Tuesday, November 14, 2017

साथ, समझ, स्नेह व सहयोग के तेरह साल...


पति-पत्नी का रिश्ता परस्पर साथ, सहयोग, समझ, स्नेह व विश्वास की बुनियाद पर टिका होता है। इन पायों में अगर प्रगाढ़ता है तो तय है कि आपके जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ रही है लेकिन इनमें से एक भी पाया कमजोर है तो यकीनन गाड़ी चल तो रही है लेकिन हिचकोले खाते हुए। मैं इस मामले में बेहद खुशकिस्मत हूं और परवरदिगार का शुक्रगुजार भी। 4 नवंबर 2003 को मेरी सगाई हुई थी। सगाई के करीब पन्द्रह दिन बाद किसी एसटीडी बूथ से कॉल आई। सामने किसी महिला की आवाज सुनकर मैं एकदम से सकपका गया। श्रीगंगानगर की ही बात है। डेस्क के बाकी साथियों के बीच बैठा था, लिहाजा हां-हूं के अलावा कुछ नहीं कह पाया। दरअसल, यह फोन मंगेतर निर्मल का था। कुल मिलाकर यह समझ लीजिए कि फोन पर पहली बार बातचीत का अनुभव ज्यादा अच्छा नहीं रहा। धड़कन तेज हो गई थी और मुंह सूख चुका था। यह हालात कमोबेश दोनों तरफ थीं। खैर, इसके बाद नए साल 2004 के उपलक्ष्य में करीब दस पेज का पत्र लिखा था। (जो आज भी सहेज कर रखा है।) यह पत्र लिखने में मेरे को चार-पांच दिन इसलिए लगे थे क्योंकि निर्मल के स्वभाव, पसंद आदि के बारे में मेरे को जानकारी नहीं थी। बस खुद पर यकीन था कि पत्र रूपी यह तोहफा पसंद आ जाएगा और हुआ भी एेसा ही। इसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। इस बीच मेरा स्थानांतरण श्रीगंगानगर से अलवर हो गया था। बातचीत की झिझक अब खत्म हो चुकी थी। इस काम में प्रोत्साहित करने में तत्कालीन संपादक आशीष जी व्यास का बहुत योगदान रहा। फिर तो खूब बातें होती। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके वाले अंदाज में। आखिरकार 22 जून 2004 को हम दोनों परिणय सूत्र में बंध गए।
हां यह सही है कि फोन के माध्यम से हमने एक दूसरे को काफी समझा लेकिन स्नेह और समझ साथ-साथ रहने से बढ़ते गए। हमने एक दूसरे को बखूबी जाना व पहचाना। समय बीतता गया और आज तेरह साल हो गए। हर मोड़ पर निर्मल ने मेरा साथ दिया। विपरीत व तनाव की परिस्थितियों में भी उसने मुझे मोटीवेट किया। मुझे संबल दिया। मेरी थोड़ी बहुत जो भी सफलता है उसमें अकेली मेरी योग्यता व मेहनत ही नहीं बल्कि निर्मल का समर्पण भी है। आज मां और पापा हमारे साथ हैं तो इसके पीछे भी बड़ा योगदान निर्मल का ही है। मेरा फैसला तो केवल उनको साथ रखने का ही था। बाकी उनकी सेवा सुश्रुषा व देखभाल का जिम्मा निर्मल के हाथ ही है। मां के बीमार होने के बाद निर्मल की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। वह मां को नहलाने, खाना खिलाने से लेकर तमाम काम करती है। यह निर्मल के संस्कार ही हैं कि वह यह सब कर पा रही है। उसकी दिनचर्या तो अब दिनचर्या ही नहीं रह गई है। न सोने का वक्त है न खाने का। देर रात मेरे के लिए उठाना, अलसुबह बच्चों के लिए जागना व दिनभर घर के काम और मां-पापा सेवा। सही में खुद के लिए उसके पास समय ही कहां है? सच कहता हूं कई बार वह थकान व दर्द से कराहती रहती है, लेकिन मुंह से कभी उफ तक नहीं करती। सचमुच मैं खुशनसीब हूं। बेहद खुशनसीब। हमारा यह साथ, स्नेह व विश्वास की डोर में इसी तरह बंधा रहे।

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