Sunday, December 31, 2017

मिलीभगत या मजबूरी?

टिप्पणी
शहर फिर बदरंग हो चला है। चुनावी साल होने के कारण जगह-जगह पोस्टरों व बैनरों से अटा पड़ा है। बधाई देने वालों में जबरस्त होड़ मची है। कई तो नए साल, लोहड़ी, संक्राति व गणतंत्र दिवस की बधाई भी एक साथ ही दे रहे हैं ताकि पोस्टर/ बैनर लंबे समय तक लगे रहे। पूर्व मंत्री के जन्मदिन की बधाई लिखे होर्डिंग्स से तो पूरा शहर ही पाट दिया गया है। शायद ही कोई चौक या खंभा छोड़ा होगा, जिस पर बधाई संदेश न टंगे हों। समूचे शहर को बेरहमी के साथ बदरंग कर दिया गया है। चौक -चौराहों पर टंगने की इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। यहां तक कि कई संगठन भी प्रचार की इस सस्ती भूख के आगे नतमस्तक दिखाई देते हैं। अन्य जगह तो परिषद प्रशासन अपनी साइट का हवाला भी दे देता है, लेकिन शहर के प्रमुख चौकों के बीचो-बीच बांस की बल्लियां लगाकर बधाई संदेश टांगना तो सरासर 'दादागिरी' है, मनमर्जी है। चाहे चहल चौक हो या सुखाडिय़ा सर्किल सब के सब बदरंग हैं। शहर के चौक-चौराहों की सुंदरता को बदहाल करने में नियम कायदों को सरेआम ताक पर रखा जाता है। यह खेल हर साल बदस्तूर चलता है। बड़ी बात तो यह है कि शहर को बदरंग होने से बचाने वालों की कोई हलचल दिखाई नहीं देती। इस खेल में जरूर या तो कोई मिलीभगत है या मजबूरी? वरना इस तरह हिमाकत कौन कर सकता है? कार्रवाई के नाम पर नगर परिषद के हाथ बंधे हुए हैं, क्यों बंधे हैं? क्या कारण हैं? यह भी अपने आप में राज हैं। परिषद की भूमिका लगातार उदासीन ही रही है। शर्मनाक बात तो यह है कि जनप्रतिनिधि ही जब इस तरह कानून का मखौल उड़ा रहे हैं तो फिर ऐरे- गैरे, नत्थू खैरों व छुटभैयों का हौसला तो बढ़ेगा ही। शहर में जिस तरह के हालात हैं, उससे लगता नहीं हैं कि शहर के बदरंग करने वालों में किसी तरह का भय है। जिस अंदाज में पोस्टर/ बैनर लग रहे हैं, इससे यह भी लगने लगा है कि शहर में व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाले हालत हो गए हैं। यही कारण था कि पिछले दिनों शहर के एक जागरूक अधिवक्ता ने शहर को बदरंग करने वालों व जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। इसके बावजूद बदलाव या कोई हलचल दिखाई नहीं दी। ऐसी परिस्थितियों में अब अधिवक्ता की तर्ज जैसा ही करने की जरूरत है। यह खेल बहुत हो चुका है। अब यह शहर मुकम्मल कार्रवाई चाहता है। नासूर बनती यह समस्या अब स्थायी हल चाहती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 30 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

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