Wednesday, May 20, 2015

कभी 'घर' की सुध भी लिया करो

लेख
हम बीकानेर के लोग सचमुच सोचते बहुत हैं। सपने भी खूब देखते हैं, वो भी बड़े-बड़े। कल्पनाओं के सागर में भी अक्सर डूबते उतराते रहते हैं। हम देश-दुनिया के हर छोटे-बड़े घटनाक्रमों पर बड़ी बारीकी से नजर रखते हैं। किसी भी तरह की होनी-अनहोनी पर चिंता जताते हैं। प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। आंधी-बारिश भले ही टल जाए लेकिन हमारी प्रतिक्रिया सदाबहार है, वह आती जरूर है। यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। बुजुर्गों से लेकर युवा पीढ़ी तक इस 'प्रतिक्रिया जताने की परम्परा' में शामिल हैं। इस काम में आलस्य तो बिलकुल भी नहीं है। वैसे प्रतिक्रिया के इस खेल में 'नाम' की फ्रिक छिपी है। 'नाम' की चाह ही ऐसी है। बस किसी भी तरह 'नाम' चर्चा में रहे, हम इसी प्रयास में रहते हैं, तभी तो इस 'नाम' नामक खेल में शहर की चिंता और चर्चा गौण हो गई। जनप्रतिनिधियों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। शहर में पक्ष-विपक्ष का तो पता ही नहीं है। दोनों में 'गठजोड़' है या 'लापता' हो गए भगवान ही जाने। बस उनका 'नाम' जुबान पर रहे, इसलिए किसी कार्यक्रम में फीता काटने या कहीं भाषण देते वक्त कभी-कभार इनके दर्शन लाभ जरूर हो जाते हैं, वरना इनके 'अज्ञातवास' के 'तिलिस्म' को कोई नहीं जानता। कहने का मतलब यही है कि जैसी 'प्रजा' है वैसे ही 'राजा' हो गए हैं। बिलकुल यथा राजा तथा प्रजा की तर्ज पर।
खैर, हमारी एक खासियत यह भी है कि हम इतिहास पर गर्व करते हैं, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को लेकर इतराते हैं, लेकिन वर्तमान को लेकर चिंता नहीं करते। आतिथ्य सत्कार तो हमारी रग-रग में है। पुलिस या प्रशासन का जिले में कोई भी नया अधिकारी आता है तो हम उसके कामकाज का ठीक से आकलन करने से पहले उससे नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास करते हैं। स्वागत सत्कार व अभिनंदन करते हैं। खुशी-खुशी साथ में फोटो खिंचवाते हैं। दरअसल, अतिथि देवो भव: की परम्परा का निर्वहन करने के मूल में भी 'नाम' ही छिपा है। कौन किस अधिकारी के नजदीक है या कौन किसका खास है, इस बात का संदेश शहर में प्रसारित करने की कवायद शुरू हो जाती है। केवल 'नाम' के लिए हम में से कई तो दौड़-धूप में दिन रात एक कर देते हैं। इतना कुछ करने के बाद शहर को यहां भी नजरअंदाज किया जाता है। इधर जिले में आने वाले नए अधिकारी भी हमारे इस 'आतिथ्य सत्कार' और 'सादगी' के पीछे छिपे मर्म को तत्काल भांप लेते हैं। तभी तो वे गाहे-बगाहे हमारा 'बेजा फायदा' उठाने से भी नहीं चूकते। और हम 'नाम' बड़ा करने के चक्कर में हंसते-हंसते उनका 'सहयोग' करने को तत्पर रहते हैं।
बहरहाल, शहर में 'नाम' का बोलबाला इस कदर हावी है कि छोटी से लेकर बड़ी समस्याएं तक मुंह बाए खड़ी हैं लेकिन उन पर कोई चर्चा तक करने को तैयार नहीं है। समूचा शहर 'बीमार' और 'बदहाल' है। सड़क, बिजली, पानी, प्रकाश, सीवरेज, सफाई, यातायात, ड्रेनेज, शिक्षा, चिकित्सा आदि में कोई भी तो ऐसा नहीं है, जिस पर संतोष किया जा सके या गर्व के साथ किसी को बताया जा सके। कई जगह तो हालात गांवों से भी बदतर है। बाहर से आने वाले लोग हमारे शहर को 'एशिया के सबसे बड़े गांव' की संज्ञा देते हैं और हम यह नामकरण सुनकर बजाय चिंता करने के हंसते हैं। दरअसल, हमने कभी खुद से सवाल किया ही नहीं कि शहर के यह हालात क्यों हैं? इस दशा के लिए कौन जिम्मेदार है?। वैसे, जिस दिन हम खुद की या 'नाम' की चिंता छोड़कर इन सवालों के जवाब खोजने शुरू करेंगे, यकीनन शहर की दशा सुधरते देर नहीं लगेगी। बीकानेर 'भगवान भरोसे' नहीं रहेगा, बल्कि विकास की नई इबारत लिखेगा। आइए, हम सब 'नाम' की इस संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर शहर हित में सोचें और उसके विकास का संकल्प लें। ऐसे पुनीत काम के लिए स्वाधीनता दिवस से अच्छा अवसर और हो भी क्या सकता है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 15 अगस्त 14  के अंक में प्रकाशित  लेख...

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