Tuesday, May 8, 2018

इक बंजारा गाए-29


खूबसूरत बहाना
नेता और अभिनेता दोनों में एक बात समान होती है। दोनों अभिनय बड़ी खूबसूरती से करते हैं। ऐसा अभिनय कि लोग हकीकत समझ बैठते हैं, तभी तो इनकी बातों में जल्दी आ जाते हैं, प्रभावित हो जाते हैं। अब देखिए न अपने परिषद वाले नेताजी वैसे तो चर्चा में बन रहते हैं। एक संभवत: प्रदेश के इकलौते नेता हैं, जो सर्वदलीय हैं। सभी दलों के समर्थन इनकी कुर्सी टिकी हुई है। नगर परिषद का विपक्ष भी कहा जाए तो कोइ अतिश्योक्ति नहीं होगी। अब गोल बाजार के एक होटल को सीज करने की कार्रवाई को भी बड़ा ही खूबसूरत बहाना बनाकर टाल दिया गया है। दलील दी गई कि शादी समारोहों का मौसम है। होटल पर कार्रवाई हुई तो जनता को परेशानी होगी। एक होटल से जनता को कैसी व कितनी परेशानी होगी यह बात लोगों के हजम नहीं हो रही। नेताजी की हमदर्दी होटल मालिक के प्रति है या जनता के यह राज भी शहरवासी जानने लगे हैं। बीच रास्ते में बस खराब हो जाए या कोई ट्रेन रद्द हो जाए तो क्या यात्री रुक जाएंगे? जिनको जाना है वो किसी दूसरे साधन से निकल लेंगे। पर नेताजी को अब कौन समझाए। सारे ही एक जैसे हैं।
खामोशी तो टूटी
दारू वाला महकमा लंबे समय से लंबी तान के सोया था। शराब ठेकेदार व उनके कारिंदे दोनों हाथों से सुराप्रेमियों को लुटने में लगे रहे। न दिन देख रहे थे न रात। ऊपर से धमकी-चमकी अलग। अब जो तलबगार है, उसको तो सब सहन करना ही पड़ता है। यहां तक कि खाकी के हाथ भी मंथली लेते रंगे गए। विभाग की सुस्ती व खाकी की शह के कारण शराब ठेकेदारों की मनमर्जी चरम पर पहुंच गई। मुंहमांगे दाम और ठेके खुलने व बंद होने का कोई समय ही नहीं। शिकायत करने वालों कहीं पर भी कर ले, कोई इन शराब ठेकेदारों का बाल बांका करने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता। नफरी और स्टाफ की कमी का बहाना बनाकर अब तक कार्रवाई करने से बचते रहे आबकारी विभाग का अचानक हरकत में आना किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि विभाग को आनन-फानन में बोगस ग्राहक बनाने पड़े। विभाग ठेकेदारों की मनमर्जी से क्या वाकिफ नहीं हैं। जरूर कहीं न कहीं कोई शेर को सवा शेर मिला है। जिसके निर्देशों पर आबकारी विभाग ने यह हलचल दिखाई बाकी हकीकत तो जगजाहिर है ही।
न खाते बने न निगलते
गले की हड्डी बने जाने संबंधी मुहावरे से कौन परिचित नहीं हैं। गले में हड्डी अटक जाए तो न तो ठीक से खाते बने और न ही निगलते। शिव चौक से जिला अस्पताल बन रहा इंटरलॉकिंग का काम यूआईटी के लिए गले की हड्डी बन चुका है। पता नहीं ऐसी क्या जल्दबाजी थी या मजबूरी थी जिसके चलते यूआईटी ने इस टुकड़े का चयन किया। काम शुरू होने से पहले ही विरोध होना था। नजीता यह निकला कि इस काम की हवा तभी निकल गई। आवाश्सन की रेवडिय़ां बांटने के बाद काम फिर शुरू हुआ। काम की रफ्तार भले ही धीमी रहे हो लेकिन डिवाइडर बनाने तथा मिट्टी खुदाई का काम युद्धस्तर पर हुआ। पर अचानक वन विभाग ने ऐसा पेच फंसाया कि यूआईटी के पास अब बगलें झांकने और विकल्प खोजने के लिए अलावा कोई चारा नहीं हैं। वैसे भी लोगों को फायदा तो इस इंटरलॉकिंग बनने के बाद भी नहीं होने वाला। बहरहाल, उड़ती धूल व खोदी गई सड़कें परेशानी का सबब बन रहे हैं। इंटरलॉकिंग के बहाने नाम चमकाने वाले नेताजी भी मौजूदा हालात के आगे पस्त नजर आते हैं।
गिफ्ट का चक्कर
शादी समारोहों व मांगलिक कार्यों का सिलसिला वैसे तो साल भर चलता ही रहा है। इनके साथ ही उपहार आदि देने का काम भी होता है। लेकिन मौसम चुनावी हो तो उपहारों की संख्या बढ़ जाती है। ऐसे उपहार बिन बुलाए मेहमान देकर जाते हैं। सब जगह खुद नहीं पहुंच पाते लिहाजा समर्थकों के माध्यम से भी यह काम करवाया जाता है। हां उपहार पर संबंधित मेहमान की नाम की स्लिप जरूर चस्पा होती है। चुनावी फसल तैयार करने का वैसे तो यह तरीका काफी पुराना है लेकिन समय के साथ अब यह हाइटेक हो गया है। पहले तो शादी समाराहों आदि में लिफाफे से काम चल जाया करता था लेकिन अब लिफाफे की जगह महंगा गिफ्ट आ गया है। यह गिफ्ट मतदाताओं का मानस बदलने में कितने मददगार होंगे यह तो समय ही बताएगा लेकिन शादी वाले परिवारों में बिन बुलाए मेहमानों के गिफ्ट ने उनको सोचने पर मजबूर कर दिया है। धर्मसंकट तो वहां पर है जहां दावेदार कई हैं और सभी के गिफ्ट के पहुंच जाते हैं। धर्मसंकट यह है कि कल वह मतदाता की भूमिका में होगा तो कौनसे गिफ्ट का बदला ईमानदारी से चुका पाएगा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 3 मई 18 के अंक में प्रकाशित 

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