Tuesday, May 8, 2018

प्रताडऩा की पराकाष्ठा


टिप्पणी
यह हकीकत वाकई हैरान करने वाली है। मौके के हैरतअंगेज हालात तो रोंगटे तक खड़े कर देते हैं। यह बेरहमी की भयावह तस्वीर है। मासूमों की मजदूरी की यह तस्वीर डराती है, चौंकाती है, विचलित करती है और शर्मसार भी। यह अपनों की उपेक्षा तो है ही, अभावों की वजह भी लगती है। पापी पेट के लिए परिजनों ने कलेजे पर पत्थर रख मासूमों पर जिम्मेदारियों का बोझ तो लादा ही, कारखाने के कारिंदों ने इन कोमल कलियों से कठोर काम करवा कर इनके सपनों का कत्ल करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह यातनाओं के दुर्लभ उदाहरणों में से एक है। यह हैवानियत की हद है तो प्रताडऩा की पराकाष्ठा भी है। इसे अमानवीयता की अति भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। श्रीगंगानगर की एक चूड़ा फैक्ट्री से गुरुवार दोपहर को मुक्त करवाए गए 23 बाल श्रमिकों की दर्दनाक दशा देखकर हर कोई स्तब्ध है। सात से चौदह साल की उम्र तो पढऩे तथा खेलने खाने की उम्र होती है। दुनियादारी से दूर मौजमस्ती करने की उम्र। कमाई या पेट की चिंता से बेफिक्र रहने की उम्र। सपने देखने की उम्र। पंख फैलाने की उम्र।
अफसोसजनक बात यह है कि बच्चों के बचपन को बिसरा कर इनके अरमानों का गला घोंट दिया गया। उनके सपनों को तोड़ दिया गया। हमदर्दी, इंसानियत, संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण यहां गौण हो गए। दया की जगह एक तरह की 'दरिदंगी' ने ले ली। पत्थरदिल कारिंदों की यह करतूत अक्षम्य है। मासूमों पर मुसीबतों का पहाड़ लगातार टूटता रहा, लेकिन कारिंदों ने कभी भी रहमदिली नहीं दिखाई। इन कारिंदों ने कभी प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने या समझने की जहमत तक नहीं उठाई।
बहरहाल, मासूमों को कारखाने रूपी काल कोठरी में कैद करके रखना भी अपने में आप बड़ा सवाल है। बाल श्रमिकों को बंधक बनाना यह साबित करता है कि उनसे यह काम जबरन करवाया जा रहा था। खैर, मासूमों से की गई कठोर यातनाओं की भरपाई तभी संभव है जब इस समूचे प्रकरण की ईमानदार जांच हो और दोषियों को सजा मिले, ताकि इस तरह की विचलित करने वाली व हृदय विदारक घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 4 मई 18 के अंक में प्रकाशित 

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