Saturday, June 2, 2018

आ बैल मुझे मार

बस यूं ही
मौजूदा समय में राजनीति पर कुछ लिखना एक तरह से आफत मोल लेने के समान ही है। बिलकुल आ बैल मुझे मार टाइप। फिर भी मैं लिखने से बाज नहीं आता। लेखन मेरा पेशा है और शगल भी। और विषय जब मेरा पसंदीदा हो तो लिखना बनता भी है। जी हां राजनीति मेरा पंसदीदा क्षेत्र है। छात्र जीवन में अध्ययन के दौरान विषय भी रहा है। वैसे राजनीति में रुचि में बचपन से ही रखने लगा था। इसकी बड़ी वजह घर में शुरू से ही शैक्षणिक वातावरण मिलना भी रहा। घर में प्रतियोगी परीक्षाओं की पत्र पत्रिकाओं के साथ-साथ सममामयिक विषयों की न जाने कितने की किताबें व मैगजीन भाईसाहब खरीद कर लाते। यह क्रम नियमित था। छोटा था तब मैगजीन के चित्र ही देखता था लेकिन धीरे-धीरे समझ विकसित हुई तो पढऩे की आदत भी हो गई। गांव के स्कूल की छोटी सी लाइब्रेरी में तब जितनी भी पुस्तकें थी वह लगभग सारी मैंने पढ़ी। इंडिया टुडे का पहला अंक जब घर में आया तब मैं आठ साल का था। हल्का सा याद है पहले अंक के कवर पेज पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का फोटो लगा था। इसके बाद आउटलुक मैगजीन भी आने लगी है। मैगजीन का सिलसिला पिछले कुछ समय से थमा है वरना लगातार जारी ही था। सफर या फुरसत के दौरान तो अब भी प्राथमिकताओं मंे यह मैगजीन ही शामिल है। खैर इंडिया टुडे के जितने भी अंक घर में आए वो आज भी सुरक्षित रखे हैं। 1984 से 2005 तक के तो लगभग सारे अंक। भले ही कोई माने या न माने लेकिन इन पत्र पत्रिकाओं में सर्वाधिक रूचिकर व चटखारे की खबरें राजनीति से संबंधित ही होती हैं। खैर अब स्वयं पत्रकारिता में हूं तो राजनीतिक समझ और परिपक्व होनी ही थी। खैर, इन दिनों परिदृश्य बहुत विकट बना है। विशेषकर सोशल मीडिया पर तो पत्रकारों के समक्ष सब के सब दुनाली ताने रखते हैं। एकदम पूर्वाग्रह से भरे हुए। कर्नाटक चुनाव व अब उपचुनाव पर जब मैंने प्रतिक्रियारूवरूप अपने फेसबुक पेज (जो कि मेरा व्यक्तिगत है आधिकारिक या ऑफिशियल नहीं है) पर कुछ लिखा तो पता नहीं क्या क्या उपमाएं दे दी गई। किसी ने लंपटगिरी कहा तो किसी ने कांग्रेसी होने का ठपा लगा दिया। किसी ने पत्रकारिता से संबंधित सवाल पूछा तो किसी ने पत्रकारिता पर ही सवाल उठा दिया। इतना ही नहीं पत्रकारिता की एबीसी या ककहरा तक न जानने वाले भी पत्रकारिता धर्म निभाने की सलाह देते नजर आए। इन तमाम परिस्थितियों को एक तरफ रखकर भी बात करें तो पत्रकारिता पेशा एक दोधारी तलवार है। वह किसी सतारूढ दल के पक्ष में कभी कोई बात करता है या लिखता है तो विपक्षी लोग उसको चाटुकार, चम्मचा, प्रवक्ता, पीआरओ जैसे नामों से पुकारते हैं। अगर सरकार की जन विरोधियों नीतियों की आलोचना करें, विसंगतियों को उजागर करे तो उस पर सरकार विरोधी होने का ठपा लगा दिया जाता है। स्वतंत्रता सेनानी व पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी कहा करते थे, पत्रकार को हमेशा सत्ता के प्रतिपक्ष में होना चाहिए। विद्यार्थी जी के कहने का यह मतलब नहीं है कि पत्रकार विकल्प बने या विपक्ष की भूमिका निभाए। बस भूल यहीं से शुरू हो जाती है। कमजोर विपक्ष अक्सर मुखर पत्रकारों पर निर्भर हो जाता है। पत्रकार का काम है हर काम को शंका के दृष्टिकोण से देखना उसको क्रॉस चैक करवाकर सही करवाना। खैर, इस तरह के बातें भी मौजूदा दौर में गौण सी हो गई हैं। अब तो एक सूत्री एजेंडा यही है कि हां में हां मिलाते चलो। और जिसने हां में हां न मिलाने की हिमाकत की उसको इस फिर कई तरह के उपनाम मिलने लगते हैं। एक और बड़ी गलफहमी जो मौजूदा दौर में कमोबेश हर दूसरा या तीसरा आदमी पाल बैठा है वह यह कि पत्रकार अगर सत्तारुढ दल की नीतियों की आलोचना करता है तो वह विपक्षी दल का एजेंट मान लिया जाता है। उसको जबरन विपक्षी दल का आदमी करार दे दिया जाता है। यह भूलते हुए कि अरे भाई सत्ता वाले विपक्ष में थे तो तब भी तो पत्रकार वैसा ही कर रहा था जैसा अब कर रहा है। एेसा तो है नहीं कि पहली बार ही कोई नई सरकार बनी है और पत्रकार भी पहली बार ही लिख रहे हैं।
बहरहाल, इस तरह का माहौल बेहद चिंताजनक है। और इसकी सबसे बड़ी चिंता तो फेक, अविश्वसनीय व अप्रमाणिक बातोंं को बार-बार वायरल कर झूठ को सच बनाने के जो कुत्सित प्रयास हो रहे हैं उसकी है । कई चैनल को तो इन वायरलों संदेशों को सही व गलत साबित करने का जोरदार काम भी हाथ लग गया है। मेरा मानना है सोशल मीडिया पर फेक/ आपत्तिजनक/ देश व धर्म विरोधी सामग्री वायरल करने वालों को तत्काल ब्लॉक करने या दंडित करने का प्रावधान हो तो माहौल में शांति होगी। इन सब के बावजूद मेरा पथ सच का है। न्याय का है। आदर्श का है। सिद्धांत का है। निजी जीवन में भी और पत्रकारिता के जीवन में भी। इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों व झंझावतों के बावजूद यह कलम इसी तरह निर्भीकता के साथ चलती रहेगी भले ही कितने ही बैल मारने को आएं। क्योंकि मैं लिखता रहूंगा और बार-बार यही ललकारता रहंूगा कि आ बैल मुझे मार- आ बैल मुझे मार..। मैं पत्रकार हूं और पत्रकार ही रहूंगा। किसी का पिट्ठू, चम्मचा, पीआरओ या दल विशेष का एजेंट कतई नहीं।

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