब क्या कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता है। मतलब जहां जब विभाग की जरूरत महसूस होती है उस समय वहां तो कोई दिखाई नहीं देता। और जहां उम्मीद ही नहीं वहां कार्रवाई हो जाती है। कभी हथकढ़ के खिलाफ कार्रवाई तो कभी देसी के खिलाफ। इतना ही नहीं, अब तो आबकारी विभाग ने देसी शराब कम मूल्य पर बेचने के एक कथित हैरतअंगेज मामले को उजागर किया है। यह कार्रवाई बड़ी हास्यास्पद नजर आती है। शहर में वैसे ही देसी शराब पीने वाले कम हैं, फिर भी उसकी कम कीमत आबकारी अधिकारियों को दिखाई दे गई, लेकिन दिन-रात बेधड़क सरेआम अधिक मूल्य पर बिकने वाली अंग्रेजी शराब को लेकर आबकारी विभाग चुप्पी साधे हुए हैं। कमबख्त टारगेट के चक्कर में आबकारी विभाग के नीचे से लेकर तक के अधिकारियों ने मुंह व आंख दोनों पर ही पट्टी बांध रखी है।
तलाशी अभियान
जॉर्डन हत्याकांड के बाद हरकत में आई खाकी अब वाहनों की तलाशी से आगे बढ़ रही है। अब वह शहर के होस्टल व पीजी भी खंगाल रही है। जिस तरह से लोगों को कथित धमकियां मिल रही हैं, उससे ऐसा कदम उठाना लाजिमी भी है। पुलिस को इस तरह के अभियान चलाने ही चाहिए। हैरत की बात तो यह है कि इस तरह के अभियान नियमित नहीं चलते हैं। जब कोई बड़ा हादसा होता है, तब खाकी जरूर सक्रिय होती है। कहने की आवश्यकता नहंीं है कि शहर में कितने पीजी व होस्टल संचालित हो रहे हैं? उनमें किस तरह के लोग रहते हैं तथा उनमें किस तरह की गतिविधियां संचालित होती हैं। हैरानगी तो यह भी है कि यह खाकी से छिपा भी नहीं है। और अगर यह सब छिपा है तो फिर यह खाकी की चूक ही है। यह रोजमर्रा के काम हैं, नियमित होते तो शायद इस तरह होस्टल जाकर खाक नहीं छाननी पड़ती। पर क्या हो, क्योंकि कुआं अक्सर आग लगने पर ही खोदा जाता है।
बयानवीर नेता
नेताओं में वैसे तो कई तरह की वैरायटी होती हैं। बयान देना भी नेताओं की एक कला है। श्रीगंगानगर शहर के दो मुखिया भी बयान देने में कम नहंी हैं। मानसून सिर पर है, लेकिन पानी निकासी के कोई पुख्ता प्रबंध नहीं हैं। कल परसों की मामूली बरसात ने ही नानी याद दिला दी। अगर बरसात जोरदार हो गई तो फिर भगवान ही मालिक है। परिषद वाले नेताजी कुछ न कर पाने का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ते हैं जबकि यूआईटी वाले नेताजी सब कुछ सही बताते हैं। दोनों नेताओं की बातों का यह विरोधाभास ही अपने आप में काफी कुछ कह जाता है। पानी शहर से निकलने के रास्ते ही सही नहीं हैं तो वह गड्ढों तक पहुंचेगा कैसे? वैसे परिषद वाले नेताजी को शहर की फिक्र है भी नहीं। पिछले साल भी उन्होंने कहा था बरसात आई तो सेना को बुला लेंगे। मतलब खुद कुछ नहीं करना। बुराई का भांडा सरकार के सिर फोड़ते चलो, खुद को सेफ रखो।
दिल का दर्द
शहर में दो जनों को कथित धमकी मिलने के बाद शहर के लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल श्रीगंगानगर आए आईजी से मिलने पहुंचा, लेकिन वहां प्रतिनिधिमंडल के लोग आपस में ही उलझ गए। दरअसल, उलझने वालों के दिलों में कई दिनों से दर्द था। यह तो संयोग रहा कि सभी का आमना-सामना नहीं हुआ। धमकी के बाद पुलिस की भूमिका कैसी रही, इसको लेकर पुलिस को गरियाया जाए या उसकी पीठ थपथपाई जाए, इस पर प्रतिनिधिमंडल के लोग एकमत नहीं थे। बात इतना बढ़ी कि तनातनी तक पहुंच गई। आखिरकार पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। वैसे दिलों में खटास मुक्तिधाम में बच्चों के गायब के मामला सामने के बाद ही शुरू हो गई थी। अप्रेल में बंद के बाद के दौरान कथित टिप्पणी से खटास और बढ़ी। आग में घी का काम सोशल मीडिया पर वायरल की जाने वाली पोस्टों ने किया। आखिरकार दर्द कभी तो हकीकत के धरातल पर बाहर भी आना ही था, सो आ गया।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 14 जून 18 को प्रकाशित

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