Saturday, June 30, 2018

बेचारा एडमिन

बस यूं ही
शादी में बाराती पता नहीं कब भन्ना जाएं। उनका दिमाग कब गरम हो जाए कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। वैसे कहा भी गया है कि बारात में गया शख्स खुद को राजा-महाराजा से कम नहीं समझता। घर पर भले ही चूहे कुलांचें मारें लेकिन बारात में उसके जलवे तौबा रे तौबा। दिमाग के घोड़े दौड़ाएं तो हो सकता है आप भी कभी इस तरह के अनुभव से गुजरे हों। लड़की का बाप हो या वधु पक्ष के लोग, बेचारे हाथ जोड़े मान-मनुहार करते दिखाई देते हैं। इतना कुछ होने के बाद भी बारातियों के नखरे कम होने का नाम लेते। यह करो, वो करो। यह क्यों नहीं, वो क्यों नहीं फलां-फलां। खैर, लड़की का बाप या वधु पक्ष के लोग सबको संतुष्ट करने के चक्कर में याचक की भूमिका निभाते हैं। कहीं-कहीं पर मामला उलट हो जाता है और बात छित्तर परेड तक चली जाती है लेकिन अक्सर बेटी का बाप लाचार व मजबूर की भूमिका में ही दिखाई देता है। गोया उसने बेटी पैदा कर कोई गुनाह कर दिया हो। सिर पर किसी का लाखो टन एहसान ले लिया हो।
लड़की के बाप का जिक्र इसीलिए किया क्योंकि कुछ इसी तरह की भूमिका आजकल सोशल मीडिया पर ग्रुप बनाने वाले एडिमन की होती है। इन ग्रुपों की कहानी भी बड़ी रोचक है। इससे भी कहीं चुनौतीपूर्ण काम है ग्रुप में जोड़े गए सदस्यों को एकजुट रखना तथा उनको ग्रुप में बनाए रखना है। कोई खबरों का ग्रुप तो कोई दोस्तों का ग्रुप। कोई लेखकों का ग्रुप तो कोई चिकित्सकों का ग्रुप। कोई बुद्धिमानों का ग्रुप तो कोई नेताओं का ग्रुप। इसी तर्ज पर आजकल साहित्यकारों के ग्रुप भी बनने लगे हैं। खैर, ग्रुप कितने भी हो लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि साहित्यकारों के ग्रुप का एडमिन होना एक तरह से कांटों भरा ताज पहनना ही होता है। जितने संकट और चुनौती इस ग्रुप में आते हैं, शायद ही किसी दूसरे में आते होंगे। कहा भी गया है कि जिस तरह तराजू में मेंढकों को तौलना आसान नहीं होता, उसी प्रकार बुद्धिमानों को भी एक मंच पर लंबे समय तक साथ नहीं रखा जा सकता है। और बात जब साहित्यकारों की हो तो मामला और भी पेचीदा हो जाता है। अहम और वहम मानव स्वभाव हैं लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसका बोलबाला कुछ ज्यादा ही होता है। वैसे साहित्यकार स्वभाव से भावुक होता है, लिहाजा दिल पर जल्दी ले लेता है। साहित्यकार/ कवि को ज्ञानी, मानी, अभिमानी और स्वाभिमानी भी कह दिया जाता है। इस तरह के लोगों को एक मंच पर एकजुट रखना कोई दिलेरी व हिम्मत वाला ही काम होता है। हां, दिलेरी व धैर्य की परीक्षा तब शुरू होती हैं जब सब अलग-अलग सुरो में अपनी-अपनी ढपली बजाने लगते हैं। सच में इस तरह के अनियंत्रित झुंड को कंट्रोल करना व उनको शांत करना किसी जंग जीतने से कम नहीं होता। किसी बात या विषय पर मतैक्य होने पर एडमिन की भूमिका बिलकुल लड़की के बाप की तरह होती है। बिलकुल सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे की तर्ज पर। मतलब सब कुछ शांति से निबट जाए ताकि कोई किन्तु परन्तु भी न हो। बड़ा टेढा काम है जी ग्रुप चलाना...इसलिए साहित्यकारों के ग्रुप बनाने व उनका संचालन करने वालों को मेरा लाखों सलाम।

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