Wednesday, May 20, 2015

मेरी बूढी मां...

 स्मृति शेष

दादी मां (बूढी मां) चली गईं। हमेशा के लिए हमको छोड़कर। विश्वास ही नहीं होता कि वो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। उनका आशीर्वाद, उनका स्नेह, उनका मार्गदर्शन, उनका सम्बल जिंदगी का मार्ग प्रशस्त करता रहेगा लेकिन उनकी रिक्तता भर पाना संभव नहीं। विराट व्यक्तित्व की धनी बूढ़ी मां पर लिखने के लिए काफी कुछ है। फिलहाल बड़े भाईसाहब केशरसिंह की कविता से शुरुआत, जो उन्होंने दादीजी के निधन के उपरान्त लिखी। यह कविता मैं जब-जब भी पढ़ता हूं तब तब आंखों से आंसुओं की धारा बह निकलती है। दादीमां खमा कंवर को श्रद्धांजलि स्वरूप लिखी यह कविता बड़े ही निराश एवं बुझे हुए मन से आप से साझा कर रहा हूं....।
विश्वास नहीं होता, तुम नहीं हो,
घर की दीवारें दालान, दरवाजे,
तुम्हारे होने के अहसास से भरे-भरे।
बरगदी व्यक्तित्व समेटे था शीत,
व धीर की असीम गहराई।
बचपन की चादर लपेटे घूमते थे,
तुम्हारे आसपास।
कभी न सोचा था, तुम जाओगी।
सब कुछ कितना भरा-भरा था,
तुम्हारे होने से।
इतराते फिरते थे, वात्सल्य की
सम्पूर्णता लिए।
तुम्हार प्यार, दुलार संगत सब कुछ
ईश्वर की नियामत जैसा।
दूर तलक नहीं दिखता तुम जैसा।
औरत होने की मायने तुमने सिखाए।
दहलीज से अटूट लगाव।
निंदा, चुगलियां, कानाफूसियों से परहेज।
घर की आवश्यकताओं को हर पल भरने की चाह।
लालच व याचना की विरोधी,
सफाई व स्वच्छता के मूल्यों की शिक्षिका।
नख से शिख तक ताजगी से भरी, तुम्हारी देह जैसे
साक्षात देवी का रूप।
जीने का भाव जगाती।
कितने जी पाते हैं सौ बरस।
जिजीविषा हमेशा थामे रही तुम्हे,
सादा व सरल किन्तु आसमान सा,
ऊंचा निर्मल जीवन।
सादगी व सपाट गंवई भोजन तुम्हारी पसंद।
राबड़ी की चुस्कियों में भरा था तुम्हारी तन्दुरस्ती
का संदेश।
आखिरी सांस तक चमकती,
दंत पंक्ति व नेत्र ज्योति ने कितने
चिकित्सीय सूत्रों को चुनौती दी।
तनाव व तृष्णा से मुक्त जीवन।
भरपूर नींद का आनंद।
बतियाते-बतियाते भी सोने का अद्भुत गुण।
घर बसाने व चलाने का प्रबंधन।
थोड़े साधनों से बड़े काम का साहस।
भाग्य से भरी।
भरे पूरे परिवार की स्वामिनी।
राम जैसा पुत्र और सीता सी समर्पित बहू।
तुम्हारे निर्णयों में सहमति देते
आदेशों के प्रहरी।
हमेशा तुम्हारी सेवा में खड़े।
जीवन की अंतिम सांस तक तुम्हारा हाथ थामे,
टुकर-टुकर देखते रहे तुम्हे जाते।
निशब्द बिगड़ते चेहरे व आंसुओं का समन्दर
कह रहा था अंतर की पीड़ा।
तुम्हारी वंशरुपी बेल के
पल्लव कुसुम शाखाएं।
तुम्हारे कुल रत्न।
तुम्हारे सपनों के बुनकर।
हर कदम हर निर्णय में तुम्हे 'लूंगा'
याद आती थी।
सुन रही हो उसकी सिसकियां,
थामे नहीं थम रही।
बोलकर न सही इशारो में कही।
'सत्तू' में कितना विश्वास तलाशती थी।
तत्परता निर्णयों व उत्तदायित्व के रूप में।
'महेन्द्र' तो तुम्हारा श्रवण निकला।
जिम्मे को अपनत्व से निभाने का जज्बा।
'पुष्पा' में उदारता व विश्वास ढूंढती थी तो,
'नीरू' तरकीब व तहजीब की प्रतीक।
'निर्मल' शांत स्थिर सेवा भाव की प्रतिनिधि।
मां तुम कितनी धनवान थी।
रिश्तों की उच्चता,
प्रीत का परिवेश व सरोकारों के शिखर का,
मातृत्व भाव लिए।
तुम्हारे ख्यालों में 'केसरिया' भाव।
वात्सल्य व चाह की पराकाष्टा में डूबा तुम्हारा समर्पण।
धड़कन-धड़कन में दर्द को अनुभूत करती।
पत्थर हो गया था मैं तुम्हे जाते देखते हुए।
मन शीशे की मानिन्द टूट गया।
जिन्दगी रीती हो गई।
प्यार का सोता सूख गया।
कौन भरेगा इस रिक्तता को मेरी बूढी मां।
कभी मिल पाओगी किसी रूप में ?
मेरी चाह कभी तो किसी रूप में पूरी होगी,
मुझे यकीन है।
खमा घणी, खमा घणी।
मेरी प्यारी-प्यारी बूढ़ी मां।
सांस-सांस में बसने वाली मेरी
बूढी मां के लिए.........................।

No comments:

Post a Comment