Tuesday, November 14, 2017

मन की बात....3


विडम्बना देखिए मन को जीतने से जीत हो जाती है और मन के हारने से हार। गोया सारा खेल ही मन पर टिका है। कहावत भी है ना कि मन चंगा तो कठौती में गंगा अर्थात मन की शुद्धता ही वास्तविक शुद्धता है। मन के साथ लड्डुओं को भी जोड़ा जाता है। एक तरफ कहा जाता है कि मन के लड्डुओं से भूख नहीं मिटती लेकिन साथ ही यह भी कहा जाता है कि मन के लड्डू फीके क्योंï। दरअसल, मन के साथ विरोधाभास शुरू से ही जुड़ा है। वैसे मन के बारे में कबीर जी ने बहुत अच्छा लिखा है। मन पर उनके दोहे यथार्थ से रुबरू करवाते हैं। गौर फरमाएं, 'मन दाता मन लालची मन राजा मन रंक, जो यह मन गुरु सो मिले तो गुरु मिले निसंक।' अर्थात यह मन ही शुद्धि-अशुद्धि भेद से दाता-लालची कंजूस-उदार बनाता है। यदि मन निकष्पट होकर गुरु से मिले तो निसंदेह उसे गुरु पद प्राप्त हो जाए। कबीर जी का एक और दोहा है 'मन के मारे बन गए, बन तजि बस्ती माहिं, कहे कबीर क्या कीजिए, यह मन ठहरे नाहिं।' अर्थात मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गए, वहां जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आ गए। कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं होएगा, तब तक तुम क्या आत्म-कल्याण करोगे।

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