Tuesday, November 14, 2017

बस यादें बाकी-2

स्मृति शेष- विनोद खन्ना
इस 'हिमालय पुत्र' को खून शब्द से इतना लगाव था कि कभी इसका 'गरम खून' 'वक्त का बादशाह' बना तो कभी 'मुकदर का बादशाह' कहलाया। कभी इस 'उस्ताद' ने 'खून का बदला खून' से लिया तो कभी इसने 'खून का कर्ज' उतारने का ' निश्चिय' भी किया। 'खून की पुकार' पर इस 'सेवक' ने 'इंसानियत के देवता' के रूप में भी 'पहचान' बनाई। इस 'फरेबी' 'चौकीदार' ने 'प्यार का रोग' भी पाला तो 'प्यार का रिश्ता' भी 'परम्परा' की तरह शिद्दत के साथ से निभाया। इस 'युवराज' की 'ताकत' की 'हलचल' इस कदर थी कि 'जाने-अनजाने' में भी लोग इसे 'सबका साथी' मानते रहे। 'मेरा गांव मेरा देश' के फलसफे में विश्वास करने वाले इस 'राजपूत' की 'प्रेम कहानी' का 'दीवानापन' कभी किसी 'परिचय' का मोहताज नहीं रहा। एक वक्त एेसा भी आया भी आया जब इस 'आखिरी डाकू' की 'परछाइयां' लोगों को डराने लगी लेकिन 'खुदा की कसम' इस 'जालिम' की 'अनोखी अदा' हमेशा 'नहले पर दहला' ही साबित हुई। ' मैमसाहब' का यह 'मस्ताना', ' गुड्डी' का यह 'प्रीतम' वैसे तो 'कच्चे धागे' की डोर में बंध जाता था लेकिन वक्त के हाथों मजबूर हो यह ' हत्यारा' बना तो कभी 'कुंवारा बाप' बनकर ' गद्दार' भी कहलाया। 'चोर-सिपाही' खेलने वाला यह 'एक बेचारा' ' द बर्निंग ट्रेन' में सवार हुआ तो 'हंगामा' हो गया। ' नतीजा' यह निकला कि इसने 'मुकदमा' भी झेला। 'सरकारी मेहमान' बन इसने ' दो यार' तो 'पांच दुश्मन; भी पैदा कर लिए। फिर भी ' दौलत के दुश्मन' ने कभी 'जमीर' का 'बंटवारा' नहीं किया। संभवत: यह सब इसकी 'परवरिश' का नतीजा था।
क्रमश:

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