Friday, December 29, 2017

विचारों का द्वंद्व

बस यूं ही
जीना तो है उसी का जिसने यह राज जाना, है काम आदमी का औरों के काम आना.. अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी एे दिल जमाने के लिए...परहित सरस धर्म नहीं भाई...पुरुषार्थ को बयां करते इन दो गीतों के बोल व तुलसीदासजी का यह दोहा रह रह कर मेरे मन को कचोट रहा है। पुरुषार्थ, परोपकार, मदद, सहायता, हमदर्दी, रहनुमा, दरियादिल जैसे शब्द भी इन दिनों बेमानी नजर आते हैं। पता नहीं क्यों आजकल सोचता हूं तो फिर सोचता ही चला जाता हूं। बहुत देर तक और बहुत गहरे तक। इस उम्मीद के साथ कि शायद इस सोचने में कोई राह निकल जाए लेकिन सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगता है। हां इस सोच व निराशा के द्वंद्व के बीच पिसता जरूर रहता हूं। घुटता रहता हूं। अपनी इस मनोदशा पर कूढता भी हूं। यह एेसी मनोदशा है जिसे कोई अपना या पराया समझ भी नहीं सकता। यह एेसी मनोदशा है जो खुद ब खुद बयां भी नहीं होती। और बयां हो भी हो गई तो हासिल क्या? दुख, तकलीफ, संकट, विपदा जैसे शब्द सुनने में बड़ी पीड़ा देते हैं। अक्सर इनको साझा करने की बातें भी होती है ताकि पीड़ा बंट जाए और महसूस भी कम हो लेकिन हकीकत इससे अलग होती है। इस पीड़ा का कोई साझीदार नहीं होता। एक अकेले को ही भोगनी होती है। बिलकुल चुपचाप। खामोशी के साथ। क्योंकि मदद पर मजबूरी भारी पड़ जाती है। यह मजबूरी ही है जो हकीकत पर पर्दा डाल देती है। अक्ल पर ताला लगा देती है।

No comments:

Post a Comment