Tuesday, November 14, 2017

अंधेर नगरी!

 टिप्पणी 
श्री गंगानगर में शनिवार को केवल 34.6 एमएम बरसात ने शहर को बदहाल कर दिया। अधिकतर छोटे-बड़े रास्ते नालों व नहरों में तब्दील हो गए। कई जगह तो आवागमन तक बाधित हो गया। शहर भर इस तरह की तस्वीर को किसी फिल्म का एक छोटे से ट्रेलर की तरह माना जा सकता है, क्योंकि अभी मानसून की बारिश बाकी है। तब तस्वीर और भी भयावह और डरावनी होगी। दरअसल, शहर के लोग तो इस तरह के संकट को सहने को मजबूर हैं। लेकिन जो इस संकट को जान कर भी अनजान बने हैं या हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, वे शहर के जिम्मेदार हैं।
मतलब जनप्रतिनिधि और अधिकारी। क्योंकि एेसा हर साल होता है। बरसात भी हर साल होती है और शहर थम सा जाता है। रास्तों में पानी इतना भर जाता है कि दुपहिया तो क्या चौपहिया वाहन तक नहीं निकल सकता है। हताश, उदास लोग मदद के लिए चिल्लाते हैं तो फिर जिम्मेदार हरकत में आते हैं। राहत के नाम पर हाथ-पैर मारते हैं। वैकल्पिक जुगाड़ करते हैं। कहीं मोटर से पानी निकासी करवाते हैं तो कहीं किसी नाले में कट लगाते हैं। हर साल इसी तरह के फौरी उपाय किए जाते हैं। शनिवार की बरसात के बाद भी इसी तरह के उपाय किए गए। खैर, इन सब के बीच सवाल यह उठता है कि यह वैकल्पिक उपाय कारगर कितने हैं। सवाल यह भी है कि वातानूकुलित कक्षों में बैठकर शहर के विकास का खाका खींचने वाले, विकास की गंगा बहाने के नारे देने वाले तथा सब्जबाग व सुनहरे सपने दिखाने वाले जिम्मेदारों के पास इस समस्या का स्थायी समाधान क्यों नहीं हैं? पानी निकासी की दूरगामी योजना क्यों नहीं है? और फिर समाधान या दूरगामी योजना ही नहीं है तो कैसे मिलेगी इस संकट मुक्ति? वक्त बहुत गुजर चुका है, लेकिन शहर अब इस समस्या का समाधान चाहता है। स्थायी व ठोस समाधान। वैकल्पिक उपायों के सहारे आखिर कब तक श्रीगंगानगर के लोग काम चलाते रहेंगे। कब तक शहर बरसात के मौसम में अग्नि परीक्षा देता रहेगा। बहरहाल इस 'अंधेरी नगरी' को कुशल प्रशासक व दूरदर्शी सोच वाले जनप्रतिनिधियों की दरकार है। और हां संभव भी तभी होगा जब जनता जागे। भेड़चाल को छोड़े। मजबूरी व लाचारी का लबादा उतारे तथा सहने की प्रवृत्ति से उबरे व जिम्मेदारों से सवाल-जवाब करे।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 18 जून 17 के अंक में प्रकाशित

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