Tuesday, November 14, 2017

मन की बात....7


सिर्फ साहित्य में ही मन पर नहीं लिखा गया बल्कि भारतीय संगीत में भी मन पर कई कालजयी गीत लिखे गए हैं लेकिन यहां भी मन जरूरत के हिसाब से बदलता रहा है। किसी गीत में मन मंदिर बन जाता है तो किसी में मायावी। यह सब कल्पना का खेल है। जिस तरह मन स्थिर नहीं है तो कल्पना भला कैसे स्थिर होगी। यह तो मनोस्थिति पर निर्भर है। अक्सर जैसी मनोस्थिति होती है वैसा ही व्यवहार होता है। फिल्मों में भी गीत कथानक या सिचुएशन के हिसाब से ही लिखे जाते हैं। तभी तो मन पापी भी हो जाता है। गंगा-जमुना फिल्म के इस गीत में नायिका गाती है 'तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे..' लेकिन यही पापी मन दर्पण भी बन जाता है। फिल्म काजल का यह गीत ' तोरा मन दर्पण कहलाए.. देखिए । इस गीत का एक-एक अंतरा भी मन को समर्पित है और मन को जिस तरह परिभाषित किया गया है, उससे मन को समझने में आसानी भी होती है। गौर फरमाइए, इसमें मन से बड़ा किसी को नहीं बताया गया है। 'मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय, मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय, इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाए, तोरा मन दर्पण कहलाए.' अगले अंतरे में मन के नैन ही हजार बता दिए गए हैं। 'सुख की कलियां, दुख के कांटे, मन सबका आधार, मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हज़ार, जग से चाहे भाग लो कोई, मन से भाग न पाए, तोरा मन दर्पण कहलाए.. ' और इस अंतिम अंतरे में मन के धन को अनमोल बताया गया है। 'तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल, तन के कारण मन के धन को मत माटी में रौंद, मन की क़दर भुलाने वाला वीराँ जनम गवाए, तोरा मन दर्पण कहलाए..'

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