Wednesday, May 20, 2015

मंत्रीजी का बयान

 पांचवीं कहानी

दो दिन पहले की ही तो बात है। हर तरफ मुर्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे थे। पुतले फूंके जा रहे थे। बयान की चौतरफा निंदा हो रही थी। मंत्रीजी ने मीडिया को प्रेसटीट्यूट कह दिया था। बयान के विरोध में तथा मीडिया के समर्थन में खड़े होने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। सोशल मीडिया पर भी अच्छी-खासी बहस छिड़ी हुई थी। लोग अपने-अपने हिसाब से दो खेमों में बंटे थे। सबके अपने अपने तर्क थे। पार्टी ने मंत्री जी का व्यक्तिगत मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया। आखिरकार मंत्रीजी ने संशोधित बयान दिया और माफी मांगी। खैर, बात आई गई हो गई।
इधर शहर में एक बार फिर खेल प्रतियोगिताओं की भरमार हो गई थी। गली-मोहल्लों में भी खेल की धूम थी। लेकिन अखबारों में इनको खास तवज्जो नहीं मिल पा रही थी। आखिरकार हमेशा की तरह एक मैत्री मैच की परिकल्पना की गई। सब कुछ तय हुआ। अक्सर देर से उठने तथा कार्यक्रमों में देरी से पहुंचने वाले पत्रकार साथी आज निर्धारित समय पर मुस्तैद नजर आए। आयोजकों की तरफ से सभी को डे्रेस, कैप एवं चश्मा दे दिया गया। एक दो साथी ने आनाकानी की तो तर्क दिया गया कि यह खेल का नियम है, यह सब पहनना ही पड़ेगा। खैर, मैच खत्म हुआ तो आयोजकों ने कहा कि यह सब अब आपका ही है, यादगार के लिए। दरअसल, यह कोई पहला मौका नहीं था। आयोजकों ने इस बहाने हर बार की तरह मीडिया में अपनी घुसपैठ कर ली। और मुझे रह-रहकर मंत्रीजी का बयान याद आ रहा था।

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