Tuesday, November 14, 2017

गांव जाना सार्थक

गांव जाना तभी सार्थक होता है जब वहां कोई मिले। कई बार तो एेसा भी हुआ है कि सिर्फ दीवारों से बातें कर लौट आया। कोई मिलता ही नहीं पूरा गांव जो सूना हो चला है। लेकिन मुद्दतों के बाद इस बार एेसा मौका आया कि गांव जाना सार्थक हो गया। संयोग से गांव में इस बार वे तमाम मित्र मिले, जिनके साथ बचपन बीता। जिनके साथ अतीत की गहरी यादें जुड़ी हैं। जिनके साथ बैठकर पाठशाला में ककहरा सीखा। जिनके साथ मौज मस्ती की तो झगड़े भी भी खूब किए। जिनके साथ खेलकूद कर बड़े हुए। वाकई हम सब बड़े हो गए। यह मित्र कोई एक दो नहीं बल्कि दर्जनभर से ज्यादा थे। बचपन की शरारतें याद कर-करके हम खूब हंसे। इतना हंसे कि पेट में बल पड़ गए तो आंखों से आंसू निकल आए। यह खुशी के आंसू थे। हम सब एक दूसरे से मिलकर इतने प्रसन्न थे कि वर्तमान भूल गए। अरे तू तो यह करता था। हां यार तू भी तो एेसा था। देख तू कितना तेज दौड़ता था। अरे तू तो जोहड़ में खूब नहाता था। न जाने कितने ही तरह के संस्मरण फिर ताजा हो उठे। सब की आंखों के सामने अतीत के सुनहरे दिन किसी चलचित्र की मानिंद घूमने लगे।
आखिर कितने दिन बाद यह मौका आया। बचपन के सब साथी अब 35 से 40 के बीच हो चले हैं लेकिन हमारी मुलाकात एवं वार्तालाप अगर कोई देखता तो यकीनन यही कहता कि बच्चों के बाप हो फिर भी बच्चों जैसे हरकतें कर रहे हो। सचमुच हम सब अतीत की यादों में इतना गहरा खोए थे कि कुछ पल तो यह अहसास भी नहीं था कि हम कितना चीख रहे हैं, गा रहे हैं। वाकई बच्चे बन गए थे हम सब।

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